सामान्य परिचय: तृतीय उत्थान / आधुनिक काल / शुक्ल

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हिन्दी साहित्य का इतिहास
गद्य साहित्य की वर्तमान गति: तृतीय उत्थान (संवत् 1975) / प्रकरण 5 - सामान्य परिचय

इस तृतीय उत्थान में हम वर्तमानकाल में पहुँचते हैं जो अभी चल रहा है। इसमें आकर हिन्दी गद्य साहित्य के भिन्न भिन्न क्षेत्रों के भीतर अनेक नए रास्ते खुले जिनमें से कई एक पर विलायती गलियों के नाम की तख्तियाँ भी लगीं। हमारे गद्य साहित्य का यह काल अभी हमारे सामने है। इसके भीतर रहने के कारण इसके संबंध में हम या हमारे सहयोगी जो कुछ कहेंगे वह इस काल का अपने संबंध में अपना निर्णय होगा। सच पूछिए तो वर्तमानकाल, जो अभी चल रहा है, हमसे इतना दूर पीछे नहीं छूटा है कि इतिहास के भीतर आ सके। इससे यहाँ आकर हम अपने गद्य साहित्य के विविधा अंगों का संक्षिप्त विवरण ही इस दृष्टि से दे सकते हैं कि उनके भीतर की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियाँ लक्षित हो जायँ।

सबसे पहले ध्यान लेखकों और ग्रंथकारों की दिन दिन बढ़ती संख्या पर जाता है। इन बीस इक्कीस वर्षों के बीच हिन्दी साहित्य का मैदान काम करनेवालों से पूरा पूरा भर गया, जिससे उसके कई अंगों की बहुत अच्छी पूर्ति हुई, पर साथ ही बहुत सी फालतू चीजें भी इधर उधर बिखरीं। जैसे भाषा का पूरा अभ्यास और उस पर अच्छा अधिकार रखनेवाले, प्राचीन और नवीन साहित्य के स्वरूप को ठीक ठीक परखने वाले अनेक लेखकों द्वारा हमारा साहित्य पुष्ट और प्रौढ़ हो चला, वैसे ही केवल पाश्चात्य साहित्य के किसी कोने से ऑंख खोलनेवाले और योरप की हर एक नई पुरानी बात को 'आधुनिकता' कहकर चिल्लानेवाले लोगों के द्वारा बहुत कुछ अनधिकार चर्चा , बहुत सी अनाड़ीपन की बातें , भी फैल चलीं। इस दूसरे ढाँचे के लोग योरप की सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिस्थियों के अनुसार समय समय पर उठे हुए नाना वादों और प्रवादों को लेकर और उनकी उक्तियों के टेढ़े सीधे अनुवाद की उद्ध रणी करके ही अपने को हमारे वास्तविक साहित्य निर्माताओं से दस हाथ आगे बता चले।

इनके कारण हमारा सच्चा साहित्य रुका तो नहीं, पर व्यर्थ की भीड़भाड़ के बीच ओट में अवश्य पड़ता रहा। क्या नाटक, क्या उपन्यास, क्या निबंध, क्या समालोचना, क्या काव्यस्वरूप मीमांसा, सबके क्षेत्रों के भीतर कुछ विलायती मंत्रों का उच्चारण सुनाई पड़ता आ रहा है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो अपने जन्मस्थान में अब नहीं सुनाई पड़ते। हँसी तब आती है जब कुछ ऐसे व्यक्ति भी 'मध्य युग की प्रवृत्ति', 'क्लासिकल', 'रोमांटिक' इत्यादि शब्दों से विभूषित अपनी आलोचना द्वारा 'नए युग की वाणी' का संचार समझाने खड़े होते हैं, जो इन शब्दों का अर्थ जानना तो दूर रहा, अंग्रेजी भी नहीं जानते। उपन्यास के क्षेत्र में देखिए तो एक ओर प्रेमचंद ऐसे प्रतिभाशाली उपन्यासकार हिन्दी की कीर्ति का देश भर में प्रसार कर रहे हैं, दूसरी ओर कोई उनकी भरपेट निंदा करके टालस्टाय का 'पापी के प्रति घृणा नहीं दया' वाला सिध्दांत लेकर दौड़ता है। एक दूसरा आता है जो दयावाले सिध्दांत के विरुद्ध योरप का साम्यवादी सिध्दांत ला भिड़ाता है और कहता है कि गरीबों का रक्त चूसकर उन्हें अपराधी बनाना और फिर बड़ा बनाकर दया दिखाना तो उच्च वर्ग के लोगों की मनोवृत्ति है। वह बड़े जोश के साथ सूचित करता है कि इस मनोवृत्ति का समर्थन करनेवाला साहित्य हमें नहीं चाहिए, हमें तो ऐसा साहित्य चाहिए जो पददलित अकिंचनों में रोष, विद्रोह और आत्मगौरव का संचार करे और उच्च वर्ग के लोगों में नैराश्य, लज्जा और ग्लानि का।

एक ओर स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी अपने नाटकों द्वारा यह साफ झलका देते हैं कि प्राचीन ऐतिहासिक वृत्ति लेकर चलनेवाले नाटकों की रचना के लिए कालविशेष के भीतर के तथ्य बटोरने वाला कैसा विस्तृत अध्ययन और उन तथ्यों द्वारा अनुमित सामाजिक स्थिति के सजीव ब्योरे सामने खड़ा करनेवाली कैसी सूक्ष्म कल्पना चाहिए, दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे नाटकों के प्रति उपेक्षा का सा भाव दिखाते हुए बर्नार्डशा आदि का नाम लेते हैं और कहते हैं कि आधुनिक युग 'समस्या नाटकों' का है। यह ठीक है कि विज्ञान की साधना द्वारा संसार के वर्तमान युग का बहुत सा रूप योरप का खड़ा किया हुआ है। पर इसका क्या यह मतलब है कि युग का सारा रूपविधान योरप ही करे और हम आराम से जीवन के सब क्षेत्रों में उसी के दिए हुए रूप को लेकर रूपवान बनते चलें? क्या अपने स्वतंत्र स्वरूपविकास की हमारी शक्ति सब दिन के लिए मारी गई?

हमारा यह तात्पर्य नहीं कि योरप के साहित्य क्षेत्र में उठी हुई बातों की चर्चा हमारे यहाँ न हो। यदि हमें वर्तमान जगत् के बीच से अपना रास्ता निकालना है तो वहाँ के अनेक 'वादों' और प्रवृत्तियों तथा उन्हें उत्पन्न करनेवाली परिस्थितियों का पूरा परिचय हमें होना चाहिए। उन वादों की चर्चा अच्छी तरह हो, उनपर पूरा विचार हो और उनके भीतर जो थोड़ा बहुत सत्य छिपा हो उसका ध्यान अपने साहित्य के विकास में रखा जाए। पर उनमें से कभी इसको कभी उसको, यह कहते हुए सामने रखना कि वर्तमान विश्वसाहित्य का स्वरूप यही है जिससे हिन्दी साहित्य अभी बहुत दूर है, अनाड़ीपन ही नहीं, जंगलीपन भी है।

आजकल भाषा की भी बुरी दशा है। बहुत से लोग शुद्ध भाषा लिखने का अभ्यास होने के पहले ही बड़े बड़े पोथे लिखने लगते हैं जिनमें व्याकरण की भद्दी भूलें तो रहती ही हैं, कहीं कहीं वाक्यविन्यास तक ठीक नहीं रहता। यह बात और किसी भाषा के साहित्य में शायद ही देखने को मिले। व्याकरण की भूलों तक ही बात नहीं है। अपनी भाषा की प्रकृति की पहचान न रहने के कारण कुछ लोग उसका स्वरूप भी बिगाड़ चले हैं। वे अंग्रेजी के शब्द, वाक्य और मुहावरे तक ज्यों के त्यों उठाकर रख देते हैं, यह नहीं देखने जाते कि हिन्दी हुई या और कुछ। नीचे के अवतरणों से यह बात स्पष्ट हो जायगी ,

1. उनके हृदय में अवश्य ही एक ललित कोना होगा, जहाँ रतन ने स्थान पा लिया होगा। (कुंडलीचक्र उपन्यास)

2. वह उन लोगों में से न था जो घास को थोड़ी देर भी अपने पैरों के तले उगने देते होंं। (वही)

3. क्या संभव नहीं है कि भारत के बड़े बड़े स्वार्थ कुछ लोगों की नामावली उपस्थित करें। (आज, 28 अक्टूबर, 1939)

उपन्यास: कहानी

इस तृतीय उत्थान में हमारा उपन्यास कहानी साहित्य ही सबसे अधिक समृद्ध हुआ। नूतन विकास लेकर आने वाले प्रेमचंदजी जो कर गए वह तो हमारे साहित्य की एक निधि ही है, उनके अतिरिक्त पं. विश्वंभरनाथ कौशिक, बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव, श्री जैनेंद्रकुमार ऐसे सामाजिक उपन्यासकार तथा बाबू वृंदावनलाल वर्मा ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासकार उपन्यासभंडार की बहुत सुंदर पूर्ति करते जा रहे हैं। सामाजिक उपन्यासों में देश में चलनेवाले राष्ट्रीय तथा आर्थिक आंदोलनों का भी आभास बहुत कुछ रहता है। तअल्लुकदारों के अत्याचार, भूखे किसानों की दारुण दशा के बड़े चटकीले चित्र उनमें प्राय: पाए जाते हैं। इस संबंध में हमारा केवल यही कहना है कि हमारे निपुण उपन्यासकारों को केवल राजनीतिक दलों द्वारा प्रचारित बातें लेकर ही न चलना चाहिए, वस्तुस्थिति पर अपनी व्यापक दृष्टि भी डालनी चाहिए; उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अंग्रेजी राज्य जमने पर भूमि की उपज या आमदनी पर जीवन निर्वाह करनेवालों (किसानों और जमींदारों दोनों) की और नगर के रोजगारियों या महाजनों की परस्पर क्या स्थिति हुई। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजकर्मचारियों का इतना बड़ा चक्र ग्रामवासियों के सिर पर ही चला करता है, व्यापारियों का वर्ग उससे प्राय: बचा रहता है। भूमि ही यहाँ सरकारी आय का प्रधान उद्गम बना दी गई है। व्यापार श्रेणियों को यह सुभीता विदेशी व्यापार को फलता फूलता रखने के लिए दिया गया था, जिससे उनकी दशा उन्नत होती आई और भूमि से संबंध रखनेवाले सब वर्गों की , क्या जमींदार, क्या किसान, क्या मजदूर , गिरती गई।

जमींदारों के अंतर्गत हमें 98 प्रतिशत साधारण जमींदारों को लेना चाहिए, 2 प्रतिशत बड़े बड़े तअल्लुकेदारों को नहीं। किसान और जमींदार एक ओर तो सरकार की भूमिकर संबंधी नीति से पिसते आ रहे हैं, दूसरी ओर उन्हें भूखों मारनेवाले नगरों के व्यापारी हैं जो इतने घोर श्रम से पैदा की हुई भूमि की उपज का भाव अपने लाभ की दृष्टि से घटाते बढ़ाते रहते हैं। भाव किसानों, जमींदारों के हाथ में नहीं। किसानों से बीस सेर के भाव से अन्न लेकर व्यापारी सात आठ सेर के भाव से बेचा करते हैं। नगरों के मजदूर तक पान बीड़ी के साथ सिनेमा देखते हैं, गाँव के जमींदार और किसान कष्ट से किसी प्रकार दिन काटते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि हमारे उपन्यासकारों को देश के वर्तमान जीवन के भीतर अपनी दृष्टि गड़ाकर देखना चाहिए; केवल राजनीतिक दलों की बातों को लेकर ही न चलना चाहिए।साहित्य को राजनीति के ऊपर रहना चाहिए; सदा उसके इशारों पर ही न नाचना चाहिए।

वर्तमान जगत् में उपन्यासों की बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है उसके भिन्न भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं, उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं। समाज के बीच खानपान के व्यवहार तक में जो भद्दी नकल होने लगी है , गर्मी के दिनों में भी सूटबूट कसकर टेबुलों पर जो प्रीतिभोज होने लगा है , उसको हँसकर उड़ाने की सामर्थ्य उपन्यासों में ही है। लोक या किसी जनसमाज के बीच काल की गति के अनुसार जो गूढ़ और चिंत्य परिस्थितियाँ खड़ी होती रहती हैं उनको गोचर रूप में सामने लाना और कभी कभी निस्तार का मार्ग भी प्रत्यक्ष करना उपन्यासों का काम है।

लोक की सामयिक परिस्थितियों तक ही न रहकर जीवन के नित्य स्वरूप की विषमताएँ और उलझने सामने रखनेवाले उपन्यास भी योरप में लिखे गए हैं और लिखे जा रहे हैं। जीवन में कुछ बातों का जो मूल्य चिरकाल से निर्धारित चला आ रहा है, जैसे , पाप और पुण्य का , उसकी मीमांसा में भी उपन्यास प्रवृत्त हुआ है। इस प्रकार उपन्यासों का लक्ष्य वहाँ क्रमश: ऊँचा होता गया जिसने जीवन के नित्य स्वरूप का चिंतन और अनुभव करने वाले बड़े बड़े कवि इधर उपन्यास के क्षेत्र में भी काम करते दिखाई देते हैं। बड़े हर्ष की बात है कि हमारे हिन्दी साहित्य में भी बाबू भगवतीचरण वर्मा ने 'चित्रलेखा' नाम का इस ढंग का एक सुंदर उपन्यास प्रस्तुत किया है।

द्वितीय उत्थान के भीतर बँग्ला से अनूदित अथवा उनके आदर्श पर लिखे गए उपन्यासों में देश की सामान्य जनता के गार्हस्थ्य और पारिवारिक जीवन के बड़े मार्मिक और सच्चे चित्र रहा करते थे। प्रेमचंदजी के उपन्यासों में भी निम्न और मध्यम श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा स्वरूप मिलता रहा है। पर इधर बहुत से ऐसे उपन्यास सामने आ रहे हैं, जो देश के सामान्य भारतीय जीवन से हटकर बिल्कुल योरोपीय रहन सहन के साँचे में ढले हुए एक बहुत छोटे से वर्ग का जीवनचरित ही यहाँ से वहाँ तक अंकित करते हैं। उनमें मिस्टर, मिसेज, मिस, प्रोफेसर, होस्टल, क्लब, ड्राइंगरूप, टेनिस, मैच, सिनेमा, मोटर पर हवाखोरी, कॉलेज की छात्राावस्था के बीच के प्रणयव्यवहार इत्यादि ही सामने आते हैं। यह ठीक है कि अंग्रेजी शिक्षा के दिन दिन बढ़ते हुए प्रचार से देश के आधुनिक जीवन का यह भी एक पक्ष हो गया है पर सामान्य पक्ष नहीं है। भारतीय रहन सहन, खानपान, रीतिव्यवहार प्राय: सारी जनता के बीच बने हुए हैं। देश के असली सामाजिक और घरेलू जीवन को दृष्टि से ओझल करना हम अच्छा नहीं समझते।

यहाँ तक तो सामाजिक उपन्यासों की बात हुई। ऐतिहासिक उपन्यास बहुत कम देखने में आ रहे हैं। एक प्रकार से तो यह अच्छा है। जब तक भारतीय इतिहास के भिन्न भिन्न कालाें में सामाजिक स्थिति और संस्कृति का अलग अलग विशेष रूप से अध्ययन करने वाले और उस सामाजिक स्थिति के सूक्ष्म ब्यौरों की अपनी ऐतिहासिक कल्पना द्वारा उद्भावना करने वाले लेखक तैयार न हों तब तक ऐतिहासिक उपन्यासों में हाथ लगाना ठीक नहीं। द्वितीय उत्थान के भीतर जो कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए या बंगभाषा से अनुवाद करके लाए गए, उनमें देश काल की परिस्थिति का अध्ययन नहीं पाया जाता। अब किसी ऐतिहासिक उपन्यास में यदि बाबर के सामने हुक्का रखा जाएगा, गुप्त काल में गुलाबी और फिरोजी रंग की साड़ियाँ, इत्रा, मेज पर सजे गुलदस्ते, झाड़फानूस लाए जाएँगे, सभा के बीच खड़े होकर व्याख्यान दिये जाएँगे और उनपर करतल ध्वनि होगी, बात बात में 'धन्यवाद', 'सहानुभूति' ऐसे शब्द तथा सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना, ऐसे फिकरे पाए जायँगे तो काफी हँसनेवाले और नाक भौं सिकोड़ने वाले मिलेंगे। इससे इस जमीन पर बहुत समझ बूझकर पैर रखना होगा।

ऐतिहासिक उपन्यास किस ढंग से लिखना चाहिए, यह प्रसिद्ध पुरातत्वविद् श्री राखालदास वंद्योपाधयाय ने अपने 'करुणा', 'शशांक' और 'धर्मपाल' नामक उपन्यासों द्वारा अच्छी तरह दिखा दिया। प्रथम दो के अनुवाद हिन्दी में हो गए हैं। खेद है कि इस समीचीन पद्ध ति पर प्राचीन हिंदू साम्राज्य के भीतर की कथावस्तु लेकर मौलिक उपन्यास न लिखे गए। नाटक के क्षेत्र में अलबत्ता स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी ने इस पद्ध ति पर कई सुंदर ऐतिहासिक नाटक लिखे। इसी पद्ध ति पर उपन्यासलिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुंगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करनेवाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही चल बसे।

वर्तमानकाल में ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में केवल बाबू वृंदावनलाल वर्मा दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने भारतीय इतिहास के मध्ययुग के प्रारंभ में बुंदेलखंड की स्थिति लेकर 'गढ़कुंडार' और 'विराटा की पद्मिनी' नामक दो बड़े सुंदर उपन्यास लिखे हैं। 'विराटा की पद्मिनी' की कल्पना तो अत्यंत रमणीय है।

उपन्यासों के भीतर लंबे लंबे दृश्यवर्णनों तथा धाराप्रवाह भावव्यंजनापूर्ण भाषा की जो प्रथा पहले थी वह योरप में बहुत कुछ छाँट दी गई, अर्थात् वहाँ उपन्यासों से काव्य का रंग बहुत कुछ हटा दिया गया। यह बात वहाँ नाटक और उपन्यास के क्षेत्र में 'यथातथ्यवाद' की प्रवृत्ति के साथ साथ हुई। इससे उपन्यास कला की अपनी निज की विशिष्टता निखरकर झलकी, इसमें कोई संदेह नहीं। वह विशिष्टता यह है कि घटनाएँ और पात्रों के क्रियाकलाप ही भावों को बहुत कुछ व्यक्त कर दें, पात्रों के प्रगल्भ भाषण की उतनी अपेक्षा न रहे। पात्रों के थोड़े से मार्मिक शब्द ही हृदय पर पड़नेवाले प्रभाव को पूर्ण कर दें। इस तृतीय उत्थान का आरंभ होते होते हमारे हिन्दी साहित्य में उपन्यास का यह पूर्ण विकसित और परिष्कृत स्वरूप लेकर स्वर्गीय प्रेमचंदजी आए। द्वितीय उत्थान के मौलिक उपन्यासकारों में शीलवैचित्रय की उद्भावना नहीं के बराबर थी। प्रेमचंदजी के ही कुछ पात्रों में ऐसे स्वाभाविक ढाँचे की व्यक्तिगत विशेषताएँ मिलने लगीं जिन्हें सामने पाकर अधिकांश लोगों को यह भासित हो कि कुछ इसी ढंग की विशेषता वाले व्यक्ति हमने कहीं न कहीं देखे हैं। ऐसी व्यक्तिगत विशेषता ही सच्ची है, जिसे झूठी विशेषता और वर्तमान विशेषता दोनों से अलग समझना चाहिए। मनुष्यप्रकृति की व्यक्तिगत विशेषताओं का संगठन भी प्रकृति के और विधानों के समान कुछ ढर्रों पर होता है; अत: ये विशेषताएँ बहुतों को लखाई पड़ती रहती हैं, चाहे वे उन्हें शब्दों में व्यक्त न कर सकें। प्रेमचंद की सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलनेवाली भाषा भी पहले नहीं देखी गई थी।

अंत:प्रकृति या शील के उत्तरोत्तर उद्धाटन का कौशल भी प्रेमचंदजी के दो एक उपन्यासों में, विशेषत: 'गबन' में देखने में आया। सत् और असत् भला और बुरा दो सर्वथा भिन्न वर्ग करके पात्र निर्माण करने की अस्वाभाविक प्रथा भी इस तृतीय उत्थान में बहुत कुछ कम हुई है, पर मनोवृत्ति की अस्थिरता का वह चित्र अभी बहुत कम दिखाई पड़ा है जिसके अनुसार कुछ परिस्थितियों में मनुष्य अपने शील स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध आचरण कर जाता है।

उपन्यासों से भी प्रचुर विकास हिन्दी में छोटी कहानियों का हुआ है। कहानियाँ बहुत तरह की लिखी गईं, उनके अनेक प्रकार के रूप रंग प्रकट हुए। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि उपन्यास और छोटी कहानी दोनों के ढाँचे हमने पश्चिम से लिए हैं। हैं भी ये ढाँचे बड़े सुंदर। हम समझते हैं कि ढाँचों ही तक रहना चाहिए। पश्चिम में भिन्न भिन्न दृष्टियों से किए हुए उनके वर्गीकरण, उनके संबंध में निरूपित तरह तरह के सिध्दांत भी हम समटेते चलें, इसकी कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती। उपन्यासों और छोटी कहानियों का हमारे वर्तमान हिन्दी साहित्य में इतनी अनेकरूपता के साथ विकास हुआ है कि उनके संबंध में हम अपने कुछ स्वतंत्र सिध्दांत स्थिर कर सकते हैं, अपने ढंग पर उनके भेद उपभेद निरूपित कर सकते हैं। इसकी आवश्यकता समझने के लिए उदाहरण लीजिए। छोटी कहानियों के जो आदर्श और सिध्दांत अंग्रेजी की अधिकतर पुस्तकों में दिए गए हैं, उनके अनुसार छोटी कहानियों में शील या चरित्रविकास का अवकाश नहीं रहता। पर प्रेमचंद की एक कहानी है 'बड़े भाई साहब' जिसमें चरित्र चित्रण के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिस संग्रह के भीतर यह कहानी है, उसकी भूमिका में प्रेमचंदजी ने कहानी में चरित्र विकास को बड़ा भारी कौशल कहा है। छोटी कहानियों के जो छोटे मोटे संग्रह निकलते हैं उनमें भूमिका के रूप में अंग्रेजी पुस्तकों से लेकर कुछ सिध्दांतप्राय: रख दिए जाते हैं। यह देखकर दु:ख होता है। विशेष करके तब जब उन सिध्दांतों से सर्वथा स्वतंत्र कई सुंदर कहानियाँ उन संग्रहों के भीतर ही मिल जाती हैं।

उपन्यास और नाटक दोनों से काव्यत्व का अवयव बहुत कुछ निकालने की प्रवृत्ति किस प्रकार योरप में हुई है और दृश्यवर्णन, प्रगल्भ भावव्यंजना, आलंकारिक चमत्कार आदि किस प्रकार हटाए जाने लगे हैं, इसका उल्लेख अभी कर आए हैं। उनके अनुसार इस तृतीय उत्थान में हमारे उपन्यासों के ढाँचे में भी कुछ परिवर्तन हुआ। परिच्छेदों के आरंभ में लंबे लंबे काव्यमय दृश्यवर्णन, जो पहले रहा करते थे, बहुत कम हो गए; पात्रों के भाषण्ा का ढंग भी कुछ अधिक स्वाभाविक और व्यावहारिक हुआ। उपन्यास को काव्य के निकट रखनेवाला पुराना ढाँचा एकबारगी छोड़ नहीं दिया गया है। छोड़ा क्यों जाय? उसके भीतर हमारे भारतीय कथात्मक गद्यप्रबंधों (जैसे कादंबरी, हर्षचरित) के स्वरूप की परंपरा छिपी हुई है। योरप उसे छोड़ रहा है छोड़ दे। यह कुछ आवश्यक नहीं कि हम हर एक कदम उसी के पीछे पीछे रखें। अब यह आदत छोड़नी चाहिए कि कहीं हार्डी का कोई उपन्यास पढ़ा और उसमें अवसाद या 'दुखवाद' की गंभीर छाया देखी तो चट बोल उठे कि अभी हिन्दी के उपन्यासों को यहाँ तक पहुँचने में बहुत देर है। बौध्दों के दु:खवाद का संस्कार किस प्रकार जर्मनी के शोपनहावर से होता हुआ हार्डी तक पहुँचा, यह भी जानना चाहिए।

योरप में नाटक और उपन्यास से काव्यत्व निकाल बाहर करने का जो प्रयत्न हुआ है, उसका कुछ कारण है। वहाँ जब फ्रांस और इटली के कलावादियों द्वारा काव्य भी बेलबूटे की नक्काशी की तरह जीवन से सर्वथा पृथक कहा जाने लगा, तब जीवन को ही लेकर चलनेवाले नाटक और उपन्यास को उससे सर्वथा पृथक समझा जाना स्वाभाविक ही था। पर इस अत्यंत पार्थक्य का आधार प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जगत और जीवन के नाना पक्षों को लेकर प्रकृत काव्य भी बराबर चलेगा और उपन्यास भी। एक चित्रण और भावव्यंजना को प्रधान रखेगा, दूसरा घटनाओं के संचरण द्वारा विविधा परिस्थितियों की उद्भावना को। उपन्यास न जाने कितनी ऐसी परिस्थितियाँ सामने लाते हैं जो काव्यधारा के लिए प्रकृत मार्ग खोलतीहैं।

उपन्यासों और कहानियों के सामाजिक और ऐतिहासिक ये दो भेद तो बहुत प्रत्यक्ष हैं। ढाँचा के अनुसार जो मुख्य तीन भेद , कथा के रूप में, आत्मकथा के रूप में और चिट्ठी-पत्री के रूप में , किए गए हैं उनमें से अधिकतर उदाहरण तो प्रथम के ही सर्वत्र हुआ करते हैं। द्वितीय के उदाहरण भी अब हिन्दी में काफी हैं, जैसे , 'दिल की आग' (जी. पी. श्रीवास्तव)। तृतीय उदाहरण हिन्दी में बहुत कम पाए जाते हैं, जैसे , 'चंद हसीनों के खतूत'। इस ढाँचे में उतनी सजीवता भी नहीं।

कथावस्तु के स्वरूप और लक्ष्य के अनुसार हिन्दी के अपने वर्तमान उपन्यासों में हमें ये भेद दिखाई पड़ते हैं ,

1. घटनावैचित्रय प्रधान अर्थात् केवल कुतूहलजनक, जैसे जासूसी और वैज्ञानिकआविष्कारों का चमत्कार दिखानेवाले। इनमें साहित्य का गुण अत्यंत अल्प होता है , केवल इतना ही होता है कि ये आश्चर्य और कुतूहल जगातेहैं।

2. मनुष्य के अनेक पारस्परिक संबंधों के मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखने वाले, जैसे , प्रेमचंदजी का 'सेवासदन', 'निर्मला', 'गोदान'; श्री विश्वंभरनाथ कौशिक का 'माँ', 'भिखारिणी', श्री प्रतापनारायण श्रीवास्तव का 'विदा', 'विकास', 'विजय'; चतुरसेन शास्त्री का 'हृदय की प्यास'।

3. समाज के भिन्न भिन्न वर्गों की परस्पर स्थिति और उनके संस्कार चित्रित करने वाले, जैसे , प्रेमचंदजी का 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि'; प्रसादजी का 'कंकाल', 'तितली'।

4. अंतर्वृत्तिा अथवा शीलवैचित्रय और उसका विकासक्रम अंकित करने वाले जैसे , प्रेमचंदजी का 'गबन', श्री जैनेंद्र कुमार का 'तपोभूमि', 'सुनीता'।

5. भिन्न भिन्न जातियों और मतानुयायियों के बीच मनुष्यता के व्यापक संबंध पर जोर देनेवाले, जैसे , राजा राधिाकारमण प्रसाद सिंह का 'राम रहीम'।

6. समाज के पाखंडपूर्ण कुत्सित पक्षों का उद्धाटन और चित्रण करने वाले, जैसे , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का 'दिल्ली का दलाल', 'सरकार तुम्हारी ऑंखों में', 'बुधाुआ की बेटी'।

7. बाह्य और आभ्यंतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करने वाले सुंदर और अलंकृत पदविन्यासयुक्त उपन्यास, जैसे , स्वर्गीय श्री चंडीप्रसाद 'हृदयेश' का 'मंगल प्रभात'।

अनुसंधान और विचार करने पर इसी प्रकार की और दृष्टियों से भी कुछ भेद किए जा सकते हैं। सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के जो आंदोलन देश में चल रहे हैं उनका आभास भी बहुत से उपन्यासों में मिलता है। प्रवीण उपन्यासकार उनका समावेश और बहुत सी बातों के बीच कौशल के साथ करते हैं। प्रेमचंदजी के उपन्यासों और कहानियों में भी ऐसे आंदोलन का आभास प्राय: मिलता है। पर उनमें भी जहाँ राजनीतिक उध्दार या समाजसुधार का लक्ष्य बहुत स्पष्ट हो गया है वहाँ उपन्यासकार का रुख छिप गया है और प्रचारक (प्रोपैगेंडिस्ट) का रूप ऊपर आ गया है।

छोटी कहानियाँ

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, छोटी कहानियों का विकास तो हमारे यहाँ और भी विशद और विस्तृत रूप में हुआ और उसमें वर्तमान कवियों का भी पूरा योग रहा है। उनके इतने रूप रंग हमारे सामने आए हैं कि वे सबके सब अब पाश्चात्य लक्षणों और आदर्शों के भीतर नहीं समा सकते। न तो सब में विस्तार के किसी नियम का पालन मिलेगा, न चरित्र विकास का अवकाश। एक संवेदना या मनोभाव का सिध्दांत भी कहीं कहीं ठीक न घटेगा। उसके स्थान पर हमें मार्मिक परिस्थिति की एकता मिलेगी, जिसके भीतर कई ऐसी संवेदनाओं का योग रहेगा जो सारी परिस्थिति को बहुत ही मार्मिक रूप देगा। श्री चंडीप्रसाद 'हृदयेश' की 'उन्मादिनी' का जिस परिस्थिति में पर्यवसान होता है उसमें पूरन का सत्वोद्रेक, सौदामिनी का अपत्यस्नेह और कालीशंकर की स्तब्धाता तीनों का योग है। जो कहानियाँ कोई मार्मिक परिस्थिति लक्ष्य में रखकर चलेंगी उनमें बाह्य प्रकृति के भिन्न भिन्न रूप रंगों के सहित और परिस्थितियों का विशद चित्रण भी बराबर मिलेगा। घटनाएँ और कथोपकथन बहुत अल्प रहेंगे। 'हृदयेश' जी की कहानियाँ प्राय: इसी ढंग की हैं। 'उन्मादिनी' में घटना गतिशील नहीं। 'शांतिनिकेतन' में घटना और कथोपकथन दोनों कुछ नहीं। यह भी कहानी का एक ढंग है, यह हमें मानना पड़ेगा। पाश्चात्य आदर्श का अनुसरण इसमें नहीं है, न सही।

वस्तुविन्यास के ढंग में भी इधर अधिक वैचित्रय आया है। घटनाओं में काल के पूर्वापर क्रम का विपर्यय कहीं कहीं इस तरह का मिलेगा कि समझने के लिए कुछ देर रुकना पड़ेगा। कहानियों में 'परिच्छेद' न लिखकर केवल 1, 2, 3 आदि संख्याएँ देकर विभाग करने की चाल है। अब कभी कभी एक ही नंबर के भीतर चलते हुए वृत्त के बीच थोड़ी सी जगह छोड़कर किसी पूर्वकाल की परिस्थिति पाठकों के सामने एकबारगी रख दी जाती है। कहीं कहीं चलते हुए वृत्त के बीच में परिस्थिति का नाटकीय ढंग का एक छोटा सा चित्र भी आ जाता है। इस प्रकार के चित्र में चारों ओर सुनाई पड़ते हुए शब्दों का संघात भी सामने रखा जाता है, बाजार की सड़क का यह कोलाहल ,

मोटरों, ताँगों और इक्कों के आने जाने का मिलित स्वर। चमचमाती हुई कार का म्युजिकल हॉर्न।...बचना भैये।...हटना, राजा बाबू।...अक्खा! तिवारीजी हैं, नमस्कार!...हटना भा आई...आदाबअर्ज दारोगाजी'।

('पुष्करिणी' में 'चोर' नाम की कहानी , भगवतीप्रसाद वाजपेयी)

हिन्दी में जो कहानियाँ लिखी गई हैं, स्थूल दृष्टि से देखने पर, वे इन प्रणालियों पर चली दिखाई पड़ती हैं ,

1. सादे ढंग से केवल कुछ अत्यंत व्यंजक घटनाएँ और थोड़ी बातचीत सामने लाकर क्षिप्र गति से किसी एक गंभीर संवेदना या मनोभाव में पर्यवसित होनेवाली, जिसका बहुत ही अच्छा नमूना है, स्वर्गीय गुलेरीजी की प्रसिद्ध कहानी, 'उसने कहा था'। पं. भगवतीप्रसाद वाजपेयी की 'निंदिया लागी' और 'पेंसिल स्केच' नाम की कहानियाँ भी इसी ढंग की हैं। ऐसी कहानियाें में परिस्थिति की मार्मिकता अपने वर्णन या व्याख्या द्वारा हृदयंगम करने का प्रयत्न लेखक नहीं करता, उसका अनुभव वह पाठक पर छोड़ देता है।

2. परिस्थितियों के विशद और मार्मिक , कभी कभी रमणीय और अलंकृत वर्णनों और व्याख्यानों के साथ मंद, मधुर गति से चलकर किसी एक मार्मिक परिस्थिति में पर्यवसित होने वाली; जैसे , स्व. चंडीप्रसाद 'हृदयेश' की 'उन्मादिनी', 'शांति निकेतन'। ऐसी कहानियों में परिस्थिति के अंतर्गत प्रकृति का चित्रण भी प्राय: रहता है।

3. उक्त दोनों के बीच की पद्ध ति ग्रहण करके चलनेवाली, जिसमें घटनाओं की व्यंजकता और पाठकों की अनुभूति पर पूरा भरोसा न करके लेखक भी कुछ मार्मिक व्याख्या करता चलता है; जैसे , प्रेमचंदजी की कहानियाँ। पं. विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, पं. जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज' इत्यादि अधिकांश लेखकों की कहानियाँ अधिकतर इस पद्ध ति पर चली हैं।

4. घटना और संवाद दोनों में गूढ़ व्यंजना और रमणीय कल्पना के सुंदर समन्वय के साथ चलनेवाली; जैसे , प्रसादजी तथा रायकृष्णदासजी की कहानियाँ।

5. किसी तथ्य का प्रतीक खड़ा करनेवाली लाक्षणिक कहानी, जैसे , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का 'भुनगा'।

वस्तुसमष्टि के स्वरूप की दृष्टि से भी बहुत से वर्ग किए जा सकते हैं, जिसमें से मुख्य ये हैं ,

1. सामान्यत: जीवन के किसी स्वरूप की मार्मिकता सामने लानेवाली। अधिकतर कहानियाँ इस वर्ग के अंतर्गत आएँगी।

2. भिन्न भिन्न वर्गों के संस्करण ख्संस्कार] का स्वरूप सामने रखनेवाली, जैसे , प्रेमचंदजी की 'शतरंज के खिलाड़ी' और श्री ऋषभचरण जैन की 'दान' नाम की कहानी।

3. किसी मधुर या मार्मिक प्रसंग कल्पना के सहारे किसी ऐतिहासिक काल का खंडचित्र दिखानेवाली, जैसे , रायकृष्णदासजी की 'गहूला' और जयशंकर प्रसाद जी की 'आकाशदीप'।

4. देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से पीड़ित जनसमुदाय की दुर्दशा सामने लानेवाली, जैसे , श्री भगवतीप्रसाद वाजपेयी की 'निंदिया लागी', 'हृदयगति' तथा श्री जैनेंद्रकुमार की 'अपना अपना भाग्य' नाम की कहानी।

5. राजनीतिक आंदोलन में सम्मिलित नवयुवकों के स्वदेश प्रेम, त्याग, साहस और जीवनोत्सर्ग का चित्र खड़ा करनेवाली, जैसे , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की 'उसकी माँ' नाम की कहानी।

6. समाज के भिन्न भिन्न क्षेत्रों के बीच धर्म, समाजसुधार, व्यापार, व्यवसाय, सरकारी काम, नई सभ्यता आदि की ओट में होनेवाले पाखंडपूर्ण पापाचार के चटकीले चित्र सामने लानेवाली कहानियाँ, जैसी 'उग्र'जी की हैं। 'उग्र' की भाषा बड़ी अनूठी चपलता और आकर्षक वैचित्रय के साथ चलती है। उस ढंग की भाषा उन्हीं के उपन्यासों और 'चाँदनी' ऐसी कहानियों में ही मिल सकती है।

7. सभ्यता और संस्कृति की किसी व्यवस्था के विकास का आदिम रूप झलकाने वाली, जैसे , रायकृष्णदासजी का 'अंत:पुर का आरंभ' श्रीमंत समंत की 'चँबेली की कली' और श्री जैनेंदकुमार की 'बाहुबली'।

8. अतीत के किसी पौराणिक या ऐतिहासिक कालखंड के बीच अत्यंत मार्मिक और रमणीय प्रसंग का अवस्थान करनेवाली, जैसे , श्री बिंदु ब्रह्मचारी और श्रीमंत समंत (पं. बालकराम विनायक) की कहानियाँ।

ये कहानियाँ 'कथामुखी' नाम की मासिक पत्रिका (अयोध्या, संवत् 1977-78) में निकली थीं। इनमें से कुछ के नाम ये हैं , वनभागिनी, कृत्तिाका, हेरम्या और बाहुमान, कनकप्रभा, श्वेतद्वीप का तोता क्या पढ़ता था, चँबेली की कली। इनमें से कुछ कहानियों में एशिया के भिन्न भिन्न भागों में (ईरान, तुर्किस्तान, अर्मेनिया, चीन, सुमात्रा, जावा इत्यादि में) भारतीय संस्कृति और प्रभाव का प्रसार (ग्रेटर इंडिया) दिखानेवाले प्रसंगों की अनूठी उद्भावना पाई जाती है, जैसे , 'हेरम्या और बाहुमान' में। ऐसी कहानियों में भिन्न भिन्न देशों की प्राचीन संस्कृति के अध्ययन की त्रुटि अवश्य कहीं कहीं खटकती है, जैसे , 'हेरम्या और बाहुमान' आर्यपारसीक और सामी अरब सभ्यता का घपला है।

एशिया के भिन्न भिन्न भागों में भारतीय संस्कृति और प्रभाव की झलक जयशंकर प्रसादजी के 'आकाशदीप' में भी है।

9. हास्यविनोद द्वारा अनुरंजन करनेवाली, जैसे , जी. पी. श्रीवास्तव, श्री अन्नपूर्णानंद और कांतानाथ पांडेय 'चोंचजी' की कहानियाँ।

इस श्रेणी की कहानियों का अच्छा विकास हिन्दी में नहीं हो रहा है। अन्नपूर्णानंदजी का हास सुरुचिपूर्ण है। 'चोंच' जी की कहानियाँ अतिरंजित होने पर भी व्यक्तियों के कुछ स्वाभावकि ढाँचे सामने लाती हैं। जी. पी. श्रीवास्तव की कहानियों में शिष्ट और परिष्कृत हास की मात्रा कम पाई जाती है। समाज केचलते जीवन के किसी विकृत पक्ष को, या किसी वर्ग के व्यक्तियों की बेढंगी विशेषताओं को हँसने, हँसाने योग्य बनाकर सामने लाना अभी बहुत कम दिखाई पड़ रहा है।

यह बात कहनी पड़ती है कि शिष्ट और परिष्कृत हास का जैसा सुंदर विकास पाश्चात्य साहित्य में हुआ है वैसा अपने यहाँ अभी नहीं देखने में आ रहा है। पर हास्य का जो स्वरूप हमें संस्कृत के नाटकों और फुटकल पद्यों में मिलता है वह बहुत ही समीचीन साहित्यसम्मत और वैज्ञानिक है। संस्कृत के नाटकों में हास्य के आलंबन विदूषक के रूप में पेटू ब्राह्मण रहे हैं और फुटकल पद्यों में शिव ऐसे औढर देवता तथा उनका परिवार और समाज। कहीं कहीं खटमल ऐसे क्षुद्र जीव भी आ गए हैं। हिन्दी में इनके अतिरिक्त कंजूसों पर विशेष कृपा हुई है। पर ये सब आलंबन जिस ढंग से सामने लाए गए हैं उसे देखने से स्पष्ट हो जाएगा कि रस सिध्दांत का पालन बड़ी सावधानी से हुआ है। रसों में हास्य रस का जो स्वरूप और जो स्थान है यदि वह बराबर दृष्टि में रहे तो अत्यंत उच्च और उत्कृष्ट श्रेणी के हास का प्रवर्तन हमारे साहित्य में हो सकता है।

हास्य के आलंबन से विनोद तो होता ही है, उसके प्रति कोई न कोई और भाव भी, जैसे , राग, द्वेष, घृणा, उपेक्षा, विरक्ति , साथ साथ लगा रहता है। हास्य रस के जो भारतीय आलंबन ऊपर बताए गए हैं, वे सब इस ढंग से सामने लाए गए हैं कि उनके प्रति द्वेष, घृणा इत्यादि न उत्पन्न होकर एक प्रकार का राग या प्रेम ही उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था हमारे रस सिध्दांत के अनुसार है। स्थायी भावों में आधो सुखात्मक हैं और आधो दुखात्मक। हास्य आनंदात्मक भाव हैं। एक ही आश्रय में, एक ही आलंबन के प्रति, आनंदात्मक और दुखात्मक भावों की एक साथ स्थिति नहीं हो सकती। हास्य रस में आश्रय के रूप में किसी पात्र की अपेक्षा नहीं होती, श्रोता या पाठक ही आश्रय रहता है। अत: रस की दृष्टि से हास्य में द्वेष और घृणा नामक दुखात्मक भावों की गुंजाइश नहीं। हास्य के साथ जो दूसरा भाव आ सकता है वह संचारी के रूप में ही। द्वेष या घृणा का भाव जहाँ रहेगा, वहाँ हास की प्रधानता नहीं रहेगी, वह उपहास हो जाएगा। उसमें हास का सच्चा स्वरूप रहेगा ही नहीं। उसमें तो हास को द्वेष का व्यंजक या उसका आच्छादक मात्र समझना चाहिए।

जो बात हमारे यहाँ की रसव्यवस्था के भीतर स्वत:सिद्ध है वही योरप में इधर आकर एक आधुनिक सिध्दांत के रूप में यों कही गई है कि 'उत्कृष्ट हास वही है जिसमें आलंबन के प्रति एक प्रकार का प्रेमभाव उत्पन्न हो अर्थात् वह प्रिय लगे।' यहाँ तक तो बात बहुत ठीक रही। पर योरप में नूतन सिध्दांत प्रवर्तक बनने के लिए उत्सुक रहनेवाले चुप कब रह सकते हैं। वे दो कदम आगे बढ़कर आधुनिक 'मनुष्यतावाद' या 'भूतदयावाद' का स्वर ऊँचा करते हुए बोले, 'उत्कृष्ट हास' वह है जिसमें आलंबन के प्रति दया या करुणा उत्पन्न हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह होली, मुहर्रम सर्वथा अस्वाभाविक, अवैज्ञानिक और रसविरुद्ध हैं। दया या करुणा दुखात्मक भाव है, हास आनंदात्मक। दोनों की एक साथ स्थिति बात ही बात है। यदि हास के साथ एक ही आश्रय में किसी और भाव का सामंजस्य हो सकता है तो प्रेम या भक्ति का ही। भगवान शंकर के बौड़मपन का किस भक्तिपूर्ण विनोद के साथ वर्णन किया जाता है, वे किस प्रकार बनाए जाते हैं यह हमारे यहाँ 'रारि सी मची है त्रिापुरारि के तबेला में' देखा जा सकता है।

हास्य का स्वरूप बहुत ठीक सिध्दांत पर प्रतिष्ठित होने पर भी अभी तक उसकाऐसा विस्तृत विकास हमारे साहित्य में नहीं हुआ है, जो जीवन के अनेक क्षेत्रोंमें,जैसे , राजनीतिक, साहित्यिक, धार्मिक, व्यावसायिक , आलंबन ले लेकर खड़ा करे।

नाटक

यद्यपि और देशों के समान यहाँ भी उपन्यासों और कहानियों के आगे नाटकों का प्रणयन बहुत कम हो गया है, फिर भी हमारा नाटय साहित्य बहुत कुछ आगे बढ़ा है। नाटकों के बाहरी रूप रंग भी कई प्रकार के हुए हैं और अवयवों के विन्यास और आकार प्रकार में भी वैचित्रय आया है। ढाँचों में जो विशेषता योरप के वर्तमान नाटकों में प्रकट हुई है, वह हिन्दी के भी कई नाटकों में इधर दिखाई पड़ने लगी है, जैसे , अंक के आरंभ और बीच में भी समय, स्थान तथा पात्रों के रूप रंग और वेशभूषा का बहुत सूक्ष्म ब्योरे के साथ लंबा वर्णन। स्वगत भाषण की चाल भी अब उठ रही है। पात्रों के भाषण भी न अब बहुत लंबे होते हैं, न लंबे वाक्य वाले। ये बातें सेठ गोविंददासजी तथा पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों में पाई जाएँगी। थियेटरों के कार्यक्रम में दो अवकाशों के विचार से इधर तीन अंक रखने की प्रवृत्तॢा भी लक्षित हो रही है। दो एक व्यक्ति अंग्रेजी में एक अंकवाले आधुनिक नाटक देख उन्हीं के ढंग के दो एक एकांकी नाटक लिखकर उन्हें बिल्कुल एक नई चीज कहते हुए सामने लाए। ऐसे लोगों को जान रखना चाहिए कि एक अंक वाले कई उपरूपक हमारे यहाँ बहुत पहले से माने गए हैं।

यह तो स्पष्ट है कि आधुनिककाल के आरंभ से ही बँग्ला की देखादेखी हमारे हिन्दी नाटकों के ढाँचे पाश्चात्य होने लगे। नांदी, मंगलाचरण तथा प्रस्तावना हटाई जाने लगी। भारतेंदु ने ही 'नीलदेवी' और 'सतीप्रताप' में प्रस्तावना नहीं रखी है, हाँ, आरंभ में यशोगान या मंगलगान रख दिया है। भारतेंदु के पीछे तो यह भी हटता गया। भारतेंदुकाल से ही अंकों का अवस्थान अंग्रेजी ढंग पर होने लगा। अंकों के बीच के स्थान परिवर्तन या दृश्य परिवर्तन को 'दृश्य' और कभी कभी 'गर्भांक' शब्द रखकर सूचित करने लगे, यद्यपि 'गर्भांक' शब्द का हमारे नाटयशास्त्र में कुछ और ही अर्थ है। 'प्रसादजी' ने अपने 'स्कंदगुप्त' आदि नाटकों में यह दृश्य शब्द (जो अंग्रेजी सीन का अनुवाद है) छोड़ दिया है और स्थान परिवर्तन या पट परिवर्तन के स्थलों पर कोई नाम नहीं रखा है। इसी प्रकार आजकल 'विष्कंभक' और 'प्रवेशक' का काम देनेवाले दृश्य तो रखे जाते हैं, पर ये नाम हटा दिए गए हैं। 'प्रस्तावना' के साथ 'उद्धातक', 'कथोद्धात', आदि का विन्यास चमत्कार भी गया। पर ये युक्तियाँ सर्वथा अस्वाभाविक न थीं। एक बात बहुत अच्छी यह हुई कि पुराने नाटकों में दरबारी विदूषक नाम का जो, फालतू पात्र रहा करता था, उसके स्थान पर कथा की गति से संबद्ध कोई पात्र ही हँसोड़ प्रकृति का बना दिया जाता है। आधुनिक नाटकों में प्रसादजी के 'स्कंदगुप्त' नाटक का मुद्गल ही एक ऐसा पात्र है जो पुराने विदूषक का स्थानापन्न कहा जा सकता है।

भारतीय साहित्य शास्त्र में नाटक भी काव्य के ही अंतर्गत माना गया है; अत: उसका लक्ष्य भी निर्दिष्ट शीलस्वभाव के पात्रों को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में डालकर उनके वचनों और चेष्टाओं द्वारा दर्शकों में रस संचार करना ही रहा है। पात्रों के धाीरोदात्ता आदि बँधो हुए ढाँचे थे जिनमें ढले हुए सब पात्र सामने आते थे। इन ढाँचों के बाहर शीलवैचित्रय दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता था। योरप में धीरे धीरे शीलवैचित्रय प्रदर्शन को प्रधानता प्राप्त होती गई, यहाँ तक कि किसी नाटक के संबंध में वस्तुविधान और चरित्रविधान की चर्चा का ही चलन हो गया। इधर 'यथातथ्यवाद' के प्रचार से वहाँ रहा सहा काव्यत्व भी झूठी भावुकता कहकर हटाया जाने लगा। यह देखकर प्रसन्नता होती है कि हमारे 'प्रसाद' और 'प्रेमी' ऐसे प्रतिभाशाली नाटककारों ने उक्त प्रवृत्ति का अनुसरण न करके रसविधान और शीलवैचित्रय दोनों का सुंदर सामंजस्य रखा है। 'स्कंदगुप्त' नाटक में जिस प्रकार देवसेना और सर्वनाग ऐसे गूढ़ चरित्र के पात्र हैं, उसी प्रकार शुद्ध प्रेम, युध्दोत्साह, स्वदेशभक्ति आदि भावों की मार्मिक और उत्कृष्ट व्यंजना भी है। हमारे यहाँ के पुराने बँधो ढाँचों के भीतर शीलवैचित्रय का वैसा विकास नहीं हो सकता था, अत: उसका बंधन हटाकर वैचित्रय के लिए मार्ग खोलना तो ठीक है, पर यह आवश्यक नहीं कि उसके साथ ही रसात्मकता भी हम निकाल दें।

हिन्दी नाटकों के स्वतंत्र विकास के लिए ठीक मार्ग तो यह दिखाई पड़ता है कि हम उनका मूल भारतीय लक्ष्य तो बनाए रहें, पर उनके स्वरूप के प्रचार के लिए और देशों की पद्ध तियों का निरीक्षण और उनकी कुछ बातों का मेल सफाई के साथ करते चलें। अपने नाटयशास्त्र के जटिल विधान को ज्यों का त्यों लेकर हम आजकल चल नहीं सकते, पर उनका बहुत सा रंग रूप अपने नाटकों में ला सकते हैं जिससे भारतीय परंपरा के प्रतिनिधि वे बने रह सकते हैं। रूपक और उपरूपक के जो बहुत से भेद किए गए हैं उनमें से कुछ को हम आजकल भी चला सकते हैं। उनके दिए हुए लक्षणों में वर्तमान रुचि के अनुसार जो हेरफेर चाहे कर लें। इसी प्रकार अभिनय की रोचकता बढ़ानेवाली जो युक्तियाँ हैं, जैसे , उद्धातक, कथोद्धात , उनमें से कई एक का आवश्यक रूपांतर के साथ और स्थान का बंधान दूर करके, हम बनाए रख सकते हैं। संतोष की बात है कि 'प्रसाद' और 'प्रेमीजी' के नाटकों में इसके उदाहरण हमें मिलते हैं, जैसे , कथोद्धात के ढंग पर एक पात्र के मुँह से निकले हुए शब्द को लेकर दूसरे पात्र का यह प्रवेश ,

शर्वनाग , देख, सामने सोने का संसार खड़ा है।

(रामा का प्रवेश)

रामा , पामर! सोने की लंका राख हो गई। (स्कंदगुप्त)

श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के नाटकों में भी यह मिलता है। 'शिवासाधना' में देखिए ,

जीजा. , हाँ, यह एक बाधा है।

(सई बाई का बालक संभाजी को लिए हुए प्रवेश)

सई बाई , यह बाधा भी न रहेगी, माँजी!

प्राचीन नाटयशास्त्र (भारतीय और यवन दोनों) में कुछ बातों का, जैसे , मृत्यु, वधा, युद्ध , दिखाना वर्जित था। आजकल उस नियम के पालन की आवश्यकता नहीं मानी जाती। प्रसादजी ने अपने नाटकों में बराबर मृत्यु, वधा और आत्महत्या दिखाई है। प्राचीन भारत और यवनान में ये निषेध भिन्न भिन्न कारणों से थे। यवनान में तो बड़ा भारी कारण रंगशाला का स्वरूप था। पर भारत में अत्यंत क्षोभ तथा शिष्ट रुचि व विरक्ति बचाने के लिए कुछ दृश्य वर्जित थे। मृत्यु और वधा अत्यंत क्षोभकारक होने के कारण, भोजन परिष्कृत रुचि के विरुद्ध होने के कारण तथा रंगशाला की थोड़ी सी जगह के बीच दूर से पुकारना अस्वाभाविक और अशिष्ट लगने के कारण वर्जित थे। देश की परंपरागत सुरुचि की रक्षा के लिए कुछ व्यापार तो हमें आजकल भी वर्जित रखने चाहिए, जैसे , चुंबन, आलिंगन। स्टेशन के प्लेटफार्म पर चुंबन,आलिंगन चाहे योरप की सभ्यता के भीतर हो, पर हमारी दृष्टि में जंगलीपन या पशुत्व है।

इस तृतीय उत्थान के बीच हमारे वर्तमान नाटक क्षेत्र में दो नाटककार बहुत ऊँचे स्थान पर दिखाई पड़े , स्व. जयशंकर प्रसादजी और श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी'। दोनों की दृष्टि ऐतिहासिक काल की ओर रही है। प्रसादजी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदूकाल के भीतर चुना और प्रेमीजी ने मुस्लिम काल के भीतर। 'प्रसाद' के नाटकों में 'स्कंदगुप्त' श्रेष्ठ है और 'प्रेमी' के नाटकों में 'रक्षाबंधान'।

'प्रसादजी' में प्राचीनकाल की परिस्थियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रँगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की अधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्तमान गद्यकाव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीनकाल की भावपद्ध ति के। वे तो वर्तमान काव्य की एक शाखा के प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) मात्र हैं। अपनी सबसे पिछली रचनाओं से ये त्रुटियाँ उन्होंने निकाल दी हैं। 'चंद्रगुप्त' और 'धा्रुवस्वामिनी' इन दोषों से प्राय: मुक्त हैं। पर चंद्रगुप्त में एक दूसरा बड़ा भारी दोष आ गया है। उसके भीतर सिकंदर के भारत पहुँचने के कुछ पहले से लेकर सिल्यूकस की पराजय तक के पच्चीस वर्ष के दीर्घकाल की घटनाएँ लेकर कसी गई हैं जो एक नाटक के भीतर नहीं आनी चाहिए। जो पात्र युवक के रूप में नाटक के आरंभ में दिखाई पड़े, वे नाटक के अंत में भी उसी रूप में सामने आते हैं। यह दोष तो इतिहास की ओर दृष्टि ले जाने पर दिखाई पड़ता है अर्थात् बाहरी है। पर घटनाओं की अत्यंत सघनता का दोष रचना से संबंध रखता है। बहुत से भिन्न भिन्न पात्रों से संबंद्ध घटनाओं के जुड़ते चलने के कारण बहुत कम चरित्रों के विकास का अवकाश रह गया है। पर इस नाटक में विन्यस्त वस्तु और पात्र इतिहास का ज्ञान रखनेवालों के लिए इतने आकर्षक हैं कि उक्त दोषों की ओर ध्यान कुछ देर में जाता है। 'मुद्राराक्षस' से इसमें कई बातों की विशेषता है। पहली बात तो यह है कि इसमें चंद्रगुप्त केवल प्रयत्न के फल का भोक्ता कठपुतली भर नहीं, प्रयत्न में अपना क्षत्रिय भाग सुंदरता के साथ पूरा करनेवाला है। नीतिप्रवर्तन का भाग चाणक्य पूरा करता है। दूसरी बात यह है कि 'मुद्राराक्षस' में चाणक्य का व्यक्तित्व , उसका हृदय , सामने नहीं आता। तेजस्विता, धाीरता, प्रत्युत्पन्न बुद्धि और ब्राह्मणोचित त्याग आदि सामान्य गुणों के बीच केवल प्रतिकार की प्रबल वासना ही हृदयपक्ष की ओर झलकती है। पर इस नाटक में चाणक्य के प्रयत्न का लक्ष्य भी ऊँचा किया गया है और उसका पूरा हृदय भी सामने रखा गया है।

नाटकों का प्रभाव पात्रों के कथोपकथन पर बहुत कुछ अवलंबित रहता है। श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के कथोपकथन 'प्रसाद' जी के कथोपकथनों से अधिक नायकोपयुक्त हैं। उनमें प्रसंगानुसार बातचीत का चलता स्वाभाविक ढंग भी है और सर्वहृदयग्राह्य पद्ध ति पर भाषा का मर्मव्यंजक अनूठापन भी। 'प्रसादजी' के नाटकों में एक ही ढंग की चित्रमयी और लच्छेदार बातचीत करने वाले कई पात्र आ जाते हैं। 'प्रेमीजी' के नाटकों में यह खटकने वाली बात नहीं मिलती।

'प्रसाद' और 'प्रेमी' के नाटक यद्यपि ऐतिहासिक हैं, पर उनमें आधुनिक आदर्शों और भावनाओं का आभास इधर उधर मिलता है। 'स्कंदगुप्त' और 'चंद्रगुप्त' दोनों में स्वदेशप्रेम, विश्वप्रेम और आध्यात्मिकता का आधुनिक रूप रंग बराबर झलकता है। आजकल के मजहबी दंगों का स्वप्न भी हम 'स्कंदगुप्त' में देख सकते हैं। 'प्रेमी' के 'शिवासाधना' नाटक में शिवाजी भी कहते हैं , 'मेरे शेष जीवन की एकमात्र साधना होगी भारतवर्ष को स्वतंत्र करना, दरिद्रता की जड़ खोदना, ऊँच नीच की भावना और धार्मिक तथा सामाजिक असहिष्णुता का अंत करना, राजनीतिक और सामाजिक दोनों प्रकार की क्रांति करना।' हम समझते हैं कि ऐतिहासिक नाटक में किसी पात्र से आधुनिक भावनाओं की व्यंजना जिस काल का वह नाटक हो उस काल की भाषापद्ध ति और विचारपद्ध ति के अनुसार करानी चाहिए, 'क्रांति' ऐसे शब्दों द्वारा नहीं। 'प्रेमीजी' के 'रक्षाबंधान' में मेवाड़ की महारानी कर्मवती का हुमायूँ को भाई कहकर राखी भेजना और हुमायूँ का गुजरात के मुसलमान बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध एक हिंदू राज्य की रक्षा के लिए पहुँचना, यह कथावस्तु ही हिन्दू मुस्लिम भेदभाव की शांति सूचित करती है। उसके ऊपर कट्टर सरदारों और मुगलों की बात का विरोध करता हुआ हुमायूँ जिस उदार भाव की सुंदर व्यंजना करता है वह वर्तमान हिन्दू मुस्लिम दुर्भाव की शांति का मार्ग दिखाता जान पड़ता है। इसी प्रकार 'प्रसादजी',के 'धा्रुवस्वामिनी' नामक बहुत छोटे से नाटक में एक संभ्रात राजकुल की स्त्री का विवाहसंबंध मोक्ष सामने लाया गया है, जो वर्तमान सामाजिक आंदोलन का एक अंग है।

वर्तमान राजनीति के अभिनयों का पूर्ण परिचय प्राप्त कर सेठ गोविंददासजी ने इधर साहित्य के अभिनय क्षेत्र में भी प्रवेश किया है। उन्होंने तीन अच्छे नाटक लिखे हैं। र्'कत्ताव्य' में राम और कृष्ण दोनों के चरित्र नाटक के पूर्वार्धा और उत्तारार्धा दो खंड करके रखे गए हैं जिनका उद्देश्य हैर् कत्ताव्य के विकास की दो भूमियाँ दिखाना। नाटककार के विवेचनानुसार मर्यादापालन प्रथम भूमि है जो पूर्वार्धा में राम द्वारा पूर्णता को पहुँचती है, लोकहित की व्यापक दृष्टि से आवश्यकतानुसार नियम और मर्यादा का उल्लंघन उसके आगे की भूमि है, जो नाटक के उत्तारार्धा में श्रीकृष्ण ने अपने चरित्र द्वारा, जैसे , जरासंधा के सामने लड़ाई का मैदान छोड़कर भागना , प्रदर्शित की है। वास्तव में पूर्वार्धा और उत्तारार्धा दो अलग अलग नाटक हैं, पर नाटककार ने अपने कौशल सेर् कत्ताव्यविकास की सुंदर उद्भावना द्वारा दोनों के बीच पूर्वापर संबंध स्थापित कर दिया है। यह भी एक प्रकार का कौशल है। इसे 'ऊटकनाटक' न समझना चाहिए। सेठजी का दूसरा नाटक 'हर्ष' ऐतिहासिक है जिसमें सम्राट हर्षवर्ध्दन, माधव गुप्त, शशांक आदि पात्र आए हैं। इन दोनों नाटकों में प्राचीन वेशभूषा, वास्तुकला इत्यादि का ध्यान रखा गया है। 'प्रकाश' नाटक में वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण है। यद्यपि इन तीनों नाटकों के वस्तुविन्यास और कथोपकथन में विशेष रूप से आकर्षित करनेवाला अनूठापन नहीं है, पर इनकी रचना बहुत ठिकाने की है।

पं. गोविंदबल्लभ पंत भी अच्छे नाटककार हैं। उनका 'वरमाला' नाटक, जो मार्कंडेय पुराण की एक कथा लेकर निर्मित है, बड़ी निपुणता से लिखा गया है। मेवाड़ की पन्ना नामक धाय के अलौकिक त्याग का ऐतिहासिक वृत्त लेकर 'राजमुकुट' की रचना हुई है। 'अंगूर की बेटी' (जो फारसी शब्द का अनुवाद है) मद्य के दुष्परिणाम दिखानेवाला सामाजिक नाटक है।

कुछ हलके ढंग के नाटकों में, जिनसे बहुत साधारण पढ़े लिखे लोगों का भी कुछ मनोरंजन हो सकता है, स्वर्गीय पं. बदरीनाथ भट्ट के 'दुर्गावती', 'तुलसीदास' आदि उल्लेख योग्य हैं। हास्यरस की कहानियाँ लिखनेवाले जी. पी. श्रीवास्तव ने मोलियर के फारसी नाटकों के हिंदुस्तानी अनुवादों के अतिरिक्त 'मरदानी औरत', 'गड़बड़झाला', 'नोक झोंक', 'दुमदार आदमी' इत्यादि बहुत से छोटे मोटे प्रहसन भी लिखे हैं, पर वे परिष्कृत रुचि के लोगों को हँसाने में समर्थ नहीं। 'उलटफेर' औरों से अच्छे ढर्रे का कहा जा सकता है।

पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र ने अपने नाटकों द्वारा स्त्रियों की स्थिति आदि कुछ सामाजिक प्रश्न या समस्याएँ तो सामने रखी ही हैं, योरप में प्रवर्तित 'यथातथ्यवाद' का वह खरा रूप भी दिखाने का प्रयत्न किया है जिसमें झूठी भावुकता और मार्मिकता से पीछा छुड़ाकर नर प्रकृति अपने वास्तविक रूप में सामने लाई जाती है। ऐसे नाटकों का उद्देश्य होता है , समाज अधिकतर जैसा है वैसा ही सामने रखना, उसके भीतर की नाना विषमताओं से उत्पन्न प्रश्नों का जीता जागता रूप खड़ा करना तथा यदि संभव हो तो समाधान के स्वरूप का आभास देना। लोक के बीच कभी कभी जो उच्च भावों के कुछ दृष्टांत दिखाई पड़ जाया करते हैं, उनपर कल्पना का झूठा रंग चढ़ाकर धोखे की टट्टियाँ खड़ी करना और बहुत ही फालतू भावुकता जगाना अब बंद होना चाहिए, यही उपर्युक्त 'यथातथ्यवाद' के अनुयायियों का कहना है। योरप में जब 'कला' और 'सौंदर्य' की बड़ी पुकार मची और कुछ कलाकार, कवि और लेखक अपना यह काम समझने लगे कि जगत् के सुंदर पक्ष से सामग्री चुन चुन कर एक काल्पनिक सौंदर्य सृष्टि खड़ी करें और उसका मधुपान करके झूमा करें, तब इसकी घोर प्रतिक्रिया वहाँ आवश्यक थी और यहाँ भी 'सौंदर्यवाद' और 'कलावाद' का हिन्दी में खासा चलन होने के कारण अब आवश्यक हो गई है। जब कोई बात हद के बाहर जाकर जी उबाने और विरक्ति उत्पन्न करने लगती है तब साहित्य के क्षेत्र में प्रतिक्रिया अपेक्षित होती है। योरप के साहित्य क्षेत्र में एकांगदर्शिता इतनी बढ़ गई है कि किसी न किसी हद पर जाकर कोई न कोई वाद बराबर खड़ा होता रहता है और आगे बढ़ चलता है। उसके थोड़े ही दिनों पीछे बड़े वेग से उसकी प्रतिक्रिया होती है जिसकी धारा दूसरी हद की ओर बढ़ती है। अत: योरप के किसी 'वाद' को लेकर चिल्लाने वालों को यह समझ रखना चाहिए कि उसका बिल्कुल उलटा वाद भी पीछे लगा आ रहा है।

प्रतिक्रिया के रूप में निकली हुई साहित्य की शाखाएँ प्रतिक्रिया का रोष ठंडा होने पर धीरे धीरे पलटकर मध्यम पथ पर आ जाती हैं। कुछ दिनों तक तो वे केवल चिढ़ाती सी जान पड़ती हैं, पीछे शांत भाव से सामंजस्य के साथ चलने लगती हैं। 'भावुकता' भी जीवन का एक अंग है। साहित्य की किसी शाखा से हम उसे बिल्कुल हटा तो सकते नहीं। हाँ, यदि वह व्याधिा के रूप में , फीलपाँव की तरह , बढ़ने लगे, तो उसकी रोकथाम आवश्यक है।

नाटक का जो नया स्वरूप लक्ष्मीनारायण जी योरप से लाए हैं उसमें काव्यत्व का अवयव भरसक नहीं आने पाया है। उनके नाटकों में न चित्रमय और भावुकता से लदे भाषण हैं, न गीत या कविताएँ। खरी खरी बात कहने का जोश कहीं कहीं अवश्य है। इस प्रणाली पर उन्होंने कई नाटक लिखें हैं, जैसे , 'मुक्ति का रहस्य', 'सिंदूर की होली', 'राक्षस का मंदिर', 'आधी रात'।

समाज के कुत्सित, बीभत्स और पाखंडपूर्ण अंशों के चटकीले दृश्य दिखाने के लिए पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने छोटे छोटे नाटकों या प्रहसनों से भी काम लिया है। 'चुंबन' और 'चार बेचारे'। (संपादक, अध्यापक, सुधारक, प्रचारक) इसीलिए लिखे गए हैं। 'महात्मा ईसा' के फेर में तो वे नाहक पड़े।

पं. उदयशंकर भट्ट ने, जो पंजाब में बहुत अच्छी साहित्यसेवा कर रहे हैं, 'तक्षशिला', 'राका', 'मानसी' आदि कई अच्छे काव्यों के अतिरिक्त, अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं। 'दाहर या सिंधपतन' तथा 'विक्रमादित्य' ऐतिहासिक नाटक हैं। हाल में 'कमला' नाम का एक सामाजिक नाटक भी आपने लिखा है। जिसमें किसान आंदोलन तथा सामाजिक असामंजस्य का मार्मिक चित्रण है। 'दस हजार' नाम का एकांकी नाटक भी आपने इधर लिखा है।

भट्टजी की कला का पूर्ण विकास पौराणिक नाटकों में दिखाई पड़ता है। पौराणिक क्षेत्र के भीतर से वे ऐसे पात्र ढूँढ़कर लाए हैं जिनमें चारों ओर जीवन की रहस्यमयी विषमताएँ बड़ी गहरी छाया डालती हुई सामने आती हैं , ऐसी विषमताएँ जो वर्तमान समाज को क्षुब्ध करती रहती हैं। 'अंबा' नाटक में भीष्म द्वारा हरी हुई अंबा की जन्मांतरव्यापिनी प्रतिकारवासना के अतिरिक्त स्त्री पुरुष संबंध की वह विषमता भी सामने आती है जो आजकल के महिला आंदोलन की तह में वर्तमान है। 'मत्स्यगंधाा' एक भावनाटय या पद्यबद्ध नाटक है। उसमें जीवन का वह रूप सामने आता है जो ऊपर से सुखपूर्ण दिखाई पड़ता है पर, जिसके भीतर न जाने कितनी उमंगों और मधुर कामनाओं के धवंस की विषादधारा यहाँ से वहाँ तक छिपी मिलती है। 'विश्वामित्र' भी इसी ढंग का एक सुंदर नाटक है। चौथा नाटक 'सगरविजय' भी उत्तम है। पौराणिक सामग्री का जैसा सुंदर उपयोग भट्टजी ने किया है, वैसा कम देखने में आता है। ऐतिहासिक नाटक रचना में जो स्थान 'प्रसाद' और 'प्रेमी' का है, पौराणिक नाटक रचना में वही स्थान भट्टजी का है।

श्री जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद' ने महाराणाप्रताप के राज्याभिषेक से अंत तक का वृत्त लेकर 'प्रतापप्रतिज्ञा' नाटक की रचना की है। स्व. राधाकृष्णदासजी के 'प्रताप' नाटक का आरंभ मानसिंह के अपमान से होता है जो नाटयकला की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त है। परिस्थितियों को प्रधानता देने में भी 'मिलिंदजी' का चुनाव उतना अच्छा नहीं है। कुछ ऐतिहासिक त्रुटियाँ भी हैं।

श्री चतुरसेन शास्त्री ने उपन्यास और कहानियाँ तो लिखी ही हैं, नाटक की ओर भी हाथ बढ़ाया है। अपने 'अमर राठौर' और 'उत्सर्ग' नामक ऐतिहासिक नाटकों में उन्होंने कथावस्तु को अपने अनुकूल गढ़ने में निपुणता अवश्य दिखाई है, पर अधिक ठोंक पीट के कारण कहीं कहीं ऐतिहासिकता, और कहीं कहीं घटनाओं की महत्ताा भी झड़ गई है।

अंगरेज कवि शेली के ढंग पर श्री सुमित्रानंदन पंत ने कवि कल्पना को दृश्य रूप देने के लिए 'ज्योत्स्ना' नाम से एक रूपक लिखा है। पर शेली का रूपक ;च्तवउमजीमने न्दइवनदकद्ध तो आधिादैविक शासन से मुक्ति और जगत् के स्वातंत्रय का एक समन्वित प्रसंग लेकर चला है, और उसमें पृथ्वी, वायु आदि आधिाभौतिक देवता अपने निज के रूप में आए हैं, किंतु 'ज्योत्स्ना' बहुत दूर तक केवल सौंदर्यचयन करनेवाली कल्पना, मनुष्य के सुखविलास की भावना के अनुकूल चमकती उषा, सुरभित समीर, चटकती कलियाँ, कलरव करते विहंग आदि को अभिनय के लिए मनुष्य के रंगमंच पर जुटाने में प्रवृत्त है। उसके उपरांत आजकल की हवा में उड़ती हुई कुछलोकसमस्याओं पर कथोपकथन हैं। सब मिलाकर क्या है, यह नहीं कहा जा सकता।

श्री कैलाशनाथ भटनागर का 'भीमप्रतिज्ञा' भी विद्यार्थियों के योग्य अच्छा नाटकहै।

एकांकी नाटक का उल्लेख आरंभ में हो चुका है और यह कहा जा चुका है कि किस प्रकार पहले पहल दो एक व्यक्ति उसे भारतीय नाटय साहित्य में एक अश्रुतपूर्व वस्तु समझते हुए लेकर आए। अब इधर हिन्दी के कई अच्छे कवियों और नाटककारों ने भी कुछ एकांकी नाटक लिखे हैं जिनका एक अच्छा संग्रह 'आधुनिक एकांकी नाटक' के नाम से प्रकाशित हुआ है। इसमें श्री सुदर्शन, रामकुमार वर्मा, भुवनेश्वर, उपेंद्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, धर्मप्रकाश आनंद, उदयशंकर भट्ट के क्रमश: 'राजपूत की हार', 'दस मिनट', 'स्ट्राइक', 'लक्ष्मी का स्वागत', 'सबसे बड़ा आदमी', 'दीन' तथा 'दस हजार' नाम के नाटक संग्रहीत हैं।

हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध कवियों और उपन्यासकारों ने भी, जैसे , बाबू मैथिलीशरण गुप्त, श्री वियोगी हरि, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन , नाटक की ओर हाथ बढ़ाया, पर उनका मुख्य स्थान कवियों और उपन्यासकारों के बीच ही रहा।

मौलिक नाटकों के अतिरिक्त संस्कृत के पुराने नाटकों में से भास के 'स्वप्नवासवदत्ताा' (अनुवाद , सत्यजीवन वर्मा)े, 'पंचरात्रा' 'मध्यम व्यायोग', 'प्रतिज्ञा यौगंधारायण' (अनु ब्रजजीवनदास), 'प्रतिमा' (अनु. , बलदेव शास्त्री) तथा दिङ्नाथ के 'कुंदमाला' नाटक (अनु. , वागीश्वर विद्यालंकार) के अनुवाद भी हिन्दी में हुए।

जर्मन कवि गेटे के प्रसिद्ध नाटक 'फाउस्ट' का अच्छा अनुवाद श्री भोलानाथ शर्मा एम. ए. ने किया है।

निबंध

विश्वविद्यालयों के उच्च शिक्षाक्रम के भीतर हिन्दी साहित्य का समावेश हो जाने के कारण उत्कृष्ट कोटि के निबंधों की , ऐसे निबंधों की जिनकी असाधारण शैली या गहन विचारधारा पाठकों को मानसिक श्रमसाधय नूतन उपलब्धिा के रूप में जान पड़े , जितनी ही अधिक आवश्यकता है उतने ही कम वे हमारे सामने आ रहे हैं। निबंध की जो स्थिति हमें द्वितीय उत्थान में दिखाई पड़ी प्राय: वही स्थिति इस वर्तमान काल में भी बनी हुई है। अर्थवैचित्रय और भाषा शैली का नूतन विकास जैसा कहानियों के भीतर प्रकट हुआ है, वैसा निबंध के क्षेत्र में नहीं देखने में आ रहा है, जो उसका बहुत उपयुक्त स्थान है।

यदि किसी रूप में गद्य की कोई नयी गतिविधि दिखाई पड़ी तो काव्यात्मक गद्य प्रबंधों के रूप में। पहले तो बंग भाषा के 'उद्भ्रांत प्रेम' (चंद्रशेखर मुखोपाध्यायकृत) को देख कुछ लोग उसी प्रकार की रचना की ओर झुके, पीछे भावात्मक गद्य की कई शैलियों की ओर। 'उद्भ्रांत प्रेम' उस विक्षेप शैली पर लिखा गया था जिसमें भावावेश द्योतित करने के लिए भाषा बीच बीच में असंबद्ध अर्थात् उखड़ी हुई होती थी। कुछ दिनों तक तो उसी शैली पर प्रेमोद्गार के रूप में पत्रिकाओं में कुछ प्रबंध , यदि उन्हें प्रबंध कह सकें , निकले, जिनमें भावुकता की झलक यहाँ से वहाँ तक रहती थी। पीछे श्री चतुरसेन शास्त्री के 'अंतस्तल' में प्रेम के अतिरिक्त और दूसरे भावों की भी प्रबल व्यंजना अलग अलग प्रबंधों में की गई जिनमें कुछ दूर तक एक ढंग पर चलती धारा के बीच बीच में भाव का प्रबल उत्थान दिखाई पड़ता था। इस प्रकार इन प्रबंधों की भाषा तरंगवती धारा के रूप में चली थी अर्थात् उसमें 'धारा' और 'तरंग' दोनों का योग था। ये दोनों प्रकार के गद्य बंगाली थिएटरों की रंगभूमि के भाषणों के से प्रतीत हुए।

पीछे रवींद्र बाबू के प्रभाव से कुछ रहस्योन्मुख आध्यात्मिकता का रंग लिए जिस भावात्मक गद्य का चलन हुआ वह विशेष अलंकृत होकर अन्योक्तिपद्ध ति पर चला। ब्रह्मसमाज ने जिस प्रकार ईसाइयों के अनुकरण पर अपनी प्रार्थना का विशेष दिन रविवार रखा था, उसी प्रकार अपने भक्तिभाव की व्यंजना के लिए पुराने ईसाई संतों की पद्ध ति भी ग्रहण की। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। ईसा की बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में संत बर्नार्ड ;जण् ठमतदंतमकद्ध नाम से जो प्रसिद्ध भक्त हो गए हैं, उन्होंने दूल्हे रूप ईश्वर के हृदय के 'तीसरे कक्ष' में प्रवेश का इस प्रकार उल्लेख किया है ,

यद्यपि वे कई बार मेरे भीतर आए, पर मैंने न जाना कि वे कब आए। आ जाने पर कभी कभी मुझे उनकी आहट मिलती है; उनके विद्यमान होने का स्मरण भी मुझे है; वे आनेवाले हैं, इसका आभास भी मुझे कभी कभी पहले से मिला है; पर वे कब भीतर आए और कब बाहर आए इसका पता मुझे कभी न चला।

इसी प्रकार उस परोक्ष आलंबन को प्रियतम मानकर उसके साथ संयोग और वियोग की अनेक दशाओं की कल्पना इस पद्ध ति की विशेषता है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' की रचना इसी पद्ध ति पर हुई। हिन्दी में भी इस ढंग की रचनाएँ हुईं जिनमें राय कृष्णदास की 'साधना', 'प्रवाल और छायावाद' वियोगी हरिजी की 'भावना' और 'अंतर्नाद' विशेष उल्लेख योग्य हैं। हाल में श्री भँवरलाल सिंधी ने 'वेदना' नाम की इसी ढंग की एक पुस्तक लिखी है जिसके भूमिका लेखक हैं, भाषातत्व के देशप्रसिद्ध विद्वान डॉ. सुनीति कुमार चाटर्ज्या।

यह तो हुई आध्यात्मिक या सांप्रदायिक क्षेत्र से गृहीत लाक्षणिक भावुकता, जो बहुत कुछ अभिनीत तथा अनुकृत होती है। अर्थात् बहुत कम दशाओं में हृदय की स्वाभाविक पद्ध ति पर चलती है। कुछ भावात्मक प्रबंध लौकिक क्षेत्र को लेकर भी मासिक पत्रों में निकलते रहते हैं जिनमें चित्रविधान कम और कसक, टीस वेदना अधिक रहती है।

अतीत के नाना खंडों में जाकर रमनेवाली भावुकता का मनुष्य की प्रकृति में एक विशेष स्थान है। मनुष्य की इस प्रकृतिस्थ भावुकता का अनुभव हम आप भी करते हैं और दूसरों को भी करते हुए पाते हैं। अत: यह मानव हृदय की एक सामान्य वृत्ति है। बड़े हर्ष की बात यह है कि अतीत के क्षेत्र में रमनेवाली अत्यंत मार्मिक और चित्रमयी भावना लेकर महाराज कुमार डॉ. श्री रघुवीरसिंहजी (सीतामऊ, मालवा) हिन्दी साहित्यक्षेत्र में आए। उनकी भावना मुगल सम्राटों के कुछ अवशिष्ट चिद्द सामने पाकर प्रत्यभिज्ञा के रूप में मुगल साम्राज्यकाल के कभी मधुर, भव्य जगमगाते दृश्यों के बीच, कभी पतनकाल के विषाद, नैराश्य, बेबसी की परिस्थितियों के बीच बड़ी तन्मयता के साथ रमी है। ताजमहल, दिल्ली का लाल किला, जहाँगीर और नूरजहाँ की कब्र इत्यादि पर उनके भावात्मक प्रबंधों की शैली बहुत ही मार्मिक और अनूठी है।

गद्य साहित्य में भावात्मक और काव्यात्मक गद्य का एक विशेष स्थान है, यह तो मानना ही पड़ेगा। अत: उपयुक्त क्षेत्र में उसका आविर्भाव और प्रसार अवश्य प्रसन्नता की बात है। पर दूसरे क्षेत्रों में भी, जहाँ गंभीर विचार और व्यापक दृष्टि अपेक्षित है, उसे घसीटे जाते देख दु:ख होता है। जो चिंतन के गूढ़ विषय हैं उनको भी लेकर कल्पना की क्रीड़ा दिखाना कभी उचित नहीं कहा जा सकता। विचार क्षेत्रों के ऊपर इस भावात्मक और कल्पनात्मक प्रणाली का धावा पहले पहल 'काव्य का स्वरूप' बतलाने वाले निबंधों में बंग साहित्य के भीतर हुआ, जहाँ शेक्सपियर की यह उक्ति गूँज रही थी ,

सौंदर्य मद में झूमती हुई कवि की दृष्टि स्वर्ग से भूलोक और भूलोक से स्वर्ग तक विचरती रहती है।

काव्य पर न जाने कितने ऐसे निबंध लिखे गए जिनमें सिवा इसके कि 'कविता अमरावती से गिरती हुई अमृत की धारा है', 'कविता हृदय कानन में खिली हुई कुसुममाला है', 'कविता देवलोक के मधुर संगीत की गूँज है', और कुछ भी न मिलेगा। यह कविता का ठीक ठीक स्वरूप बतलाना है कि उसकी विरुदावली बखानना? हमारे यहाँ के पुराने लोगों में 'जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि' ऐसी ऐसी बहुत सी विरुदावलियाँ प्रचलित थीं, पर वे लक्षण् या स्वरूप पूछने पर नहीं कही जाती थीं। कविता भावमयी, रसमयी और चित्रमयी होती है, इससे यह आवश्यक नहीं कि उसके स्वरूप का निरूपण भी भावमय, रसमय, चित्रमय हो। 'कविता के ही निरूपण तक भावात्मक प्रणाली का यह दावा रहता तो भी एक बात थी। कवियों की आलोचना तथा और विषयों में भी इसका दखल हो रहा है यह खटके की बात है। इससे हमारे साहित्य में घोर विचारशैथिल्य और बुद्धि का आलस्य फैलने की आशंका है। जिन विषयों के निरूपण में सूक्ष्म और सुव्यवस्थित विचार परंपरा अपेक्षित है, उन्हें भी इस हवाई शैली पर हवा बताना कहाँ तक ठीक होगा।'

समालोचना और काव्यमीमांसा

इस तृतीय उत्थान में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंत:प्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। तुलसीदास, सूरदास, जायसी, दीनदयाल गिरि और कबीरदास की विस्तृत आलोचनाएँ पुस्तकाकार और भूमिकाओं के रूप में भी निकलीं। इस इतिहास के लेखक ने तुलसी, सूर, और जायसी पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं जिनमें से प्रथम 'गोस्वामी तुलसीदास' के नाम से पुस्तकाकार छपी है; शेष दो क्रमश: 'भ्रमरगीतसार' और 'जायसी ग्रंथावली' में सम्मिलित हैं। स्व. लाला भगवानदीन की सूर, तुलसी, और दीनदयाल गिरि की समालोचनाएँ उनके संकलित और संपादित 'सूरपंचरत्न', 'दोहावली' और 'दीनदयालगिरि ग्रंथावली' में सम्मिलित हैं। अयोध्यासिंह उपाधयाय की कबीर समीक्षा उनके द्वारा संग्रहीत 'कबीर वचनावली' के साथ और डॉ. पीतांबरदत्ता बड़थ्वाल की 'कबीर ग्रंथावली' के साथ भूमिका रूप में सन्निविष्टहै।

इसके उपरांत 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँधा था और ,

1. केशव की काव्यकला (श्री कृष्णशंकर शुक्ल)

2. गुप्तजी की कला (प्रो. सत्येंद्र)

3. प्रेमचंद की उपन्यासकला (पं. जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज')

4. प्रसाद की नाटयकला

5. पद्माकर की काव्य साधना (अखौरी गंगाप्रसाद सिंह)

6. प्रसाद की काव्यसाधना (श्री रामनाथलाल 'सुमन')

7. मीरा की प्रेमसाधना (पं. भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव')

[आदि पुस्तकें] एक-दूसरे के आगे पीछे निकलीं। इनमें से कुछ पुस्तकें तो समालोचना की असली पद्ध ति पर निर्णयात्मक और व्याख्यात्मक दोनों ढंग लिए हुए चली हैं तथा कवि के बाह्य और आभ्यंतर दोनों का अच्छा परिचय कराती हैं, जैसे , 'केशव की काव्यकला', 'गुप्तजी की कला'। 'केशव की काव्यकला' में पं कृष्णशंकर शुक्ल ने अच्छा विद्वतापूर्ण अनुसंधान भी किया है। उनका 'कविवर रत्नाकर' भी कवि की विशेषताओं को मार्मिक ढंग से सामने रखता है। पं. गिरिजादत्ता शुक्ल 'गिरीश' कृत 'गुप्तजी की काव्यधारा में भी मैथिलीशरण गुप्तजी की रचना के विविधा पक्षों का सूक्ष्मता और मार्मिकता के साथ उद्धाटन हुआ है। 'पद्माकर की काव्यसाधना' द्वारा भी पद्माकर के संबंध में बहुत सी बातों की जानकारी हो जाती है। इधर हाल में पं. रामकृष्ण शुक्ल ने अपनी 'सुकवि समीक्षा' में कबीर, सूर, जायसी, तुलसी, मीरा, केशव, बिहारी, भूषण, भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद पर अच्छे समीक्षात्मक निबंध लिखे हैं। 'मीरा की प्रेमसाधना' भावात्मक है जिसमें 'माधवजी' मीरा के भावों का स्वरूप पहचानकर उन भावों में आप भी मग्न होते दिखाई पड़ते हैं। इन सब पुस्तकों से हमारा समीक्षा साहित्य बहुत कुछ समृद्ध हुआ है, इसमें संदेह नहीं। पं. शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'हमारे साहित्य निर्माता' नाम की एक पुस्तक लिखकर हिन्दी के कई वर्तमान कवियों और लेखकों की प्रवृत्तियों और विशेषताओं का अपने ढंग पर अच्छा आभास दिया है।

ठीक ठिकाने से चलनेवाली समीक्षाओं को देख जितना संतोष होता है, किसी कवि की समीक्षा के नाम पर उसकी रचना से सर्वथा असंबद्ध चित्रमयी कल्पना और भावुकता की सजावट देख उतनी ही ग्लानि होती है। यह सजावट अंग्रेजी के अथवा बँग्ला के समीक्षा क्षेत्र से कुछ विचित्र, कुछ विदग्धा, कुछ अतिरंजित चलते शब्द और वाक्य ला लाकर खड़ी की जाती है। कहीं कहीं तो किसी अंग्रेजी कवि के संबंध में की हुई समीक्षा का कोई खंड ज्यों का त्यों उठाकर किसी हिन्दी कवि पर भिड़ा दिया जाता है। ऊपरी रंग ढंग से तो ऐसा जान पड़ेगा कि कवि के हृदय के भीतर सेंधा लगाकर घुसे हैं और बड़े बड़े गूढ़ कोने झाँक रहे हैं, पर कवि के उध्दृत पद्यों से मिलान कीजिए तो पता चलेगा कि कवि के विवक्षित भावों से उनके वाग्विलास का कोई लगाव नहीं। पद्य का आशय या भाव कुछ और है, आलोचकजी उसे उध्दृत करके कुछ और ही राग अलाप रहे हैं। कवि के मानसिक इतिहास का एक आरोपित इतिहास तक , किसी विदेशी कवि के मानसिक विकास का इतिहास कहीं से लेकर , वे सामने रखेंगे, पर इस बात का कहीं कोई प्रमाण न मिलेगा कि आलोच्य कवि के पचीस तीस पद्यों का भी ठीक तात्पर्य उन्होंने समझा है। ऐसे आलोचकों के शिकार 'छायावादी' कहे जानेवाले कुछ कवि ही अभी हो रहे हैं। नूतन शाखा के एक अच्छे कवि हाल ही में मुझसे मिले जो ऐसे कदरदानाें से पनाह माँगते थे। अब सुनने में आ रहा है कि इस ढंग के ऊँचे हौसलेवाले दो एक आलोचक तुलसी और सूर के चारों ओर भी ऐसा ही चमचमाता वाग्जाल बिछाने वाले हैं।

काव्य की 'छायावाद' कही जानेवाली शाखा चले काफी दिन हुए। पर ऐसी कोई समीक्षा पुस्तक देखने में न आई जिसमें उक्त शाखा की रचनाप्रक्रिया (टेकनीक), प्रसार की भिन्न भिन्न भूमियाँ, सोच समझकर निर्दिष्ट की गई हों। केवल प्रो. नगेंद्र की 'सुमित्रानंदन पंत' पुस्तक ही ठिकाने की मिली। बात यह है कि इधर अभिव्यंजना का वैचित्रय लेकर 'छायावाद' चला, उधर उसके साथ ही प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा (इंप्रेशनिस्ट क्रिटिसिज्म) का फैशन बंगाल होता हुआ आ धामका, इस प्रकार की समीक्षा में कवि ने क्या कहा है, उसका ठीक भाव या आशय क्या है यह समझने या समझाने की आवश्यकता नहीं, आवश्यक इतना ही है कि उसकी किसी रचना का जिसके हृदय पर जो भी प्रभाव पड़े उसका वह सुंदरता और अनूठेपन के साथ वर्णन कर दे। कोई यह नहीं पूछ सकता कि कवि का भाव तो कुछ और है, उसका यह प्रभाव कैसे पड़ सकता है। इस प्रकार की समीक्षा के चलन ने अध्ययन, चिंतन और प्रकृत समीक्षा का रास्ता ही छेंक लिया।

प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा कोई ठीक ठिकाने की वस्तु ही नहीं। न ज्ञान के क्षेत्र में उसका कोई मूल्य है, न भाव के क्षेत्र में। उसे समीक्षा या आलोचना कहना ही व्यर्थ है। किसी कवि की आलोचना कोई इसीलिए पढ़ने बैठता है कि उस कवि के लक्ष्य को, उसके भाव को ठीक ठीक हृदयंगम करने में सहारा मिले, इसलिए नहीं कि आलोचना की भावभंगिमा और सजीले पदविन्यास द्वारा अपना मनोरंजन करे। यदि किसी रमणीय अर्थगर्भित पद्य की आलोचना इस रूप में मिले कि 'एक बार इस कविता के प्रवाह में पड़कर बहना ही पड़ता है। स्वयं कवि को भी विवशता के साथ बहना पड़ा है; वह एकाधिक बार मयूर की भाँति अपने सौंदर्य पर आप ही नाच उठता है', तो उसे लेकर कोई क्या करेगा?

सारे योरप की बात छोड़िए, अंग्रेजी के वर्तमान समीक्षाक्षेत्र में ही प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा की निस्सारता प्रकट करनेवाली पुस्तकें बराबर निकल रही हैं। इस ढंग की समीक्षाओं में प्राय: भाषा विचार में बाधक बनकर आ खड़ी होती है। लेखक का ध्यान शब्दों की तड़क भड़क, उनकी आकर्षक योजना, अपनी उक्ति की चमत्कार आदि में उलझा रहता है जिनके बीच स्वच्छ विचारधारा के लिए जगह ही नहीं मिलती। विशुद्ध आलोचना के क्षेत्र में भाषा की क्रीड़ा किस प्रकार बाधक हुई है, कुछ बँधो हुए शब्द और वाक्य किस प्रकार विचारों को रोके रहे हैं, ऐसी बातें जिनकी कहीं सत्ता नहीं किस प्रकार घने वाग्जाल के भीतर से भूत बनकर झाँकती रही हैं, यह दिखाते हुए इस बीसवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध समालोचनातत्वज्ञ ने बड़ी खिन्नता प्रकट की है।

हमारे यहाँ के पुराने व्याख्याताओं और टीकाकारों की अर्थक्रीड़ा प्रसिद्ध है। किसी पद्य का और अर्थ करना तो उनके बाएँ हाथ का खेल है। तुलसीदास जी की चौपाइयों के बीस बीस अर्थ करने वाले अभी मौजूद हैं। अभी थोड़े दिन हुए, हमारे एक मित्र ने सारी 'बिहारी सतसई' का शांतरसपरक अर्थ करने की धामकी दी थी। फारसी के हाफिज आदि शायरों की श्रृंगारी उक्तियों के आध्यात्मिक अर्थ प्रसिद्ध हैं, यद्यपि अरबी फारसी के कई पहुँचे हुए विद्वान यह आध्यात्मिकता नहीं स्वीकार करते। इस पुरानी प्रवृत्ति का नया संस्करण भी कहीं कहीं दिखाई पड़ने लगा है। रवींद्र बाबू ने अपनी प्रतिभा के बल से कुछ संस्कृत काव्यों की समीक्षा करते हुए कहीं कहीं आध्यात्मिक अर्थों की योजना की है। 'प्राचीन साहित्य' नाम की पुस्तक में मेघदूत आदि पर जो निबंध हैं उनमें ये बातें मिलेंगी। काशी के एक व्याख्यान में उन्होंने 'अभिज्ञान शाकुंतल' के सारे आख्यान का आध्यात्मिक पक्ष निरूपित किया था। इस संबंध में हमारा यही कहना है कि इस प्रकार की प्रतिभापूर्ण कृतियों का भी अपना अलग मूल्य है। वे कल्पनात्मक साहित्य के अंतर्गत अवश्य हैं, पर विशुद्ध समालोचना की कोटि में नहीं आ सकतीं।

योरपवालों को हमारी आध्यात्मिकता बहुत पसंद आती है। भारतीयों की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की चर्चा पच्छिम में बहुत हुआ करती है। इस चर्चा के मूल में कई बातें हैं। एक तो ये शब्द हमारी अकर्मण्यता और बुद्धि शैथिल्य पर परदा डालते हैं। अत: चर्चा या तारीफ करनेवालों में कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो चाहते हैं कि यह परदा पड़ा रहे। दूसरी बात यह है कि ये शब्द पूरबी और पच्छिमी जातियों के बीच एक ऐसी सीमा बाँधाते हैं जिससे पच्छिम में हमारे संबंध में एक प्रकार का कुतूहल सा जाग्रत रहता है और हमारी बातें वहाँ अनूठेपन के साथ कही जा सकती हैं। तीसरी बात यह है कि आधिभौतिक समृद्धि के हेतु जो भाषण संघर्ष सैकड़ों वर्ष तक योरप में रहा उससे क्लांत और शिथिल होकर बहुत से लोग जीवन के लक्ष्य में कुछ परिवर्तन चाहने लगे , शांति और विश्राम के अभिलाषी हुए। साथ ही साथ धर्म और विज्ञान का झगड़ा भी बंद हुआ। अत: योरप में जो इधर आध्यात्मिकता की चर्चा बढ़ी वह विशेषत: प्रतिवर्तन (रिऐक्शन) के रूप में। स्वर्गीय साहित्याचार्य पं. रामावतारजी पांडेय और पं. चंद्रधारजी गुलेरी इस आध्यात्मिकता की चर्चा से बहुत घबराया करते थे।

पुस्तकों और कवियों की आलोचना के अतिरिक्त पाश्चात्य काव्यमीमांसा को लेकर भी बहुत से लेख और पुस्तकें इस काल में लिखी गईं, जैसे , बाबू श्यामसुंदरदास कृत 'साहित्यालोचन', श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी कृत 'विश्वसाहित्य'। इनमें से पहली पुस्तक तो शिक्षोपयोगी है। दूसरी पुस्तक में योरोपीय साहित्य के विकास तथा पाश्चात्य काव्य समीक्षकों के कुछ प्रचलित मतों का दिग्दर्शन है।

इधर दो एक लेखकों की एक और प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है। ये योरप के कुछ कलासंबंधी एकदेशीय और अत्युक्त मतों को सामने लाकर हिन्दीवालों की ऑंखों में उसी प्रकार चकाचौंधा उत्पन्न करना चाहते हैं जिस प्रकार कुछ लोग वहाँ के फैशन की तड़क भड़क दिखाकर। जर्मन, फ्रांस, इटली, रूस, स्वेडन इत्यादि अनेक देशों के नए पुराने कवियों, लेखकों और समीक्षकों के नाम गिनाकर वे एक प्रकार का आतंक उत्पन्न करना चाहते हैं। वे कलासंबंधी विलायती पुस्तकों की बातें लेकर और कहीं मैटरलिंक ;डंजमतसपदाद्ध ए कहीं गेटे ;ळवमजीमद्ध कहीं टालस्टाय ;ज्वसेजवलद्ध के उद्ध रण देकर अपने लेखों की तड़क भड़क भर बढ़ाते हैं। लेखों को यहाँ से वहाँ तक पढ़ जाइए, लेखकों के अपने किसी विचार का पता न लगेगा। उध्दृत मता की व्याप्ति कहाँ तक है, भारतीय सिध्दांतों के साथ उनका कहाँ सामंजस्य है और कहाँ विरोध, इन सब बातों के विवेचन का सर्वथा अभाव पाया जाएगा। साहित्यिक विवेचन से संबंध रखनेवाले जिन भावों और विचारों के द्योतन के लिए हमारे यहाँ के साहित्य ग्रंथों में बराबर से शब्द प्रचलित चले आते हैं उनके स्थान पर भी भद्दे गढ़े हुए शब्द देखकर लेखकों की अनभिज्ञता की ओर बिना ध्यान गए नहीं रहता। समालोचना के क्षेत्र में ऐसे विचारशून्य लेखों से कोई विशेष लाभ नहीं।

पच्छिम के काव्यकला संबंधी प्रचलित वादों में अकसर एकांगदृष्टि की दौड़ ही विलक्षण दिखाई पड़ा करती है। वहाँ के कुछ लेखक काव्य की किसी एक पक्ष को उसका पूर्ण स्वरूप मान, इतनी दूर तक ले जाते हैं कि उनके कथन में अनूठी सूक्ति का सा चमत्कार आ जाता है और बहुत से लोग उसे सिध्दांत या विचार के रूप से ग्रहण कर चलते हैं। यहाँ हमारा काम काव्य के स्वरूप पर विचार करना या प्रबंध लिखना नहीं बल्कि प्रचलित प्रवृत्तियों और उनके उद्गमों तथा कारणोंका दिग्दर्शन कराना मात्र है। अत: यहाँ काव्य या कला के संबंध में उन प्रवादों का, जिनका योरप में सबसे अधिक फैशन रहा है, संक्षेप में उल्लेख करके तब मैं इस प्रसंग को समाप्त करूँगा। इसकी आवश्यकता यहाँ मैं केवल इसलिए समझता हूँ कि एक ओर योरप में तो व्यापक और सूक्ष्मदृष्टि संपन्न समीक्षकों द्वारा इन प्रवादों का निराकरण हो रहा है, दूसरी ओर हमारे हिन्दी साहित्य में इनकी भद्दी नकल शुरू हुई है।

योरप में जिस प्रवाद का इधर सबसे अधिक फैशन रहा है वह है , 'काव्य का उद्देश्य काव्य ही है' या 'कला का उद्देश्य कला ही है'। इस प्रवाद के कारण जीवन और जगत की बहुत सी बातें, जिनका किसी काव्य के मूल्यनिर्णय में बहुत दिनों से योग चला आ रहा था, यह कहकर टाली जाने लगीं कि ये तो इतर वस्तुएँ हैं, शुद्ध कलाक्षेत्र के बाहर की व्यवस्थाएँ हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रवाद की योजना करने वाले कई सामान खड़े हुए थे। कुछ तो इसमें जर्मन सौंदर्यशास्त्रियों की यह उद्भावना सहायक हुई कि सौंदर्यसंबंधी अनुभव (एस्थेटिक एक्सपीरिएंस) एक भिन्न ही प्रकार का अनुभव है जिसका और प्रकार के अनुभवों से कोई संबंध ही नहीं। इससे बहुतेरे साहित्यशास्त्री यह समझने लगे कि कला का मूल्य निर्धारण भी उसके मूल्य को और सब मूल्यों से एकदम विच्छिन्न करके ही होना चाहिए। ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भाग में ह्विस्लर ;ॅीपसेजसमतद्ध ने यह मत प्रवर्तित किया जिसका चलन अब तक किसी न किसी रूप में रहा है। अंग्रेजी में इस मत के सबसे प्रभावशाली व्याख्याताओं में डॉ. ब्रैडले ;क्तण् ठतंकसमलद्ध हैं।

उन्होंने इस संबंध में कहा है ,

यह (कला सौंदर्यसंबंधी) अनुभव अपना लक्ष्य आप ही है; इसका अपना निराला मूल्य है। अपने विशुद्ध क्षेत्र के बाहर भी इसका और प्रकार का मूल्य हो सकता है। किसी कविता से यदि धर्म और शिष्टाचार का भी साधन होता हो, कुछ शिक्षा भी मिलती हो, प्रबल मनोविकारों का कुछ निरोधा भी संभव हो, लोकोपयोगी विधानों में कुछ सहायता भी पहुँचती हो अथवा कवि को कीर्ति या अर्थलाभ भी होता हो तो अच्छी बात है। इनके कारण भी उसकी कदर हो सकती है। पर इन बाहरी बातों के मूल्य के हिसाब से उस कविता की उत्तमता की असली जाँच नहीं हो सकती। उसकी उत्तमता तो एक तृप्तिदायक कल्पनात्मक अनुभव विशेष से संबंध रखती है। अत: उसकी परीक्षा भीतर से ही हो सकती है। किसी कविता को लिखते या जाँचते समय यदि बाहरी मूल्यों की ओर भी ध्यान रहेगा तो बहुत करके उसका मूल्य घट जायगा या छिप जायगा। बात यह है कि कविता को यदि हम उसके विशुद्ध क्षेत्र से बाहर ले जायँगे तो उसका स्वरूप बहुत कुछ विकृत हो जायगा, क्योंकि उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग है, न अनुकृति। उसकी तो एक दुनिया ही निराली है , एकांत, स्वत:पूर्ण और स्वतंत्र।

काव्य और कला के संबंध में अब तक प्रचलित इस प्रकार के नाना अर्थवादों का पूरा निराकरण रिचड्र्स ;प्ण् ।ण् त्पबींतकेद्ध ने अपनी पुस्तक 'साहित्य समीक्षा सिध्दांत' (प्रिंसिपुल्स ऑव लिटरैरी क्रिटिसिज्म) में बड़ी सूक्ष्म और गंभीर मनौवैज्ञानिक पद्ध ति पर किया है। उपर्युक्त कथन में चारों मुख्य बातों की अलग अलग परीक्षा करके उन्होंने उनकी अपूर्णता, अयुक्तता और अर्थहीनता प्रतिपादित की है। यहाँ उनके दिग्दर्शन का स्थान नहीं। प्रचलित सिध्दांत का जो प्रधान पक्ष है कि 'कविता की दुनिया ही निराली है; उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग है, न अनुकृति' इस पर रिचड्र्स के वक्तव्य का सारांश नीचे दिया जाता है ,

यह सिध्दांत कविता को जीवन से अलग समझने का आग्रह करता है। पर स्वयं डॉ. ब्रैडले इतना मानते हैं कि जीवन के साथ उसका लगाव भीतर भीतर अवश्य है। हमारा कहना है कि यही भीतरी लगाव असल चीज है जो कुछ काव्यानुभव (पोएटिक एक्सपीरिएंस) होता है वह जीवन से ही होकर आता है। काव्यजगत् की शेष जगत् से भिन्न कोई सत्ता नहीं है और न उसके कोई अलौकिक या विशेष नियम हैं। उसकी योजना बिल्कुल वैसे ही अनुभवों से हुआ करती है जैसे और सब अनुभव होते हैं। प्रत्येक काव्य एक परिमित अनुभवखंड मात्र है जो विरोधी उपादानों के संसर्ग से कभी झटपट और कभी देर में छिन्न भिन्न हो जाता है। साधारण अनुभवों से उसमें यही विशेषता होती है कि उसकी योजना बहुत गूढ़ और नाजुक होती है। जरा सी ठेस से वह चूर चूर हो सकता है। उसकी एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि वह एक हृदय से दूसरे हृदय में पहुँचाया जा सकता है। बहुत से हृदय उसका अनुभव बहुत थोड़े ही फेरफार के साथ कर सकते हैं। काव्यानुभव से मिलते जुलते और भी अनुभव होते हैं, पर इस अनुभव की सबसे बड़ी विशेषता है यही सर्वग्राह्यता (कम्युनिकेबिलिटी)। इसीलिए इसके प्रतीतिकाल में हमें इसे अपनी व्यक्तिगत विशेष बातों की छूट से बचाए रखना पड़ता है। यह सबके अनुभव के लिए होता है, किसी एक ही के नहीं। इसीलिए किसी काव्य को लिखने या पढ़ते समय हमें अपने अनुभव के भीतर उस काव्य और उस काव्य से इतर वस्तुओं के बीच अलगाव करना पड़ता है। पर यह अलगाव दो सर्वथा भिन्न या असमान वस्तुओं के बीच नहीं होता, बल्कि एक ही कोटि की वृत्तियों के भिन्न भिन्न विधानों के बीच होता है।

यह तो हुई रिचड्र्स की मीमांसा। अब हमारे यहाँ के संपूर्ण काव्यक्षेत्र की अंत:प्रकृति की छानबीन कर जाइए, उसके भीतर जीवन के अनेक पक्षों और जगत् के नाना रूपों के साथ मनुष्यहृदय का गूढ़ सामंजस्य निहित मिलेगा। साहित्यशास्त्रियों का मत लीजिए तो जैसे संपूर्ण जीवन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का साधन रूप है वैसे ही उसका एक अंग काव्य भी। 'अर्थ' का स्थूल और संकुचित अर्थ द्रव्य प्राप्ति ही नहीं लेना चाहिए, उसका व्यापक अर्थ 'लोक की सुख समृद्धि ' लेना चाहिए। जीवन के और साधानों की अपेक्षा काव्यानुभव में विशेषता यह होती है कि वह एक रमणीयता के रूप में होता है, जिसमें व्यक्तित्व का लय हो जाता है। बाह्य जीवन और अंतर्जीवन की कितनी उच्च भूमियों पर इस रमणीयता का उद्धाटन हुआ है, किसी काव्य की उच्चता और उत्तमता के निर्णय में इसका विचार अवश्य होता आया है, और होगा। हमारे यहाँ के लक्षण ग्रंथों में रसानुभव को जो 'लोकोत्तर' और 'ब्रह्मानंद सहोदर' आदि कहा गया है वह अर्थवाद के रूप में, सिध्दांत रूप में नहीं। उसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि रस में व्यक्तित्व का लय हो जाता है।

योरप में समालोचनाशास्त्र का क्रमागत विकास फ्रांस में ही हुआ। अत: फ्रांस का प्रभाव योरोपीय देशों में बहुत कुछ रहा। विवरणात्मक समालोचना के अंतर्गत ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना का उल्लेख हो चुका है। पीछे प्रभाववादियों (इंप्रेशनिस्ट्स) का जो दल खड़ा हुआ वह कहने लगा कि हमें किसी कवि की प्रकृति, स्वभाव, सामाजिक परिस्थिति आदि से क्या प्रयोजन? हमें तो केवल किसी काव्य को पढ़ने से जो आनंदपूर्ण प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ता है उसी को प्रकट करना चाहिए और उसी को समालोचना समझना चाहिए। प्रभाववादियों का पक्ष यह है, 'हमारे चित्त पर किसी काव्य से जो आनंद उत्पन्न होता है, वही आलोचना है। इससे अधिक आलोचना और चाहिए क्या? जो प्रभाव हमारे चित्त पर पड़े उसी का वर्णन यदि हमने कर दिया तो समालोचना हो गई।' कहने की आवश्यकता नहीं कि इस मत के अनुसार समालोचना एक व्यक्तिगत वस्तु है। उसके औचित्य अनौचित्य पर किसी को कुछ विचार करने की जरूरत नहीं। जिसपर जैसा प्रभाव पड़े वह वैसा कहे।

उक्त प्रभाववादियों की बात लें तो समालोचना कोई व्यवस्थित शास्त्र नहीं रह गया। वह एक कला की कृति से निकली हुई दूसरी कला की कृति, एक काव्य से निकला हुआ दूसरा काव्य ही हुआ।

काव्य की स्वरूपमीमांसा के संबंध में योरप में इधर सबसे अधिक जोर रहा है 'अभिव्यंजनावाद' (एक्सप्रेशनिज्म) का, जिसके प्रवर्तक हैं इटली के क्रोचे ;ठमदमकमजजव ब्तवबमद्ध । इसमें अभिव्यंजना अर्थात् किसी बात को कहने का ढंग ही सब कुछ है, बात चाहे जो या जैसी हो अथवा कुछ ठीक ठिकाने की न भी हो। काव्य में जिस वस्तु या भाव का वर्णन होता है, वह इस वाद के उनसार उपादान मात्र है; समीक्षा में उसका कोई विचार अपेक्षित नहीं। काव्य में मुख्य वस्तु है वह आकार या साँचा जिसमें वह वस्तु या भाव डाला जाता है। जैसे कुंडल की सुंदरता की चर्चा उसके आकार या रूप को लेकर होती है, सोने को लेकर नहीं, वैसे ही काव्य के संबंध में भी समझना चाहिए। तात्पर्य यह कि अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन ही सब कुछ है, जिस वस्तु या भाव की अभिव्यंजना की जाती है, वह क्या है, कैसा है, यह सब काव्यक्षेत्र के बाहर की बात है। क्रोचे का कहना है कि अनूठी उक्ति की अपनी अलग सत्ता होती है, उसे किसी दूसरे कथन का पर्याय न समझना चाहिए। जैसे यदि किसी कवि ने कहा कि 'सोई हुई आशा ऑंख मलने लगी' तो यह न समझना चाहिए कि उसने यह उक्ति इस उक्ति के स्थान पर कही है कि 'फिर कुछ आशा होने लगी'। वह एक निरपेक्ष उक्ति है। कवि को वही कहना ही था। वाल्मीकि ने जो यह कहा कि 'न स सकुंचित: पंथा: येन बाली हतो गत:' वह इसके स्थान पर नहीं कि 'तुम भी बाली के समान मारे जा सकते हो।'

इस वाद में तथ्य इतना ही है कि उक्ति ही कविता है, उसके भीतर जो छिपा अर्थ रहता है वह स्वत: कविता नहीं। पर यह बात इतनी दूर तक नहीं घसीटी जा सकती कि उस उक्ति की मार्मिकता का अनुभव उसकी तह में छिपी हुई वस्तु या भाव पर बिना दृष्टि रखे ही हो सकता है। बात यह है कि 'अभिव्यंजनावाद' भी 'कलावाद' की तरह काव्य का लक्ष्य बेलबूटे की नक्काशीवाला सौंदर्य मानकर चलाहै,जिसका मार्मिकता या भावुकता से कोई संबंध नहीं। और कलाओं को छोड़यदि हम काव्य को ही लें तो इस 'अभिव्यंजनावाद' को 'वाग्वैचित्रयवाद' ही कह सकते हैं और इसे अपने यहाँ के पुराने 'वक्रोक्तिवाद' का विलायती उत्थान मान सकते हैं।

इन्हीं दोनों वादों की दृष्टि से यह कहा जाने लगा कि समालोचना के क्षेत्र से अब लक्षण, नियम, रीति, काव्यभेद, गुण दोष, छंदव्यवस्था आदि का विचार उठ गया। पर इस कथन की व्याप्ति कहाँ तक है, यह विचारणीय है। साहित्य के ग्रंथों में जो लक्षण, नियम आदि दिए गए थे वे विचार की व्यवस्था के लिए, काव्य संबंधी चर्चा के सुबीते के लिए। पर इन लक्षणों और नियमों का उपयोग गहरे और कठोर बंधान की तरह होने लगा और उन्हीं को बहुत से लोग सब कुछ समझने लगे। जब कोई बात हद से बाहर जाने लगती है तब प्रतिवर्तन (रिएक्शन) का समय आता है। योरप में अनेक प्रकार के वादों की उत्पत्ति प्रतिवर्तन के रूप में ही हुआ करती है। अत: हमें सामंजस्य बुद्धि से काम लेकर अपना स्वतंत्र मार्ग निकालना चाहिए।

बेलबूटे और नक्काशी के लक्ष्य के समान काव्य का भी लक्ष्य सौंदर्यविधान लगातार कहते रहने से काव्यरचना पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका उल्लेख हो चुका है और यह भी कहा जा चुका है कि यह सब काव्य के साथ 'कला' शब्द लगने के कारण हुआ है। हमारे यहाँ काव्य की गिनती 64 कलाओं के भीतर नहीं की गई है। यहाँ इतना और सूचित करना आवश्यक जान पड़ता है कि सौंदर्य की भावना को रूप देने में मनोविज्ञान के क्षेत्र से आए हुए उस सिध्दांत का भी असर पड़ा है जिसके अनुसार अंतस्संज्ञा में निहित अतृप्त काम वासना ही कला निर्माण की प्रेरणा करनेवाली अंतर्वृत्तिा है। योरप में चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, बेलबूटे आदि के समान कविता भी 'ललित कलाओं' के भीतर दाखिल हुई; अत: धीरे धीरे उसका लक्ष्य भी सौंदर्यविधान ही ठहराया गया। जबकि यह सौंदर्यभावना कामवासना द्वारा प्रेरित ठहराई गई तब पुरुष कवि के लिए यह स्वाभाविक ही ठहरा कि उसकी सारी सौंदर्यभावना स्त्रीमयी हो अर्थात् प्रकृति के अपार क्षेत्र में जो कुछ सुंदर दिखाई पड़े उसकी भावना स्त्री के रूप सौंदर्य के भिन्न भिन्न अंग लाकर ही की जाय। अरुणोदय की छटा का अनुभव कामिनी के कपोलों पर दौड़ी हुई लज्जा की ललाई लाकर किया जाय। राका रजनी की सुषमा का अनुभव सुंदरी के उज्ज्वल वस्त्र या शुभ्र हास द्वारा किया जाय, आकाश में फैली हुई कादंबिनी तब तक सुंदर न लगे जब तक उस पर स्त्री के मुक्त कुंतल का आरोप न हो। आजकल तो स्त्री कवियों की कमी नहीं है, उन्हें अब पुरुष कवियों का दीन अनुकरण न कर अपनी रचनाओं में क्षितिज पर उठती हुई मेघमाला को दाढ़ी मूँछ के रूप में देखना चाहिए।

काव्यरचना और काव्यचर्या दोनों में इधर 'स्वप्न' और 'मद' का प्रधान स्थान रहने लगा है। ये दोनों शब्द काव्य के भीतर प्राचीन समय में धर्म संप्रदायों से आए। लोगों की धारणा थी कि संत या सिद्ध लोगों को बहुत सी बातों का आभास या तो स्वप्न में मिलता था अथवा तन्मयता की दशा में। कवियों को अपने भाव में मग्न होते देख लोग उन्हें भी इस प्रत्यक्ष जगत् और जीवन से अलग कल्पना के स्वप्नलोक में विचरने वाले जीव प्यार और श्रध्दा से कहने लगे। यह बात बराबर कवियों की प्रशंसा में अर्थवाद के रूप में चलती रही। पर ईसा की इस बीसवीं शताब्दी में आकर वह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में फ्रायड ;थ्तमनकमद्ध द्वारा प्रदर्शित की गई। उसने कहा कि जिस प्रकार स्वप्न अंतस्संज्ञा में निहित अतृप्त वासनाओं की तृप्ति का एक अंतर्विधान है, उसी प्रकार कलाओं का निर्माण करनेवाली कल्पना भी। इससे कवि कल्पना और स्वप्न का अभेदभाव और भी पक्का हो गया। पर सच पूछिए तो कल्पना में आई हुई वस्तुओं की अनुभूति और स्वप्न में दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं की अनुभूति के स्वरूप में बहुत अंतर है। अत: काव्यरचना या काव्यचर्चा में 'स्वप्न' की बहुत अधिक भरमार अपेक्षित नहीं। यों ही कहीं कहीं साम्य के लिए यह शब्द आ जाया करे तो कोई हर्ज नहीं।

अब 'मद' और 'मादकता' लीजिए। काव्य क्षेत्र में इसका चलन फारस में बहुत पहले से अनुमित होता है। यद्यपि इस्लाम के पूर्व का वहाँ का सारा साहित्य नष्ट कर दिया गया, उसकी एक चिट भी कहीं नहीं मिलती है, पर शायरी में 'मद' और 'प्याले' की रूढ़ि बनी रही, जिसको सूफियों ने लेकर और भी बढ़ाया। सूफी शायर दीन दुनिया से अलग प्रेममद में मतवाले आजाद जीव माने जाते थे। धीरेधीरे कवियों के संबंध में भी 'मतवालेपन' और 'फक्कड़पन' की भावना वहाँ जड़ पकड़ती गई और वहाँ से हिंदुस्तान में आई। योरप में गेटे और 'वड्र्सवर्थ' के समय तक 'मतवालेपन' और फक्कड़पन की इस भावना का कवि और काव्य के साथ कोई नित्य संबंध नहीं समझा जाता था। जर्मन कवि गेटे बहुत ही व्यवहारकुशल राजनीतिज्ञ था, इसी प्रकार वड्र्सवर्थ भी लोक व्यवहार से अलग एक रिंद नहीं माना जाता था। एक खास ढंग का फक्कड़पन और मतवालापन बाइरन और शेली में दिखाई पड़ा जिसकी चर्चा योरप ही तक न रहकर अंग्रेजी साहित्य के साथ साथ हिंदुस्तान तक पहुँची। इससे मतवालेपन और फक्कड़पन की जो भावना पहले से फारसी साहित्य के प्रभाव में बँधती आ रही थी, वह और भी पक्की हो गई।

भारत में मतवालेपन या फक्कड़पन की भावना अघोरपंथ आदि कुछ संप्रदायों में तथा सिद्ध बननेवाले कुछ साधुओं में ही चलती आ रही थी। कवियों के संबंध में इसकी चर्चा नहीं थी। यहाँ तो कवि के लिए लोकव्यवहार से कुशल होना आवश्यक समझा जाता था। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में कवि के जो लक्षण कहे हैं उससे यह बात स्पष्ट हो जाएगी। यह ठीक है कि राजशेखर ने राजसभाओं में बैठनेवाले दरबारी कवियों के स्वरूप का वर्णन किया है और वह स्वरूप एक विलासी दरबारी का है, मुक्तहृदय स्वच्छंद कवि का नहीं। पर वाल्मीकि से लेकर भवभूति और पंडित राज जगन्नाथ तथा चंद से लेकर ठाकुर और पद्माकर तक कोई मद से झूमने वाला, लोकव्यवहार से अनभिज्ञ या बेपरवा फक्कड़ नहीं माना गया।

प्रतिभाशाली कवियों की प्रवृत्ति अर्थ में रत साधारण लोगों से भिन्न और मनस्विता लिए होती है तथा लोगों के देखने में कभी कभी एक सनक सी जान पड़ती है। जैसे और लोग अर्थ की चिंता में लीन होते हैं वैसे ही वे अपने किसी उद्भासित प्रसंग में लीन दिखाई पड़ते हैं। प्रेम और श्रध्दा के कारण लोग इन प्रवृत्तियों को अत्युक्ति के साथ प्रकट करते हुए 'मद में झूमना', 'स्वप्न में लीन रहना', 'निराली दुनिया में विचरना' इत्यादि कहने लगे। पर इसका यह परिणाम न होना चाहिए कि कवि लोग अपनी प्रशस्ति की इन अत्युक्त बातों को ठीक ठीक चरितार्थ करने लगें।

लोग कहते हैं कि समालोचकगण अपनी बातें कहते ही रहते हैं, पर कवि लोग जैसी मौज होती है वैसी रचना करते ही हैं। पर यह बात नहीं है। कवियों पर साहित्य के मीमांसकों का बहुत प्रभाव पड़ता है। बहुतेरे कवि , विशेषत: नए उनके आदर्शों के अनुकूल चलने का प्रयत्न करने लगते हैं। उपर्युक्त वादों के अनुकूल इधर बहुत कुछ काव्यरचना योरप में हुई, जिसका कुछ अनुकरण बँग्ला में हुआ। आजकल हिन्दी की जो कविता 'छायावाद' के नाम से पुकारी जाती है उसमें इन सब वादों का मिला जुला आभास पाया जाएगा। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इन सब कवियों ने उनके सिध्दांत सामने रखकर रचना की है। उनके आदर्शों के अनुकूल कुछ कविताएँ योरप में हुईं, जिनकी देखादेखी बँग्ला और हिन्दी में भी होने लगीं।

इस प्रसंग में इतना लिखने का प्रयोजन केवल यही है कि योरप के साहित्यक्षेत्र में फैशन के रूप में प्रचलित बातों को कच्चे पक्के ढंग से सामने लाकर कुतूहल उत्पन्न करने की चेष्टा करना अपनी मस्तिष्क शून्यता के साथ ही साथ समस्त हिन्दी पाठकों पर मस्तिष्क शून्यता का आरोप करना है। काव्य और कला पर निकलने वाले भड़कीले लेखों में आवश्यक अभिज्ञता और स्वतंत्र विचार का अभाव देख दु:ख होता है। इधर कुछ दिनों से 'सत्यं, शिवं, सुंदरम्' की बड़ी धूम है, जिसे कुछ लोग शायद उपनिषद् वाक्य समझ, 'अपने यहाँ भी कहा है', लिखकर उध्दृत किया करते हैं। यह कोमल पदावली ब्रह्मसमाज के महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर की है और वास्तव में 'द ट्रघ, द गुड ऐंड द ब्युटीफुल' का अनुवाद है। बस इतना और कहकर मैं इस प्रसंग को समाप्त करता हूँ कि किसी साहित्य में केवल बाहर की भद्दी नकल उसकी अपनी उन्नति या प्रगति नहीं कही जा सकती। बाहर से सामग्री आए, खूब आए, पर वह कूड़ा करकट के रूप में न इकट्ठी की जाय। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय, जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे।