सामाजिक रसायन शाला में केमिकल लोचा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 24 अक्तूबर 2012
अनेक शहरों में दशहरा मैदान होते हैं, जहां रावण दहन का सार्वजनिक कार्यक्रम होता है, जिसे प्रतीकात्मक तौर पर बुराइयों का दहन कहा जाता है। यह काम सदियों से हो रहा है, परंतु बुराई है कि इतनी बार जलाई जाकर भी नहीं जलती, जैसे सामाजिक कुरीतियां खत्म नहीं होतीं। समाज की रसायन शाला कुरीतियों के खिलाफ कोई कारगर तेजाब आज तक नहीं बना पाई। यहां का मिजाज ही कुछ ऐसा है कि कोई भी प्रयोग करो, परंतु गुलाबजल ही बनता है। तेजाब इस तहजीब का हिस्सा नहीं है। हर देश की सामाजिक रसायन शाला देश की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप 'केमिकल लोचा' रचती है। संभवत: इन कुरीतियों के ताने-बाने धार्मिक आख्यानों के रेशों के साथ गूंथे गए हैं और इन पर प्रहार को धर्म पर प्रहार मान लिया जाता है। हमारे यहां गरीबी भी कभी नहीं मिटती, क्योंकि उसकी जड़ भी कुरीति की तरह धर्म में ही निहित है। पाप-पुण्य के लेखे-जोखे में गरीबी को भी शामिल कर लिया है। सुदामा को कुरुक्षेत्र से वंचित किया गया, एकलव्य का अंगूठा ले लिया।
गरीबी को महिमामंडित करके छुटकारे के रास्ते बंद कर दिए हैं। दान की महिमा का बखान भी अनंत है और समान अवसर कभी उपलब्ध नहीं कराए जाते। दान देकर अपंगता बढ़ाई जाती है। दरअसल दान हमारे अपराधबोध को कम करने का प्रयास है। हम जानते हैं कि हमने किसी का हक मारकर धन कमाया है और दान देने से पाप कम हो जाएगा। हम जगह-जगह भंडारे आयोजित करते हैं, लंगर चलाते हैं। कतार में खड़े भूखों की हालत हमें तुष्टि देती है। हम यह कभी नहीं सोचते कि हम उस व्यवस्था का हिस्सा हैं, जिसने किसी को कतार में खड़े रहने के लिए बाध्य किया है। धरती मां तो इतना देती है कि कोई भूखा नहीं रहे, परंतु बंटवारे की व्यवस्था इतनी निर्मम है कि उसने कहीं भंडार दिया है और कहीं भूख। यहां तक कि पूंजीवादी मायाजाल अर्थात अमेरिका में भी भूखों की संख्या कम नहीं है। अमेरिका ने ८७ बिलियन डॉलर इराक युद्ध पर खर्च किए हैं, जिससे तीन चौथाई दुनिया से गरीबी मिट सकती थी।
सरकार भी गरीबी मिटाने के लिए जनकल्याण की योजनाओं पर अपार धन खर्च करती है, परंतु भ्रष्टाचार के कारण वह धन और सहायता जरूरतमंद तक नहीं पहुंचती। इस व्यवस्था को चलाने वाले भी हममें से ही कुछ लोग हैं। यही कारण है कि बुराई के प्रतीक रावण को हर वर्ष जलाने पर भी कुछ नहीं होता, क्योंकि हृदय के भीतर रावण जिंदा रहता है। मुंह से राम-राम रटते हुए भी हम भीतर के रावण का पोषण करते रहते हैं। सारे धर्मों में इस भीतरी रावण की बात अलग-अलग शब्दों द्वारा कही गई है। इस्लाम में हमजाद की अवधारणा है कि मनुष्य के जन्म से ही हमजाद उसके साथ है और अच्छाई तथा बुराई की यह जंग चलती रहती है।
महाभारत के सारे पात्र दो कुरुक्षेत्र में लड़ रहे हैं- एक भीतरी कुरुक्षेत्र भी है। वेद व उपनिषद का फोकस आत्मा-परमात्मा, आध्यात्मिकता है, परंतु वैदिक विचार क्षेत्र में वेदव्यास अलग मार्ग लेते हैं- मनुष्य के विविध रिश्तों की व्याख्या करते हैं तथा रिश्तों के अनुभवों से गुजरकर स्वयं को पहचान पाने पर फोकस है।
महाभारत के भी दो हजार वर्ष पूर्व रामायण की रचना है और रामायण के कुछ पात्र महाभारत में रिश्तों का नया समीकरण प्रस्तुत करते हैं। मसलन, रावण ने छाया सीता का अपहरण किया था और राम ने रावण को मारकर छाया सीता को ही मुक्त किया। अग्निपरीक्षा में छाया सीता भस्म हुई तथा दूसरे छोर से असल सीता प्रगट हुईं। छाया सीता के भस्म होते समय राम उसे वचन देते हैं कि द्वापर युग में जब वह द्रोपदी के रूप में कष्ट में होगी, तब वे श्रीकृष्ण के रूप में उसकी रक्षा करेंगे।
दरअसल सारे आख्यानों का अध्ययन एक विचार के रूप में करना और आधुनिकता की कसौटी पर उसे तौलने से ही कालखंड समझ में आता है। अरुणा राजे की 'रिहाई' में स्त्री-पुरुष के लिए नैतिकता के मानदंड अलग क्यों हो, पर करारा संवाद है कि हमसे सीता जैसे आचरण की उम्मीद रखने वाले कभी राम-सा आचरण करके दिखाएं।
दरअसल दृष्टिदोष शुरू होता है, जब हम आधुनिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को धर्म के विरुद्ध खड़ी शक्ति मानते हैं और भूल जाते हैं कि आज की आधुनिकता भविष्य का पुराण और वेद बन जाएगी। विचार सतत प्रवाहित धारा है। आधुनिकता या विज्ञान धर्म को उसके आडंबरहीन स्वरूप में ही स्वीकार कर सकता है।
सारे राम-रावण, अर्जुन-कर्ण, भीम-दुर्योधन, द्रोपदी, सीता, शिखंडी और भीष्म मानव हृदय में मौजूद हैं और वही इनका रंगमंच भी है।