सामान्य परिचय / रचनावली: खंड-1 / गणेशशंकर विद्यार्थी

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सामान्य परिचय भूमिका

एक बड़ा जीवन : व्यक्तित्व और विचारलोक

स्व. अमृतलाल नागर ने एक बार कहा था: गणेशशंकर विद्यार्थी वह व्यक्ति थे, जो अपने ही घर में शहीद हो गये। अपने ही घर यानी कानपुर। जिस कानपुर को उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति के मंच के रूप में विकसित किया, उसी कानपुर ने उनकी बलि ले ली! और बलि भी तब ली, जब वे मजहबी जुनून शांत कराने के प्रयास कर रहे थे। ...डॉ. रामविलास शर्मा ने एक अनौपचारिक चर्चा के दौरान कहा : गणेशशंकर विद्यार्थी के असामयिक निधन से राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ, हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का जितना नुकसान हुआ, उतना काँग्रेस के किसी दूसरे नेता के मरने से नहीं हुआ।’ गणेशजी का ज़िक्र अक्सर हम दो रूपों में करते आ रहे हैं-एक तो साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए शहीद होने वाले व्यक्ति के रूप में, और दूसरे एक गाँधीवादी के रूप में। उनकी पत्रकारिता की भी बातें की जाती रही हैं, लेकिन बहुत ही चलताऊ ढंग से। बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिन्होंने, विद्यार्थी जी का लेखन पर्याप्त मात्रा में देखा हो-पढ़ा हो ! इसी अभाव को ध्यान में रखकर उनकी प्रतिनिधिगद्य रचनाओं का यह चयन तैयार किया गया है।

गणेशशंकर विद्यार्थी किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है, यह वस्तुतः एक समूचे युग का नाम है। एक युगांतरकारी सोच का नाम है। गणेशशंकर विद्यार्थी के से ही गतिशील और व्यापक व्यक्तियों ने रूस और चीन जैसे देशों में लेनिन और माओ की संज्ञा पायी ! लेकिन हम उनकी कद्र नहीं कर पाये। न जीते जी और न शहादत के बाद। सिर्फ फूलमालाएँ ही चढ़ाते रहे। आज भी इस बात की पूरी गुंजाइश है, और जरूरत भी, कि उनके व्यक्तित्व का, उनके विचारलोक का उनकी व्यापकता का और उनकी रचनाओं का विधिवत् अध्ययन किया जाये। मार्क्स लेनिन को छोड़ दें, भगतसिंह आदि के दर्शन की भो छोड़ दें, अगर हम गणेशशंकर विद्यार्थी के विचार जगत का ही गहन अध्ययन करें, तो अन्त में हम उन्हीं निष्कर्मों तक पहुँचेंगे, जहाँ मार्क्स और लेनिन पहुँचाते हैं-भगतसिंह ले जाते हैं। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की समस्त बुराइयों के साथ-साथ (उसके साथ) पूँजीवाद और सामंतवाद के प्रच्छन्न रिश्तों को भी पूरी ईमानदारी के साथ देख रहे थे, पूँजी और श्रम के बीत के समीकरणों को, राष्ट्रीय आंदोलन और जातीय भाषा एवं संस्कृति के अपेक्षित रिश्तों को बखूबी समझ और अनुभव कर रहे थे। हिंसा और अहिंसा की प्रासंगिकता को, इतिहास बोध की अनिवार्यता को जान समझ रहे थे और राजनीति एवं साहित्य के रिश्तों की पड़ताल कर रहे थे। पत्रकारिता, प्रताप और साम्प्रदायिकता विरोध तो उनके इसी खोज अभियान के उपादान-भर थे !

गणेशजी का जन्म एक सामान्य हिन्दुस्तानी परिवार में हुआ था। उनके पिता ग्वालियर रियासत के शिक्षा विभाग में शिक्षक थे और नाना, जेल महक मे के एक उच्चतर अधिकारी। गुजर-बसर भर की आमदनी वाले एक मामूली शिक्षक के बेटे का भरण-पोषण उस जमाने में जैसे हो सकता था, गणेशशंकर का उसी प्रकार हुआ। साँची के स्तूपों की छाया और अशोक कालीन इतिहास के कोड, भेलसा (शुद्ध नाम विदिशा)-मुंगावली में, शिक्षक पिता की देखरेख में हिंदी उर्दू के माध्यम से उनकी शिक्षा शुरू हुई और पूर्व माध्यमिक शिक्षा के दौरान ही बंगवासी व भारतमित्र जैसे उस समय के प्रमुख राष्ट्रीय पत्रों का सान्निध्य मिल गया।

विकास-क्रम में गणेशजी के जीवन को हम मोटे तौर पर तीन सोपानों में बाँट सकते हैं। पहले सोपान में उन्होंने, पता के संरक्षण में पढ़ते हुए एक ओर अगर सम-सामयिक जातीय-सांस्कृति पत्रकारिता से परिचय प्राप्त किया, तो दूसरी ओर शेख़ सादी स्टुअर्ट मिल, थोरो आदि महान विचारकों की छाया भी उन पर पड़ी। दूसरा सोपान इलाहाबाद की एफ.ए. की पढ़ाई और आजीविका की तलाश में कानपुर की भटकन के बीच देखा जा सकता है। इसी दौरान पंडित सुंदरलाल और उनके कर्मयोगी तथा उर्दू स्वराज्य से उनका परिचय हुआ। जमाना के सम्पादक दया नारायण निगम, बाबू नारायणप्रसाद अरोड़ा और शिवनारायण मिश्र वैद्य जैसे समान सोच और सरोकारों वाले साथियों के सम्पर्क में वे आये और लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन के आलोक की पहली किरन से सामना हुआ।

गणेशजी के जीवन का तीसरा सोपान आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के स्नेह सम्पर्क में आने और सरस्वती के पत्रकारिता जीवन के साथ शुरू होता है। आचार्य द्विवेदी और सरस्वती के सान्निध्य में एक ओर उन्हें जहाँ अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्कारों को विकसित और पुष्ट करने का अवसर मिला, वहीं दूसरी ओर मालवीयजी के अखबार अभ्युदय के जरिये उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों को आकार देने का सिलसिला शुरू किया। शेक्सपियर, विक्टर ह्यूगो, अप्टन सिंक्लेयर, टालस्टाय बर्नार्ड शॉ तुलसी सूर कबीर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, भारतेन्दुकालीन हिन्दी लेखकों के पठन-पाठन का वातावरण भी उन्हें इसी दौरान मिला। सरस्वती और अभ्युदय की यह अभिज्ञा, भारतेन्दु-प्रतापनारायण मिश्र-बालकृष्ण भट्ट-बालमुकुंद गुप्त और आचार्य द्विवेदी के जातीय सांस्कृतिक सरोकार, लोकमान्य तिलक की राष्ट्रीय राजनीति और नारायण प्रसाद अरोड़ा व शिवनारायण मिश्र की मैत्री ने ही आगे चल कर प्रताप अखबार की पृष्ठभूमि तैयार की और गणेशशंकर विद्यार्थी सीधे-सीधे देश की मुख्यधारा से जुड़े। उनके कामों के जरिये पहली बार यह लक्ष्य किया गया कि एक आदमी राष्ट्रीय आंदोलन, सामाजिक क्रांति जातीय गौरव और सांस्कृति साहित्यिक विरासत के लिये समांतर संघर्ष चला रहा है। प्रताप के प्रारम्भिक दौर में ही मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, वृंदावनलाल वर्मा, मन्नन द्विवेदी गजपुरी, मुंशी अजमेरी, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ आदि उनकी परिचय परिधि में आये और जल्दी ही प्रताप एक राष्ट्रीय पत्र के साथ-साथ साहित्यिक- सांस्कृतिक पत्र के रूप में भी जाना जाने लगा।

पत्रकारिता के ही समांतर उनका राजनैतिक जीवन भी शुरू हुआ। गौर करने पर हम साफ तौर पर देख सकते हैं कि गणेशशंकर विद्यार्थी, लोकमान्य तिलक की राह के अनुयायी थे। हो सकता है, उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष नारायण प्रसाद अरोड़ा के सम्पर्क से विकसित और पुष्ट हुआ हो, क्योंकि अरोड़ा जी न सिर्फ तिलक बल्कि लाला हरदयाल से भी काफी हद तक प्रभावित थे। लेकिन यह एक अलग मुद्दा है। यहाँ हमें देखना यह है कि तिलक के बाद, राष्ट्रीय आंदोलन और काँग्रेस के मंच पर महात्मा गाँधी के नेतृत्व के उदय के बाद गणेशजी ने क्या रुख अपनाया ? बेशक उन्होंने गाँधीजी के नेतृत्व को स्वीकार किया, लेकिन उनके दर्शन को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अहिंसा के सवाल पर उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘‘मैं नान वायलेंस को शुरू से अपनी पॉलिसी मानता रहा हूँ, धर्म नहीं मानता रहा।

मैंने अपने व्याख्यान में यह दिखाया कि मनसा और कर्मणा अहिंसा साधारण मनुष्यों का सहज स्वभाव नहीं है और इसलिए राजनैतिक संग्राम में उसे अपना साधारण हथियार नहीं बनाया जा सकता। यह बात उन्होंने 1922-23 के दौरान फतेहपुर जिला कान्फ्रेंस के सभापति पद से दिये गये अपने भाषण के सिलसिले में अदालत के सामने कही थी। इसी मामले में दफा 124 ए के अभियोग में उन्हें एक साल की सजा और 100 रुपये जुर्माना हुआ था। हिंसा और अहिंसा के सवाल पर भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रति सहयोग और सहानुभूति का भाव दिखाते हुए भी वे काँग्रेसी और गाँधीवादी सोच से दूर छिटके खड़े दिखायी देते हैं। बिस्मिल, अश्फ़ाक, रोशनसिंह आदि काठोरी के क्रांतिकारियों के मामले में उन्होंने तन-मन-धन से मदद की थी। और उनके प्रति काँग्रेस के रवैये के साथ न सिर्फ असहमति जतायी, बल्कि तीव्र भर्त्सना भी की (द्रष्टव्यः वे दीवानेः 1927)। 1929 में लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्त भगतसिंह-बटुकेश्वर दत्त का पक्ष-समर्थन करते हुए भी उन्होंने लिखा : हिंसा और अहिंसा की विवेचना छोड़ दीजिए। विज्ञान ने वर्तमान रणशैली को बेहद भयंकर बना दिया है। उसमें वीरता नहीं रही, उसमें पशुता और हत्या का राज्य है और उसके मुकाबले में हमारे ऐसे शताब्दियों से निरस्त्र लोगों का खड़ा भी रह सकना असम्भव है।’’

गणेशशंकर विद्यार्थी ने अपनी लड़ाई को, काँग्रेसी शैली के अनुरूप, सिर्फ़ साम्राज्यवाद के विरोध तक की सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने उसे देश के भीतर के आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चों से जोड़ा सामंतवाद के खिलाफ पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ औपनिवेशिक् शिक्षा और संस्कृति के ख़िलाफ़। उन्हें पहली जेलयात्रा ब्रिटिश सरकार के विरोध के कारण नहीं, बल्कि रायबरेली के सामंत सरदार वीरपाल सिंह द्वारा किसानों पर ढाये गये अत्याचारों की आखों देखी रिपोर्ट में प्रकाशित करने के लिए करनी पड़ी थी। कानपुर के मिल मजदूरों को उनका वाजिब श्रम मूल्य दिलाने का अभियान भी उन्होंने 1919 में ही छेड़ दिया था और 25 हज़ार मज़दूरों का सफल नेतृत्व किया था। सोवियत रूस की अक्टूबर क्रांति और बोल्शेविज्म का तार्किक आधार पर स्वागत करने वाले शायद वह पहले भारतीय पत्रकार थे। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चल रहे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों को भावनात्मक और वैचारिक समर्थन देने में भी वह और उनका प्रताप सदैव आगे रहा। काँगेस के एक समर्पित सिपाही होते हुए भी उसकी चुनावी रणनीति का उन्होंने कभी मन से समर्थन नहीं किया। अनुशासन में बँधे होने के कारण पार्टी के आदेश पर, 1925 में कौंसिल का चुनाव बेशक लड़ा और एक पूँजीपति के मुकाबले जीते भी, लेकिन वे यह बात भी बिना लाग-लपेट के स्वीकार करते थे कि मैं हिन्दू मुसलमानों के झगड़े का मूल कारण इलेक्शन आदि को समझता हूँ और कौंसिल में जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता। (उसी दौरान बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे ? गये एक पत्र से।

धार्मिक मदांधता से भी गणेशजी 1915 में ही टक्कर लेने लगे थे। ठीक कबीर के लहज़े में दोनों धर्मों की कट्टरता की तीखी आचोलना करते हुए उन्होंने कहा: ‘‘कुछ लोग ‘हिन्दू राष्ट्र’-‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं हो सकता, इसी शैली में उन्होंने मुसलमानों को भी लक्ष्य करके कहा : वे लोग भी इसी प्रकार की भूल कर रहे हैं जो टर्की या काबुल मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं, क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं...उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मर्सिये इसी देश में गाये जायेंगे।’’ (राष्ट्रीयता : 21 जून 1915) आगे चलकर धर्म के प्रश्न राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के नजरिये की आलोचना करने में भी वह नहीं झिझके। कहा : ‘‘वह दिन निसंदेह अत्यंत बुरा था, जिस दिन स्वाधीनता के क्षेत्र में ख़िलाफ़त, मुल्ला-मौलवियों और धर्माचायों को स्थान दिया जाना आवश्यक समझा गया...देश की स्वाधीनता के संग्राम ही ने मौलाना अब्दुल बारी और शंकराचार्य को देश के सामने दूसरे रूप में पेश किया, उन्हें अधिक शक्तिशाली बना दिया और...इस समय हमारे हाथों ही से बढ़ायी उनकी और इनके-से लोगों की शक्तियाँ हमारी जड़ उखाड़ने और देश में मज़हबी पागलपन प्रपंच और उत्पात का राज्य स्थापित कर रही हैं।’’ (धर्म की आड़ : 17 अक्तूः 1924)

गणेशशंकर विद्यार्थी के विचारलोक का एक महत्त्वपूर्ण आयाम यह भी है कि उन्होंने राजनीति के साथ-साथ भाषा साहित्य और संस्कृति को भी समान वरीयता दी और उन्हें राष्ट्रीय धारा से जोड़ा जबकि राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्य नेता साहित्य और संस्कृति के काम को या तो अछूत मानते रहे या कृपाकांक्षी। हिस्सेदार कभी नहीं माना। गाँधीजी ने हिन्दी के बारे में जिस तरह के वक्तव्य दिये-निराला के तर्कों को जिस तरह आया-गया किया और पंडित नेहरु जिस तरह भारत की संस्कृति को एक बाहरी व्यक्ति की आँखों से देखते हुए, प्रेमचन्द्र तथा सम-सामयिक परिदृश्य को अनदेखा करते रहे, गणेशशंकर विद्यार्थी ने इसके ठीक विपरीत संस्कृति और साहित्य को राष्ट्रीय आन्दोलन का एक घटक माना। एक ओर जहाँ प्रताप और प्रभा में समकालीन रचना और चिन्तन को मंच दिया, राष्ट्रीय वीणा नाम से राष्ट्रीय कविताओं के वार्षिक संकलन निकाले, वहीं दूसरे ओर के रचनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण और विकास में नींव के पत्थर की भूमिका भी निभायी।

प्रेमचन्द्र यद्यपि उम्र में उनसे कोई दस वर्ष बड़े थे, किन्तु कानपुर के मारवाड़ी स्कूल में हेडमास्टर का पद उन्हें गणेशजी की ही अनुशंसा पर मिला था। उर्दू से हिन्दी की ओर आने का अनुरोध भी प्रेमचन्द्र से पहले-पहल गणेशजी ने ही किया था। अपने समय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के सतत सम्पर्क में रहने वाले वे अकेले राष्ट्रीय नेता थे। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, की काव्यकृति प्रियप्रवास उन्होंने जेल में विशेष रूप से मँगवाकर पढ़ी। वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास गढ़कुंडार को पढ़ने के बाद एक व्यक्तित्व पत्र में उस पर अपनी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित रायभी दी; ‘‘मेरी राय से कहीं-कहीं अच्छे ‘रिटचिंग’ की आवश्यकता है।

स्वामी आत्मानन्द और पांडे के चरित्रों और खंगार और क्षत्रिय, और हितूभाव और मुसलमान-वैभव के संघर्षण पर, अब भी कुछ अधिक रंग देने की आवश्यकता है। पांडे का चरित्र बहुत गूढ़ है। उसे और स्पष्ट होना चाहिए। आत्मनन्द और भी अधिक इंस्पायरिंग सिद्ध होना चाहिए। खंगारों में मदांधता की मात्रा उतनी होना चाहिए, जितनी यदुवंश में अस्त होते समय थी, और, फिर विनाश के पश्चात्, उनके पतन का एक हल्का सा चित्र भी आँखों के सामने आ जाय तो और भी अच्छा हो।’ (1 मार्च 1928 को वर्माजी को लिखे गये एक पत्र में।) नाटककार पं. राधेश्याम कथावाचक जब पहली बार विद्यार्थीजी उनसे मिलने प्रताप प्रेस गये और विद्यार्थी को अपना परिचय दिया, तो उन्हीं के नाटक भक्त प्रहलाद की दो पंक्तियाँ-

‘‘जितनी भी हैं इस दुनिया में तलवारें

गल बन जायें मात-दुग्ध की धारें‘‘

-पढ़ते हुए विद्यार्थी जी उनसे गले मिले....काकोरी प्रकरण के शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने फाँसी से कुछ ही घण्टे पहले अपनी आत्मकथा समाप्त करके गुपचुप तरीके से विद्यार्थी जी के पास भिजवाई थी और उन्होंने ही अपने प्रकाश पुस्तकालय से उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया था।

साहित्य और संस्कृति के प्रति उनका लगाव पठन-पाठन प्रेरणा प्रोत्साहन और मैत्रीभावतक ही सीमित नहीं था। प्रताप के सम्पादन तथा राजनीतिक लेखन के साथ-साथ यदा-कदा समय मिलने पर वे वैचारिक और रचनात्मक लेखन में भी प्रवृत्त होते थे। ‘महाराणा प्रताप’, ‘लेनिन’, ‘महात्मा गाँधी’ आदि उनके लिखे रेखाचित्र हिन्दी में शैलीपरक और काव्यमय गद्य की शुरुआत माने जाते हैं। 1930 की हरदोई जेल-यात्रा के दौरान उन्होंने एक कहानी भी लिखी थी ‘हाथी की फाँसी’ शीर्षक उनकी वह एकमात्र हिन्दी कहानी तकरीबन उसी विचार बिन्दु पर केन्द्रित है, जिस पर प्रेमचन्द्र की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ है। इस दृष्टि से उन दोनों कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन भी दिलचस्प हो सकता है।....यहीं यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि मौलिक लेखन की अपेक्षा विश्व के महान लेखकों की श्रेष्ठ कृतियों को हिन्दी में लाने का काम उन्हें कहीं ज्यादा जरूरी लगा। वे मानते थे, संसार में इतने बड़े लोगों की इतनी अच्छी-अच्छी पुस्तकें हैं कि अपनी मौलिक कृति भेंट करने की अपेक्षा उनके अनुवाद को लोगों के सामने रखना अधिक अच्छा है।’’ विक्टर ह्यूगो के उपन्यास ल मिज़राब्ल व नाइंटी थ्री के रूपांतर उन्होंने क्रमशः आहुति या बलिदान नाम से किये भी थे, हालाँकि प्रकाशित उनमें से सिर्फ बलिदान हो पाया। उनकी आकांक्षा थी।

कि ह्यूगो की सभी कृतियाँ हिन्दी में अनूदित हों। ह्यूगो उनके प्रिय लेखक थे। लेकिन न सिर्फ ह्यूगो बल्कि, गोर्की की तर्ज पर गणेशजी के दिमाग में महान लेखकों और महत्त्वपूर्ण विषयों की पुस्तकों की एक पूरी योजना थी। 1922 की, लखनऊ जेल की, अपनी डायरी के पीछे उन्होंने टीपें दे रखी थीं: ‘‘एक छापेखाने के साथ एक प्रकाशन गृह की स्थापना करनी। देशी राज्यों पर सीरीज़ ऑफ़ बुक्स निकालना, दि हैंड बुक ऑफ़ दि फोर्थ स्टेट वाल्मीकि रामायण का एक सुबोध सचित्र रुपांतर मोटली के डच रिपब्लिक का भी रुपान्तर रसेल्स रोड टु फ्रीडम इंडियन म्यूटिनी पर एक पुस्तक रवीन्द्र अर्थशास्त्र।’’ वे आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की एक जीवनी भी हिन्दी में लिखा चाहते थे। 4 फरवरी 1930 को उन्होंने बनारसीदास चतुर्वेदी को एकपत्र में लिखा : ‘‘आप जानते हैं कि जानसन बड़ा होते हुए भी इतना बड़ा न समझा जाता, यदि उसकी जीवनी का लेखक बासवेल न बनता। आप पूज्य द्विवेदीजी के पास कुछ दिन अवश्य रह जाइए।...आप उनके बासवेल बन जाइए। जो खर्च पड़ेगा उसका जिम्मेदार मैं।....किन्तु वह मौका नहीं आ पाया। यह पत्र लिखने के ठीक बाद ही वे जेल चले गये और जेल से वापस लौट (1 मार्च 1931) तो दो सप्ताह बीतते न बीतते (25 मार्च 1931) साम्प्रादायिक सद्भाव की वेदी पर शहीद हो गये।

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