सामान्य मानव मन के सजीव चित्र:सुदर्शन रत्नाकर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सुदर्शन रत्नाकर जी के रचनाकर्म से मैं 1988 से परिचित हूँ। इस दौर में उनकी जो रचनाएँ आई हैं, सबको पढ़ने का मुझे अवसर मिला है। इनकी कहानियों को आधुनिक कथा-आन्दोलन के सीमित दायरे में नहीं बाँधा जा सकता है। परिवार से जुड़ी कहानियों में सम्बन्धों को लेकर बदलती सोच को रेखांकित किया है, तो साथ ही सम्बन्धों के क्षरण की चिन्ता भी दिखाई पड़ती है। इस क्षरण की पीड़ा उन बुज़ुर्गों को अधिक मिलती है, जिन्होंने अपना जीवन परिवार के लिए होम कर दिया है। सुख की आशा में जीवन भर भटकने के बाद पता चला कि यह भटकाव केवल मृगतृष्णा है। जीवन भर संघर्ष करने के बाद सुख की आशा धराशायी होती नज़र आती है। एक दूसरा सिरा है समाज का, जहाँ क्रूर राजनीतिक हस्तक्षेप, धर्मान्धता जनसामान्य के सपनों को चकनाचूर कर देती है।
यह एक शाश्वत प्रश्न है कि जो धर्म मानवमात्र के सुख के लिए निर्धारित किया गया, वह समाज के लिए अभिशाप क्यों बन जाता है! धर्म जब वैचारिक मन्थन खो देता है तो वह संकुचित सम्प्रदाय का स्थान ले लेता है। विभाजन और विस्थापन जनसामान्य को बहुत गहरे घाव दे जाते है। इसके मूल में वे मानवद्रोही शक्तियाँ हैं, जिनका सम्बन्ध क्रूरता से हो सकता है, मानवता और धर्म से कदापि नहीं। छद्म मानवाधिकार की बात करने वाले लोग अत्याचारग्रस्त लाखों लोगों के पक्ष में कभी इन मुद्दों पर कभी मुँह नहीं खोलते। 'नियति' कश्मीर से विस्थापन का दर्द झेलने वाले ऐसे ही परिवार की दर्दनाक कहानी है, जो आतंकवाद की चरम क्रूरता-दोनों बेटों की हत्या, स्नेहा-उदया दोनों पुत्रवधुओं के बलात्कार के अपमान के साथ आर्थिक विपन्नता में अहर्निश झुलस रहा है। अफ़सोस इस बात का है कि धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले भी आज तक इस पर चुप्पी लगाए हुए हैं।
विभाजन पर केन्द्रित 'सरहद पार के रिश्ते' की यही पीड़ा दिल को तार-तार कर देती है। आधा परिवार विभाजन के कारण लखनऊ में रह जाता है और आधा पाकिस्तान चला जाता है। अपनी जड़ों से कटने की पीड़ा, पाकिस्तान में आत्मसम्मान की जगह दोयम दर्ज़े के नागरिक का व्यवहार नानू के मन को मथ जाता है। पौधा दूसरी जगह रोपा जा सकता है, पर पेड़ नहीं। अलगाव के इस भटकाव में पूरा परिवार बिखर जाता है और एक दूसरे को देखने के लिए भी तरस जाता है। द्विराष्ट्र की थ्योरी का पागलपन लाखों लोगों की ज़िन्दगी उजाड़ गया, फिर भी आज के दिवालिया बुद्धिजीवी को सुबुद्धि नहीं आई. यह कहानी फ़िल्म की तरह आँखों के सामने घूम जाती है। लेखिका ने इन कहानियों के पात्रों को इतनी शिद्दत से प्रस्तुत किया है कि कोई भी सहृदय पाठक द्रवित हुए बिना नहीं रहता।
जीवन भर दायित्वों से घिरे, परिवार को बचाने में अपना अस्तित्व तक दाँव पर लगाने वाले माता-पिता की उपेक्षा 'बन्धन्मुक्त' कहानी में द्रवित कर जाती है। आदमी सम्बन्धों के भ्रम में जीता है। रक्त के सम्बन्ध भी जीवन को बहुत खरोंच पहुँचाते हैं। ठण्डापन सम्बन्धों की सारी आत्मीयता लील जाता है। 'सम्बन्धों का अहसास' कहानी इसका भावबोध कराने में सक्षम है। 'प्रतिकार' डॉक्टर आराधना के अन्तर्द्वन्द्व की कथा है। वह डॉक्टर होने के कारण उस दरिन्दे की जान बचाती है, जिसने उसकी दीदी के साथ व्यभिचार करके उसको मृत्यु के कुएँ में धकेला था। सुदर्शन जी प्रतिशोध और उत्तरदायिर्वके अन्तर्द्वन्द्व को उभारने में सफल हुई हैं। 'ऐसा क्यों माँ!' और 'एक रात' सर्वहारा वर्ग के जीवन-संघर्ष और अधूरी आकांक्षाओ की कहानियाँ हैं। असम की आदिवासी लड़की गोमसी घर-परिवार से दूर अपने परिवार की सहायता के लिए दिल्ली आकर नौकरानी का जीवन बिताती है। वेतन का बड़ा हिस्सा कमीशनखोर एजेण्ट हड़प लेते हैं। बीमारी के कारण वह एक दिन कालकवलित हो जाती है। शिवचरण उर्फ़ सिब्बू को महानगर में सिर छुपाने की भी जगह नहीं मिलती। 'एक रात' की यह कहानी महानगरों की भीड़ में गुम लाखों मज़दूरों की कहानी है, जिन्हें घर-परिवार चलाने के लिए घर-बार छोड़कर महानगरों के नरक में गुम होना पड़ता है। इन गरीबों का न कोई गाँव है, न कोई घर न कोई धर्म। सिर्फ़ भूख से लड़ना और मेहनत से रोटी कमाना ही इनका धर्म है। आंचलिक भाषा की खुशबू इस कहानी की विश्वसनीयता बढ़ा देती है।
प्रेम पर केन्द्रित कहानियों की अपनी खूबसूरती उजागर हुई है। 'जीतो' कहानी में अन्यायपूर्ण प्रथा 'चादर डालने' का प्रतिरोध है। पति के मर जाने पर परिवार के किसी अन्य सदस्य द्वारा बिना सहमति के चादर डालना बहुत बड़ा अन्याय है, जिसका उद्देश्य यही है कि परिवार की ज़मीन किसी और के पास न जाए. जीतो इस प्रथा का विरोध करती है और बलवन्त को स्वीकार न करके अपने प्रेमी हीरा को अपना लेती है। 'अलकनन्दा' असफल प्रेम की कथा है, तो 'निर्णय' आशीष और मनीषा (शिक्षक और छात्रा) के बीच पनपती प्रेमकथा है। आशीष की आत्ममुग्धता प्रेम न होकर प्रेम से दूर केवल प्रेम-प्रपंच सिद्ध होती है। 'मैंने क्या बुरा किया है' समीरा की कर्त्तव्यनिष्ठा से जुड़ी भावुकतापूर्ण प्रेम कथा है। इस तरह के प्रेम को समाज भले ही स्वीकृति न दे; लेकिन सहृदयता और कर्त्तव्यपरायणता इसे ज़रूर स्वीकार करेगी।
'रजनीगन्धा' निम्नमध्यमवर्गीय लड़की शालिनी की प्रेमकथा है, जहाँ दफ़्तर का अफ़सर डोरे डालने की फ़िराक में रहता है। परिवार का गुज़ारा उसी के वेतन से होता है। ऐसी स्थिति में नौकरी छोड़ना भी सम्भव नहीं है। ऐसे में किसी का सच्चा प्रेम उसको राहत देता है। 'मन का बन्धन' में किन्ना (कृष्णा) और गौरा की-की प्रेम और परिणय कथा है, जिसका प्रेमी सुशान्त प्रेम की ओट लेकर केवल अपने कैरियर और स्वार्थ को देखता है। प्रेम का प्रपंच उसके लिए केवल क्रीड़ा-कौतुक मात्र है। 'बस, अब और नहीं' में प्रताड़ित नौकरीपेशा नारी मीता का विद्रोह है। बेमेल विवाह के कारण नारी का शोषण हर प्रकार से होता हैं। निकम्मा शराबी पति महेश उस पर रौब तो गाँठना ही है, शारीरिक रूप से भी प्रताड़ित करता। हार कर वह प्रमोशन स्वीकार कर दूसरे शहर चले जाने का मन बना लेती है।
कुल मिलाकर सुदर्शन रत्नाकर की चुनिन्दा कहानियाँ एक बड़े और व्यापक कैनवास की कहानियाँ हैं। इन कहानियों का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, इनकी रोचकता, विश्वसनीयता, प्रवाह और पाठक से तादात्म्य स्थापित करने की शक्ति। मैं आशा करता हूँ कि ये कहानियाँ हर वर्ग के पाठक को पसन्द आएँगी।
22 मई, 2017