सामाजिक न्याय की राजनीति के अंतर्द्वंद्व की 'अकथ कहानी' / रवि रंजन

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“किमस्ति कश्चिदसावियति लोके, यस्य निर्विकारं यौवनमतिक्रान्तम् ।” - कादम्बरी

मैं एक ऐसा काम कर रहा हूँ जो पहले कभी नहीं हुआ. मैं अपने बारे में पूरी तरह सच दिखाना चाहता हूँ.मैं ऐसा इंसान हूँ जो किसी और जैसा नहीं है. -ज्याँ जॉक रूसो : ‘कन्फेशन्स’

हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार, विचारक एवं राजनीतिज्ञ प्रेमकुमार मणि के पाँच कहानी संग्रह,‘ढलान’ नामक एक उपन्यास और लेखों के पाँच संकलन प्रकाशित हैं. उनकी ‘अकथ कहानी’ आत्मकथा के शिल्प में नेहरू युग और नेहरू के बाद के भारत और ख़ास तौर से बिहार की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में भागीदारी करती दबी कुचली आबादी के सामूहिक अवचेतन का जीवंत दस्तावेज़ है. इस कृति से गुज़रते हुए बचपन से लेकर बुढ़ापे की दहलीज़ पर पाँव रखते आत्मकथाकार के निजी जीवन के साथ ही उसके अनुभव-सम्पन्न विवेक के तहत बिहार प्रांत की जातिगत और वर्गीय संरचना के साथ ही सामाजिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गतिकी का भी पता चलता है.

एक ज़माने में ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ का सदस्य होने के बावजूद विचारधारा की दृष्टि से ‘हिन्दुस्तानी वाल्तेयर डॉ.राममनोहर लोहिया’ के प्रति मणि जी के झुकाव और गांधी,नेहरू ही नहीं,बल्कि डॉ.अम्बेडकर के प्रति भी उनके मन में बहुत सम्मान का भाव रहा है. उन्होंने यथास्थान भाकपा की नीतियों एवं लोहिया के व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों का भी उल्लेख किया है. दूसरे शब्दों में, ‘अकथ कहानी’ का लेखक विचारधारात्मक कट्टरता के बजाय बुद्ध से लेकर डॉ.लोहिया तक, सारे महापुरुष माने जाने वाले नायकों और उनकी विचारधाराओं के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाता रहा है. ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में कालिदास ने लिखा है:

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥

(पुराना होने से न तो कोई काव्य उत्कृष्ट हो जाता है और न नया होने से निकृष्ट. ज्ञानी लोग दोनों को परखकर उनमें से वरेण्य को अपनाते हैं.जबकि मूढ़ औरों के कहने पर चलते हैं.)

तुलसीदास के शब्दों में कहें तो ‘अकथ कहानी’ पढ़ते हुए शिद्दत के साथ अहसास होता है कि मार्क्सवाद और लोहियावाद की विचारधारात्मक ज़मीन पर खड़े प्रेमकुमार मणि में आरंभ से अंत तक ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ वाला अनुभव-सम्पन्न विवेक जाग्रत रहा है. उन पर कम्युनिस्टों का आरोप था कि वे ‘मार्क्सवादी चिंतनधारा के बीच आम्बेडकर या लोहिया की तरह जाति विमर्श’ खड़ा कर देते हैं. इस सन्दर्भ में लेखक का कहना है कि “कम्युनिस्ट पार्टियों में सवर्णों अथवा ऊँची जातियों का दबदबा था और यही इसका मूल कारण था...ऊँची जाति के लोग जब शहरों में आते थे,तब उन्हें लगता था कि आर्थिक विषमता काफ़ी है.उन्हें सामाजिक स्तर पर कभी अपमान नहीं झेलना पड़ा था....लेकिन यही बात दलित-पिछड़े तबके के लोगों के साथ नहीं थी....मैं चाहता था कि दलित –पिछड़ों की स्थितियों पर सवर्ण परिवारों से आए मार्क्सवादी भी उदारतापूर्वक सोचें.ऐसा नहीं था कि वे सोच नहीं सकते थे.लेकिन वे चाहते नहीं थे.” (पृ.180)

और तो और, बौद्ध धर्म में दीक्षित होने और भिक्षु जगदीश कश्यप का शिष्यत्व स्वीकार करने के बावजूद मणि जी को बुद्ध के जीवन और आचरण में जहाँ एकाध अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है , उसे भी उजागर करने में वे नहीं हिचकते. विवेच्य कृति में गांधीवाद के झंडे तले काँग्रेसी नेतृत्व में पनपे सवर्ण वर्चस्व , ‘नेहरू के अंतर्विरोधों के खिलाफ़ मुखर ,पर गांधी के अंतर्विरोधों पर चुप्पी’ साधने वाले डॉ.लोहिया की राजनीति, जयप्रकाश नारायण की ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के खोखलेपन, मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद कालांतर में पनपे पिछड़ावाद ,सामाजिक न्याय की राजनीति की ज़रूरत और उसके अंतर्विरोध, ‘कुटिलता की हद तक जातिवाद’ से ग्रस्त और ‘द्विज वर्चस्व की जगह यादव वर्चस्व के आग्रही’ शरद यादव जैसे समाजवादी माने जाने वाले नेता के फार्मूले पर राजनीतिक दल द्वारा मुस्लिम-यादव समीकरण का आम चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल, ‘भारतीय जनता पार्टी’ की पश्चगामी राजनीति , ‘समता पार्टी’ और बाद में ‘जनता दल यूनाइटेड’ की पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग की राजनीति में समझौतापरस्ती, बिहार में दबंग जातियों के ज़मींदारों की निजी सेनाओं के खूनी खेल और नक्सली हिंसा आदि के प्रति आलोचनात्मक रुख अख्तियार करते हुए विस्तार से जैसा ब्यौरेवार जीवंत वर्णन-विश्लेषण किया गया है वह महज आंकड़े जुटाकर और उनका वर्गीकरण-विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए सिद्धांत निरूपण करने वाले किसी समाजशास्त्री की कलम से शायद ही संभव हो.

उपर्युक्त सारे मसले पर मणि जी के विवेचन-विश्लेषण से पूरी तरह सहमत न हो सकने के बावजूद साहित्यिक कल्पना एवं समाजशास्त्रीय कल्पना के बीच अंत:सम्बन्ध एवं अंत:क्रिया के फलाफल पर गौर करने वाले किसी भी संवेदनशील प्रबुद्ध पाठक द्वारा इसे सिरे से खारिज़ कर देना असंभव है. वजह यह कि सम्पूर्ण कृति में आत्मकथाकार की सत्यनिष्ठा स्वस्थ आदमी के चेहरे पर खून की चमक की तरह झलकती है. आत्मकथा लेखन के नाम पर सच में झूठ मिलाकर मासूम पाठकों के सामने मिथ्या प्रतीति का प्रकाण्ड दर्शन परोसने वाले कुछ बड़े मान लिए गए लेखकों से भिन्न ‘अकथ कहानी’ का रचनाकार , विजयदेव नारायण साही के शब्दों में कहें तो ,सच को उजागर करते समय इस बात की चिंता से बिलकुल मुक्त है कि उसके द्वारा बेपर्द की गयी सचाई का इस्तेमाल कब कौन किसके पक्ष में करेगा:

परम गुरु...
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा

(विजयदेव नारायण साही: ‘प्रार्थना: गुरू कबीरदास के लिए’, साखी, पृष्ठ.140)

प्रसंगवश याद आ सकते हैं इक़बाल जिनकी एक रचना में नफ़ा-नुकसान देखे बगैर अंतरात्मा की आवाज़ पर सच के लिए हर तरह का जोखिम उठाने वालों की ताईद की गयी है:

बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
अक्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए बाम अभी.

लगभग चालीस छोटे-बड़े अध्यायों के अंतर्गत रचित इस आत्मकथा का आरंभ स्वभावत: जन्म और बचपन के विवरण एवं स्मृतियों से होता है. अपने जन्म के बारे में आत्मकथाकार ने लिखा है: “मेरा जन्म एक ऐसे युवा दम्पती के सम्मिलन का परिणाम था,जिसने अपने विवाह का सामाजिक और पुरोहिती अनुमोदन नहीं प्राप्त किया था.उन दिनों इसे प्रेम विवाह कहा जाता था.मेरे माता-पिता ने जाति और अन्य कई परम्पराओं को तोड़ते-रौंदते हुए साथ चलने का एक आत्म-संकल्प किया और उनके संकल्प को जैसे रेखांकित करने के लिए मैं ‘प्रकट’ हुआ.” (पृ.11)

इस क्रम में आगे बताया गया है कि कैसे लेखक के मामा ने रात में उसे फेंक आने के लिए अपनी बहन से बच्चा छीनकर गाँव से कुछ किलोमीटर दूर बने सूर्य मन्दिर के पास कुएँ की जगत पर रख दिया था और सन्तान के लिए रात भर तड़पती रही उनकी माँ को जब सुबह गाँव के मंदिर पर बच्चा मिला, तो उसे लेकर वह अपने पति के पास चली गईं ,जो बतौर राजनीतिक पार्टी कार्यकर्ता उसके कार्यालय में ही रहते थे. लेखक के शब्दों में ‘पार्टी दफ़्तर में ही मेरे जन्म का ‘जश्न’ आयोजित हुआ.नामकरण हुआ.ज़िन्दगी शुरू हुई.” (पृ.12)

आत्मकथा में नवजात शिशु को बहन से छीनकर भाई द्वारा घर से दूर फेंक आने के कारणों का कोई खुलासा तो नहीं किया गया है, पर समाजशास्त्रीय कल्पना से लैस पाठक को यह अनुमान लगाने में देर न लगेगी कि संभवत: बहन के अंतरजातीय विवाह से नाराज़ भाई ने यह अमानवीय हरकत की होगी.

यह एक तथ्य है कि जाति व्यवस्था समाज का श्रेणीबद्ध विभाजन करती है,जो न केवल श्रम का विभाजन है ,बल्कि यह जन्म से ही लोगों को एक पदानुक्रम में बाँधनेवाली व्यवस्था है. डॉ.आंबेडकर के शब्दों में यह ऐसी गगनचुम्बी बहुमंजिली इमारत है जिसमें नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जाने-आने के लिए सीढ़ियाँ नहीं हैं. विचित्र बात है कि जाति व्यवस्था अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह को असामाजिक एवं धर्मविरुद्ध तो घोषित करती ही है, यह विभिन्न संवर्गों के अंतर्गत परिगणित जातियों के भीतर भी रोटी की तुलना में बेटी के मामले में परस्पर भेदभाव के बर्ताव का बीजवपन करती है. नतीज़तन दलित एवं पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के साथ ही तथाकथित सवर्ण जातियों में भी आपस में वैवाहिक संबंध लगभग निषिद्ध माना जाता है.विचित्र बात है कि हमारे धर्मशास्त्र अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न सन्तान को वर्णसंकर बताते हैं, जो अंतत: कुल–खानदान का नाश कर देता है. ‘गीता’ में कहा गया है :

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥

("जब अधर्म का बोलबाला होता है, तो पारिवारिक स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के भ्रष्ट होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं".)

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥

("वर्णसंकर (विभिन्न जातियों के लोगों के बीच विवाह से उत्पन्न संतान) कुल का नाश करने वालों और उनके पितरों को भी, नरक की ओर ले जाता है, क्योंकि वे श्राद्ध और तर्पण (पिंड और पानी) से वंचित हो जाते हैं".)

इसलिए ‘जाति का विनाश’ पुस्तक में डॉ.आंबेडकर ने अंतरजातीय विवाह को जाति-व्यवस्था को छिन्नमूल करने का एक कारगर तरीका बताया है. कहना यह है कि आज इक्कसवीं सदी के तीसरे दशक में मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाली बेटी के अंतरजातीय विवाह कर लेने से नाराज़ कोई बाह्मण बाप अगर पिछड़ी जाति के अपने दामाद की गोली मारकर हत्या कर सकता है, तो 1953 में लेखक के मामा का अंतरजातीय विवाह की वजह से अपनी बहन से नाराजगी कोई चकित करने वाली बात नहीं है.

इस सन्दर्भ में सबसे करुण प्रसंग है विवाह के बाद पत्नी को गाँव में छोड़कर लेखक के पिता का लम्बे समय तक ग़ायब हो जाना, पत्नी के लगभग तीन सौ पृष्ठों में लिखे एकाधिक पत्रों का जवाब न देना और अंतत: महीनों बाद उनके लौटने पर भेद खुलना कि वे पहले से शादी-शुदा हैं. इस वजह से पारिवारिक कलह और माँ की विक्षिप्त मनोदशा की चर्चा करते हुए आत्मकथाकार ने लिखा है कि कुछ बड़ा होने पर राम कथा में सीता वनवास के प्रसंग से परिचित होने के बाद उन्हें अपनी माँ सीता की तरह तन्हा दिखाई पड़ीं.

ग्रामीण क्षेत्र में मकान बनाने का पेशा करने वाले राजमिस्त्री नाना से भिन्न लेखक के दादा दस बीघे की जोत वाले कबीरपंथी किसान थे. अपने कबीरपंथी ख़ानदान को सामाजिक एवं राष्ट्रीय सन्दर्भ से जोड़ते हुए मणि जी ने जो टिप्पणी की है वह बहसतलब होने के बावजूद क़ाबिल-ए-गौर है: “एक समय किसानों-दस्तकारों के परिवार में कबीरपंथ का बहुत ज़ोर था. हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन ने उत्तर भारत में जिस शिक्षा का प्रसार किया,उसने तुलसी पर ज़्यादा ज़ोर दिया. इसका कारण था कि समाज के कुलीन व सवर्ण लोगों ने राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया. इनके सामाजिक स्वार्थों की पूर्ति तुलसी के माध्यम से होती थी.” (पृ.14)

याद रहे कि फिजी में लगभग बारह वर्षों तक गिरमिटिया मजदूर रहे जिन बाबा रामचन्द्र ने दलित स्त्री से विवाह करके आजीवन दलितों और किसानों के लिए संघर्ष किया उनका प्रिय ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ था. अपने सहयोगियों झिंगुरी सिंह और माता बादल कोइरी के साथ मिलकर उन्होंने ‘अवध किसान सभा’ का गठन करके एक लोकप्रिय पाठ के रूप में ‘रामचरितमानस’ का ज़मींदारों एवं अंग्रेज़ी राज के खिलाफ़ इस्तेमाल किया था.

यदि रूसी साहित्य से एक उदाहरण लें तो ज़ारशाही के दौरान राजद्रोह के आरोप में मृत्युदण्ड की सज़ा सुना दिए जाने और सिर में गोली मारकर सज़ा को कार्यान्वित करने के पल पूर्व उसे बदलकर लगभग चार साल तक साइबेरिया में कठोर कारावास की सज़ा की घोषणा कर दिए जाने के बाद दोस्तोयेव्स्की जब साइबेरिया के लिए प्रस्थान कर रहे थे , तो उनकी किसी पाठक ने उन्हें ‘न्यू टेस्टामेंट’ की प्रति लाकर दी थी.उल्लेख मिलता है कि चाल साल तक उनके पास एकमात्र वही ग्रन्थ था,जिसे बारम्बार पढ़ते हुए उनमें जो चेतना उत्पन्न हुई उसका रचनात्मक प्रतिफलन ‘अपराध और दण्ड’ तथा ‘ब्रदर्स कार्माजोव’ सरीखे महान उपन्यास हैं.

सच तो यह है कि संसार की हरेक संस्कृति कुछ चुनिंदा महाख्यानों के माध्यम से अपने सत्त्व को बचाए रखने का यत्न करती है. कालान्तर में प्रत्येक संस्कृति और उसे वाणी देने वाले महाख्यानों में सामाजिक-ऐतिहासिक एवं आर्थिक कारणों से कुछ क्षयिष्णु तत्त्वों का प्रवेश हो जाता है, जिन्हें समाज का परिवर्तनकामी तबका आगे चलकर प्रश्नांकित किया करता है. भारत में रामायण और महाभारत जैसे आर्ष काव्य ऐसे ही महाख्यान हैं, जिन्हें भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड कहा जा सकता है. इनमें वर्णित कुछ प्रसंगों को प्रश्नांकित तो किया जा सकता है,पर उन्हें सिरे से खारिज़ कर देना विवेकसम्मत नहीं है.

‘अकथ कहानी’ के आरंभ में पारिवारिक प्रसंगों के चित्रण के दौरान छुआछूत का ज़िक्र करते हुए बताया गया है कि लेखक के शुद्ध शाकाहारी कबीरपंथी दादा “छुआछूत मानते थे , लेकिन आश्चर्य की बात है कि दलित हिन्दू जातियों के लोग उनके लिए अछूत नहीं थे. उनके लिए अछूत मुसलमानों के अलावा केवल कायस्थ थे, क्योंकि उनके अनुसार वे मुर्गी खाते थे और मुर्गी खाने वाला आधा मुसलमान तो हो ही जाता है...गाँव में मुसलमान भी बड़ी तादाद में थे.वे मुर्गा-मुर्गी पालते थे.गलियों से गुज़रते हुए कभी कोई मुर्गी पंख फड़फड़ाते हुए ज़ोर से भागी ,तो दादा घर लौटकर स्नान करते थे...लेकिन उनके दिल का दूसरा रूप यह था कि 1946-47 में गाँव में पहली दफ़ा जब साम्प्रदायिक तनाव हुआ और दूसरे गाँव के लोगों के इस गाँव पर धावा बोलने की बात सामने आयी, तो वे अपने पारंपरिक हथियार गंडासे के साथ मुसलमानों के पक्ष में खड़े हो गये.” (पृ.18)

शिक्षिका माँ और राजनीतिकर्मी पिता की संतान के रूप में लेखक का बचपन पाठ्यक्रम के आलावा ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ सरीखी किताबें पढ़ते और राजनीति से जुड़े लोगों की बातचीत सुनते बीता. उनके शब्दों में “मुझे देखकर कौतूहल होता कि रोज़ इतने सारे लोग क्यों आते हैं....मुख्य रूप से उनकी चर्चा में देश की राजनीति थी, जिसका बहुत थोड़ा अंश ही मैं समझ पाता....लेकिन ये अतिथि जो बातें करते थे,उन्हें सुनना मुझे अच्छा लगता था...चुनाव के वक़्त पहली दफ़ा जाति-पाँति की ज़ोरदार चर्चा सुनी .आश्चर्यजनक तो यह था कि भूमिहारों के वोट विधानसभा में कम्युनिस्ट उम्मीदवार भुवनेश्वर शर्मा को, लेकिन लोकसभा में काँग्रेसी उम्मीदवार रामदुलारी सिन्हा के लिए थे.इस गुत्थी को बहुत बाद में मैं समझ सका...वोट के लिए पार्टी से ज़्यादा जाति आकर्षण के केंद्र थे.उस बचपन में भी यह मुझे अटपटा ज़रूर लगा था. चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवारों की जीत हुई, लेकिन चुनाव के नतीज़े आते ही जगह-जगह भीषण जातीय दंगे हुए थे.इन दंगों में पिताजी को ख़ूब परेशान होते देखा. एक जाति-निरपेक्ष स्थिति बहाल करने के लिए माँ-पिता के प्रयासों को याद कर आज भी गर्वानुभूति होती है.” (पृ.25-26)

‘अकथ कहानी’ के पृष्ठ 49-53 पर उल्लिखित ‘डॉ.सरकार और उनका परिवार’ प्रसंग से गुज़रते हुए किशोरावस्था में डॉक्टर साहब की बेटी नीलू के लेखक के प्रति आकर्षण और स्नानघर में प्रेमकुमार जी को ले जाकर नीलू द्वारा ख़ुद को निर्वस्त्र कर लेने के विवरण के मद्देनज़र बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ में आए एक कथन की याद आती है: “इस अथाह सृष्टि में क्या ऐसा कोई है जिसका यौवन निर्विकार बीता हो ?” ‘अकथ कहानी’ में अन्यत्र डॉ.लोहिया को उद्धृत किया गया है, जिनका मानना था कि ‘प्रेम में बलात्कार और वायदा खिलाफ़ी को छोड़कर सब जायज है.’ नीलू को याद करते हुए आत्मकथाकार ने लिखा है : “मैं नहीं जानता ,नीलू दी इस दुनिया में हैं या नहीं....लेकिन उनके विराट दर्शन ने मुझे जो ज्ञान दिया ,उसकी रोशनी आज भी मेरे अंतर्मन में झिलमिलाती है....पवित्रता की मेरी अपनी व्याख्या है और इससे मैं संतुष्ट हूँ.” (पृ.53) बावजूद इसके, इस आधे-अधूरे प्रसंग से गुज़रते हुए बार बार ग़ालिब याद आते हैं: “बे-ख़ुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’ कुछ तो है जिसकी पर्दा-दारी है.”

पश्चिम में सांस्कृतिक पूँजी की अवधारणा के प्रस्तावक और जाने माने फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बोर्डिए (1930-2002) कहते हैं कि आत्मकथा चूँकि सुलिखित होती है, इसलिए एक हद तक बनावटी भी होती है. वह अक्सर वर्तमान से प्रभावित होती है और उससे गुज़रते हुए निर्मिति का बोध होता है. आत्मकथा में जीवन को एक सिलसिलेवार और सुसंगत कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें स्मृति के आधार पर जो कथा लिखी जाती है उसका आरम्भ, मध्य और अंत होता है. उनके अनुसार एक व्यक्ति का नाम और आधिकारिक दस्तावेज़ उसकी सामाजिक पहचान को बनाए रखते हैं.जिस व्यक्ति ने जीवन में कोई मुक़ाम हासिल नहीं किया है वह क़त्तई आत्मकथा लेखन नहीं करेगा. तात्पर्य यह कि आत्मकथा लेखन के लिए लिखनेवाले की समाज में कुछ न कुछ पहचान अवश्य होनी चाहिए. ये एक तरह का ढांचा है, जिसमें व्यक्ति अपनी कहानी को व्यवस्थित करता है. बोर्डिए का मानना है कि यह ढांचा व्यक्तिगत अनुभवों से परिपूर्ण असल जिंदगी से कुछ मायने में अलग हो सकता है. इसकी सबसे बड़ी वजह है समय के अंतराल में मनुष्य का विकसनशील व्यक्तित्व.एक आदमी की मानसिक संरचना जैसी उसके बचपन, किशोरावस्था या युवावस्था में होती है, उसमें शिक्षा-दीक्षा और उम्र बढ़ने के साथ अनुभव की व्यापकता के कारण परिवर्तन स्वाभाविक है. इसलिए प्रौढ़ावस्था या वृद्ध होने के बाद रचित उसकी आत्मकथा में पुराने प्रसंगों की चर्चा के दौरान कुछ न कुछ जोड़–घटाव ज़रूर होता है. आत्मकथा-लेखन क्रम में अगर कोई रचनाकार अपने वास्तविक जीवन से नितांत विच्छिन्न हो जाए ,तो उसकी कृति के साथ विश्वसनीयता का संकट पैदा हो जाएगा.

आत्मकथा लेखन भी एक राजनीतिक पहल है, जिसका सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत समाज की राजनीति पर प्राय: दूरगामी प्रभाव पड़ता है. हिन्दी समाज और ख़ासकर पतन सामंती मूल्यों और उपभोक्ता संस्कृति के घालमेल से कमोबेश आज भी प्रभावित बिहारी समाज पर किसी बड़े लेखक, विचारक या राजनीतिकर्मी की आत्मकथा का प्रभाव अगर आंकना हो तो स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का जायज़ा लिया जा सकता है, जिसका कालांतर में किसानी करने वाले समुदायों और ख़ास तौर से राजनीतिक गोलबंदी के लिए उनका नाम जपने वाली बिरादरी पर पड़ा नगण्य प्रभाव जगजाहिर है. इसलिए मणि जी जैसे राजनीतिज्ञ की आत्मकथा को उनके वर्ग और सदियों से दबे-कुचले सामाजिक तबके के लोगों के सामूहिक अवचेतन की अभिव्यक्ति के रूप में देखना लाजिमी है. सच तो यह है कि जब लोग लम्बे अरसे तक शक्तिहीन रहते हैं, तो भाषा भी एक हथियार बन जाती है. आरंभिक दिनों से शब्दकर्म से जुड़े मणि जी ने ‘अकथ कहानी’ में आज़ादी के बाद सामाजिक न्याय के रास्ते में मौजूद सामन्ती, जातिवादी एवं साम्प्रदायिक रोड़े की शिनाख्त करने के साथ ही सामाजिक न्याय के नाम पर निहित स्वार्थ-सिद्ध करने के लिए गंदी राजनीति करनेवाले तत्त्वों का भी कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है. ऐसा करते हुए कभी-कभार उनके विवेचन-विश्लेषण में असंतुलन और पूर्वग्रह की भी झलक मिलती है, जो अस्वाभाविक नहीं है.किन्तु, उल्लेखनीय है कि उनके निष्कर्ष दुराग्रह से प्रेरित हरगिज़ नहीं हैं और मेरी समझ से इसकी सबसे बड़ी वजह उनका साहित्यकार होना है. याद आते हैं अंतोनियो ग्राम्शी जिनका मानना है कि “कलाकार के सम्मुख एक राजनीतिक परिदृश्य अवश्य होता है, पर वह किसी राजनीतिकर्मी की तुलना में कम नपातुला होता है.इसलिए वह कम कट्टर होता है.”

नेहरू जी के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति पर नज़र दौड़ाते हुए आत्मकथा में कहा गया है : “ उन दिनों देश में कुलीनतंत्र काम कर रहा था...पूरे देश में ब्राह्मणों और कायस्थों का बोलबाला था.एक ब्राह्मण के बाद कायस्थ को प्रधानमंत्री होना ही चाहिए.देशभर में कायस्थ लॉबी काम कर रही थी...राजेन्द्र प्रसाद के राष्ट्रपति पद से हटने के बाद कायस्थ लॉबी बौखलाई हुई थी.उसे अब थोड़ी शान्ति मिली.” (पृ.34)

सवाल उठता है कि नेहरू और शास्त्री जी क्या ब्राह्मण या कायस्थ होने की वजह से ही प्रधानमंत्री बने थे.उनकी जाति एक कारक तत्त्व तो हो सकती है,पर इसे एकमात्र कारण मानना तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित देशी-विदेशी पत्रकारों के आलेखों से पुष्ट नहीं होता.

इसी क्रम में आगे कोलकाता के आधुनिक शहर के रूप में उभार और अंग्रेज़ी आधुनिकता से जुड़ने में कायस्थों और ब्राह्मणों के बीच छिड़े स्पर्धात्मक संघर्ष का उल्लेख के क्रम में ‘ओरिएन्टयलिज़्म की ज्ञानात्मक और थियोसोफ़ी की आध्यात्मिक चादर पर कब्ज़ा जमाने’ की होड़ की समाप्ति को लेकर निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए जब लेखक कहता कि “ अन्तत: रामकृष्ण परमहंस (ब्राह्मण) और विवेकानंद (कायस्थ) की एकता ने संघर्ष को विराम दिया”, तो रामकृष्ण –विवेकानंद के बीच अन्योन्याश्रय गुरु-शिष्य संबंध को जाति की राजनीति के चश्मे के बजाय आदर्शवादी एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने के अभ्यस्त मेरे जैसे अनेक पाठकों को धक्का लगता है और हम एकबारगी चकरा जाते हैं. हमें रामकृष्ण परमहंस के बारे में विवेकानन्द के वे अनेक उदगार याद आने लगते हैं जिनमें स्वामी जी के उदात्त व्यक्तित्व और गुरु के प्रति उनकी जो अनन्य निष्ठा व्यक्त हुई है, उसे ब्राह्मण-कायस्थ सम्बन्ध में घटाकर देखना कम से कम मुझे नहीं जँचता .

विवेकानन्द ने लिखा है : "रामकृष्ण परमहंस ‘जीवित वेदांत' थे. यह मेरा सौभाग्य है कि मैं रामकृष्ण परमहंस का शिष्य बन सका. रामकृष्ण परमहंस ने मुझे सिखाया कि 'सत्य' एक ही है, चाहे उसे किसी भी मार्ग से प्राप्त किया जाए. उन्होंने मुझे सिखाया कि 'भक्ति' और 'ज्ञान' दोनों ही मोक्ष के मार्ग हैं, 'सभी धर्म समान हैं' और हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए. रामकृष्ण परमहंस ने मुझे सिखाया कि 'मनुष्य ही भगवान है' और 'नर सेवा ही नारायण सेवा है'. हमें अपने भीतर की शक्ति को पहचानना चाहिए.” इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस का अपने शिष्य विवेकानन्द के बारे में सुविख्यात कथन है कि “वह ताल नहीं, जलाशय है; ख़ाली घड़ा नहीं,पूरा भरा है; वह साधारण फूल नहीं,सहस्त्रदल कमल है.”

आत्मकथा में प्रेमकुमार मणि के बचपन, स्कूली शिक्षा, छोटी बहन की बीमारी से मौत, अपनी स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या, नौकरी आदि के प्रसंगों के साथ ही भयावह अभाव के बीच उज्ज्वल भविष्य का सपना संजोने की उनकी आकांक्षा के अनेक प्रसंग मिलते हैं जिनसे गुज़रते हुए याद आते हैं पाश, जिन्होंने लिखा है : ‘सबसे ख़तरनाक है सपनों का मर जाना.’ इन प्रसंगों से लेखक की जीजिविषा का भी पता चलता है. उदाहरण के लिए ‘मनुष्य के कदम चाँद पर’ शीर्षक अध्याय के आरंभ में कहा गया है: “हमारे चारों ओर भूख,अकाल, अभाव,और बेबसी थी और जीना किसी चुनौती से कम न था. लेकिन सपने भी कम न थे. राजनीति से लेकर साहित्य और फिर हमारे ग्रामीण जीवन में भी सपनों की कोई कमी नहीं थी.” (पृ.61)

इसी प्रकार इंटरमीडिएट पास करने के बाद मेडिकल की पढ़ाई के लिए फीस न जुटा पाने और रेलवे में गुड्स क्लर्क या माल बाबू की नौकरी के लिए चुन लिए जाने के बावजूद अभावग्रस्त पिता की सलाह के अनुसार आगे स्नातक विज्ञान की पढ़ाई जारी रखने के अपने कठोर निर्णय पर उनकी चुभती हुई टिप्पणी है कि “ग़रीबी के ऊसर गमले में आकांक्षा के बीज पड़े थे और ताज्जुब तो यह कि उसकी पत्तियाँ भी प्रस्फुटित हो रही थीं.” (पृ.69)

बिहार प्रांत के तत्कालीन ग्रामीण परिवेश में जड़ जमाए पिछड़ेपन के मद्देनज़र विवेच्य कृति में एक दिलचस्प वाक़िये का ज़िक्र मिलता है. 1969 में नील आर्मस्ट्रांग और एडविन बज एल्ड्रिन नामक दो अमरीकी अन्तरिक्ष यात्रियों के चाँद पर पहुँचने और मनुष्य मात्र की इस बड़ी उपलबद्धि को सी.आई.ए.का खेल मानने वाले ग्रामीण कम्युनिस्ट लाल बिहारी को इस बात की तकलीफ़ थी कि यह काम सोवियत संघ के वैज्ञानिकों ने क्यों नहीं किया. और, यह भी कि ‘कहीं इस घटना से अमेरिका को अपना साम्राज्य विस्तार करने में सुविधा तो नहीं होगी ?’ इसी प्रकार “दूसरे उदास जमाल मियाँ थे,जिनके अनुसार पाक चाँद को,जिसकी दुनिया भर में मुसलमान इबादत करते हैं,जो हमारी पहचान है, उसे अमेरिका ने नापाक कर दिया अपने कदम रखकर. ‘चाँद सैर करने की जगह नहीं है,वह सुकून देने वाली चीज़ है’ उन्होंने कहा. एक आदमी ने जब उनका मज़ाक बनाना चाहा,तब वे बिगड़ गये – ‘आप नालायक हिन्दू हैं.आपके शंकर जी भी तो चाँद को सिर पर रखे हुए हैं.आपको गुस्सा नहीं होता तो आप जानिए.’ (पृ.63)

भिक्षु जगदीश कश्यप से मणि जी की मुलाक़ात को हम उनके जीवन में एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थानबिन्दु के रूप में रेखांकित कर सकते हैं. विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस के बारे में लिखा है कि “मैं जो कुछ भी हूँ,वह मेरे गुरू रामकृष्ण के कारण है.” एक सीमा तक यही बात प्रेमकुमार मणि और भिक्षु जगदीश कश्यप के सन्दर्भ में कही जा सकती है. बौद्ध धर्म की निरीश्वरवादी दृष्टि और अपने समाज की गतिकी को वैज्ञानिक नज़रिए से समझने-बूझने की सलाहियत उन्हें जगदीश कश्यप से मिली. गुरु से अपनी पहली मुलाक़ात का वर्णन करते हुए मणि जी लिखते हैं: “कषाय वस्त्र में एक थुल-थुल काय व्यक्ति.संत,साधू व शिक्षक का समन्वित रूप. मैंने उनके चरण छुए और उन्होंने मुझे छूकर आशीर्वाद दिया....यह 19 नवम्बर 1972 की तारीख थी. .... कुछ दिन और जाने के बाद भिक्षु जगदीश कश्यप से घनिष्ठता हुई.अब उन्हीं के आवास पर मेरा ठहराव होता था....उन्होंने मुझे पालि पढ़ने के लिए कहा.यह भी कहा कि मैं पढ़ाऊंगा.उन्होंने अपनी ही लिखी किताब ‘पालि महाव्याकरण’ मुझे दी.मैं पालि पढ़ने लगा.मेरी प्रगति पर वे संतुष्ट थे.’ (पृ.74)

‘नालंदा–स्मृति’ शीर्षक के अंतर्गत इस कृति में जगदीश कश्यप, गुणरत्न, तिस्स्वरो ,विवेकानन्द आदि बौद्ध भिक्षुओं एवं अध्येताओं से अपने गहन सम्पर्क की विस्तृत चर्चा के क्रम में मणि जी ने बौद्ध भिक्षुओं की जीवन शैली पर आलोचनात्मक ढंग से रोशनी डालते हुए लिखा है : “ज़रूरतों के मुताबिक़ किसी को हमेशा बदलते रहना चाहिए ...लेकिन मैं देख रहा था कि बुद्धानुयायी ढाई हजार वर्षों से वैसा ही काषाय चीवर धारण किए हुए हैं. संघ की भाषा आज भी पालि ही क्यों है ? बुद्ध के विचारों की आधुनिक व्याख्या क्यों न हों ?...मैं सतर्क था कि इस स्तर पर कोई नया पाखण्ड तो विकसित नहीं हो रहा है ?”

नालंदा स्थित बौद्ध संघ से अपने मोहभंग की चर्चा करते हुए लेखक ने संक्षेप में बताया है कि जब वे गर्मियों में नालंदा संस्थान स्थित अंतर्राष्ट्रीय छात्रावास में बौद्ध भिक्षु विवेकानंद से मिलने गये तो दरवाज़ा खटखटाने पर खुसुरफुसुर की आवाज़ हुई.अंदर से नाम पूछा गया और बतलाने के बाद वहाँ सन्नाटा पसरा रहा.थोड़ी देर बाद सीढ़ियों पर बैठककर भिक्षु का इंतज़ार करते लेखक को कमरे से निकलकर खरगोश-सी भागती एक बच्ची दिखाई पड़ी, जो परिसर परिवार की ही थी और जिसे वे पहचानते थे. आत्मकथाकार के शब्दों में “अब भिक्षु मेरे सामने थे.उन्होंने क्या-क्या कहा ,मुझे याद नहीं है.वह शर्मिन्दगी के भाव में थे.उदार भी....नालंदा मेरे चित्त से उतर गया.उस संस्थान से मेरा आकर्षण ख़त्म हो गया.” (पृ.104).

भिक्षु विवेकानन्द द्वारा उस दिन उपहारस्वरूप दी गयी बुद्ध की प्रतिमा और ‘प्रॉब्लम ऑफ़ सिन’ या ‘पाप की समस्या’ पुस्तक को उन्होंने लौटते वक़्त जलाशय में फेंक दिया. आत्मकथा में इस प्रसंग से गुज़रते हुए अनायास स्वामी सहजानंद की याद आती है जिन्होंने, बकौल प्रभाकर माचवे, एक समय में श्रीलंका के बौद्ध विहार में डेरा जमाकर बैठे हिन्दी कवि नागार्जुन से कहा था कि “वहाँ मुर्दों के चक्कर में क्या पड़े हो.आओ जनता के बीच में काम करो.”

‘शब्दों के संसार में’ अपने प्रवेश को लेकर आत्मकथाकार ने स्पष्ट लिखा है कि कहानी-उपन्यास आदि पढ़कर साहित्य के प्रति आकर्षित होने के बजाय विचारों की दुनिया ने उसे ज़्यादा प्रभावित किया.उसके लिए लेखक का मतलब रूसो और वाल्तेयर थे: ‘एक सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में ही मैंने कलम उठाई; बाद जाकर कथा-लेखक बना.’ ‘नर हो न निराश करो मन को’ सरीखी अनेक सीधी खरी कविताओं के प्रशंसक मणि जी ख़ुद अपने मित्रों के इस आरोप से सहमत हैं कि कविता की समझदारी उनमें नहीं है.बावजूद इसके, उनका यह कहना दुस्साहसपूर्ण है कि “हिन्दी कविता का तीन-चौथाई निजी भावुकता और तुकबंदियाँ हैं, वे वाग्जाल के अलावे और कुछ नहीं हैं.” इतना ही नहीं, उनका यह भी मानना है कि ‘विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग सामाजिक प्रतिक्रियावाद के गढ़ बन गए हैं.’ और ‘1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ , तब उसका पूरा ठाट हिन्दू था.’ वे लिखते हैं कि हिन्दी का भविष्य बेहतर है. वह युनिवर्सिटियों से निकलकर बाज़ार में पहुँच गयी है.’

निवेदन यह है कि हिन्दी क्षेत्र के तमाम अंतर्विरोधों का असर विश्वविद्यालयों के सिर्फ़ हिन्दी विभागों पर ही नहीं,बल्कि तमाम विभागों एवं छोटे बड़े स्कूलों-कॉलेजों पर अवश्य रहा है, पर केवल हिन्दी विभागों को सिरे से ‘प्रतिक्रियावाद का गढ़’ कह देना एक पिटा-पिटाया जुमला है, जो वस्तुत: एक तरह की ज्यादती है. हिन्दी के अध्यापक चूँकि हिन्दी समाज से ही आते हैं इसलिए उनमें हिन्दी समाज में व्याप्त जातिगत,सम्प्रदायगत एवं लैंगिक कुंठाओं का होना अस्वाभाविक नहीं है और उन्हें इससे निजात पाने की चेष्टा करनी ही चाहिए.यह भी सच है कि गैर-अकादमिक एवं अन्यान्य कारणों से लगातार योग्य शिक्षकों की भी कमी होती जा रही है,लेकिन यह चयन-प्रक्रिया में पारदर्शिता के अभाव का दुष्परिणाम है जिसके लिए सरकारी तंत्र जिम्मेदार है.

जिस समाज में नेताओं द्वारा चुनाव जीतने के लिए अपराधियों से साठगांठ करने तथा जातिवाद और साम्प्रदायिकता फैलाने से परहेज़ न हो, स्त्रियों का बेहद घटिया तरीके से उल्लेख किया जाय और सस्ती लोकप्रियता के लिए विदूषक की तरह जानबूझकर या कई बार अनजाने ही भाषा को बिगाड़कर बोलने और ताली बटोरने का चलन हो; उस भाषा को सुनकर अगर कोई प्रबुद्ध प्राध्यापक नाक-भौं सिकोड़ता हो, तो उसका ‘दाढ़ी नोंचता है’ कहकर उपहास करना असंवेदनशील भाषिक व्यवहार है. भारत के हिंदीतर राज्यों और ख़ासकर दुनिया के सभ्य कहे जाने वाले विकसित देशों की विधायिका में सदस्यों के भाषिक व्यवहार को देखते हुए अपने मुल्क के अनेक लोकप्रिय नेताओं का भाषिक व्यवहार स्तरीय नहीं कहा जा सकता.इनमें जो लोग ख़ूब पढ़े लिखे और सभ्य हैं उन्हें राजनीतिक दलों द्वारा दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देना आम बात है.भाषिक व्यवहार का जाति-बिरादरी से सम्बन्ध सूत्र खोजने वाले को उत्तर प्रदेश के दो मुख्यमंत्रियों (श्री मुलायम सिंह यादव एवं सुश्री मायावती जी) के भाषिक स्तर में अंतर पर नज़र डालना चाहिए.

कहना न होगा कि जनता की भाषा पर राष्ट्रीय स्तर के लोकप्रिय बड़े राजनेताओं (स्टेट्समैन) और प्रिंट तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया के साथ ही शिक्षित मध्यवर्ग का सीधा प्रभाव पड़ता है. दुर्भाग्यवश हिन्दी क्षेत्र में डॉ.लोहिया के अनुयायियों समेत तमाम दलों के नेताओं ने हिन्दी के स्वरूप को बिगाड़ने में अनजाने ही बहुत योगदान दिया है. संसद और संसद से बाहर लोहिया के भाषणों को कसौटी मानकर इंदिरा गांधी,जगजीवन राम,पी.वी.नरसिंम्हा राव, मधुलिमये, मधु दंडवते, चन्द्रशेखर, हेमवतीनंदन बहुगुणा, रामावतार शास्त्री, चन्द्रशेखर सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव, नीतीश कुमार जैसे चंद नेताओं को छोड़कर विभिन्न दलों के हिन्दी भाषी ज़्यादातर नेताओं द्वारा संसद और जनसभा में दिए गये भाषणों के भाषिक विन्यास पर टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर हमारे राजनीतिज्ञ अपनी भाषा के बड़े लेखकों को पढ़ने का संभवत: कभी कष्ट नहीं उठाते.यदि सिर्फ़ एक उदाहरण से अपनी बात रखनी हो तो हाल के दशकों में नीतीश कुमार जी समेत बिहार के दो मुख्यमंत्रियों और उनके लग्गूभग्गुओं द्वारा प्रयुक्त हिन्दी भाषा की संरचना का विवेचन-विश्लेषण दिलचस्प होगा. इधर बिहार के राजनीतिक गलियारों में प्रचलित ‘बिहार में बहार है,नीतीशे कुमार है.’ नारा जब ‘आज़ तक’ चैनल के एक एंकर ने दुहराया, तो वहाँ बैठे मुख्यमंत्री समेत सबलोग देर तक हँसते रहे. इसलिए ‘सास का गुस्सा कठौती पर’ वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए केवल हिन्दी अध्यापकों की भाषिक सुरुचि-कुरुचि पर दोषारोपण करना विवेकसम्मत प्रतीत नहीं होता.

पटना में रचनाकारों के साथ अंतरंगता को लेकर लिखित अध्याय बेहद दिलचस्प और आत्मकथाकार के आलोचनात्मक दृष्टिकोण का परिचायक है. दिनकर के संभ्रांत व्यक्तित्व से विकर्षण, पर रेणु और अज्ञेय के सभ्य-संभ्रांत व्यक्तित्व के प्रति अपार आकर्षण के साथ ही और रेणु जी और नागार्जुन समेत दर्जनों छोटे-बड़े लेखकों से मणि जी के जुड़ाव से उनकी अनुभूति की संरचना का पता चलता है. इसी क्रम में राजगीर में सैकड़ों लेखकों के त्रिदिवसीय ‘समांतर लेखक सम्मेलन’ के आयोजन में कथाकार मधुकर सिंह की सहायता का विस्तार से वर्णन करने के दौरान अनेक लेखकों के दोहरे व्यक्तित्व और उनकी शराब-प्रियता के कारण इंतज़ाम में आई मुश्किलों का ब्योरा हैरान कर देने वाला है. मणि जी के शब्दों में “कमलेश्वर जी आयोजन से बहुत खुश थे.वह मधुकर सिंह की कामयाबी के कसीदे बुन रहे थे. मधुकर सिंह के पैर ज़मीन पर नही थे. मैं तो परदे के पीछे था. तीन दिनों तक मैं इन लेखकों के हाव-भाव देखता रहा.मुझ पर इसकी अच्छी प्रतिक्रया नहीं हुई....लेखक जुटते हैं तब उन्हें रस-रंजन ज़रूरी लगता है. गाँव-देहात-कस्बों से आने वाले लेखकों को ज़्यादा ज़रूरी लगता है....दारू का इंतज़ाम करने को कहा गया , तब मेरा माथा ठनका...अतिथि तो देवता होते हैं. देवताओं के लिए दारू का इंतज़ाम करना ही होगा. लेकिन पन्द्रह भरी बोतलों के साथ रिक्शा पर जब आ रहा था,तब पुलिस ने पकड़ लिया.मैंने न चाहते हुए ,एक परिचित अधिकारी के नाम का इस्तेमाल किया और पुलिस ने मुझे फिर जाने दिया,लेकिन मैं अपनी ही निंदा के झाग में डूब गया...रात में मुझे देर तक नींद न आई.आत्मभर्त्सना से मैं शर्मसार था...मैंने राजगीर में पहली दफ़ा और और बाद में दर्जनों दफ़ा लेखकों को इकट्ठे देखा-सम्मेलन, सेमिनारों में. वे रस-रंजन के लिए ऐसे बेताब होते हैं कि देखना मुश्किल होता है. लेखक सम्मेलनों में जब कोई महिला भागीदार होती है, तब लेखकों के सामन्ती –गँवारू संस्कार भड़भड़ाकर बाहर आते हैं. साहित्य लिखते समय तो वह ऊँची –ऊँची बातें लिखता है, लेकिन व्यवहार में वह बिल्कुल सामंत बना रहता है. छिछोरा ,अश्लील और अमानवीय.” (पृ.119)

मणि जी को बाद में इस सम्मेलन के पीछे आपातकाल और इंदिरा जी के नेतृत्व में सत्तासीन सरकार के समर्थन की राजनीति का जब पता चला,तो वे कुछ हैरान हुए. कारण यह कि ‘दलित छात्र संघ’ के परचम तले वे आपातकाल का विरोध कर रहे थे.

गौरतलब है कि ‘अकथ कहानी’ के रचनाकार का पूरे देश में समय-समय पर आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में भारत के तमाम छोटे-बड़े लेखकों-आलोचकों से मिलना-जुलना रहा है.विवेच्य आत्मकथा में बिहार के बाहर के लेखकों में बाबूराव बागुल,दया पवार,अर्जुन डांगले,रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह आदि अनेक लेखकों के सद्व्यवहार को याद करते हुए उनका बहुत सम्मान से उनका नाम लिया गया है.

विवेच्य आत्मकथा में ‘जयप्रकाश आन्दोलन और आपातकाल’ के बाद ‘जीवन के डगर पर’ शीर्षक अध्याय में पटना में रोजी-रोटी के लिए अपने कठोर संघर्ष विवरण पेश करते हुए लेखक ने पटना विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रामबुझावन सिंह और कम्युनिस्ट कवि कन्हैया जी का बड़े आदर से स्मरण किया गया है. इसी प्रकार लोक सेवा आयोग की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर क़ानूनगो के पद पर अनेक जगहों पर पदस्थापन के दौरान प्राप्त अछे-बुरे जिन अनुभवों को आत्मकथा में पिरोया गया है उनमें एक प्रसंग किसी सहकर्मी के साधू-सन्यासी के रूप में किसी मठ-मंदिर का महंत न बन पाने को लेकर भी है ,जिसका कारण उसका पिछड़ी जाति का होना बताया गया है. यह सही है कि हिन्दुओं के पूजा स्थलों पर ब्राह्मणों का कब्जा है (जैसे इस्लाम में सैयदों, यहूदियों में रब्बियों और ईसाईयों में भी एक ख़ास तबके का धर्मस्थानों पर नियंत्रण है ), पर बिहार में प्रसिद्ध फतुहा मठ या पटना के हनुमान मंदिर, अनेक कबीरपंथी मठों समेत कुछ अन्य मठ-मंदिरों में और बिहार से बाहर के कुछ मठों में भी पिछड़ी जाति से आनेवाले संत-महंत मिलते हैं. उदाहरण के लिए तमिलनाडु में आलवारों और नायनारों में या महाराष्ट्र के पंढरपुर में अनेक पिछड़ी ही नहीं, निम्न कही जाने वाली जातियों के संत हुए हैं. सच तो यह है कि ज़्यादातर नायनार संत अद्विज थे. यही स्थिति कर्नाटक के लिंगायत मठों की भी है. इनमें कितने लोग संत-भक्त थे या हैं और कितने पुजारी या महंथ, यह सर्वेक्षण का विषय है.

आत्मकथा के आगे के अध्यायों में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’, इंदिरा जी की जघन्य हत्या, ‘इंदिरा समर्थक कांग्रेसियों और उग्र हिन्दुओं दवारा सिक्खों के विरुद्ध दंगा-फ़साद’ और हज़ारों बेकसूर सिखों की हत्या, राजीव गांधी का सत्तारूढ़ होना, जनता पार्टी का अंतर्कलह, मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के तहत सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को प्रदान किए गए आरक्षण , आरक्षण-विरोधी आन्दोलन, रामजन्मभूमि आन्दोलन, विश्वनाथ प्रताप सिंह की जगह कांग्रेस की मदद से चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने और बहुत जल्द अपदस्थ होने से जुड़े राजनीतिक प्रसंगों का विस्तार से विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है. मार्क्सवादियों में वर्ण-वर्ग के द्वैत पर कड़ी टिप्पणी करते हुए मणि जी ने लिखा है कि तब पिछड़े वर्गों के आरक्षण का स्पष्ट विरोध करनेवाले तीन नेताओं में गीता मुखर्जी और भोगेन्द्र झा सरीखे दो कम्युनिस्ट और एक सामंत कालाकांकर के राजा दिनेश सिंह थे. लेखक के शब्दों में “कम्युनिस्टों के इस दोहरे आचरण पर मुझे कोफ़्त हुआ.एक लेख में मैंने इसका विस्तार से ज़िक्र किया.वह लेख ‘आरक्षण और वाम चिन्तन’ शीर्षक से ‘जनमत’ में प्रकाशित हुआ, जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा समर्थित पत्र था.” (पृ.199)

1990 के आसपास की बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय के सिद्धांत के कार्यान्वयन के संदभ में कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की राजनीतिक सक्रियता तथा प्रगतिशील भूमिका के साथ ही लालू-नीतीश सरकारों की समझौतापरस्ती पर मणि जी ने विस्तार से लिखा है. 1991 के लोकसभा चुनाव में ‘जनता दल’ की ऐतिहासिक जीत के बाद लालू यादव के नायकत्व पर टिप्पणी करते हुए मणि जी ने लिखते हैं कि अब “उनकी जड़ें विधान सभा में नहीं,जनता में थीं,लेकिन इस जीत की उन्होंने सवारी नहीं की, इस जीत ने उनकी सवारी की.इस जनादेश को उन्होंने उत्तरदायित्व के बोध के रूप में नहीं लिया,अपनी ताकत के रूप में लिया.इससे उनका अभिमान बढ़ा और मानसिक संतुलन गड़बड़ाया.ऐसे में चापलूसों की बातें अच्छी लगने लगती हैं और सार्थक आलोचना को बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है.1993 की एक सभा में एक चापलूस ने ‘लालू भगवान् की जय’ के नारे लगाये.कुछ ही समय बाद वह आदमी संसद सदस्य था.एक तुकबंदीकर्त्ता ने जोड़-जाड़कर लालू चालीसा तैयार किया.इस ‘कृति’के आधार पर वह राज्यसभा का सदस्य हो गया....संस्कृत नाटककार शूद्रक की महान रचना ‘मृच्छकटिकम’ राजा के एक साले के ‘उत्पात’ की कहानी है.यहाँ दो थे...यह आत्मघाती अराजकता थी...मैं पसोपेश में था,लेकिन इस नतीजे पर पहुँच चुका था कि लालू प्रसाद के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की लड़ाई ज़्यादा से ज़्यादा समाज में एक नए वर्चस्व प्राप्त तबके का उभार हो पाएगा...नीतीश की बातों में मुझे एक उम्मीद की किरण दिखी.” (पृ.236-37)

आत्मकथा में नीतीश कुमार का अनेक सन्दर्भों में उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि एक लम्बे अरसे तक लेखक का उनसे पुर-उम्मीद बेहद क़रीबी राजनीतिक ही नहीं,बल्कि निजी रिश्ता भी रहा है. गंभीर बीमारी के दौरान नीतीश कुमार ने लेखक की जितनी और जैसी मदद की वह एक राजनेता की संवेदनशीलता और उदारता का परिचायक है. किन्तु, चुनाव में तात्कालिक लाभ और सत्ता प्राप्ति हेतु सामाजिक न्याय के लिए लोहिया द्वारा बताए गए दीर्घकालीन नि:स्वार्थ संघर्ष के रास्ते से भटककर समझौतापरस्त रुख अख्तियार किए नीतीश कुमार द्वारा राजनीतिक मतभेद होने पर मणि जी जैसे विवेक रक्षक (कंसेन्स कीपर) और आँखें खोल देने वाले मित्र को पार्टी से निकलवाकर उनकी विधान परिषद् की सदस्यता को रद्द करवा देना यह सिद्ध करता है कि सिद्धांतविहीन राजनीति सत्ता का क्रूर खेल या अधिकार के लिए संघर्ष का दूसरा नाम है, जहाँ व्यक्ति और समूह अक्सर दूसरों की कीमत पर अपना प्रभाव हासिल करने या बनाए रखने का अनवरत प्रयास करते हैं. निहित स्वार्थ से प्रेरित राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति में कुटिल संघर्ष, हेरफेर और यहाँ तक कि निर्दयता की संभावना हमेशा बनी रहती है. उदाहरण के एक जमाने में सामाजिक न्याय के पुरोधा माने जाने वाले सिद्धांतवादी नीतीश कुमार द्वारा सरकार बनाने और बचाने के लिए जो हथकंडे अपनाए गए उनके बारे में विवेच्य आत्मकथा में दिया गया अनुभव-प्रसूत विवरण अफ़सोसनाक है:

“मैंने स्पष्ट होकर कहा कि कांग्रेस आपको इसलिए समर्थन नहीं करेगी कि आप उस एन.डी.ए.(‘राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन’) से हैं जिसकी नकेल भाजपा के हाथ में हैं....सुशील मोदी के साथ शपथ लेकर आपने संभावना के सभी दरवाज़े बंद कर दिए हैं. नीतीश जी ने ‘च’ की हल्की आवाज़ दी,फिर उदास हो गए....अगले रोज़ अख़बारों में एक ‘भयानक’ फोटो छपा.नीतीश जी कोई दर्जन भर अपराधी विधायकों से घिरे विहँस रहे थे.’ (पृ.266)

यह बतलाना आवश्यक नहीं है कि कुर्सी की राजनीति के इस घिनौने दांव-पेंच वाले खेल में कोई नेता या किसी दल का नेतृत्व अपने राजनैतिक प्रतिस्पर्धी से कम शातिर नहीं होता. 25 नवम्बर 2000 को हुए बिहार के बँटवारे के बाद राजनीतिक दलों की जन-विरोधी अमर्यादित कारस्तानियों की चर्चा करते हुए मणि जी लिखते हैं: “एन.डी.ए ने बिहार में पूरी तरह एक कृत्रिम अराजकता को जन्म दे दिया था...बिहार का पूरी तरह सत्यानाश करने में वह ज़रूर सफल हो गए ...कांग्रेस की राजनीति थी कि लालू प्रसाद के बदनाम होने पर उनका राजनीतिक लाभ उन्हें ही मिलेगा....जब लालू हटेंगे तब एन.डी.ए.का द्विज वोट और लालू का मुसलमान वोट कांग्रेस के झंडे के नीचे आयेगा और तब फिर बिहार में 1980-90 के दशक वाली सवर्ण वर्चस्व वाले कांग्रेस नेतृत्व की संरचना सम्भव हो सकेगी.” (पृ.269)

मार्क्स ने अपने महाग्रंथ ‘पूँजी’में लिखा है कि हरेक पुरानी समाज-व्यवस्था के गर्भ में नई समाज-व्यवस्था आकार ग्रहण कर रही होती है,जिसे वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए बल-प्रयोग करना होता है :“Force is the midwife of every old society pregnant with new one. It is itself an economic power.” (‘Capital’, Volume 1) आत्मकथा में मणि जी ने बिहार में कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद आदि की सामाजिक न्याय की सकारात्मक राजनीति की प्रशंसा करने के साथ ही सत्तालोलुपता के कारण नकारात्मक राजनीति करने वाले उन नेताओं की अच्छी ख़बर ली है, जिनके प्रयासों में सत्यनिष्ठा के अभाव के कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया अब तक सम्पन्न नहीं हो सकी है.

विवेच्य आत्मकथा केंद्र में स्वयं लेखक के बजाय समाज का वह तबका है जिनके बीच आत्मकथाकार पैदा हुआ, उसकी परवरिश हुई और जिनकी अकल्पनीय सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा और संघर्षों का वह साक्षी रहा है. ध्यान देने की बात है कि अधिकतर आत्मकथाओं के केंद्र में रचनाकार का ‘मैं’ हुआ करता है. गांधी की आत्मकथा ‘माई एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ’ का हिन्दी अनुवाद ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ नाम से छपा है.बच्चन जी द्वारा अनूदित नेहरू की आत्मकथा हिन्दी में ‘मेरी कहानी’ के नाम से प्रकाशित है. कहना यह भी है कि जिन आत्मकथाओं के शीर्षक में ‘माई’ या ‘मेरी’ नहीं होता वहाँ भी प्राय: लेखक का ‘मैं’ अवश्य मौजूद होता है.स्थिति इसके उलट भी हो सकती है.स्वामी सहजानंद की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ में उन लाखों करोड़ों छोटे और भूमिहीन किसानों का जीवन संघर्ष व्यक्त हुआ है जो ज़मींदारों के अमानुषिक अत्याचार से पीड़ित थे.

‘अकथ कहानी’ वस्तुत: इसके रचनाकार के ‘मैं’ के बजाय ‘हम’ की कथा है. यह केवल व्यक्तिगत कथा के बजाए सामुदायिक कथा है. यह सदियों से वर्ण-व्यवस्था के दमन चक्र में पिसते बिहार और भारतीय समाज के उन हर तरह से कमज़ोर तबके की जनता की कथा है जिनका हाल-हाल तक कोई पुछवैया नहीं रहा है.

सच तो यह है कि भारतीय समाज और विशेष रूप से बिहार जैसे पिछड़े राज्य की सामाजिक-आर्थिक संरचना आज भी अर्द्धसामंती-अर्द्धपूँजीवादी है. और तो और, बिहार में आए दिनों होने वाले अपराध एवं वहाँ सक्रिय अपराधियों का भी प्राय: जातिगत आधार हुआ करता है. हैबरमास की शब्दावली उधार लेकर कहें तो ‘आधुनिकता’ आज भी हमारे लिए एक ‘अनफिनिश्ड प्रोडक्ट’ या आधी-अधूरी परियोजना की तरह है. इसलिए हमारे समाज में जाति और धर्म को लेकर व्याप्त दुराग्रह वस्तुत: सामन्ती एवं पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों का नतीज़ा है. 1980 में ‘अडोर्नो सम्मान’ ग्रहण करते हुए हैबरमास ने यूरोप में आधुनिकता की विफलता को लेकर जो बातें कही थीं उनका तात्पर्य यह था कि यूरोपीय देशों में प्रबोधन के लक्ष्य—जैसे तर्क, स्वतंत्रता, और सामाजिक प्रगति—पूरी तरह से प्राप्त नहीं हुए हैं. हैबरमास तर्क देते हैं कि यद्यपि समाज ने काफी विकास किया है, फिर भी इसके मूल लक्ष्य—जैसे एक वास्तव में तर्कसंगत और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना—अभी भी निरंतर आत्मालोचन और प्रयास की मांग करती है. उनके अनुसार प्रबोधन से प्रेरित आधुनिकता की परियोजना ने तर्क, स्वायत्तता और मानव मुक्ति के सिद्धांतों को स्थापित करना अपना मक़सद माना था जिसे हासिल करना अभी बाक़ी है.

‘द फिलॉसॉफिकल डिस्कोर्स ऑफ मॉडर्निटी’ में उन्होंने विस्तार से बताया है कि कैसे उपर्युक्त आदर्शों को तथाकथित आधुनिक समाज में व्याप्त कुछ क्षयिष्णु प्रवृत्तियों ने कमज़ोर किया है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक और राजनीतिक एकीकरण संभव नहीं हो सका. यह परियोजना अधूरी है, क्योंकि उसके लक्ष्य अभी भी सामाजिक व्यवहार में पूरी तरह से साकार नहीं हुए हैं. इसलिए आधुनिक समाज को अपनी मुक्ति के लक्ष्यों को साकार करने के लिए निरंतर आलोचनात्मक चिंतन के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक पहल करने की ज़रूरत है.

कहना न होगा कि ये बातें मात्रा-भेद और गुणभेद से कमोबेश सम्पूर्ण भारत और विशेषकर भारत के संभवत: सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में एक बिहार के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश के सन्दर्भ में कुछ हद तक लागू होती हैं और अपनी ‘अकथ कहानी’ में मणि जी ने जगह-जगह बिहारी समाज के आधुनिक बनने के रास्ते के खड़ी सामंती एवं पूँजीवादी मनोवृतियों से पैदा हुए अवरोधों की ओर इंगित किया है. स्पष्ट ही जब तलक समाज का अर्द्धसामंती-अर्द्धपूँजीवादी बुनियादी ढाँचा ज़मींदोज़ नहीं हो जाता,तब तक केवल अधिरचना के स्तर पर कोई भी बदलाव तात्कालिक होकर असफल हो जाने के लिए अभिशप्त होगा. दूसरे शब्दों में, बिहार में जातिवाद और साम्प्रदायिकता जिस सामाजिक-आर्थिक संरचना की पैदावार है; उस आधार को ध्वस्त किए बिना सिर्फ़ राजनीति, समाजनीति आदि अधिरचनाओं के स्तर पर तथाकथित सुधार की कोई कोशिश कारगर नहीं हो सकती.

समग्रत: कहा जा सकता है कि उच्च नैतिक आदर्श, विचारों में दो-टूकपन, तथाकथित सभ्य-संभ्रांत समुदायों से आनेवाले लोगों तथा जनप्रतिनिधियों की अच्छाई-बुराई और राजनीतिक दांवपेंच, लोकजीवन की गहरी समझ, लोकभाषा के मुहावरे और लोकोक्तियों का सटीक इस्तेमाल एवं अंतत: लेखकीय व्यक्तित्व और सम्प्रेषण की पारदर्शिता के मद्देनज़र धर्मानंद कोसम्बी की आत्मकथा ‘निवेदन’ तथा स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ सरीखी रचनाओं का स्मरण कराती प्रेमकुमार मणि की ‘अकथ कहानी’ के प्रत्येक अध्याय में कोई न कोई मूल्यवान विचार या प्रेरक प्रसंग ज़रूर है जो परिवर्तनकामी लोगों को यथास्थिति में बदलाव के लिए निजी स्वार्थ की बलि देकर निर्णायक कदम उठाने को प्रेरित करता है. स्पष्ट ही अपने समय की राजनीति में गहरे धँसे प्रेमकुमार मणि की स्थिति इक़बाल की कविता के उस नायक जैसी रही है, जिसकी सत्यनिष्ठा एवं स्पष्टवादिता को पचा पाना शायद सबके वश में नहीं है, पदलोलुप राजनीतिज्ञों के बूते तो हरगिज़ नहीं:

ज़ाहिद-ए-तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
और क़ाफ़िर ये समझता है मुसल्मां हूँ मैं

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(प्रेमकुमार मणि; ‘अकथ कहानी’ (आत्मकथा) 2023, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य: 499 रूपये मात्र, कुल पृष्ठ. 368)