सामंती जमाने में भक्ति-आंदोलन: अवसान और अर्थवत्ता / राजीव रंजन गिरि
भक्ति-काल भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परिघटना है। इसकी व्याप्ति किसी एक भाषा या इस मुल्क के किसी एक हिस्से तक महदूद नहीं है। इसके अखिल भारतीय दायरे को ध्यान में रखें तो करीब-करीब एक हजार साल के बीच पसरे इस काल-खंड की निजी विशिष्टताएँ, इसे एक आंदोलन का दर्जा प्रदान करती हैं। इतने लंबे समय तक फैले इस दौर का असर न सिर्फ साहित्य बल्कि कला-संस्कृति के हरेक अनुशासन पर दिखता है। अलग-अलग अनुशासन के महत्वपूर्ण अध्येताओं ने इसकी पुष्टि भी की है। साहित्य के संदर्भ में देखने पर, यह पता चलता है कि इतने लंबे काल-खंड और तमाम मातृभाषाओं/लोकभाषाओं के इस साहित्य में एक स्तर पर, समानताएँ हैं, जो इन्हें एक-दूसरे से, ऊपरी तौर पर जोड़ती हैं। दूसरे स्तर पर, इन सबकी खालिस निजी खासियत भी मौजूद है। यही निजी महत्वपूर्ण खासियत, इन्हें एक-दूसरे से विशिष्ट भी बनाती है। यह विशिष्टता हर स्तर पर नोट की जा सकती है; भाषा, क्षेत्र, रचनाकार, वर्ग, लिंग और संप्रदाय आदि हरेक स्तर पर।
इस समीक्षात्मक निबंध में उत्तर भारत, या आज जिसे हिंदी-उर्दूभाषी इलाका के नाम से जाना जाता है, के भक्ति आंदोलन के अवसान और उसकी वर्तमान अर्थवत्ता पर संक्षेप में विचार किया गया है। इस निबंध में, भक्ति-आंदोलन के दौरान, इस इलाके की कला-संस्कृति के विभिन्न अनुशासनों, मसलन-नृत्यकला, संगीत, ललितकला, वास्तुकला इत्यादि, को केंद्र में रखकर हुए अध्ययन की पड़ताल नहीं की गई है। यहाँ सिर्फ साहित्य की बाबत हुए अध्ययन की पड़ताल की गई है। भक्ति-आंदोलन के दौरान रचित साहित्य की व्याप्ति, प्रकृति और चरित्र का अध्ययन-विश्लेषण कई महत्वपूर्ण इतिहासकारों, साहित्य के इतिहासकारों व आलोचकों ने किया है। इन विद्वानों ने अपने-अपने नजरिए के मुताबिक इसे व्याख्यायित किया है और इसे समझने के लिए सूत्र भी प्रस्तावित किया है। इन विद्वानों द्वारा किए गए विचारोत्तेजक अध्ययन-विश्लेषण पर विचार करने से पहले, इस सवाल पर गौर करना जरूरी है कि इसके 'अवसान' का आशय क्या है? क्या भक्ति-काल के बाद भक्ति-साहित्य की रचना बंद हो गई?
साहित्य या किसी भी कला-रूप के संबंध में, यह बात कभी भी पूरी तौर पर लागू नहीं होती है कि किसी खास तरह की रचना एकाएक रुक जाए। कला-संसार के भीतर की परिघटना के मद्देनजर, यह कहना बेहतर होगा कि सांस्कृतिक इतिहास के एक खास क्षण में, उस तरह की रचना का जो महत्व होता है, बाद में नहीं रह पाता। भक्ति-काल के संदर्भ में इसे कहें तो कहना होगा कि इस काल-खंड के बाद भले ही भक्ति-साहित्य की रचना होती रही हो, (सच है कि न सिर्फ भक्ति-काल के बाद आए कथित 'रीतिकाल' बल्कि तब से लेकर आज तक उस तरह की रचना करने वाले मिल जाएँगे) लेकिन मनुष्य की चेतना के निर्माण में उसका वह महत्व नहीं रह जाता, जो तब था। इस बात को 'मुख्यधारा' और 'हाशिए पर चली गई प्रवृत्ति' के खाँचे से, एक सीमा तक ही समझा जा सकता है। इसके साथ यह भी दिखता है कि इतिहास के खास क्षण में उस रचनाशीलता ने जो भूमिका अदा की थी, बाद में वह एक खास तरह की 'रीति' बनकर, उससे विपरीत भूमिका में, रूपांतरित हो जाती है। मसलन, भक्ति-आंदोलन के दौरान के साहित्य - थोड़ी देर के लिए अंदरुनी तनाव और परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों को भुलाकर, सरलीकरण कर कहें तो - ने जो भूमिका निभाई थी, या मनुष्य की चेतना का निर्माण किया था; उससे मौजूदा दौर में भक्ति की मानसिकता वाली रचनाओं का क्या लेना-देना है। भक्ति की रचना के स्तर पर समानता के अलावा, ये दोनों, एक-दूसरे के विपरीत सिरे पर खड़ी हैं। मनुष्य की चेतना, सांस्कृतिक और साहित्य के इतिहास ने जिस गति और आकार को प्राप्त किया है, आज की भक्ति कविता, उसके विरोध में खड़ी दिखेगी। जिन विशिष्टताओं ने भक्ति कालीन भक्ति-काव्य को आंदोलन का रूप प्रदान किया था, बाद के बदले आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे में, वह आंदोलन नहीं रहकर, धीरे-धीरे उसके विरोध में चला गया।
भक्ति-आंदोलन का उदय अपने वक्त के गहरे तनाव और संघर्ष का परिणाम था। उसका एक निश्चित सामाजिक आधार और भौतिक कारण था। जाहिर है, जैसा कि हर दौर के व्यापक सांस्कृतिक परिघटना में, ऊपरी स्तर पर एक समान प्रवृत्ति और समानता दिखती है, लेकिन ज्यों-ज्यों उसके भीतर जाने के लिए बारीक विश्लेषण किया जाता है, त्यों-त्यों परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ और अंतःसंघर्ष, अंतःसलिला की तरह बहती दिखने लगती है। लिहाजा, जब सिर्फ ऊपरी एकता पर ज्यादा बल देते हुए, उसे एकमात्र सच मानने की सिफारिश की जाती है तो आंतरिक अंतर्विरोधों के साथ-साथ, मौजूद वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों पर भी परदा पड़ जाता है; नतीजतन किसी भी सांस्कृतिक परिघटना या दौर का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हो पाता।
हिंदी के कई बड़े आलोचकों में भक्ति-काल की व्याख्या के साथ एक और समस्या दिखती है। यह समस्या है, किसी एक कवि के आधार पर बनी दृष्टि के प्रतिमान पर अन्य कवियों को देखने की प्रवृत्ति। दूसरे शब्दों में, तुलसीदास को केंद्र में रखकर विकसित आलोचना-प्रविधि कबीरदास, सूरदास, जायसी, मीराबाई आदि के साथ न्याय नहीं कर सकती। यह उसी तरह सच है, जैसे कबीरदास को केंद्र में रखकर बना काव्य-प्रतिमान तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास आदि के साथ न्याय नहीं कर पाएगा।
ऊपरी एकता पर ज्यादा जोर देनेवाली प्रवृत्ति एक तरफ अंतर्विरोधों को छिपाकर, तत्कालीन सत्ता-संरचना के भीतर मौजूद वर्चस्वमूलक शक्तियों पर, परदा डालने का काम करती है तो दूसरी तरफ एक कवि के आधार पर बनी आलोचना-दृष्टि, दूसरे रचनाकार की विशिष्टता को नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित करती है। इसी के साथ यह भी ध्यान देने लायक बात है कि यह न सिर्फ कबीर, तुलसी, सूर, जायसी, मीराबाई के बारे में सच है; कि एक के आधार पर निर्मित मूल्यांकन की कसौटी पर, दूसरे की निजी खूबियाँ नहीं दिखतीं; बल्कि एक ही रचनाकार की दो कृत्तियों के संबंध में भी यह बात लागू होती है। मसलन, तुलसीदास के 'रामचरितमानस' के आधार पर 'विनयपत्रिका' और 'कवितावली' का ठीक-ठीक और पूरा-पूरा मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उसी तरह, जायसी के 'पद्मावत' के आधार पर 'आखिरी कलाम' को संपूर्णता में नहीं समझा जा सकता। तुलसीदास और जायसी की रचना होने के बावजूद, इन रचनाओं की अपनी खूबियाँ, एक स्तर पर एक होने के साथ ही; दूसरे स्तर पर इन्हें अलग भी करती हैं। इसलिए, ऊपरी एकता के साथ-साथ, उस दौर के अंतर्विरोधों के द्वंद्वात्मक रिश्ते को समझे बिना, किसी भी परिघटना की ठीक तस्वीरें नहीं उभर सकती। प्रसंगवश, जिन विद्वानों ने भक्ति-आंदोलन के अंतर्विरोधों को समझने और विश्लेषित करने पर बल प्रदान किया है, उनके यहाँ इसके अवसान की भी एक व्याख्या मिलती है; अवसान को समझने-समझाने का प्रयास दिखता है।
डॉ. रामविलास शर्मा ने दरबार के बाहर और दरबार के भीतर रहनेवाले कवियों के आधार पर, मध्यकालीन कवियों को देखने-परखने की सिफारिश की है। इस आधार पर, वे कबीरदास और तुलसीदास की समानता को पहचानने पर बल देते हैं। डॉ. शर्मा कहते हैं - ''मेरा सवाल यह है कि अभिजात वर्गीय लेखक वह है जो दरबार में रहता है या जो दरबार के बाहर है? दरबार में हिंदी के कितने कवि हैं ये तो आप इतिहास में पढ़ सकते हैं - केशवदास से लेकर बिहारी, मतिराम तक। ये जो कवि हैं इनको कबीर के विरोध में क्यों नहीं खड़ा करते? ये सब तो छँटे-छँटाए दरबार के ही कवि हैं। यहाँ इनको अभिजात्य क्यों नहीं दिखता? और तुलसी में अभिजात्य क्यों दिखाई देता है, जबकि वे दरबार के कहीं आस-पास भी नहीं हैं। तुलसीदास को जो अभिजात्यवर्गीय कवि मानते हैं, वे प्रच्छन्न रूप से दरबार का समर्थन करते हैं। वे रीतिवाद का समर्थन करते हैं। इसीलिए वे कबीर के मुकाबले में बिहारी और मतिराम को कभी खड़ा नहीं करेंगे। वे मुख्य विरोध दिखाएँगे, उन कवियों का जो दरबार के बाहर हैं। जैसे कोई आज शहर के मजदूर और गाँव के किसान में विरोध दिखाए और कहे कि मजदूर तो क्रांतिकारी होता है, किसान कैसे क्रांतिकारी हो सकता है। आज केवल सर्वहारा वर्ग ही क्रांति करेगा। वही क्रांति करेगा, किसान क्रांति में भाग नहीं ले सकता। उसके, कारीगर बाप-दादे शहर के कारीगर थे। इसलिए शहर के कारीगर ही क्रांतिकारी थे। जो देहात में घूमनेवाला, संपत्तिहीन, किसान जीवन से जुड़ा हुआ कवि है, वह क्रांतिकारी हो नहीं सकता। दरबार के भीतर और दरबार के बाहर, यह मोटा भेद जब आप करेंगे, तब आप कबीर और तुलसीदास की समानता पहचानेंगे। जब आप कारीगर और किसान का भेद करेंगे, तब आप इनके भेद को भी पहचान लेंगे। लेकिन यह भेद गौण है। मुख्य बात यह है कि ये दोनों दरबार-विरोधी कवि हैं। और इनका आपस में भेद उतना नहीं है जितना देव, बिहारी, मतिराम की परंपरा से है। और देव, बिहारी, मतिराम की परंपरा इनसे अलग परंपरा इसलिए है कि वह दरबार की परंपरा है और ये लोग दरबार के बाहर के कवि हैं।''1
अपने इस विचार को और स्पष्ट करते हुए डॉ. शर्मा कहते हैं, ''एक सवाल यह कि दादू और रैदास क्या उसी तरह से जात-पाँत का खंडन करते हैं जैसे कबीर करते हैं? यह वो हजारी प्रसाद द्विवेदी कह गए हैं, ये लोग बहुत ही नरम बातें करते हैं। बहुत ही मीठा बोलते हैं। किसी को दुख नहीं पहुँचाना चाहते। कारीगर ये भी हैं। सब कारीगर एक तरह के नहीं होते। आपने एक कारीगर को पकड़ लिया। उसको दूसरे कारीगरों से अलग कर दिया। किसान जीवन से आपने उसको अलग कर दिया और अपनी एक झंडी लेकर खड़े हो गए। यह सांस्कृतिक इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है क्या? और व्यापक दृष्टि से देखिए तो तुलसीदास और सूरदास वैष्णव हैं। और कबीरदास भी वैष्णव हैं। उन्होंने लिखा हे कि वैष्णव तो सज्जन होते हैं और 'साखत' यानी 'शक्ति' दुर्जन हैं। ये शक्ति लोग शिवजी का नाम लेकर वैष्णवों को गाली देते थे, तुलसीदास शैवों और वैष्णवों को मिला रहे थे। अब कुछ आलोचक शैवों और वैष्णवों का झगड़ा नए सिरे से खड़ा कर रहे हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि शिव को राष्ट्रीय देवता होना चाहिए। मैंने इसके उत्तर में लिखा है कि उन्हें तो अंतरराष्ट्रीय देवता होना चाहिए, इसलिए कि संपत्तिहीन हैं। लेकिन क्या करें, शिव के उपासक जो हैं, वे जाति-प्रथा के समर्थक हैं। शिव के उपासक अगर जाति-प्रथा के समर्थक होंगे तो शैवों और वैष्णवों को मिलाने का जो प्रयत्न तुलसी ने किया था, उसको वे भूल जाएँगे। और कबीर वैष्णव हैं, इस बात को भूल जाएँगे। कबीर को क्रांतिकारी बताने वाले इस बात को नहीं कहते। इसलिए कि वैष्णव होने के नाते एक जगह कबीर और तुलसीदास के सामान्य गुण हैं, अहिंसावादी हैं। बलिप्रथा का विरोध करते हैं। कबीर का विश्लेषण करते हुए हम उनका वैष्णव पक्ष छोड़ देते हैं। उन्होंने शाक्तों का जो विरोध किया है, उसको हम छोड़ देते हैं। उन्होंने मुल्लाओं का जो विरोध किया है, उसको हम छोड़ देते हैं। उन्होंने जातिप्रथा का जो विरोध किया है उसको लेते हैं, यह बिल्कुल सही है। लेकिन उन्होंने जो रहस्यवाद लिखा, उसको हम छोड़ देते हैं। रहस्यवाद को अगर हम सही मानें तो हठयोग को जिस समय ग्रहण किया और फिर उसको त्याग दिया उसको हम छोड़ देते हैं। तो हठयोग रहस्यवाद एक तरह का है। और हठयोग से मुक्त रहस्यवाद दूसरे ढंग का है। यह भेद भी हम नहीं करते यानी खंडित सत्य लेकर हम कबीर की मूर्ति गढ़कर आपके सामने रखते हैं। इससे न कबीर समझ में आते हैं और न परंपरा समझ में आती है।''2
दरबार के भीतर और दरबार के बाहर के 'मोटा भेद' करने के साथ-साथ डॉ. शर्मा तुलसी को अभिजात्यवर्गीय मानने वाले सबको 'प्रच्छन्न रूप से दरबार का समर्थक' और 'रीतिवाद का समर्थक' घोषित कर देते हैं। इसके साथ ही कबीर और तुलसी के बीच के भेद को कारीगर और किसान का भेद मानते हैं। हालाँकि डॉ. शर्मा के मुताबिक यह 'गौण भेद' है। डॉ. शर्मा का यह भी मानना है कि कबीर ने मुल्लाओं का जो विरोध किया; शाक्तों का जो विरोध किया उसको हम छोड़ देते हैं। पता नहीं, कौन लोग ऐसा करते हैं? सच तो यह है कि चाहे मुल्लाओं का हो, पंडों का, शाक्तों का या किसी और का; कबीर की पहचान के साथ ही धर्म-सत्ता का विरोध जुड़ा हुआ है। डॉ. शर्मा कबीर और तुलसी के बीच के अंतर्विरोधों को दबाते हुए बिल्कुल भिन्न केशव, देव, बिहारी, मतिराम के साथ इनके भेद को देखने पर जोर देते हैं।
यह बिल्कुल ठीक है कि देव, बिहारी, मतिराम आदि कवियों से भक्ति आंदोलन के कवियों का बुनियादी फर्क है। बावजूद इसके कबीर और निर्गुण पंथ का प्रखर विरोध भक्तिकालीन तुलसीदास और सूरदास ने ही किया है; क्योंकि केशव, मतिराम, बिहारी आदि की चिंता वह थी ही नहीं, जो तुलसी और सूर की थी।
डॉ. रामविलास शर्मा कबीर-तुलसी को, सिर्फ दरबार के बाहर और वैष्णवता के पैमाने पर ही, एक नहीं मानते; अपितु वो इससे आगे बढ़कर, इनके साहित्य की सामाजिक विषय-वस्तु में भी समता देखते हैं। ''निर्गुण और सगुण परस्पर विरोधी नहीं हैं। एक ही सत्ता, व्यक्त और अव्यक्त दोनों में है। ...कबीर, जायसी, तुलसी की एक सामान्य दार्शनिक भूमि है। उसी के अनुरूप उनके साहित्य की सामाजिक विषय-वस्तु में बहुत बड़ी समानता है।''3 डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्ति आंदोलन में समानता देखते-परखते हुए इस कालखंड के समूचे साहित्य को 'संत साहित्य' की संज्ञा दी है। अगर थोड़ी देर के लिए, भक्तिकालीन कवियों में एक सामान्य दार्शनिक भूमि और उसी के अनुरूप उनके साहित्य की सामाजिक विषय-वस्तु में बहुत बड़ी समानता है, मान लिया जाए तो डॉ. रामविलास शर्मा का यह कहना कहाँ तक उचित है कि ''हमारे सामने कबीर एक निर्भीक और उद्दंड आलोचक के रूप में आते हैं।''4
सवाल उठता है कि इन सबकी, सामाजिक विषय-वस्तु में, बहुत बड़ी समानता भी क्या 'मोटा भेद' के आधार पर बताया गया है? अथवा इन सबकी 'सामाजिक विषय-वस्तु' के बीच बहुत बड़ी समानता है तो डॉ. रामविलास शर्मा को, इनमें से कबीर ही 'उद्दंड आलोचक' क्यों प्रतीत होते हैं? क्या यह कहना वाजिब नहीं है कि कबीर के साहित्य की सामाजिक विषय-वस्तु को भले डॉ. रामविलास शर्मा, जायसी, तुलसी के साथ बहुत बड़ी समानता के तौर पर देखने की सिफारिश करते हैं, लेकिन कबीर के लिए प्रयुक्त 'उद्दंड आलोचक' शब्द बताता है कि उस दौर में गहरा तनाव मौजूद था; वरन कबीर आलोचना ही क्यों करते और वह भी 'उद्दंड' बनकर।
तुलसीदास, सूरदास जैसे उस दौर के वैष्णव महाकवियों द्वारा कबीर और निर्गुण पंथ की तीखी भर्त्सना क्या बताती है?5 अगर कबीर और निर्गुण संतों की रचनाओं में अभिव्यक्त सामाजिक विषय-वस्तु के साथ, सगुण भक्तों का तीखा अंतर्विरोध मौजूद नहीं होता तो तुलसीदास और सूरदास, इसे चुनौती मानकर, उसके साथ मुखर जिरह और उसकी तीखी भर्त्सना ही क्यों करते? इसके साथ ही, आचार्य रामचंद्र शुक्ल कबीर और निर्गुण संतों को लोकविरोधी नहीं कहते और डॉ. शर्मा, कबीर को 'उद्दंड आलोचक' भी नहीं। ऐसे में, डॉ. नामवर सिंह द्वारा आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी की निर्गुण-सगुण और सूरदास संबंधी मान्यताओं की तुलना कर, यह अनुमान लगाना पूरा सच नहीं है कि ''तारतमिक दृष्टि से देखने पर यह बात छिपी नहीं रहती कि द्विवेदी जी की दृष्टि में निर्गुण भक्ति के कवियों के सामाजिक विचार अधिक प्रगतिशील थे। यह मत स्पष्टतः आचार्य शुक्ल की स्थापनाओं के विरुद्ध है, जिनके अनुसार निर्गुण भक्त लोक-विरोधी थे और सगुण भक्त लोकसंग्रही और उनमें भी सूरदास में केवल लोकरंजन का पक्ष ही आ सका। कहने की आवश्यकता नहीं कि शुक्ल जी के समर्थक बड़े-से-बड़े प्रगतिशील आलोचक के लिए भी शुक्ल जी की इन स्थापनाओं से पूरी तरह सहमत होना कठिन है।''6 क्या यह कहने की जरूरत है कि आचार्य शुक्ल की कबीर और निर्गुण धारा संबंधी स्थापनाओं से डॉ. रामविलास शर्मा सहमत हैं, बहुत दूर तक। आचार्य शुक्ल के लिए कबीर 'लोकविरोधी' हैं, तो डॉ. शर्मा के लिए 'उद्दंड आलोचक'। आखिरकार आचार्य शुक्ल के 'लोकधर्म' की ही तो प्रखर, तीक्ष्ण और मारक आलोचना कबीर कर रहे थे। नामवर सिंह को भले ही यह अनुमान हो कि शुक्ल जी के समर्थक, बड़े-से-बड़े प्रगतिशील आलोचकों को, शुक्ल जी के निर्गुण मत और कबीर संबंधी स्थापना से सहमत होना कठिन है।
आचार्य शुक्ल और डॉ. शर्मा की कबीर संबंधी मान्यताओं के बीच एक फर्क भी काबिलेगौर है। अंतर यह है कि आचार्य शुक्ल, निर्गुण और सगुण के भेद को, स्वीकार करते हैं और पूरी स्पष्टता के साथ निर्गुण मत की तीखी आलोचना करते हैं, साथ ही उसे लोक-विरोधी भी करार देते हैं। जबकि डॉ. रामविलास शर्मा इनके बीच के भेद को गौण और सामाजिक विषय-वस्तु में 'बहुत बड़ी समानता' को मानने के साथ, मुख्य अंतर्विरोध भक्ति और योगतंत्र के बीच स्थापित करते हुए भी, करीब-करीब वही बात कहते हैं, जिसे आचार्य शुक्ल ने कही थी। भले ही आचार्य शुक्ल और डॉ. शर्मा द्वारा कबीर के संदर्भ में प्रयुक्त शब्दावली में मामूली फर्क दिखे, लेकिन दोनों के आशय, समान हैं।7
गौरतलब है कि जब तक भक्ति-आंदोलन की प्रकृति और चरित्र के बारे में ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं किया जाता, उसकी खूबियों के साथ-साथ अंतर्विरोधों की भी बारीक पड़ताल नहीं की जाती, तब तक इसके अवसान की तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती।
भक्ति-आंदोलनकालीन रचनाओं की निजी खासियत के विश्लेषण की जरूरत पर बल देने और सूरदास की खूबियों की व्याख्या करने के बावजूद, डॉ. मैनेजर पांडेय ने भी महाआख्यान बनाने के प्रयास में, भक्ति आंदोलन के अंदरुनी अंतर्विरोधों को, नजरअंदाज किया है। बकौल डॉ. पांडेय, ''भक्ति आंदोलन का लक्ष्य है मानुष सत्य या कि मनुष्य की रक्षा और विकास। भक्ति काव्य की संपूर्ण रचनाशीलता इसी लक्ष्य की ओर उन्मुख है। भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष-सत्य के ऊपर और कुछ नहीं है - न कुल, न जाति, न धर्म, न संप्रदाय, न स्त्री-पुरुष का भेद, न किसी शास्त्र का भय और न लोक का भ्रम। समाज में तरह-तरह के भेद-भाव पर टिकी व्यवस्था की जगह मनुष्यत्व पर आधारित समतामूलक और मानवीय व्यवस्था की कामना भक्ति-काव्य में है।''8 सच है कि मानुष-सत्य और मनुष्य की रक्षा व विकास की चिंता, भक्ति आंदोलन के सभी रचनाकारों के यहाँ मिलती है। लेकिन अव्वल तो यह कि क्या सभी रचनाकारों का 'मानुष-सत्य' एक समान है? क्या सभी एक जैसी मनुष्यत्व की रक्षा और विकास के लिए चिंतित हैं? वास्तविकता यह है कि उस दौर के रचनाकारों की रचना में 'मानुष-सत्य' की शब्दगत समता के बावजूद, सबके लिए इस शब्द के अलग-अलग मायने हैं। 'दृष्टि और रुझान' भी इनके एक-सा नहीं थे। क्या सचमुच भक्त कवियों की दृष्टि में कुल, जाति, धर्म, संप्रदाय, स्त्री-पुरुष का भेद-भाव मौजूद नहीं है? ऐसा कहकर क्या इन कवियों के साहित्य में अभिव्यक्त अनुभूति, विचारधारा और सांस्कृतिक चेतना को एक समान मानना तर्कसंगत है? सवाल उठता है कि भक्तिकालीन कवियों में अंतःसलिला की तरह मौजूद - कुल, जाति, धर्म, संप्रदाय, स्त्री-पुरुष का भेद, शास्त्र का भय और लोक का भ्रम इत्यादि-अनेक आयामों के अंतर के बारे में, डॉ. मैनेजर पांडेय का अस्वीकार, उनके आलोचनात्मक नजरिए की कमजोरी का प्रमाण है या महाआख्यान स्थापित करने का भोला प्रयास। उल्लेखनीय यह भी है कि अंदरुनी तनावों, अंतर्विरोधों को खारिज कर, एकता के वृहद आख्यान-निर्माण की कवायद, किसी खास वर्चस्व को कायम रखने के लिए भी की जाती है।
ऐसी ही एकता दिखाने की सलाह वासुदेवशरण अग्रवाल ने दी थी, ''अपने देश के सांस्कृतिक इतिहास में व्यापक मौलिक एकता भरी हुई है। ऐतिहासिक वहीं सच्चा है जो भेदों के नीचे छिपी हुई इस ऐक्य विधायिनी सांस्कृतिक पद्धति को पहचानकर उसका उद्घाटन करने में अपना मन लगाता है।''9 क्या यहाँ रुककर, यह पूछना गैरवाजिब है कि 'ऐतिहासिक वही सच्चा' क्यों है, जो भेदों के नीचे छिपी हुई इस ऐक्य विधायिनी को पहचानकर, उसका उद्घाटन करने में अपना मन लगाए। उसे सच्चा ऐतिहासिक क्यों नहीं मानना चाहिए, जो ऊपर की दिखने वाली एकता के भीतर छिपे और अंतःसलिला की तरह प्रवाहित हो रहे तनावों को पहचानकर, उसका उद्घाटन करने में अपना मन लगाए। इस पर पुनर्विचार की गरज है कि सगुण-निर्गुण या तुलसी-कबीर के अंतर्विरोधों की पड़ताल करनेवालों को, डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक, रीतिवाद और दरबारी प्रथा का समर्थक माना जाए। साथ ही, वासुदेवशरण अग्रवाल के मुताबिक भेदों के नीची छिपी हुई एकता का उद्घाटन करने वाले को 'सच्चा ऐतिहासिक' माना जाए। इस पर पुनर्विचार नहीं करने के ही नतीजतन, उपर्युक्त मान्यताओं का विस्तार और विकास इस समझ में होता है, जिसके तहत भारतीय समाज के अंदरुनी संघर्षों का उद्घाटन करने वाले लोगों को साम्राज्यवादी साजिश का शिकार या परिणाम समझा जाता है। दरअसल, एक तरफ अंदरुनी तनावों, संघर्षों, अंतर्विरोधों पर परदा डालकर, ऊपरी समानता पर जोर दिया जाता है, तो दूसरी तरफ उसे उजागर करने वालों को, साम्राज्यवादी नजरिए का शिकार अथवा परिणाम बताकर, उन मुद्दों की तरफ से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश की जाती है। वास्तव में, दोनों तरफ से किए गए, इन कामों का मकसद है - वर्चस्ववादी संरचना को नजरअंदाज करना और इस संरचना में मौजूद गैरबराबरी को ओझल करना। इसलिए ''ऐसी हालत में इधर अक्सर कहा जाने लगा है कि भक्ति आंदोलन के अंतर्गत अंतर्विरोधों का प्रश्न न उठाकर समान तत्वों पर बल देना ही उचित है।''10
भक्ति-काल के इन अंतर्विरोधों की पड़ताल करते हुए इतिहासकार शशि जोशी और भगवान जोश ने तार्किक नतीजा निकाला है कि ''मध्यकाल के विभिन्न संप्रदाय - रामानंदी, कबीरपंथ, नानकपंथ, वैष्णव मत आदि के बीच 'हम और वे' का स्पष्ट विभाजन था। और यह विभाजन 'कोलोनियल कंस्ट्रक्शन' नहीं था। अंग्रेजों के आने से पहले विभिन्न संप्रदायों और संस्कृतियों के प्रवक्ताओं ने यह विभाजन निर्मित कर लिया था। उपनिवेशवादियों ने भले ही उनका अपने हित में प्रयोग किया।''11 बजरंग बिहारी तिवारी ने भक्ति-आंदोलन के कुछ अदीठ पहलुओं की तरफ ध्यान दिलाया है। तिवारी के अध्ययन का नतीजा भी, भक्ति आंदोलन के गहरे अंदरुनी अंतर्विरोधों को उजागर कर, इतिहासकार शशि जोशी और भगवान जोश की स्थापनाओं के पक्ष में गवाही देता है।12 बजरंग बिहारी तिवारी ने पर्याप्त सबूतों के आधार पर साबित किया है कि भक्ति आंदोलन में जिसे 'मुख्य संघर्ष' माना जाता रहा है, वास्तव में वही गौण है; जबकि जिस आंतरिक संघर्षों को गौण समझा जाता रहा है, वही ज्यादा महत्वपूर्ण है। साथ ही, सगुण भक्ति के भीतर भी भिन्न संप्रदायों में काफी तनाव मौजूद थे। इस तनाव की परिणति आपसी रंजिशों और बहस-मुबाहिसों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इनके बीच पर्याप्त मार-पीट भी हुई थी। इस दौरान सगुण भक्तों ने तत्कालीन राजनीतिक सत्ता के साथ मधुर रिश्ता भी स्थापित किया था और अपने फायदे के पक्ष में निर्णय कराए थे। जब सगुण भक्ति के अंदर के विभिन्न संप्रदायों के बीच ऐसा तनाव मौजूद था, तो कयास लगाया जा सकता है कि निर्गुण भक्तों के साथ कैसा रिश्ता रहा होगा? क्योंकि वल्लभाचार्य की चिंता का एक बड़ा कारण वेद-विरोधी पंथ था। इसी पंथ से निपटने के लिए सगुण भक्ति आयोजित हुई थी।
क्या यहाँ एक सवाल पूछा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में अंतर्विरोधों को परखने की प्रवृत्ति दूसरे अनुशासनों की तुलना में कम क्यों मिलती है? किसी भी बड़े रचनाकार के प्रति ज्यादातर पूजा-भाव ही देखने को क्यों मिलता है? इसी से जुड़ी यह बात भी कि हिंदी का साहित्यिक समाज, पर्याप्त सबूतों एवं तर्क के साथ अंतर्विरोधों के उजागर होने पर भी, उसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाता है?13 बहरहाल, इस संदर्भ में यह देखना जरूरी होता है कि अंतर्विरोधों की पड़ताल में, कौन, कितने तह में जाकर, पर्याप्त तर्क और जरूरी साक्ष्य के साथ नतीजा निकालता है।
गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण धारा, निर्गुण भक्ति, के अवसान का सवाल उठाया। मुक्तिबोध ने इस सवाल को विश्लेषित करने की जरूरत समझी कि ''क्या कारण है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आंदोलन सफल नहीं हो सका?''14 इन्होंने किसी भी साहित्य को समझने, उसका विश्लेषण करने के लिए, दो सूत्र प्रस्तावित किए हैं। पहला, ''किसी भी साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें।''15 और दूसरा, ''किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अंतःस्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों? साधारणजन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?''16 अपने इन्हीं सूत्रों के आधार पर, मुक्तिबोध ने भक्ति आंदोलन को समझा और विश्लेषित किया है। बहरहाल, अपने उठाए सवाल का जवाब देते हुए इन्होंने लिखा है कि ''निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचि वालों का संघर्ष था। सगुण मत विजयी हुआ। उसका प्रारंभिक विकास कृष्ण भक्ति के रूप में हुआ। यह कृष्ण भक्ति कई अर्थों में निम्न वर्गीय आंदोलन से प्रभावित थी। उच्च वर्गों का एक भावुक तबका भक्ति आंदोलन से हमेशा प्रभावित होता रहा, चाहे वह दक्षिण भारत में हो या उत्तर भारत में। इस कृष्ण भक्ति में जातिवाद के विरुद्ध कई बातें थीं। वह एक प्रकार से भावावेशी व्यक्तिवाद था। इसी कारण, महाराष्ट्र में, निर्गुण मत के बजाय निम्न वर्ग में, सगुण मत ही अधिक फैला। ...उत्तर भारत में कृष्ण भक्ति शाखा का निर्गुण मत के विरुद्ध जैसा संघर्ष हुआ, वैसा महाराष्ट्र में नहीं रहा। महाराष्ट्र में कृष्ण की शृंगार-भक्ति नहीं थी, ना भ्रमर गीतों का जोर था। कृष्ण एक तारणकर्ता देवता था, जो अपने भक्तों का उद्धार करता था, चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। महाराष्ट्रीय सगुण कृष्ण भक्ति में शृंगार भावना, और निर्गुण भक्ति, इन दो के बीच कोई संघर्ष नहीं था। उधर उत्तर भारत में, नंददास वगैरह कृष्ण भक्तिवादी संतों की निर्गुण मत-विरोधी भावना स्पष्ट ही है। और ये सब लोग उच्चकुलोद्भव थे। यद्यपि उत्तर भारतीय कृष्ण भक्तिवाले कवि उच्चवंशीय थे, और निर्गुण मत से उनका सीधा संघर्ष भी था, किंतु हिंदू समाज के मूलाधार यानी वर्णाश्रम-धर्म के विरोधियों ने जातिवाद-विरोधी विचारों पर सीधी चोट नहीं की थी। किंतु उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन पर उनका प्रभाव निर्णायक रहा। ...एक बार भक्ति आंदोलन में ब्राह्मणों का प्रभाव जम जाने पर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा में कोई देर नहीं थी।''17
मुक्तिबोध ने अपनी इस धारणा को और स्पष्ट करते हुए, साथ ही दक्षिण भारत और उत्तर भारत के निर्गुण मत-विरोधी शक्तियों की समानता की तरफ इशारा करते हुए, लिखा है, ''भक्ति आंदोलन के प्रारंभिक चरण में निम्नवर्गीय तत्व सर्वाधिक सक्षम और प्रभावशाली थे। दक्षिण भारत के कट्टरपंथी तत्व जो कि तत्कालीन हिंदू सामंती वर्गों के समर्थक थे, इस निम्नवर्गीय सांस्कृतिक जन चेतना के एकदम विरुद्ध थे। वे उन पर तरह-तरह के अत्याचार भी करते रहे। मुस्लिम तत्वों से मार खाकर भी, हिंदू सामंती वर्ग, उनसे समझौता करने की विवशता स्वीकार कर, उनसे एक प्रकार से मिले हुए थे। उत्तर भारत में हिंदुओं के कई वर्गों का पेशा ही मुस्लिम वर्गों की सेवा करना था। अकबर ही पहला शासक था, जिसने तत्कालीन तथ्यों के आधार पर खुलकर हिंदू सामंतों का स्वागत किया।''18 मुक्तिबोध ने, दक्षिण भारत में निम्नवर्गीय सांस्कृतिक जन चेतना के विरुद्ध में तत्कालीन हिंदू सामंती वर्गों के समर्थक, कट्टरपंथियों के मुस्लिम तत्वों से मार खाकर भी किए गए समझौते को, उजागर किया है। मुक्तिबोध की यह पंक्ति गौर करने लायक है कि अकबर ही पहला शासक था, जिसने 'तत्कालीन तथ्यों' के आधार पर खुलकर हिंदू सामंतों का स्वागत किया। इस वाक्य में 'तत्कालीन तथ्य' के क्या मायने हैं? वे कौन से तत्कालीन तथ्य थे, जिसने अकबर को 'हिंदू सामंतों' का स्वागत करने के लिए प्रेरित किया था? वे तत्कालीन तथ्य थे - भक्ति आंदोलन के प्रारंभिक चरण में निम्नवर्गीय तत्व का सर्वाधिक सक्षम और प्रभावशाली होना। और, दक्षिण भारत के कट्टरपंथी तत्व का, जो कि तत्कालीन हिंदू सामंती वर्गों के समर्थक थे, इस निम्नवर्गीय सांस्कृतिक जन-चेतना के एकदम विरुद्ध होना।19 उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में भी हिंदू और मुस्लिम सामंती तबके में, इस मामले में, एकता थी। मुक्तिबोध ने बताया है कि ''हिंदू सामंती तत्व, मुसलमान सामंती तत्वों से छिटककर नहीं रह सके। लूट-पाट, नोच-खसोट के उस युग में, जनता की आर्थिक-सामाजिक दुःस्थिति गंभीर थी। निम्नवर्गीय जातियों के संतों की निर्गुण-वाणी का, तत्कालीन मानों के अनुसार, क्रांतिकारी सुधारवादी स्वर, अपनी सामाजिक स्थिति के विरुद्ध क्षोभ, और अपने लिए अधिक मानवोचित परिस्थिति की आवश्यकता बतलाता था। भक्तिकाल की निम्नवर्गीय चेतना के सांस्कृतिक स्तर अपने-अपने संत पैदा करने लगे। हिंदू-मुस्लिम सामंती तत्वों के शोषण-शासन और कट्टरपंथी दृढ़ता से प्रेरित हिंदू-मुस्लिम जनता भक्ति मार्ग पर चल पड़ी थी, चाहे वह किसी भी नाम से क्यों न हो। निम्नवर्गीय भक्ति-मार्ग निर्गुण-भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस निर्गुण भक्ति में तत्कालीन सामंतवाद-विरोधी तत्व सर्वाधिक थे।''20
हिंदू सामंतों का स्वागत करने के साथ-साथ अकबर ने भक्ति आंदोलन की खासतौर पर, निर्गुण भक्ति की सामाजिक चेतना को कमजोर करने में भी भूमिका अदा की थी। अकबर के संदर्भ में मुक्तिबोध की इस राय से रांगेय राघव भी इत्तेफाक रखते हैं।21
मुक्तिबोध और रांगेय राघव की इस मान्यता की पुष्टि, अकबर द्वारा लिए गए कुछ निर्णयों से भी, होती है। निर्गुण मत की सामाजिक चेतना के प्रभाव से भयभीत सगुण धारा के आचार्यों ने प्रशासन-सत्ता का सहारा लिया। नतीजतन बादशाह अकबर की तरफ से ''यह भी आज्ञा हुई कि बहुत छोटी जातियों के लोगों को विद्या न पढ़ाई जाए क्योंकि वे विद्या पढ़कर बहुत अनर्थ करते हैं।''22 गौरतलब है कि 'बहुत छोटी जातियों' के लोग विद्या पढ़कर क्या 'अनर्थ' करते थे? ईश्वर की भक्ति का अधिकार, इस हक से वंचित करने वाले मतों की प्रखर आलोचना और अपनी यातना की अभिव्यक्ति ही वे सांस्कृतिक जागरण तथा विद्या ग्रहण करने के परिणाम थे; जो सामंती ताकतों व कट्टरपंथी समूहों के हिसाब से 'अनर्थ' थे। कहना होगा कि इस उचित एवं जरूरी 'अनर्थ' को रोकने हेतु अकबर 'महान' ने आज्ञा सुनाई।
इसके साथ ही बादशाह से यह भी निश्चित करवाया गया कि ''हिंदुओं के मुकदमे के निर्णय के लिए ब्राह्मण नियुक्त हों। उनके मामले मुकदमे काजियों और मुफतियों के हाथ न पड़ें।''23 अकबर के ये दोनों निर्णय, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये दोनों निर्णय लिए गए हैं - 'निम्न जातियों' के 'अनर्थ' को रोकने के मकसद से। ये दोनों निर्णय हिंदू और मुस्लिम सामंती तबकों की एकता, जो उनके आपसी हितों की रक्षा के खयाल से विकसित हुई थी, के परिणाम थे और प्रमाण भी। अकबर ने इन दोनों निर्णयों के जरिए, दोनों धर्मों के ताकतवर लोगों और सामंतों का रक्षक, खुद को साबित किया। इससे शासक के प्रति सामंतों और धर्म के शक्तिशाली तबकों के मन में अधीनता की आवश्यकता भी महसूस होती थी। कहने की जरूरत नहीं कि राजा, सामंत और धार्मिक सत्ता का, एक-दूसरे के साथ और ज्यादा जुड़ाव भी स्थापित होता था।
लिहाजा, अकबर का दूसरा फैसला 'सुलह-कुल' की नीति का परिणाम-मात्र नहीं दिखता अपितु इस पर, पहला फैसला जिन चुनौतियों का परिणाम था, उसका दबाव भी लक्षित होता है।
मुक्तिबोध ने अपने उपर्युक्त विश्लेषण के बाद निष्कर्ष दिया है कि ''जो भक्ति-आंदोलन जन साधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जन साधारण की सांस्कृतिक आशा-आकांक्षाएँ बोलती थीं, उसका 'मनुष्य सत्य' बोलता था, उसी भक्ति आंदोलन को उच्च वर्गों ने आगे चलकर अपनी तरह का बना लिया और अनंतर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस पर अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया।''24 कहने की जरूरत नहीं है कि 'उच्च वर्गों' से मुक्तिबोध का आशय सगुण भक्तिधारा से है, जिसने समझौता करके, और फिर अपना प्रभाव कायम करके ''सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में निम्न वर्गीय भक्ति मार्ग के जनवादी संदेश के दाँत उखाड़ लिए। उन संतों को सर्ववर्गीय मान्यता प्राप्त हुई, किंतु उनके संदेश के मूल स्वरूप पर कुठाराघात किया गया और जातिवादी पुराण धर्म पुनः निर्गुण भाव से प्रतिष्ठित हुआ।''25 नोट करने लायक बात है कि मुक्तिबोध ने निर्गुण भक्ति के अवसान के लिए, तत्कालीन राजसत्ता के सहयोग से सगुण भक्ति को जिम्मेवार माना था। मुक्तिबोध की मान्यताओं का इस संदर्भ में विश्लेषण करने वाले ज्यादातर विद्वानों द्वारा अकबर से संबंधित पहलू, जिसकी तरफ मुक्तिबोध ने इशारा किया था, की उपेक्षा गौरतलब है। मतलब यह है कि मुक्तिबोध ने भक्ति आंदोलन के अवसान को विश्लेषित करने के क्रम में आधार और अधिरचना के द्वंद्वात्मक रिश्ते को भी ध्यान में रखा है, इसी वजह से यह विश्लेषण तर्कसंगत और विश्वसनीय प्रतीत होता है। इसलिए, जब तक मुक्तिबोध के इस विश्लेषण में, अकबर से जुड़े प्रसंग को ध्यान में नहीं रखा जाएगा, वह सिर्फ साहित्यिक पहलू तक ही सिमटा लगेगा।26
मुक्तिबोध की ये बातें इसलिए भी तार्किक लगती हैं कि वे इतिहास-प्रक्रिया से जोड़कर व्याख्यायित करती हैं। भक्ति आंदोलन से पहले भी, इतिहास में परिवर्तनकारी विचारों के साथ ऐसा होता रहा है। सगुण भक्ति और ''तुलसी दास जिस वैदिक और पौराणिक परंपरा की रक्षा के लिए निर्गुण की आलोचना करते हैं, उसमें विरोधी विचारों के साथ ऐसा व्यवहार बहुत पहले से होता आया है। उस व्यवहार के अनुसार किसी विरोधी विचार का पहले पूर्ण विरोध किया जाता है। यदि विरोध में वह नष्ट नहीं होता तो उसे विकृत किया जाता है। अगर वह विरोध और विकृति की प्रक्रिया झेलते हुए जीवित रहता है तो उसके विद्रोही स्वर को दबाकर आत्मसात कर लिया जाता है। निर्गुण मत से पहले बौद्ध दर्शन और लोकायत दर्शन विरोध, विकृति और समाहार की इसी पद्धति के शिकार हो चके हैं।''27
मैनेजर पांडेय की यह स्थापना भी अधूरा सच सामने लाती है। कारण कि, यहाँ भी दो-तरफा प्रक्रिया चलती रहती है, जिसे नजरअंदाज करना गैर-वाजिब होगा। एक तरफ विरोधी शक्तियाँ परिवर्तनकारी तबकों के खिलाफ विरोध, विकृति और समाहार की रणनीति अपनाकर, उसके तेज को कुंद करने की कोशिश करती हैं, तो दूसरी तरफ परिवर्तनकारी तबके के विचारों में भी कुछ कमजोरियाँ मौजूद रहती हैं अथवा समय के साथ उससे जुड़कर, कमजोर बनाती हैं। यह लगभग हर बदलावकारी शक्तियों-समूहों की इतिहास-यात्रा में दिखता है।28 भक्ति आंदोलन के इस पहलू को जानने-विश्लेषित करने के लिए समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास की 'संस्कृताइजेशन' की बहुचर्चित अवधारणा मददगार साबित होगी। एम.एन. श्रीनिवास ने अपनी किताब 'सोशल चेंज इन माडर्न इंडिया' में स्थापित किया है कि ''भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था में कभी ढाँचागत परिवर्तन नहीं हुआ। एक जाति दूसरी जाति में अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुदृढ़ कर उच्च वर्ग में शामिल हो जाती थी। ये निम्न जातियाँ अपनी अलग पहचान के लिए संघर्ष नहीं करतीं बल्कि श्रेष्ठ जातियों में शामिल हो जाती हैं। उच्च वर्ग उस समय लोचदार होकर शक्ति-संतुलन बनाए रखता था और उन्हें अपनी लय में शामिल कर लेता था।''29 यानी एक तरफ वर्चस्ववादी विरोधी शक्तियों की, विरोध, विकृति और समाहार की कोशिश और दूसरी तरफ, तथाकथित निम्न जातियों द्वारा 'संस्कृताइजेशन' की प्रक्रिया, उसके विरोध को समाप्त करने के लिए, जमीन तैयार कर देती है।
इतिहासकार हरबंस मुखिया ने निर्गुण भक्ति की कुछ सीमाओं की तरफ भी ध्यान दिलाया है। उनके मुताबिक 'इस आंदोलन के केंद्र में अन्याय के प्रति रोष है, किंतु विद्रोह नहीं है। ...शायद यही कारण है कि भक्ति आंदोलन के उत्तर भारतीय समाज के सबसे निम्न श्रेणियों और जातियों में इतना लोकप्रिय होने के पश्चात भी शासक वर्ग को इससे कोई खतरा दिखाई नहीं दिया।''30 इसके साथ ही मुखिया ने इसके अवसान का विश्लेषण करते हुए यह भी बताया है कि ''भक्ति आंदोलन के पास स्थापित सामाजिक व्यवस्था के किसी विकल्प की व्यवस्था नहीं थी, केवल उसी समाज को एक आदर्श भाव से चलाने की कल्पना थी।''31
निर्गुण भक्ति की वेगवती धारा के बावजूद जाति-व्यवस्था का ढाँचा समाप्त क्यों नहीं हुआ? 'संस्कृताइजेशन' की अवधारणा के साथ-साथ हरबंस मुखिया की इस स्थापना को पढ़ने पर, यह मसला समझा जा सकता है। भक्ति आंदोलन में ''और पहलुओं के समान ही जाति-प्रथा का विरोध भी नैतिक धरातल तक ही सीमित रहा। स्पष्ट है कि जाति-प्रथा केवल नैतिक आस्था पर आधारित संस्था नहीं थी, इसकी गहरी सामाजिक और आर्थिक नींव थी, जिस पर उस समाज का पूरा ढाँचा खड़ा था। उस ढाँचे को तोड़ पाना तब तक असंभव था, जब तक कि कोई दूसरी नींव न डाली जाए।''32 मौजूदा सामाजिक संरचना के विकल्प के बगैर ढाँचागत परिवर्तन संभव नहीं था। संरचनात्मक बदलाव के लिए आवश्यक था - उस बुनियाद को हिलाना, उसकी सामाजिक-आर्थिक जड़ों को उखाड़ना, जिस पर तत्कालीन समाज टिका था; न कि सिर्फ नैतिक धरातल पर विरोध।
प्रो. मुखिया यह भी कहते हैं कि ''दूसरी नींव की कल्पना मध्ययुगीन भारत में कैसे की जाती?''33 जाहिर है, डॉ. मुखिया के मुताबिक निर्गुण भक्तों की यह सीमा मध्य युग की सीमा है। इतिहासकार हरबंस मुखिया ने इस आंदोलन के अवसान के बारे में जो धारणा दी है, उससे डी.पी. मुखर्जी की राय भी मिलती-जुलती है। ''भक्ति आंदोलन में समाज के स्वरूप की पहचान है, लेकिन सामाजिक हित की कोई धारणा नहीं है। फलतः उसमें आत्मा के अनुरोध और सामाजिक जिन्दगी की ठोस जरूरतों के बीच दरार है, आध्यात्मिकता की भौतिक अंतर्वस्तु और लोकधर्म के विभिन्न रूपों के बीच अंतर्विरोध है। भक्ति आंदोलन की यही आंतरिक कमजोरी उसकी सामाजिक विफलता का मुख्य कारण है।''34
इतिहासकार इरफान हबीब ने, तेरहवीं-चौदहवीं सदी के परिप्रेक्ष्य में 'प्रौद्योगिकी परिवर्तन और समाज' का अध्ययन कर, जो नतीजा निकाला है, उससे समाज में आ रही गतिशीलता का पता चलता है। इसी गतिशीलता ने भक्ति आंदोलन के लिए जमीन तैयार की थी। निर्गुण भक्ति का सीधा रिश्ता इसी गतिशीलता से जुड़ा हुआ है। इस गतिशीलता के आगे बढ़ने पर, तथाकथित निम्न जातियों की हालत में सुधार आने के बाद 'संस्कृताइजेशन' की प्रक्रिया भी शुरू हुई होगी। नतीजतन, न सिर्फ उत्तर भारत, बल्कि दक्षिण भारत के भक्ति का इतिहास भी एक समान हश्र को दिखाता है।
इतिहासकार सतीश चंद्र ने नोट किया है ''दक्षिण में भक्ति आंदोलन दसवीं सदी में अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गया था। उसके बाद धीरे-धीरे वह पारंपरिक हिंदू धर्म के खाँचों में प्रवेश किया गया, अर्थात उसने वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और उनकी धर्म-विधियों को स्वीकार कर लिया।''35 इन्होंने भक्ति आंदोलन के अवसान की व्याख्या करते हुए स्थापित किया है कि ''गंगा की घाटी में परिवर्तनवादी एकेश्वरवादी की अधिक परिवर्तनवादी विचारधारा पर 'सगुण भक्ति' की विजय को शहरों के अत्यंत परिवर्तनवाद पर, देहात के रूढ़िवाद की विजय के रूप में, लिया जा सकता है। बदले में सत्रहवीं और उसके बाद आने वाली सदियों के दौरान भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के सापेक्षिक रूप से धीमे विकास अथवा स्थिरता के रूप में इसे लिया जाना चाहिए।''36 बहरहाल, एक तरफ तथाकथित निम्न जातियों के भीतर संस्कृताइजेशन की प्रवृत्ति और दूसरी तरफ उस दौरान भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के सापेक्षिक रूप से धीमे विकास अथवा स्थिरता, इसे कमजोर करने में कारगर साबित हुए।
निर्गुण भक्ति के 'संस्कृताइजेशन' के बाद, उसके भी पंथ और मठ बनने लगे। इतना ही नहीं 'कबीरपंथियों' ने कबीर को षट्दर्शन और अवतार के दायरे में लाकर, उनकी चेतना को समाप्त करने के लिए जमीन तैयार कर दी।
नतीजे के तौर पर कहें तो निर्गुण धारा के प्रखर स्वर को समाप्त करने के लिए, सत्ता से गठजोड़ करके, सगुण भक्ति द्वारा चलाया गया अभियान, सत्रहवीं सदी और उसके बाद आने वाली सदियों में, भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के आनुपातिक रूप से धीमे विकास या ठहराव तथा निर्गुण संतों के अनुयायियों का 'संस्कृताइजेशन' और निर्गुण संतों की रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विकल्प के अभाव को इसके अवसान के लिए जिम्मेवार माना जाना चाहिए।
निर्गुण भक्ति के अवसान की व्याख्या के बाद यह सवाल उठता है कि आखिर सगुण भक्ति के पराभव के लिए कौन जिम्मेवार है? संभव है, सगुण भक्ति के तेज होते आपसी अंतर्विरोधों ने इसे कमजोर किया, साथ ही जिस उद्देश्य के लिए सगुण भक्ति का आरंभ हुआ था, उसके पूरा होने 37 के बाद इसने अपना ऐतिहासिक दायित्व निभा लिया। यहाँ यह भी उम्मीद की जा सकती है कि सगुण भक्ति के भीतर जो थोड़ी परिवर्तनकारी चेतना मौजूद थी, बाद में ज्यादा कट्टर बनने के दौरान, धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
मौजूदा दौर में, अगर सोचा जाए कि भक्ति आंदोलन का, आज के हमारे जीवन के संकटों के संदर्भ में, क्या उपयोग हो सकता है, इसके जवाब के तौर पर भक्ति आंदोलन के रचनाकारों का आनुपातिक महत्व सामने आएगा। जैसा कि मुक्तिबोध ने एक सवाल उठाया था कि ''कबीर और निर्गुण पंथ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय संत तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं?''38 हालाँकि, मुक्तिबोध ने आगे यह भी लिखा है, जिसका संबंध आज के दौर में भक्ति आंदोलन के उपयोग से भी जुड़ता है, ''रामचरितमानसकार एक सच्चे संत थे, इसमें किसी को भी कोई संदेह नहीं हो सकता। रामचरितमानस साधारण जनता में भी उतना ही प्रिय रहा है जितना कि उच्च वर्गों में। कट्टरपंथियों ने अपने उद्देश्यों के अनुसार तुलसीदास जी का उपयोग किया।''39 तुलसीदास की लोकप्रियता की कई वजहें रही हैं। गौरतलब है कि उनकी सभी कृतियों में, अन्य की तुलना में, रामचरितमानस की लोकप्रियता सबसे ज्यादा है।40 तुलसीदास की व्याख्या अलग-अलग विद्वानों द्वारा नितांत अलहदा तरीके से होती रही है। इसके कुछ नमूने को जानने के लिए सुधीश पचौरी 41 और फ्रांचेस्का ऑर्सीनी 42 के विश्लेषण का निष्कर्ष देखा जा सकता है। इन दोनों ने तुलसी के व्याख्याकार आचार्य शुक्ल की मानसिकता और राजनीति की विचारोत्तेजक पड़ताल की है।
रामचरितमानस और तुलसीदास का, मौजूदा दौर में उपयोग करने के सवाल पर, बाबा रामचंद्र और अवध के किसान आंदोलन का हवाला बार-बार आता है। प्रसंगवश, यह देखना जरूरी है कि बाबा रामचंद्र ने रामचरितमानस का उपयोग किस प्रकार किया था? वीर भारत तलवार ने इसका बारीक विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ''यह समझना सही नहीं है कि बाबा रामचंद्र ने रामचरितमानस की कोई क्रांतिकारी व्याख्या की थी। उन्होंने इसका उपयोग सिर्फ दो अर्थों में किया था। अवध के इलाके में यह ग्रंथ लोकप्रिय होने के कारण, वे दूसरे धार्मिक ग्रंथों के साथ, इसे भी गाँवों में बाँचते थे ताकि गाँववालों से संपर्क बन सके। इसके अलावा, उन्होंने समय-समय पर, इसके कुछ दोहे-चौपाइयों का इस्तेमाल इस ढंग से किया कि स्थिति का मेल बैठ जाए।''43
काबिलेगौर है वर्तमान में उस दौर की कृतियों का अपने पक्ष में उपयोग करने की बात, साहित्य के अध्ययन व विश्लेषण का कम और रणनीति का विषय ज्यादा प्रतीत होता है। यह याद रखना जरूरी है कि ''किसी भी रचना की क्रांतिकारी व्याख्या तब तक नहीं हो सकती है - और की गई तो टिक नहीं सकती है - जब तक कि खुद रचना में उसका आधार न हो।''44 इसलिए वर्तमान अर्थवत्ता के संदर्भ में भी रचनाकारों और रचना की विशिष्टता तथा उनके आपसी अंतर्विरोध को ध्यान में रखने की दरकार है। उनके आनुपातिक महत्व को समझे बगैर, उपयोग की बात करना, सरलीकरण करना होगा। ध्यान देने की बात है कि तुलसीदास का उपयोग उदार लोगों के अलावा वर्ण-व्यवस्था के समर्थक, कट्टरपंथी ताकत भले ही कर लें, कबीर का उपयोग उनके वश का नहीं। हालाँकि आजकल कबीर जैसे संतों की भी खास अर्थों में कट्टरपंथी व्याख्या करने की कोशिश की जा रही है। इसलिए जरूरी है, सांस्कृतिक इतिहास के खास कालखंड में भक्ति आंदोलन ने जो हस्तक्षेप किया था, उससे कुछ सूत्रों को निकाला जाए। भक्ति आंदोलन के दौरान हुई वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष की कई स्मृतियाँ हमारे काम की हैं। उसके जरिए हमें आज के खतरों को समझने में मदद मिलेगी।
संदर्भ-संकेत एवं टिप्पणियाँ
1. कवि विजेंद्र और रोचना विश्वकीर्ति ने डॉ. रामविलास शर्मा से परंपरा से संबंधित कई पहलुओं पर काफी लंबी बातचीत की है। छत्तीस पन्नों में प्रकाशित इस बातचीत में रामविलास जी ने विस्तारपूर्वक अपनी मान्यताएँ स्पष्ट की हैं। परंपरा की पहचान : संपादक - विजेंद्र, और प्रकाशन, जनवादी साहित्य सदन, राजामंडी, आगरा, प्रथम संस्करण 1988. पृष्ठ 9।
2. वही, पृष्ठ 10।
3. परंपरा का मूल्यांकन : रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण - 1987, पृष्ठ 93।
4. भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार : संपादक - गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, 24/4855, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2002, पृष्ठ 107।
5. रामचरितमानस के बालकांड में और सूरदास के उद्धव गोपी संवाद में इस वैचारिक विरोध के तीखेपन का अहसास किया जा सकता है। तुलसीदास द्वारा निर्गुण संतों के विरोध में रचे कुछ विचारों को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उद्धृत किया है। देखें - कबीर - हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दसवीं आवृति : 2006, पृष्ठ 99।
6. दूसरी परंपरा की खोज - नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1984, पृष्ठ 84 (जोर मेरा)। नामवर सिंह की इस किताब में भक्ति-आंदोलन से संबंधित अध्यायों, स्थापनाओं को पढ़ने के बाद साहित्य का पाठक यह लक्षित किए बिना नहीं रह सकता कि 'पहली परंपरा' से आशय क्या है? निश्चित रूप से डॉ. नामवर सिंह के मुताबिक 'पहली परंपरा' के प्रतिनिधि आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। डॉ. सिंह ने आचार्य शुक्ल के बाद कई जगहों पर डॉ. रामविलास शर्मा को अपनी आलोचना का निशाना बनाया है, बेशक कुछ जगहों पर नाम लेकर, तो कुछ जगहों पर बिना नाम लिए। यहाँ यह भी याद रखना जरूरी है कि डॉ. रामविलास शर्मा ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना में आचार्य शुक्ल की कई विवादास्पद मान्यताओं का बहुत दूर तक बचाव किया है। साथ ही आचार्य शुक्ल के अंतर्विरोधों पर कम-से-कम ध्यान दिया है। ऐसे में यह कयास लगाया जा सकता है कि डॉ. नामवर सिंह के उद्धरण में 'बड़े-से-बड़े प्रगतिशील आलोचक' से मुराद भी, डॉ. रामविलास शर्मा से ही है।
7. इस लिहाज से डॉ. रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण किताब परंपरा का मूल्यांकन को भी पढ़ा जा सकता है। इस किताब में तुलसीदास से संबंधित अध्यायों में निर्गुण-सगुण, कबीर-तुलसी की एकता के सूत्रों को बताने के साथ-साथ जब कबीर के बारे में निश्चित मत व्यक्त करने की बारी आती है तो डॉ. शर्मा कबीर को हमेशा कमतर मानते-बताते हैं।
8. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य : मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण - 2001, में देखें - दूसरे संस्करण की भूमिका।
9. इतिहास दर्शन : वासुदेवशरण अग्रवाल, पृथ्वी प्रकाशन, वाराणसी - 1978, पृष्ठ 1 से तद्भव-9, संपादक : अखिलेश अप्रैल - 2003 में बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा उद्धृत - पृष्ठ 100।
10. दूसरी परंपरा की खोज, पृष्ठ 84।
11. स्ट्रगल एंड हेजेमनी इन इंडिया, भाग-3 : शशि जोशी, भगवान जोश, सेज पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1914, पृष्ठ 18 से तद्भव-9, संपादक : अखिलेश, के पृष्ठ 100 पर उद्धृत।
12. तद्भव-6, अक्टूबर-2001, में देखें - 'भक्ति के वृहद आख्यान में 'सत्पुरुषों' की पीड़ा' शीर्षक शोध आलेख पृष्ठ 42-59 और तद्भव-9 में 'मध्यकालीन सत्ता विमर्श का एक पहलू' शोध आलेख पृष्ठ 77-104।
13. इस मुद्दे पर, किसानों के सवाल के संदर्भ में, प्रेमचंद के अंतर्विरोध के बहाने वीर भारत तलवार ने एक घटना का जिक्र किया है। देखें - दूसरे संस्करण की भूमिका, किसान, राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद 1918-22, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण-2008।
14. देखें - 'मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू' शीर्षक निबंध। यह निबंध भक्ति आंदोलन से संबंधित कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाकर विचारोत्तेजक विश्लेषण करता है। मुक्तिबोध संभवतः पहले आलोचक हैं, जिन्होंने जाति को केंद्र में रखकर भक्ति आंदोलन को विश्लेषित किया है, साथ ही इससे जोड़कर कुछ स्थापनाएँ भी प्रस्तुत की हैं। आज भले ही इसकी कुछ सीमाओं का पता चलता हो, लेकिन 1955 में जब यह निबंध छपा था, अपने विश्लेषण में नया था। मुक्तिबोध रचनावली : संपादक - नेमिचंद्र जैन, खंड-5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहली आवृति - 1998, पृष्ठ 288-297 (जोर मेरा)।
15. वही, पृष्ठ 289।
16. वही, पृष्ठ 293।
17. वही, पृष्ठ 291।
18. वही, पृष्ठ 295।
19. वही, पृष्ठ 295।
20. वही, पृष्ठ 295 (जोर मेरा)।
21. रांगेय राघव ग्रंथावली, भाग-10 में देखें - मध्यकालीन हिंदी साहित्य और भारतीय भक्ति आंदोलन, पृष्ठ सं : 203-215, संपादक- सुलोचना रांगेय राघव, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1983।
22. अकबरी दरबार : शम्सुल उल्मा मौलाना मुहम्मद हुसैन 'आजाद', अनुवादक : रामचंद्र वर्मा, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, नवीन संस्करण, संवत 2024 विक्रमी, के पृष्ठ 130 से तद्भव-6 में, बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा उद्धृत, पृष्ठ 56।
23. वही, पृष्ठ 56।
24. मुक्तिबोध रचनावली, खंड-5, पृष्ठ 292।
25. वही, पृष्ठ 290।
26. मध्यकालीन भारत के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक ढाँचे के भीतर के बदलाव और विज्ञान-प्रौद्योगिकी, कला-साहित्य के अंदरुनी रिश्ते को जानने के लिए देखें - मीडिईवल इंडिया : द स्टडी ऑफ एक सिविलाइजेशन - इरफान हबीब, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, फर्स्ट एडीशन - 2008, का अध्याय-2 और 3, पृष्ठ 57-260।
27. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, पृष्ठ 26।
28. वीरभारत तलवार ने आर्य समाज आंदोलन का अध्ययन करके दयानंद सरस्वती के जीवन-काल के कुछ समझौतों की तरफ ध्यान दिलाया है। साथ ही इसे आर्य समाज के तेज को कमजोर करने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक माना है। देखें - हिंदू नवजागरण की विचारधारा : सत्यार्थ प्रकाश समालोचना का एक प्रयास : वीरभारत तलवार, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, प्रथम संस्करण - 2001। 'सत्यार्थप्रकाश' एवं आर्यसमाज का मूल्यांकन - राजीव रंजन गिरि, आवर्त, संपादक : वीरेश चंद्र, मुजफ्फरपुर, बिहार, पृष्ठ 142-147, अंक 14-15, जनवरी 2004
29. अनभै साँचा : संपादक - द्वारिका प्रसाद चारुमित्र, जनवरी-जून 2008, में मनोज सिंह द्वारा उद्धृत, पृष्ठ सं : 38, मनोज सिंह ने एम.एन. श्रीनिवास की इस स्थापना के दो दशक पहले प्रकाशित हिंदी साहित्य की भूमिका से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की ऐसी ही धारणा को उद्धृत किया है। ''हिंदुओं की प्रत्येक जाति को अपने आचार-विचार को स्वतंत्र भाव से पालन करने की स्वतंत्रता थी। अगर समूची-की-समूची जाति ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार कर लेती थी तो चातुर्वण्य में भी उसकी गणना कर ली जाती थी। हिंदुओं की ये जातियाँ आचार-विचार में ब्राह्मणों तथा अन्य श्रेष्ठ जातियों की नकल किया करती थीं।'' मनोज सिंह ने इसे उद्धृत कर, हिंदी भाषा में बौद्धिक श्रम करने वाले और अंग्रजी में बौद्धिक मेहनत करने वाले के बीच के फर्क की विडंबनाओं की तरफ, ध्यान दिलाया है। भक्ति आंदोलन के संदर्भ में व्यक्त विभिन्न आलोचकों के मत को एक जगह देखने के लिए, मनोज सिंह की किताब 'भक्ति आंदोलन और हिंदी आलोचना' - कॉनफ्लुएंस इंटरनेशनल, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2008; उपयोगी है।
30. भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, पृष्ठ 89, हरबंस मुखिया, इसी का नतीजा मानते हैं कि शासक वर्ग के अनेक इतिहासकारों द्वारा लिखी गई, मुसलसल इतिहास गाथा में, इस आंदोलन या उसके नेताओं का कहीं कोई जिक्र तक नहीं है। हरबंस मुखिया ने अबुल फजल की युक्ति 'एक प्रशासक, एक मार्गदर्शक, एक ध्येय और एक चिंतन' की तरफ इशारा किया है। अबुल फजल मानता था कि ''यदि बादशाहत की धाक न रहे तो फसादों का नियंत्रण कैसे होगा?'' हरबंस मुखिया ने अबुल फजल की इन्हीं मान्यताओं से सहमति प्रगट करने वाली, दादूदयाल की पंक्तियाँ उद्धृत की हैं।
31. वही, पृष्ठ 87, हरबंस मुखिया ने उसकी वजहों की भी व्याख्या की है। ''भारतीय इतिहास का मध्य युग ऐसा युग था जिसमें बहुत से परिवर्तन हो रहे थे, बहुत तनाव थे, किंतु फिर भी यह स्थिति नहीं थी कि समूची स्थापित सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का उन्मूलन करके उसके स्थान पर एक नए समाज की रचना की कल्पना की जा सके। ...विकल्प की कल्पना के अभाव के कारण नैतिक प्रतिरोध का स्वरूप स्थापित समाज की संस्थाओं को स्वीकार करने और उनके आदर्श रूप से चलने की आशा में ही अभिव्यक्त हो पाता है। यही अभिव्यक्ति उसकी सबसे बड़ी सीमा का भी द्योतक होती है, क्योंकि प्रतिरोध का चिंतन भी उन्हीं इकाइयों में बँध जाता है जो कि प्रतिरोध का विषय होती है।'' (वही, पृष्ठ 88)
32. वही, पृष्ठ 90।
33. वही, पृष्ठ 90।
34. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, पृष्ठ 50 पर उद्धृत।
35. मध्यकालीन साहित्य विमर्श : संपादक - सुधा सिंह, आनंद प्रकाशन, पृष्ठ 176-178, रवींद्र सरणी, कोलकाता-7, प्रथम संस्करण 2004, पृष्ठ 23।
36. वही, पृष्ठ 34।
37. बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने उपर्युक्त दोनों शोध आलेख में दिखाया है कि सगुण भक्ति के भीतर कैसा भयानक संघर्ष चल रहा था। साथ ही इस सगुण भक्ति का आरंभ निर्गुण संतों की सामाजिक चेतना के विरुद्ध में हुआ था।
38. मुक्तिबोध रचनावली, खंड-5, पृष्ठ 288।
39. वहीं, पृष्ठ 293-294।
40. रामचरितमानस की लोकप्रियता को जानने के लिए देखें - दि लाइफ ऑफ ए-टेक्स्ट - परफार्मिंग दि रामचरितमानस : फिलिप लूटजेनडर्फ और रमण सिन्हा का शोध आलेख- 'रामचरितमानस : एक रचना की यात्रा' बहुवचन-10, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, जनवरी-मार्च 2002, पृष्ठ 72-99। गोस्वामी तुलसीदास की लोकप्रियता और प्रसार को व्याख्यायित करने के वास्ते हर वैचारिकी के आलोक में, इसे पढ़ने के प्रयास होते दिखते हैं। कई लोगों ने तो कालांतर में विकसित हुई दृष्टियों को तुलसीदास में देख लिया है। मसलन, श्रीभगवान सिंह सरीखे कुछ ऐसे भी आलोचक हैं, जो तुलसीदास की इस लोकप्रियता को आधुनिकता के साथ, अपने भोले तर्कों के जरिए, संगति मिलाने की हास्यास्पद कोशिश करते हैं। श्रीभगवान सिंह ने लिखा है, ''यह सही है कि आज हिंदी प्रदेश में तुलसी से अधिक लोकप्रिय कवि कोई नहीं है, फिर भी उनकी आधुनिकता पर बार-बार प्रश्न-चिह्न लगता रहता है।'' गोया कि तुलसीदास की लोकप्रियता का एकमात्र आधार आधुनिकता ही है। आधुनिकता और तुलसीदास : श्रीभगवान सिंह, भारती प्रकाशन, एफ-6/9, शाहपुर, नई दिल्ली-49, प्रथम संस्करण 2001। इसकी समीक्षा के लिए देखिए - (अंध) श्रद्धाभाव से आधुनिकता की पड़ताल - राजीव रंजन गिरि, पुस्तक वार्ता, संपादक - राकेश श्रीमाल, मई-जून 2003 (वर्ष-2, अंक 11) म.गां.अं.हि.वि.वि. नई दिल्ली, पृ. 8-9।
41. सुधीश पचौरी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा तुलसीदास के किए गए अध्ययन का विखंडन प्रस्तुत किया है। देखें - 'रामचंद्र शुक्ल की धर्म भूमि' शीर्षक निबंध, विभक्ति और विखंडन : सुधीश पचौरी, अनंग प्रकाशन, बी-202, उत्तरी घोंडा, दिल्ली-53, प्रथम संस्करण- 2002, में पृष्ठ 27-48।
42. फ्रांचेस्का ऑर्सीनि ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के शुरुआती पाठ्यक्रम बनने के दौरान बुद्धिजीवियों के मानस का विश्लेषण किया है। देखें - वाक् : संपादक - सुधीश पचौरी - अंक-1, जनवरी-मार्च 2007, में 'तुलसी क्यों?' हिंदी अनुवाद - राजीव रंजन गिरि, शीर्षक आलेख, पृष्ठ 8-13।
43. सामना - रामविलास शर्मा की विवेचन पद्धति और मार्क्सवाद तथा अन्य निबंध : वीरभारत तलवार, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्मरण 2005, पृष्ठ सं : 22, डॉ. तलवार ने उन दोहों को भी उद्धृत किया है, जिसका उपयोग बाबा रामचंद्र करते थे। इस मुद्दे पर विस्तार से जानने के लिए देखें किसान विद्रोह, कांग्रेस और अंग्रेजी राज्य : कपिल कुमार, अनुवादक : असद जैदी, मनोहर पब्लिकेशन्स, 2/6, अंसारी रोड, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1991, का चौथा अध्याय 'किसान विद्रोह का दूसरा चरण', वही, पृष्ठ 193-235।
44. सामना, वही, पृष्ठ 22।