सामाजिक न्याय और गाँधीजी / मस्तराम कपूर

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जाति व्यवस्था को समाप्त करने का एकमात्र रास्ता है सामाजिक न्याय की स्थापना। इस प्रस्थापना के पीछे तर्क यह है कि जाति व्यवस्था का निर्माण सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक अधिकारों को ऊपर के तीन वर्णों में केंद्रित करने से हुआ और जब ये अधिकार समाज के सभी वर्गों में विकेंद्रित होंगे तो जाति व्यवस्था टूटेगी। अधिकारों के विकेंद्रीकरण को ही ‘सामाजिक न्याय’ कहा जाता है।

सामाजिक न्याय का वातावरण बनाने में जनसंचार माध्यमों की विशेष भूमिका होती है, इसमें कोई संदेह की बात नहीं है। किंतु दिक्कत यह है कि इस देश के अधिकांश पढ़ेलिखे लोग सामाजिक न्याय का अर्थ भी नहीं समझते और जनसंचार माध्यमों को चलानेवाले लोग भी इस पढ़े-लिखे तबके से आते हैं। यह बात उन दिनों विशेष रूप से स्पष्ट हो गई थी, जब मंडल रिपोर्ट को लागू करने के लिए अगस्त १९९० में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा जारी आदेश पर आरक्षण विरोधी दंगे, हत्याएँ, आत्मदाह आदि की घटनाओं ने सारे देश को उन्माद-ग्रस्त बना दिया था। हिंदी और अंग्रेजी के तमाम अखबार और उनके प्रसिद्ध संपादक/ स्तंभकार (अपवादस्वरूप कुछ व्यक्तियों को छोड़ कर) इस आरक्षण विरोधी उन्माद के समर्थन में आ गए थे। उन दिनों हमारे कुछ साथियों ने आरक्षण विरोध की भत्र्सना करने के लिए और सामाजिक न्याय के हित में आरक्षणों का समर्थन करने के लिए एक अपील जारी की। इसके लिए एक सर्वेक्षण किया गया कि कौन पत्रकारबुद्धिजीवी आरक्षण के विरोध में हैं और कौन समर्थन में। इसमें पाया गया कि बड़े अखबारों के संपादक और स्तंभकार आरक्षण-व्यवस्था के विरोधी हैं।

उन दिनों विश्वविद्यालय के अध्यापकों, वकीलों और पत्रकारों से बात करने पर भी मुझे लगा कि ‘सामाजिक न्याय’ शब्द हमारे संविधान की सर्वप्रथम प्रतिबद्धता होने पर भी, समझा नहीं गया। एक बार हमारे प्रधानमंत्री ने भी अपने भाषण में कहा कि हम तो हमेशा सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे, क्योंकि हम सामाजिक अन्याय के खिलाफ हैं। इस तरह इस शब्द को विकृत करने की प्रवृत्ति आज भी पढ़े-लिखे लोगों में है। सामाजिक न्याय के पक्षधर भी अक्सर इस शब्द का प्रयोग वर्ण व्यवस्था विरोध से बचने के लिए करते हैं।

सामाजिक न्याय सामाजिक अन्याय का विलोम मात्र नहीं है। यह सामाजिक समता का बोधक शब्द है और सामाजिक समता की कल्पना सारे विश्व में नई संकल्पना है। भारत में तो यह संकल्पना ढाई-तीन हजार साल के इतिहास में पूरी तरह अमान्य रही, क्योंकि वर्ण व्यवस्था का आधार ही सामाजिक विषमता था और हमारा समाज आज भी वर्ण व्यवस्था पर टिका है, जिसमें मनुष्य का भाग्य अकस्मात जन्म तय कर देता है। जब तक यह वर्ण व्यवस्था है, तब तक सामाजिक न्याय यहाँ स्थापित नहीं हो सकता। आरक्षण व्यवस्था इस वर्ण व्यवस्था को समतामूलक व्यवस्था में बदलने की दिशा में संविधान का एक ठोस कदम है, क्योंकि इससे विद्या, धन और राजसत्ता की शक्तियाँ, जो वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत ऊपर के तीन वर्णों में केंद्रित होती हैं, समाज के सभी तबकों में विकेंद्रित होती हैं।

कहने का मतलब यह कि सामाजिक न्याय की कल्पना सामाजिक विषमता के विरोध से आई और इसे वर्तमान ठोस रूप भारत में ही मिला, जहाँ सामाजिक विषमता के खिलाफ पूरे इतिहास में आंदोलन चलता रहा। बुद्ध,महावीर, नाथों, सिद्धों और संतों से होता हुआ यह उन्नीसवीं शताब्दी के नवजागरण काल में स्वामी दयानंद आदि समाज सुधारकों के प्रयासों में मुखरित हुआ और फिर महात्मा फुले, नायकर, नारायण गुरू, डॉ. आंबेडकर, गांधी, लोहिया के विचारों में यह संकल्पना स्पष्ट हुई। संविधान में विशेष अवसरों के सिद्धांत को मान्यता प्रदान कर भारत ने इसे सामाजिक विषमताओं के समाधान के रूप में विश्व के समक्ष रखा। हमारे संविधान के बनने के १५ साल बाद अमेरिका ने राजनैतिक अधिकारों के कानून के रूप में इसे अपनाया कोटा प्रणाली को लागू कर। और आज यह कोटा प्रणाली किसी न किसी रूप में सभी देशों में मान्य है।

इस विचार के अंतर्गत नागरिक अधिकारों और राजनैतिक अधिकारों के अतिरिक्त सामाजिक अधिकारों को भी आदमी के मूलभूत अधिकारों का दर्जा प्राप्त हुआ। उल्लेखनीय है कि नागरिक अधिकार (जैसे कानून के समक्ष बराबरी) और राजनैतिक अधिकार (जैसे सबको वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार) भी क्रमश: मान्य हुए थे। ब्रिटिश शासन ने कानून के समक्ष बराबरी का अधिकार दिया (हालाँकि अपने लिए उनके विशेष कानून भी थे।) और राजनैतिक बराबरी का अधिकार संविधान में वयस्क मताधिकार की स्वीकृति के बाद हमें मिला। सामाजिक बराबरी का अधिकार मान्य तो हो गया है, किंतु इसे वस्तुत: प्राप्त करने में समय लग सकता है। इसमें खास ध्यान देने वाली बात यह है कि नागरिक अधिकार और राजनैतिक अधिकार व्यक्ति के अधिकार होते हैं और व्यक्तिश: वितरित होते हैं, किन्तु सामाजिक अधिकार समूह अधिकार होते हैं और समूहों में ही वितरित होते हैं। इसलिए आरक्षण या कोटा प्रणाली का आधार समाज के मूल समूह बनते हैं, जैसे भारत में जाति या पेशा-समूह को बेसिक कलेक्टिविटी माना गया और अमेरिका में नस्ल, रंग आदि के समूहों को। इस दृष्टि से देखा जाए तो उच्चतम न्यायालय का क्रीमी लेयर का निर्णय भी गलत ठहरता है, क्योंकि इस निर्णय के अंतर्गत आरक्षणों के लिए मूल समूहों को तो आधार माना गया, किंतु आरक्षण की परिधि से बाहर करने के लिए व्यक्तियों और परिवारों को चुना गया, जबकि निष्कासन भी मूल समूहों का होना चाहिए। इसके लिए ठीक रास्ता यह था कि उच्चतम न्यायालय संविधान के अनुच्छेद १६ में आए शब्द ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ को परिभाषित करता अर्थात उसका अनुपात निश्चित करता (जैसे जनसंख्या अनुपात का ५० प्रतिशत) और फिर १० वर्षीय जनगणना में जातियों की स्थिति के आँकड़े जमा कर उन जातियों को आरक्षण की परिधि से बाहर करने की व्यवस्था की जाती जिन्हें सरकारी नौकरियों आदि में ५० प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिल गया हो। किंतु हम जातियों के आँकड़े जमा करने से डरते हैं, इसलिए उच्चतम न्यायालय ने भी आसान-सा रास्ता चुना, जो सफल होता नजर नहीं आता, क्योंकि इसमें न्यायालय ने खुद अपने ही सिद्धांत का तिरस्कार किया है।

सारांश यह कि सामाजिक न्याय की कल्पना एक नई कल्पना है, जिसका सही स्वरूप अभी सर्वोच्च न्यायालय के जजों के लिए भी स्पष्ट नहीं हुआ है। जनसंचार माध्यमों से जुड़े लोगों के लिए भी इसे ठीक-ठीक समझ पाना मुश्किल है। इसके अतिरिक्त जो बात सबसे अधिक चिंताजनक है, वह यह है कि जनसंचार माध्यमों का संचालन करने वाले अधिकांश लोग सवर्ण जातियों से आते हैं जिनके लिए अपने संस्कारों से ऊपर उठना बहुत कठिन होता है। हर युग परिवर्तन के साथ यह ट्रेजेडी घटती है कि नए युग की संस्थाओं का संचालन पुराने युग के मूल्यों को वहन करने वाले बुद्धिजीवियों के हाथ में रहता है। इंग्लैंड आदि देशों के आधुनिक लोकतंत्रों का संचालन भी अभी हाल तक सामंती मानसिकता वाली नौकरशाही और बुद्धिजीवी वर्ग के हाथों में रहा। इसका कारण होता है कि जिस रफ्तार से राजनैतिक सत्ता या धन की सत्ता विस्थापित और वितरित होती है, उसी रफ्तार से विद्या या ज्ञान की सत्ता विकेंद्रित नहीं होती।

वर्ण व्यवस्था की एक बड़ी विशेषता है कि यह अपने एकाधिकार को बनाए रखने के लिए समान अवसरों का छलपूर्ण नारा लगाती है और विशेष अवसरों का विरोध करती है। आज की विश्व बाजार व्यवस्था भी सारे देशों पर जोर डाल रही है कि वे अपने यहाँ लागू विशेष संरक्षणों को (जैसे तट कर, लाइसेंस आदि) समाप्त करें और सबको व्यापार की समान सुविधाएँ दें। यह व्यवस्था चाहती है कि भेड़ियों और मेमनों को आपस में खुली प्रतियोगिता करने दी जाए। यह ठीक वैसा ही है, जैसे आरक्षणों और सामाजिक न्याय का विरोध करने वाले वर्ण व्यवस्थावादी करते हैं।

सामाजिक न्याय की कल्पना समाज कल्याण से भिन्न है। समाज-कल्याण की कल्पना पूँजीवाद के निकृष्ट (माक्र्स के अनुसार अपरिहार्य) परिणाम अर्थात सर्वहारा के अत्यंत निर्धनीकरण को रोकने के प्रयास में सामने आई। समाज के दीन-हीन कमजोर तबकों को राज्य की ओर से यत्ंिकचित सहायता, जो उन्हें अभाव-जन्य मृत्यु से बचाए, यही समाज कल्याण है। यह राज्य की ओर से दी गई चैरिटी है, अधिकार नहीं और कभी भी राज्य इसमें कटौती कर सकता है, जैसा कि पूँजीवादी देशों में आजकल हो रहा है। सामाजिक न्याय मूलभूत अधिकार है, संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित। यह किसी का अनुग्रह नहीं है।

सामाजिक न्याय का लक्ष्य विषमता को समाप्त करना और समता की व्यवस्था स्थपित करना है। स्वतंत्रता और बंधुता की तरह ही समता मानव का नैसर्गिक अधिकार है।

डॉ. आंबेडकर के अनुयायी कुछ बुद्धिजीवी अब जाति उन्मूलन की बात नहीं करते। वे डॉ. आंबेडकर के सिद्धांत को नकार कर जातियों के शक्तिकरण की बात करते हैं। उनकी दृष्टि में सामाजिक न्याय का उद्देश्य दलित जातियों को शक्तिशाली बना कर उन्हें सवर्ण जातियों के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार करना है। इस युयुत्सु दृष्टि के कारण सामाजिक न्याय जाति युद्ध की स्थितियाँ पैदा कर रहा है।

जाति व्यवस्था के टूटने के क्रम में जातियों के पुनर्संगठन और शक्तिकरण की प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी से ही चल रही है। आर्य समाज के आंदोलन की प्रतिक्रिया के रूप में ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य आदि जातियों ने अखिल भारतीय संगठन बना कर और अपनी अंदरूनी ऊँची-नीची सीढ़ियों को तोड़कर अपने को शक्तिशाली बनाने की कोशिश की। उनकी देखा-देखी छोटी जातियों ने भी अपने संगठन बना कर अपने को शक्तिशाली बनाने की कोशिश की, यहाँ तक कि उन्होंने अपने उद्गम को महान सिद्ध करने के लिए इतिहास और मिथकों को तोड़-मरोड़कर कई बेसिर-पैर की कहानियाँ ईजाद कीं। शक्तिकरण की यह प्रवृत्ति स्वाभाविक है, लेकिन यह जाति व्यवस्था की बुराई का समाधान नहीं है। यह समाज को जाति युद्ध और विनाश की ओर ले जानेवाली है।

सामाजिक न्याय अधिकारों का विकेंद्रीकरण कर कमजोर जातियों का शक्तिकरण तो करता है, किंतु यह कुछ जातियों के वर्चस्व के स्थान पर कुछ अन्य जातियों के वर्चस्व को स्थापित करने का रास्ता नहीं है। यह समाज में समरसता लाने के लिए और जाति व्यवस्था का उन्मूलन करने के लिए समाज के सभी समूहों का शक्तिकरण करता है। यह लक्ष्य विभिन्न जातियों के बीच घृणा और द्वेष का वातावरण बना कर प्राप्त नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है और इसका कारण है कि हमने सामाजिक न्याय की कल्पना को ठीक से नहीं समझा है। बंधुता की हत्या कर समता स्थापित नहीं हो सकती, उसी तरह, जैसे समता की हत्या कर स्वतंत्रता स्थापित नहीं होती।

डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में अपने समापन भाषण में कहा था - ‘स्वतंत्रता, समता और बंधुता को एक-दूसरे से अलग कर दें तो लोकतंत्र निष्फल हो जाएगा। न स्वतंत्रता को समता से अलग किया जा सकता है और न समता को स्वतंत्रता से। इसी तरह स्वतंत्रता और समता को भी बंधुता से विलग नहीं किया जा सकता।’

नव-आंबेडकरवादी इस भावना के ठीक विपरीत काम कर रहे हैं। वे समाज के अपने से भिन्न तबकों को शत्रु के रूप में देख रहे हैं। यह मनुवाद का ही विपर्यय रूप है। इस रास्ते से न जाति व्यवस्था का उन्मूलन हो सकता है और न दलितों की स्थिति में कोई आमूल परिवर्तन हो सकता है। यह विनाश का ही रास्ता है।

डॉ. आंबेडकर और उनके समकालीन अंग्रेजी लेखकों की रचनाओं में जिसे ब्राह्मणी, ब्राह्मणवादी या ‘ब्राह्मनिकल’ व्यवस्था कहा जाता था, उसे कुछ समय से मनुवादी व्यवस्था का नाम दिया गया है। वर्णाश्रम के सिद्धांत पर आधारित इस व्यवस्था का स्वरूप चूँकि मनुस्मृति में तय किया गया था, अत: इसे मनुवादी कहा गया। व्यवस्था से अधिक यह विशेषण अब मानसिकता के लिए इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि मनुस्मृति की व्यवस्था तो काफी हद तक बदल गई है, किंतु मानसिकता वही है। इसे जातिवादी मानसिकता भी कहा जाता है।

यह मानसिकता गुप्त और प्रकट, दो रूपों में दिखाई देती है। प्रकट रूप पर तो संविधान ने अंकुश लगाए हैं, किंतु गुप्त या छद्म रूप में यह निरंतर काम कर रही है। जरूरी नहीं कि यह मानसिकता सवर्ण जातियों में ही हो, असवर्ण जातियाँ भी इन मानसिकता का शिकार हैं।

डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया ने इस मानसिकता के छद्म रूपों की विस्तार से पड़ताल की थी।

बंबई एसेंबली में दलितों के प्रतिनिधित्व पर हुई बहस के दौरान एक बार डॉ. आंबेडकर ने टिप्पणी की कि ब्राह्मण जज जब ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण के बीच वाद का फ़ैसला करने लगता है तो वह सिर्फ़ जज के रूप में फ़ैसला नहीं करता, उसकी जातिवादी मानसिकता भी काम करती है। इस पर एसेंबली में बहुत हंगामा हुआ। दूसरे दिन आंबेडकर ने स्पष्टीकरण दिया कि ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग उन्होंने इसलिए किया था क्योंकि प्रश्न पूछने वाला ब्राह्मण था। प्रश्न पूछने वाला कोई और होता तो मैं उसी की जाति का उल्लेख करता। यह एक मानसिकता है जो सबमें काम करती है।

डॉ. लोहिया ने १० दिसंबर १९५७ को लखनऊ जेल से उत्तर प्रदेश के जेल मंत्री के नाम एक पत्र लिखा था, जिसमें जवाहरलाल नेहरू को ‘वशिष्ठी परंपरा का कट्टर ब्राह्मण’ कह कर संबोधित किया था। इस पत्र में डॉ. लोहिया ने इस मानसिकता को वशिष्ठवाद कहा था और उसकी विशेषताएँ बताई थीं— अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए क्रोध से अभिभूत होकर किसी को देश-निकाला (जैसे सीता को) और किसी का सिर काटने (जैसे शम्बूक का) की प्रवृत्ति। उनका कहना था कि कट्टरता की परंपरा वशिष्ठ की परंपरा है और उदारता की परंपरा वाल्मीकि की परंपरा।

मनुवाद का आम अर्थ इस समय यह है कि सवर्ण जातियों का राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक-सांस्कृतिक वर्चस्व हर हालत में बना रहना चाहिए, चाहे इसके लिए जो भी छल-छद्म करना पड़े। यह काम स्त्री और शूद्र के बहुसंख्यक समाज में हीनता की भावना भर कर ही किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि इस बंहुसंख्यक समाज के रहनसहन, शिक्षा, व्यवसाय, संस्कृति के स्तर को यथासंभव निम्न से निम्न रखा जाए। यदि यह बहुसंख्यक समाज अपने राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की मांग करता है, तो उस माँग को हर संभव प्रयास से दबाया जाए।

संविधान में इस बहुसंख्यक वर्ग को सामाजिक न्याय के प्रावधानों के अंतर्गत जो अधिकार दिए गए (जैसे विशेष अवसर, आरक्षण की व्यवस्था), उन्हें कुंठित करने के लिए जो भी प्रयास हुए या हो रहे हैं, वे मनुवादी सोच का परिणाम हैं। कभी इन प्रावधानों को यह कह कर चुनौती दी गई थी कि ये मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। न्यायपालिका के इस फ़ैसले को बेअसर करने के लिए संविधान में पहला संशोधन १९५१ में करना पड़ा। संविधान के निर्देश के अनुसार नियुक्त कालेलकर आयोग ने जब स्त्रियों सहित सभी पिछड़े वर्गों को ७० प्रति आरक्षण देने की सिफारिश की, तो जवाहरलाल नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने कालेलकर पर रिपोर्ट बदलने के लिए दबाव डाला। परिणामस्वरूप कालेलकर ने राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजते समय अग्रेषण पत्र में लिखा कि रिपोर्ट तैयार होने के बाद मैंने महसूस किया कि यह रिपोर्ट बहुत खतरनाक है। नेहरू सरकार ने योग्यता और आर्थिक कसौटी का तर्क दे कर, जिसे आज तक दुहराया जा रहा है, रिपोर्ट को कूड़े के डिब्बे में डाल दिया। इंदिरा सरकार ने भी इसे दबाए रखा और जनता सरकार के समय बनाए गए मंडल आयोग की रिपोर्ट को भी इंदिरा-राजीव सरकारों ने दबा दिया। जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने की, तो सारे देश में बसों को जलाने और आत्मदाहों का सिलसिला चला। कुछ लोगों ने दलित पिछड़ों के अधिकारों की इस माँग को भक्ति काल के आजमाए हुए फार्मूले के अनुसार धर्म से कुंद करने की नीति अपनाई और राम जन्मभूमि का आंदोलन छेड़ दिया। उच्चतम न्यायालय का फ़ैसला आ जाने के बाद भी दलित-पिछड़ों के अधिकारों के इस आंदोलन को विफल करने के प्रयास जारी हैं। आरक्षण समर्थक भी मूर्खतावश ऐसे प्रयास कर रहे हैं। वे धर्म के आधार पर भी आरक्षण की वकालत कर रहे हैं, जबकि यह आर्थिक आधार आरक्षण की तरह ही इस आंदोलन की भावना और संविधान के विरुद्ध है।

जाति व्यवस्था की बुराई का तीव्र अहसास हमें डॉ० आंबेडकर ने कराया, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन उन्होंने इस बुराई से निजात पाने का रास्ता नहीं सुझाया। उन्होंने धर्म परिवर्तन का रास्ता आजमाया, किंतु वे जानते थे कि धर्म परिवर्तन के बाद भी इससे पीछा नहीं छूटेगा। उन्होंने गुस्से और युद्ध के तेवर अपनाए और उनके अनुयायियों ने उसे घृणा का रूप दे दिया। घृणा घृणा को उकसा रही है और युद्ध का कहीं अंत नहीं दिखता। दूसरा रास्ता गांधी ने सुझाया—संस्कारों को बदलने का और मन की शुद्धि करने का। यह बंधुता के साथ समता को लाने का रास्ता है।

गांधी को इस समय दलितों ने खतरनाक मुजरिम के रूप में कटघरे में खड़ा किया है। धर्म की राजनीति करने वाले कठमुल्ले हिंदुओं ने भी गांधी को अभियुक्त बनाया है। एक वर्ग उन्हें ‘शैतान की औलाद’ तक कहने में सुख प्राप्त करता है। दूसरा वर्ग उन्हें राष्ट्रपिता कहे जाने पर घोर आपत्ति करता है। गांधी की मृत्यु के लगभग आधी सदी बाद भी इन वर्गों ने उन्हें क्षमा नहीं किया। दुनिया के सबसे बड़े इंसान, अहिंसा के मसीहा के साथ इस सुलूक से प्रत्येक भारतीय का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए था। लेकिन लगता है, हमारा सिर मेरुदंड पर नहीं, टीक के डंडे पर टिका है।

दुनिया में ऐसा कोई भी महापुरूष नहीं हुआ, जिसने अपने जीवन में गलतियाँ न की हों। जिन्हें हम अवतार मानते हैं, उनसे भी गलतियाँ हुई हैं। गांधी जी ने भी गलतियाँ कीं ओर उन्हें ईमानदारी के साथ स्वीकार भी किया है लेकिन उन्होंने देश के लिए और दलितों के लिए जो त्याग-तपस्या की, उसकी मिसाल ढूँढ़ना मुश्किल है।

यह ठीक है कि गांधी जी सवर्ण जाति में पैदा हुए। डॉ. भीमराव आंबेडकर की तरह उन्हें जन्म के कारण अपमान और उपेक्षा का शिकार नहीं होना पड़ा। लेकिन दलितों के प्रति उनके मन में जो दर्द था, वह डॉ. आंबेडकर से कम नहीं था। यह भी ठीक है कि वे वर्ण व्यवस्था को एक समय सही मानते थे, लेकिन डॉ. आंबेडकर से हुए विचारोें के आदान-प्रदान के बाद उन्होंने अपनी धारणाओं में आमूल संशोधन किया था। यह परिवर्तन आसानी से नहीं हुआ। इसका कारण है कि अपने विश्वासों पर अटल रहने से भी कठिन काम अपने विश्वासों में संशोधन करना होता है। इसके लिए उन्हें बहुत आत्ममंथन करना पड़ा। बहुत अपमान भी सहना पड़ा, इतना कि शायद डॉ० आंबेडकर भी उसे बर्दाश्त न कर पाते। इस अपमान की महागाथा गांधी शांति प्रतिष्ठान से गत वर्ष प्रकाशित पुस्तक ‘गांधी़ज’ कैम्पेन अगेंस्ट अनटचेबिलिटी- १९३३-३४’ में छपी है, जिसके संपादक हैं बरेन राय और जिसमें गांधी जी के अस्पृश्यता विरोधी देशव्यापी दौरे से संबंधित ब्रिटिश सरकार की गोपनीय रिपोर्टों के दस्तावेज दिए गए हैं। स्मरणीय है कि ये रिपोर्टें सर्वोच्च अधिकारियों द्वारा तैयार की गई और लंदन भेजी गई थीं।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए कम्यूनल अवार्ड के विरोध में गांधी जी ने लंबा अनशन किया, जिसकी परिणति डॉ. आंबेडकर और सवर्ण हिंदुओं के बीच हुए पूना समझौते में हुई। इसके बाद गांधी जी ने राजनीति से अपने को अलग कर लिया और अस्पृश्यता निवारण के अभियान में देशव्यापी दौरे पर निकल पड़े। यह दौरा नवंबर १९३३ से अगस्त १९३४ तक चला। दौरे का उद्देश्य था अस्पृश्यता के विरुद्ध जनमत तैयार करना और हरिजन सेवक संघ के लिए चंदा इकट्ठा करना। यह वह समय था, जब गांधी जी ने सामूहिक सिविल नाफरमानी आंदोलन को निलंबित कर दिया था जिसके कारण उनकी साख अपने ही अनुयायियों (जवाहरलाल और सुभाष आदि) की नजरों में भी गिर गई थी। आंदोलन की विफलता और कांग्रेसी नेताओं सहित असंख्य लोगों की गिरप्âतारी के कारण कंाग्रेस में मायूसी छाई हुई थी। पूना समझौते के साथ कम्यूनल अवार्ड को कांग्रेस द्वारा मान लिये जाने के बावजूद अधिकतर कांग्रेसी इसे पचा नहीं पा रहे थे और इसलिए अल्पसंख्यक कांग्र्रेस से नाराज थे। दलितों को लग रहा था कि गांधी ने आंबेडकर पर नाजायज दबाव डाला और हिंदुओं के सवर्ण तबकों को गांधी हिंदू धर्म के दुश्मन के रूप में दिखाई दे रहे थे, हालाँकि गांधी जी के आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य हिंदू समाज की अखंडता बनाए रखना था। कम्युनिस्ट गांधी को गाली देने का कोई मौका नहीं चूक रहे थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ-हुआ ही था और उसके सैद्धांतिक आग्रह अधिकांशत: साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे नेता भी, जो साम्यवादी विचारधारा के जादुई सम्मोहन से मुक्त थे, जवाहरलाल नेहरू के प्रभाव से अभिभूत थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के कार्यक्रम के कुछ मुद्दों से असहमति जताते हुए गांधी जी ने उसे पंसद कर लिया था और कांग्रेस के भीतर सोशलिस्ट पार्टी के काम करने को अपनी स्वीकृति दे दी थी। किंतु सोशलिस्ट ग्रुप नेहरू, सुभाष आदि के नेतृत्व में गांधी के मंदिर प्रवेश, अछूतोद्धार जैसे कार्यक्रमों से संतुष्ट नहीं था और न ही वह अहिंसा के सिद्धांत को पूर्ण रूप से मानने को तैयार था, हालांकि रणनीति के रूप में मानता था। गांधी ने सोशलिस्ट कार्यक्रम को देखकर कहा था— इसमें समाज सुधार का उल्लेख नहीं है। डॉ. लोहिया ने संविधान के प्रारूप पर आपत्ति की थी कि इसमें पूर्ण आजादी के लक्ष्य का उल्लेख नहीं हुआ है।

कुल मिलाकर गांधी जी बिलकुल अकेले पड़ गए थे। उन्हें चारों तरफ विरोध के स्वर सुनाई दे रहे थे। कट्टर हिंदूवादी तत्व (जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वर्णाश्रम स्वराज संघ, हिंदू महासभा आदि के लोग थे।) तो उनके खून के प्यासे तक बन गए थे। गाँधी जी जहाँ-जहाँ दौरे पर पहुँचते थे, ये कट्टर हिंदू तत्व उन्हें काले झंडे दिखाने, उनकी सभाओं में गड़बड़ी पैदा करने, गांधी विरोधी पोस्टर बँटवाने के लिए पहुंच जाते थे। बंगाल के सवर्ण हिंदू और पंजाब के सवर्ण हिंदू इस विरोध में विशेष मुखर थे। बंगाल के कम्युनिस्टों ने तो साम्राज्यवाद-विरोधी लीग के वजन पर गांधी विरोधी लीग ही बना ली थी। कट्टर हिंदुओं ने ‘गांधी बायकाट’ कमेटी बनाई थी। ब्रिटिश सरकार, बुद्धिजीवी, कट्टर हिंदूवादी, कम्युनिस्ट, दलित, मुस्लिम सब गांधी जी का विरोध करने के लिए कटिबद्ध थे और कांग्रेस का वाम गुट भी उनके आंदोलन के प्रति सहानुभूतिशील नहीं था। सबसे बड़ी बात यह कि जिस दलित वर्ग के हक में जनमत तैयार करने के लिए वे निकले थे, उसका भी उनके प्रति ठंडा रवैया था। इस सारे प्रतिकूल माहौल के बावजूद गांधी जी ने सारे देश का भ्रमण किया और अपने अस्पृश्यता निवारण के कार्यक्रम को चलाया। इस दृष्टि से यह एक अद्भुत अभियान था, जिसकी दुनिया में मिसाल नहीं मिलती। नितांत निराशा की परिस्थितियों में भी एक व्यक्ति क्या कर सकता है, इसका यह एक उदाहरण था। ब्रिटिश सरकार की गोपनीय रिपोर्टों में गांधी के इस अभियान को पूर्ण विफल बताया गया, किंतु इसका परिणाम १९३७ के चुनावों में देखने को मिला, जिसमें कट्टर हिंदूवादी तत्वों का बिलकुल सफाया हो गया, मुस्लिम लीग किसी भी प्रांत में सरकार नहीं बना सकी, डॉ. आंबेडकर की पार्टी भी लगभग खत्म हो गई तथा कम्युनिस्टों को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के झंडे तले आजादी के आंदोलन में शामिल होना पड़ा। गांधी जी को एक बार फिर आजादी के आंदोलन की बागडोर सँभालनी पड़ी तथा अनेक नेताओं के असमंजस के बावजूद कांग्रेस को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू करना पड़ा। लाखों की तादाद में भारतवासी ‘करो या मरो’ के आह्वान पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अंतिम लड़ाई लड़ने के लिए निकल पड़े।

लेकिन लगभग दस महीने के इस ‘एकला चलो’ अभियान में गांधी जी को कितने कष्ट झेलने पड़े, कितना विरोध सहना पड़ा, कितना अपमान पीना पड़ा, इसकी कल्पना कर मन सिहर उठता है। डॉ. आंबेडकर को तो अपने विरोधियों से ही अपमान मिला था और उसके चलते उन्होंने बौद्ध धर्म की शरण लेकर अपनी लड़ाई बंद कर दी थी। इस पीड़ा को एक महात्मा ही झेल सकता था। कोई आश्चर्य नहीं कि इस अभियान के समाप्त होने के बाद अक्टूबर १९३४ में उन्होंने कांग्रेस की चवन्नी सदस्यता भी छोड़ दी। देशवासियों ने तो उनके इस अभियान को नहीं समझा, किंतु विदेशी विद्वानों ने माना कि यह अद्भुत अभियान था। उनके एक जीवनी लेखक हेनरी पोलक ने कहा, ‘गांधी ने अस्पृश्यता को ऐसा आघात पहुँचाया है कि वह उससे कभी उबर नहीं सकेगी।’ उनके एक अन्य प्रशंसक होरेस एलेक्जेंडर ने ३५ साल बाद लिखा : ‘अस्पृश्यता को समाप्त करने में मानवतावादी विचारों और लोकतंत्र का प्रभाव और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को तो निस्संदेह स्वीकार किया जाएगा, किंतु मेरे विचार से इसमें सितंबर, १९३२ के दिन को निर्णायक माना जाएगा, जब गाँधी जी ने इसके लिए अनशन किया था।’

गाँधी जी का दौरा ५ नवंबर १९३३ को शुरू हुआ और २ अगस्त १९३४ को समाप्त हुआ। पहला पड़ाव नागपुर था। यहां की राजनैतिक स्थिति का वर्णन करते हुए रिपोर्ट में कहा गया कि यहाँ कांग्रेस के मराठीभाषी (अभ्यंकर-खरे) ग्रुप और हिंदीभाषाी (अवारी

पूनमचंद) ग्रुप के बीच तीव्र होड़ चल रही थी। कट्टर हिंदूवादी (जिन्हें सारी पुस्तक में सनातनी तत्व कहा गया है), मंदिर प्रवेश और अस्पृश्यता निवारण के गांधी के कार्यक्रमों के खिलाफ जबरदस्त प्रचार कर रहे थे। भाई परमानंद पहले ही पहुँच गए थे और उनके स्वागत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डां. हेडगेवार के साथ-साथ वर्णाश्रम स्वराज संघ के नेता और महारों के प्रतिनिधि भी शामिल थे। भाई परमानंद ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों का ‘ड्रिल प्रदर्शन’ देखने के बाद उनकी तुलना मुसोलिनी के यूथ ब्रिगेड से की। टाउन हॉल में हुई बैठक डॉ. हेडगेवार का ‘शो’ था और बैठक की अध्यक्षता कर रहे एम.जी. चिटणीस डॉ. हेडगेवार के कठपुतले थे। मुंजे के अनुयायी वहाँ उपस्थित थे। भाई परमानंद ने कश्मीर, भोपाल, सिंध, अलवर और निजाम के इलाके में हिंदुओं के उत्पीड़न की हृदय-विदारक कहानियों के साथ एक अत्यंत भड़काऊ भाषण दिया। सनातनियों की एक सभा में पंडित अखिलानंद ने कहा कि धर्म की रक्षा स्वराज प्राप्त करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है।

नागपुर के दौरे का सारांश प्रस्तुत करते हुए रिपोर्ट में कहा गया कि गांधी जी के दर्शनों के लिए ही लोग उनकी मीटिंगों में आते थे, उनके विचारों से वे प्रभावित नहीं होते थे। मारवाड़ी चंदा देना चाहते थे, लेकिन उन्हें लगता था कि यह चंदा महारों को मिलेगा जो वे नहीं चाहते थे। आंबेडकरवादी महार आमतौर पर इन सभाओं से अलग रहे। सनातनी तत्व समानांतर सभाएँ करते थे और गाँधी जी की सभाओं में हुड़दंग भी करते थे। कांग्रेस का अवारी ग्रुप जवाहरलाल नेहरू के प्रभाव के कारण गांधी के अभिमान को नापसंद करता था और गांधी के खिलाफ कुप्रचार भी करता था। खरे-अभ्यंकर ग्रुप गांधी जी के अभियान का पूरा समर्थन कर रहा था।

वर्धा में सनातनियों के हुड़दंग को रोकने के लिए पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। यवतमाल के डिप्टी कमिश्नर ने लिखा : गांधी को लोग महात्मा के रूप में जरूर देखने आते हैं, किंतु कोई भी उन्हें राजनेता या समाज सुधारक के रूप में गंभीरता से नहीं लेता।’ अकोला में एक कम्युनिस्ट नेता ने विरोध में सभा करने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुआ। सियोनी के दौरे के संबंध में डिप्टी कमिश्नर ने लिखा : ‘दौरा टाँय-टाँय फिस रहा। लोगों ने खुलकर इस बात पर असंतोष व्यक्त किया कि गांधी का मुख्य उद्देश्य धन इकट्ठा करना है।’

कटनी, सागर, दमोह, जबलपुर आदि के दौरे में बनारस के सनातनियों के जत्थे गांधी के विरोध में लगे रहे, लेकिन उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। जबलपुर में गांधी की भेंट अब्दुल कलाम आजाद, डॉ. महमूद, के.एफ. नरीमन, नेहरू, जमनालाल बजाज आदि नेताओं से हुई। एक सभा में नेहरू ने सिविल नाफरमानी आंदोलन की विफलता को स्वीकार करते हुए कम्युनिज्म की वकालत करता हुआ-सा एक भाषण दिया। सी.पी. बरार दौरे का सारांश प्रस्तुत करते हुए रिपोर्ट में कहा गया कि सनातनी तत्वों का विरोध उत्तरोत्तर जोर पकड़ रहा है और गांधी की स्थिति निरंतर कमजोर पड़ती जा रही है।

दिल्ली में तीन सनातनियों ने गांधी की कार पर काला झंडा फेंका, जिससे काफी खलबली मची। रिपोर्ट में कहा गया कि गांधी ने कांग्रेस का पूरा कंट्रोल जवाहरलाल नेहरू को सौंप दिया लगता है। मद्रास में जब गांधी पहुँचे तो उनके स्वागत के लिए एस. सत्यमूर्ति और टी.प्रकाशम नहीं आए। पुरी के शंकराचार्य ने उन्हें मंदिर प्रवेश पर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा, लेकिन गांधी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। बंगलौर की आस्तिक महाजन सभा में एक प्रस्ताव पास किया गया, जिसमें मैसूर सरकार से प्रार्थना की गई थी कि वह हिंदू धर्म में तोड़-फोड़ करने वाले इस अभियान से उनकी रक्षा करें। दक्षिण कैनरा और बेलारी की रिपोर्ट में कहा गया कि कांग्रेस को इस दौरे से फायदा कुछ नहीं होगा, नुकसान ही होगा। बेलगाम में वर्णाश्रम स्वराज संघ ने नगरपालिका के अध्यक्ष को नोटिस दिया कि गांधी को मानपत्र देने के लिए जनता का पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है।

७ अप्रैल, १९३४ को गांधी जी ने पटना से सिविल नाफरमानी आंदोलन को स्थगित करने की घोषणा प्रेस में की। आसाम में चाय बागानों के मजदूरों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किए जाने पर उन्होंने दुख प्रकट किया और कहा कि यदि आसामी कर्मठ होते तो इन मजदूरों को यहाँ लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। बिहार में सनातनी प्रदर्शनकारियों के संबंध में रिपोर्ट में कहा गया कि वे मंदिर के पंडों और बनारस के एक स्वामी द्वारा प्रशिक्षित शरारती तत्वों का गिरोह थे। उड़ीसा (पुरी) में पुरी के राजा तथा महंत अमरनाथ ने एक सभा की, जिसमें गांधी को पाखंडी, धोखेबाज और हिंदू धर्म का शत्रु कहा गया। सनातनियों ने एक पुस्तक भी बाँटीं। इसका शीर्षक था ‘असली गांधी’ और इसमें गांधी की भरपूर निंदा की गई थी। कटक में एक रोचक प्रसंग घटा। सिविल सर्जन ने गांधी जी के स्वास्थ्य की जांच करने की पेशकश की, क्योंकि कमिश्नर ने कहा था, उनकी तबीयत ठीक नहीं है। गांधी जी ने अपनी व्यस्तता का कारण देते हुए उन्हें अलगे दिन आने को कह कर टाल दिया। कटक की एक सभा में एक सनातनी स्वामी गांधी से बहस करने के लिए अड़ गया। गांधी ने उसे बोलने का मौका दिया और फिर जब उनके जबाव देने की बारी आई तो इतना कह कर अपना भाषण समाप्त कर दिया कि चंदा बहुत कम आया। उड़ीसा में एक स्थान (तुरंग) पर हरेकृष्ण मेहताब ने गांधी के साथ आए लोगों के लिए भोजन बनाने का काम कुछ स्थानीय ब्राह्मणों को सौपा था, लेकिन उन्होंने इन्कार कर दिया। कई स्थानों पर तो गांधी जी को सभा भी नहीं करने दी गई और ऐन मौके पर सभा स्थान बदलना पड़ा। सदाव्रत मठ के महंत ने गांधी की सभा में जाने वाले पनवाड़ियों को आत्मशुद्धि करने पर मजबूर किया।

पूना में राजाराम त्र्यंबक कुलकर्णी के नेतृत्व में सनातनियों ने गांधी को काले झंडे दिखाए। एन.सी. केलकर ने गांधी जी की अगवानी की। एक सभा में गांधी जी ने कांग्रेसियों से कहा कि उन्हें समान मुद्दों पर सोशलिस्टों का समर्थन करना चाहिए। २५ जून को विश्राम बाग के निकट एल.बी.भोपटकर की कार को गांधी की कार समझ कर सनातनियों ने बम फेंका जिसमें भोपटकर सहित सात लोग जख्मी हुए। कामशेर स्टेशन पर उस रेलगाड़ी को भी गिराने की कोशिश की गई जिससे गांधी जी जा रहे थे। यहाँ के जिला पुलिस सुपरिटेंडेंट ने रिपोर्ट में लिखा : ‘राजनैतिक व्यक्ति के रूप में तो नहीं, किंतु अपनी उम्र, सादगी और व्यक्तित्व के कारण जनता में उनकी प्रतिष्ठा बनी हुई है। उन्होंने सनातनियों को, जो एक समय उनके समर्थक थे, गहरा आघात पहुँचाया है। कम्युनल अवार्ड के प्रति अपने रुख से उन्होंने हिंदुओं के बहुत बड़े तबके को नाराज कर दिया है। मुसलमान भी उनसे खफा हैं। छात्र-वर्ग उन्हें गैर प्रगतिशील मानता है और हरिजन भी उनसे अप्रसन्न हैं।’

अहमदाबाद की एक सभा में (जिसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने आयोजित किया था) गांधी जी ने कहा कि उन्हें निश्चय ही इस बात से खुशी होगी, यदि सोशलिस्ट मजबूत होकर कांग्रेस को अपने अधिकार में ले लें। सक्खर (सिंध) में एक सनातनी ने कुल्हाड़ी लेकर गांधी से मिलने की कोशिश की, जिसे पुलिस ने रोक दिया। शिकारपुर के सनातनियों ने भी अस्पृश्यता के खिलाफ गांधी के अभियान को हिंदू धर्म विरोधी कह कर प्रचारित किया। कानपुर की आर्य प्रतिनिधि सभा को छोड़कर कहीं भी आर्य समाजियों ने गांधी को समर्थन नहीं दिया, हालाँकि जो काम वे कर रहे थे, वह स्वामी दयानंद का ही काम था। आर्य समाजी सनातानियों के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गए थे, हालाँकि दयानंद का घोर विरोध भी सनातनियों ने ही किया था।

इस देशव्यापी दौरे में गांधी जी को लगभग ८ लाख रूपए चंदे के रूप में मिले। इस चंदा-उगाही में उन्हें बहुत कृपण और कभी-कभी निर्दय भी होना पड़ा। मिसाल के तौर पर उन्होंने बच्चों के गले में लटके लाकेट और महिलाओं के मंगलसूत्र तथा चूड़ियाँ भी उतरवार्इं, जिसके लिए उनकी कटु आलोचना हुई। किंतु वे निस्पृह भाव से अपने काम में लगे रहे।

गांधी जी का यह अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान जाति व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इस अभियान ने लोगों के दिल में जमी छुआछूत और शौच-अशौच की भावना को काफी हद तक दूर किया। मदनमोहन मालवीय जैसे सनातनी ने हिंदू समाज को छुआछूत से मुक्त करने का आह्वान किया। अब गाँवों तथा शहरों में कुछ पोंगापंथी लोग ही छुआछूत मानते हैं। इसी अभियान के प्रभाव से संविधान में अस्पृश्यता के उन्मूलन का प्रावधान हुआ। अस्पृश्यता जाति व्यवस्था का सबसे भयानक रूप है। यह एक मानसिक रोग है। इस मानसिक रोग का उपचार किए बिना जाति व्यवस्था के टूटने की कल्पना नहीं की जा सकती। गांधी ने इस मानसिक ग्रंथि को तोड़ा। इससे पूर्व उन्नीसवीं सदी में स्वामी दयानंद के समय भी एक मानसिक ग्रंथि थी कि जाति ईश्वरकृत है और वेद-सम्मत है। स्वामी दयानंद ने जाति को वेद-विरुद्ध कह कर सदियों से चली आ रही मानसिक गुलामी को तोड़ दिया। आर्य समाज के आंदोलन ने अद्विज जातियों के मन में बैठा हुआ यह भय निकाल दिया कि यह ईश्वरीय व्यवस्था है। गांधी जी ने सदियों पुराने संस्कारों पर प्रहार किया।

सामाजिक न्याय जाति व्यवस्था के ढाँचे को तोड़ सकता है। यह ढाँचा अब टूट भी रहा है। लेकिन जब तक लोगों के मन नहीं बदलेंगे, जाति व्यवस्था का अस्तित्व बना रहेगा। मन को बदलने का काम उन्नीसवीं सदी में दयानंद ने और बीसवीं सदी में गांधी ने किया। इन दोनों को नकार कर जाति व्यवस्था के विनाश की कल्पना भी नहीं की जा सकती।