सामने / अशोक भाटिया
दुलारूराम मजदूरी के लिए सदर चौक पर बैठा करता था। वहाँ रोजाना डेढ़-दो सौ में से मजूरी पाँच-सात को ही मिलती थी। पिछले दस-पन्द्रह सालों से मजदूरों के चार-पाँच और अड्डे बन गए हैं, जहाँ मजदूरों के लिए वैसी ही मारा-मारी रहती है।
दुलारू इन दिनों सैक्टर-14 के चौक पर जाने लगा था। कई दिन से वह खाली हाथ लौट रहा था। आज भी सुबह आठ बजे से राहगीरों को ताकते हुए ग्यारह बज चले थे। मजदूरी को तलाशती उसकी आँखों में मजबूरी पानी बनकर उभर आई थी।
बारह बजे तक मजदूरों की भीड़ छँट गई थी। उम्मीद के खिलाफ स्कूटर पर एक आदमी आया और जल्दी ही दो मजदूरों को पीछे बिठाकर ले गया। पता चला कि वह दोनों को रेट तोड़कर ले गया है। दुलारू ने सोचा-आधी मजूरी पर तो वह भी तैयार हो जाता। उसने थकी नज़रों से जमीन की तरफ देखा, फिर फटी जूतियों से जमीन कुरेदने की असफल कोशिश करने लगा। तेज चढ़ आई धूप में उसकी मिचमिचाती आँखें अब नाउम्मीद हो चुकी थीं।
वह उठा, फिर कुछ कदम चलकर वहीं बैठ गया। जब एक बजे का हूटर बजा, उसने साथ बँधी रोटियों की तरफ देखा। वह उठने को हुआ, फिर सोचा कि थोड़ा रूककर घर जाना ठीक रहेगा। घरवाली को उम्मीद रहेगी कि मुझे आज काम मिल गया है। शाम को जाने का यह फायदा भी होगा कि मुनिया यह रोटी शाम को खा सकेगी और रात-भर चैन से सो जाएगी। तय करके वह उठा और पास के जूस कार्नर के बाहर लगे हैण्डपम्प से पानी पीने लगा...।
यह वह समय था, जब देश के सैकड़ों छोटे-बड़े शहरों में अन्नपूर्णा, आहार, शक्ति भोग आटे की थैलियाँ बेतहाशा बिक रही थीं।