सामान / हेमन्त शेष
घर में सामान की चीज़ ही ऐसी है कि हमेशा बढ़ती रहती है. सर्दियाँ जाती हैं कि आप गरम कपड़े भीतर रखने के ज्यों ही ट्रंक खोलते हैं, आप देखते हैं उसमें पहले से कई गरम कपड़े रखे हुए हैं, वे सब जो इस साल आपने नहीं पहने. इस साल फिर स्वेटर कोट शौल और मफ़लर वगैरह नए खरीदे गये थे, उन्हें रखने के लिए आप न फिर कुछ ये ट्रंक खरीदते हैं जिनकी जगह बनाने के लिए फिर आपको नया घर खरीदना पड़ सकता है.
बाज़ार सामान से भरे हैं पर कोई उत्पादक, माई का लाल, ये बताने को तैयार नहीं है कि कम सामान के साथ रहा कैसे जाय? ये बात कुछ साधु-संत बताते हैं, पर उनके पास भी तो कुछ ऐसा सामान ज़रूर होता होगा जो बढ़ता रहता होगा. मसलन नया एक और कमंडल, जो किसी भक्त ने भेंट किया हो. तीन अतिरिक्त खडाऊँ या पीताम्बर के दो और जोड़े! हालत ये होती है कि सामान का बोझ सीने पर ढोते-ढोते अपनी मृत्यु पर हम खुद एक गैर ज़रूरी सामान में बदल जाते हैं और दोस्त लोग हमारे घर में से एक सामान कम करते हुए हमें फूंक आते हैं.
पर इतने दार्शनिक वक्तव्य के बाद अभी भी बुनियादी सवाल वहीं का वहीं है- सामान आखिर इतना विकासशील क्यों है जो ये बार-बार पूछना पड़े – उसे रखा कहाँ जाए?