सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध हिंदी ग़ज़ल / भावना

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हिंदी ग़ज़ल सदियों से इंसान की सोच का अहम हिस्सा रही है। यह हमेशा ही इंसान की भावनाओं, उसकी सांसारिक सोच की ऊंचाइयों-गहराइयों और सुख-दुख की सच्ची साथी रही है। दरअसल साहित्य का काम ही सामाजिक विसंगतियों के विरोध में खड़ा होना है। कोई भी साहित्य अगर अपने नैतिक धर्म का निर्वहन नहीं करता, विलुप्त हो जाता है। या यूं कहें कि जनता के दिल से सीधे जुड़ने के लिए उनकी समस्याओं से भी खुद को जोड़ना होगा। तभी हम ईमानदार लेखन की कसौटी पर खरे उतर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध बिगुल फूंकने का काम सिर्फ़ दुष्यंत, अदम गोंडवी इत्यादि ग़ज़लकारों ने ही किया है, बल्कि यह काम पूर्ववर्ती शायरों ने भी बखूबी किया है। इसमें कोई शक नहीं कि दुष्यंत ने ग़ज़ल को आम आदमी की समस्याओं से जोड़कर, उसकी धड़कन को अपने शब्दों में पिरोकर नया जीवन दिया एवं उसे लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया। समय अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करता है। जिस काल का जैसा समय होता है, साहित्य भी स्वतः वही रूप ले लेता है। रचनाकार अपने परिवेश को देखकर जो अनुभव करता है, उसे शब्दों में पिरोकर समाज को अर्पित करता है। जो साहित्य जनता की समस्याओं से जितना जुड़ा होगा उतना लोकप्रिय और दीर्घजीवी होगा। दुष्यंत के अत्यधिक लोकप्रिय होने की मुख्य वजह उनकी रचनाओं में सामाजिक जीवन की विसंगतियों, राजनीतिक आंदोलन और विचारधारा की आक्रमकता थी। दुष्यंत के भीतर एक गजब की छटपटाहट थी, जो उनके शेरों में स्पष्ट दिखाई देती है। हिन्दी ग़ज़ल की परंपरा के क्रमिक विकास को हम चार भागों में बांट सकते हैं। जिसमें पहला नाम अमीर खुसरो का आता है। भोलानाथ तिवारी ने अमीर खुसरो को हिन्दी का पहला ग़ज़लकार स्वीकार करते हुए उनकी ग़ज़ल जब यार देखा नैन भर / दिल की गई चिंता उतर को हिन्दी की पहली ग़ज़ल कहा है। परंतु ग़ज़ल को हिन्दी साहित्य की विधा बनाने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को जाता है। हिन्दी ग़ज़ल के विकास में शमशेर से दुष्यंत कुमार तक यानी सन् 1939 से 1975 तक के समय को कहा जा सकता है। चौथी कड़ी मंन दुष्यंत के बाद यानी कि 1975 से अब तक के रचनाकार हैं। मैं यहाँ दुष्यंत के बाद के कुछ प्रमुख ग़ज़लकारों के शेरों के द्वारा हिन्दी ग़ज़ल में उद्धृत सामाजिक विसंगतियों को दर्शाना चाहूंगी।

ग़ज़ल में प्रयुक्त सामाजिक विसंगतियाँ निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग में भिन्न-भिन्न है। जहाँ निम्नवर्ग भोजन वस्त्र और आवास जैसी बुनियादी ज़रूरतों की जद्दोजहद में अपना जीवन-यापन करने को मजबूर है। वहीं मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की भी अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। यह समस्याएँ कैसी हैं? या यह समस्याएँ हैं भी या नहीं? बात जो भी हो, हिन्दी ग़ज़लकारों की नज़र इन की विसंगतियों पर किस तरह पड़ी है, उसका अवलोकन ज़रूरी है। सर्वप्रथम इस कड़ी में मैं वरिष्ठ ग़ज़लकार ज्ञान प्रकाश विवेक जी का ये शेर लेना चाहूंगी कि-

" मैं हाथ मिलाऊँ तो मिलाने नहीं देता
यह शहर मुझे दोस्त बनाने नहीं देता "

या

" कोई भी दोस्त अब आता नहीं है मेरे घर लोगों
मुझे इतवार की छुट्टी बड़ी महसूस होती है"

कहना न होगा कि ज्ञान प्रकाश विवेक आज की जीवन शैली से मर्माहत हैं। दोस्ती, प्रेम और भाईचारा के लिए जीने-मरने वाला शायर पल-भर की आत्मीयता के लिए तरस गया है। शायर का यह कहना कि यह शहर मुझे दोस्त बनाने नहीं देता, वर्तमान समाज के जीवन के विसंगतियों को उजागर करता है। आज के समय में रिश्तों की बुनियाद पैसे पर टिका है। स्वार्थ से परे कोई सम्बंध बनते ही नहीं है। जहाँ आदमी-आदमी को पहचानने से इंकार करता है। संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं। जो हमारे लिए सबसे प्यारा होता है, उसके दुख से हम कुछ देर के लिए ज़रूर संवेदित होते हैं, लेकिन आसपास की परिधि में रहने वाले लोगों की मौत तक हमारे लिए बस एक खबर होती है। किसी के भी दुख से हमारी आंखें गीली नहीं होतीं। हम बस खुद को सुरक्षित समझ अपनी दुनिया में खुश रहना चाहते हैं। पर, इस सब के पीछे दोष किसका है? ऐसे समय में किसे दोस्त बनाएँ व किससे अपने मन की बातों को साझा करें? क्या ऐसा नहीं है कि कभी हमने जिस बीज को बोया था, उसे ही अब काट रहे हैं। कहते हैं, इंसान जो बोता है वही काटता है। ऐसे विपरीत माहौल में ज्ञान प्रकाश विवेक कहते हैं-

" मैंने बोया था किसी रोज जरा—सा चाकू
उग रही है कोई तलवार मेरे आंगन में"

समाज में बढ़ती हुई खाई सभी को अपनी लपेट में लेने को आतुर है। अमीर जहाँ और अमीर होते जा रहे हैं। गरीब की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। ग़ज़ल का मुख्य स्वर जनसाधारण की ओर अभिमुख होता है। जनसाधारण का पक्ष लेना ही साहित्य का एकमात्र धर्म है। सामाजिक सरोकारोंको अपने केंद्र में रखने वाले सुप्रसिद्ध गज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं-

" हवा में दर्द को देखो न शोर बढ़ जाए
हिना के हाथ रखे इंकलाब मांगेंगे "

या

" वो जिसे कह रहे हैं तरक्की यहाँ
चंद मशहूर लोगों के हिस्से में है"

या

" गरीबी जब कभी हालात से रिश्ता निभाती है
मेरे कच्चे मकानों से कोई आवाज आती है "

अनिरुद्ध सिन्हा के तीनों शेर वर्तमान समय के सच को बयाँ करता है। समाज में असमानता की खाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। तरक्की महज कुछ लोगों के हिस्से में है, बाकी जनता बदहाल है। समाज के निम्न व मध्य वर्ग के लिए केवल वादें और उम्मीदें हैं। । हालांकि शायर आशावान है कि ऐसे हालात अधिक दिनों तक नहीं रह सकते। जब जुल्म बढ़ेंगे तो मेंहदी लगे हाथ भी इन्कलाब के लिए उठेंगे। यह सोच सिर्फ़ शायर की ही नहीं है, वैसे हर आदमी की है जो सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक ढांचे में रोज पिस रहा है। आज की गज़लों की संवेदना वर्तमान जीवन के यथार्थ से लबरेज़ है। शायर समय की तल्ख सच्चाई से रू-ब-रू होते हुए, उसे छंदों में ढालकर जनता के सामने परोस रहे हैं। कमलेश भट्ट कमल आज की उपभोक्तावादी संस्कृति को बखूबी अभिव्यक्त करते रहे हैं। शेर देखें-

" अगर थक जाऊँ तो यह ज़िन्दगी खतरे में पड़ती है
जहाँ हर पल मुझे लड़ना है, मैं ऐसे सफर में हूँ "

बाजारवाद संस्कृति के सच को राजेश रेड्डी ने बड़ी खूबसूरती से उजागर किया है। दिन भर काम की तलाश में भटकते मजदूर जब शाम में घर जाते हैं तो उनके हाथ में कुछ नहीं होता। ऐसे व्यक्ति की मनोदशा को समझने के लिए यह शेर ही काफी है-

" रोज खाली हाथ ही जब लौट घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं "

वहीं वरिष्ठ ग़ज़लकार माधव कौशिक जी के ये शेर भी आपको देर तक सोचने को मजबूर कर देते हैं कि हम कैसे समय में जी रहे हैं जहाँ अपना साया भी अपना नहीं है। जलालत भरी ज़िन्दगी से ऊब कर अपना साया भी साथ छोड़ देता है तो अपनों या रिश्तेदारों की कौन कहे? सामाजिक विडंबना लोगों को न जीने देती है, न मरने देती है। शेर देखें-

" मेरा साया चिढाकर कह रहा है
मैं तेरे जिस्म से कितना बड़ा हूँ "

अपसंस्कृति की इस दौर में आहत वरिष्ठ गज़लकार हस्तीमल हस्ती पूरे घटनाक्रम के लिए किसी एक शख्स पर इल्जाम नहीं देते बल्कि सभी को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। आज के हालात के लिए वे सभी को दोषी ठहराते हैं। शायर का मानना है कि यह पूरी व्यवस्था का सवाल है। इसमें दोष हर उस आदमी का है, जिसने व्यवस्था बनायी और जो इस व्यवस्था से समझौता कर जी रहा है। शेर देखें-

" इल्जाम दीजिए न किसी एक शख्स को
मुजरिम सभी हैं आज के हालात के लिए "

प्रसिद्ध गज़लकार वशिष्ठ अनूप की गज़लों में भी सामाजिक चेतना का स्वरूप खूब दिखाई देता है। समाज बदलता है तो उसकी सामाजिक चेतना भी अवश्य परिवर्तित होती है। फूल को प्रतीक मानकर शायर ने लोगों की आत्मा टटोली है। ज़िन्दगी की जद्दोजहद के बीच लोगों के चेहरे पर स्वभाविक ताजगी नहीं है। सभी के चेहरे बुझे हैं। ताजगी रूपी इंसानियत सूखती जा रही है। ग़ज़लकार ने प्रतीक के हवाले से लोगों की पीड़ा काे रखा है-

" थके-से, बुझे-से हैं फूलों के चेहरे
मधुर ताजगी सूखती जा रही है "

उपभोक्तावादी संस्कृति, सामाजिक विकास की एकांकी विकास पद्धति को जन्म देती है। आजकल पारिवारिक या सामाजिक सम्बंध टूटते-बिखरते जा रहे हैं। परिवार में दादा-दादी, नाना-नानी की भूमिका गौण हो गई है। दुनिया सुविधा के पीछे इस कदर पागल हो गई है कि रिश्तों के मायने ही नहीं रहे। अगर कुछ रिश्ते बचे भी हैं तो केवल स्वार्थ के लिए. बेटा-बहू जब काम पर जाते हैं तो बच्चों की जिम्मेदारी दादा-दादी पर डाल जाते हैं। माँ घर की रखवाली करने के लिए होती है। उनकी हालत ताले जैसी है। इन बुजुर्गों की देखभाल नहीं होती, इनका इस्तेमाल किया जाता है।

" इस तरह निश्चिंत दफ्तर को गये बेटा-बहू
घर में माँ ताले की सूरत और बच्चे चाबियां"

ऐसे विकृत समय में जहाँ धरती पर हर एक मिनट में भूख और बीमारी की वजह से एक बच्चे की मौत हो जाती है। जहाँ गरीबों को अमीरी का ख़्वाब दिखा लूटा जाता हो और झूठ-फरेब पर पूरा बाज़ार टीका हो, ऐसे समय में इसके विरोध में खड़ा होना भी हम रचनाकारों का ही दायित्व है और होना भी चाहिए. नूर मोहम्मद नूर का ये शेर देखें कि-

" वो गम वाले से बम वाले हुए उनको पता क्यों हो
कि मुश्किल में मेरी रोटी है मेरा जाम खतरे में "

बाजारवाद के दौर में रिश्तों की मर्यादा कैसे टूटी है, इसे व्यक्त करने के लिए ग़ज़लकार दरवेश भारती का शेर ही काफी है। समय के साथ खून के रिश्ते की गर्माहट भी कम पड़ने लगी है। एक उम्र के पड़ाव पर बाप बेटे के साथ रहने में असहज महसूस करता है। बचपन में बेटे को सिखाये गये आदर्श व नैतिकता बाजारवाद के प्रभाव में बहुत पीछे छूट जाती है। एक बाप की त्रासदी को ग़ज़लकार ने कुछ यूं रखा है-

" सुनायी खरी-खोटी बेटे ने जब
भिंची रह गयीं बाप की मुट्ठियां"

वर्ग विभाजित समाज में एक जैसे होते हुए भी इंसान जुदा है। अभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए इंसान की परिभाषा अलग है। निम्न वर्ग उनके लिए दूसरे प्राणी की तरह हैं। कुलीन वर्ग उन्हीं लोगों के साथ उठता-बैठता है, जिसकी सामाजिक हैसियत उनकी तरह होती है। समाज में इंसानों के बीच बढ़ती खाई से वाकिफ तो सभी हैं, लेकिन डॉ कृष्ण कुमार प्रजापति ने जिस साफगाेई से अपनी संवेदना जाहिर की है, वह काबिले तारीफ है। शेर देखें-

" लोग दावत भेजते हैं मालदारों को कुमार
आजकल भूखे गरीबों को खिलाता कौन है"

वर्तमान सामाजिक परिवेश में लोग इच्छाओं के गुलाम हैं। अधिक से अधिक पाने की चाहत में ये कुछ भी करने के लिए आमादा हैं। झूठ, बेईमानी व दूसरों का हक मार कर अपनी तिजोरी भरने में लगे हैं। ग़ज़लकार विज्ञान व्रत ने इच्छाओं के सागर को कुछ शब्दों में ही समेट लिया है। शेर देखें-

" ऊंचे लोग सयाने निकले
महलों में तहखाने निकले"

या

" मैं कुछ बेहतर ढूंढ़ रहा हूँ
घर में हूँ घर ढूंढ़ रहा हूं"

उपभोक्तावादी समाज में जैसे-जैसे हमारी इच्छाओं के पर लगे, विसंगतियाँ बढ़ती गयी। अहम् का टकराव व संपत्ति की लोलुपता ने बहुओं का जीवन संकट में डाल दिया। दहेज हत्या जैसी घटनाएँ इसी मानसिकता का परिणाम हैं। वैसे तो सामाजिक बुराई के खिलाफ लगातार कलम चलती रही है। लेकिन प्रतीकात्मक तौर पर कहे गये एक शेर में दिनेश प्रभात ने पूरे मर्म काे अंगीकार कर लिया है। शेर द्रष्टव्य है-

" जानती अच्छी तरह से माचिसों की तीलियाँ
कौन-सी साड़ी बहू की, कौन-सी है सास की"

निरंतर आधुनिक होते समय और संवेदना के इस दौर में नया करने और पाने की चाहत रोज हमारे भीतर पनपती है। स्वभाविक है, सर्जन भी एक नया रंग लेकर आएगी। नया शिल्प और नया प्रयोग एक शायर की खासियत में शुमार होते हैं। अशोक मिजाज का यह शेर देखें-

" आपका इक फोन नंबर हो तो लिखवा दीजिए
वक्त ले लेती है कितनी आती जाती चिट्टियाँ "

आज के इस दौर में हमारा पर्यावरण ही सबसे ज़्यादा असुरक्षित हो गया है। दरअसल पर्यावरण सभी भौतिक रासायनिक एवं जैविक कारकों की इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करता है। ये ही उसके रूप, जीवन व जीविका को तय करता है। तकनीकी मानव द्वारा आर्थिक और जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रकृति के साथ व्यापक छेड़छाड़ की जा रही है। प्राकृतिक व्यवस्था व प्रणाली पर संकट उत्पन्न होना स्वाभाविक है। ऐसे में गज़लकार अपने शेरों में इसे किस तरह व्यक्त करता है, इसे वरिष्ठ गज़लकार ध्रुव गुप्त के शेर में देखा जा सकता है। शेर देखें-

" बची रहे ये सर पर छांव, हवा और बारिश
बचा सकें तो बचा लें ये कुछ दरख्त अभी "

बौद्धिक कर्म वर्ग-संघर्ष का एक हिस्सा मानी जाती है। दुष्यंत के बाद के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकारों ने जन प्रतिरोधों को अपने शेरों में ढाल कर जनता को समर्पित किया है। साहित्य सर्जन खुद में एक बौद्धिक कर्म है और प्रतिरोध की संस्कृति का द्योतक है। लगभग सभी ग़ज़लकारों ने सामाजिक विसंगतियों की ओर इशारा किया है और अपने शेरों के माध्यम से साहित्य प्रेमियों के दिल में जगह बनायी है। एक तरफ समय का सच है तो दूसरी तरफ आशाएँ भी हैं। सुंदर समाज व परिवेश का जिक्र भी है। ग़ज़लकार हमें विश्वास दिला रहे हैं कि संवेदना व शब्द मरे नहीं हैं। एक समय ज़रूर आयेगा जब हमारी संवेदना काग़जों पर ही नहीं, दिलों में भी अपनी जगह बनायेगी।