सामूहिक अवचेतन मेंनारेबाजी द्वारा परिवर्तन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 मार्च 2021
पटकथा लेखक और नेता सामूहिक अवचेतन को समझने का प्रयास करते हैं। प्राय: यह कवायद 5 नेत्रहीनों द्वारा हाथी को छूकर उसका विवरण देने के प्रयास की तरह साबित होती है।
पटकथा लेखक पंडित मुखराम शर्मा और ख्वाजा अहमद अब्बास ने कभी कथा प्रवाह में जबरन तालियां पीटे जाने लायक संवाद ठूंसे नहीं हैं। तब इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। फिल्म के समग्र प्रभाव पर निर्भर किया जाता था। सलीम जावेद और अमिताभ बच्चन के आक्रोश के सिनेमा के साथ ‘क्लेप ट्रैप’ का महत्व रेखांकित किया गया। तालियां बजाई जाएं ऐसे संवाद बने परंतु लोकप्रियता का रसायन ही अजीब है, वरना ‘क्यों रे सांभा’ जैसी साधारण बात पर तालियां क्यों बजतीं। अमजद अभिनीत गब्बर की संवाद अदायगी ने कमाल किया। ज्ञातव्य है कि अमिताभ ने गब्बर की भूमिका अभिनीत करना चाही थी, कुछ संयोग भी होते हैं। फिल्मकार, डैनी को भूमिका देना चाहते थे। उन दिनों डैनी फिरोज खान की फिल्म ‘धर्मात्मा’ में व्यस्त थे। फिल्म ‘शोले’ में पहली बार प्रस्तुत हुआ कि डाकू धोती नहीं वरन जीन्स पहनता है। दरअसल ‘शोले’ के प्रमुख पात्र संजीव कुमार अभिनीत ठाकुर और अमजद अभिनीत डाकू गब्बर हंै। धर्मेंद्र और अमिताभ ने अपने अभिनय और सितारा करिश्मा से अपनी जमीन बनाई। कैमरामैन द्वारका द्विवेचा का योगदान महत्वपूर्ण रहा। याद कीजिए ठाकुर की हवेली में युवा विधवा बत्तियां एक रोशन खिड़की में यूं खड़ी है, मानो किसी अवसाद की चौखट में कोई निश्चल तस्वीर जड़ी हो। कैमरामैन राधू करमारकर, वीके मूर्ति और आरडी माथुर ने राजकपूर, गुरुदत्त और के.आसिफ की फिल्मों में बड़ा प्रभावोत्पादक कार्य किया।
कुछ लोग यह मानते हैं कि ‘शोले’ के बाद लालू प्रसाद यादव ने अपनी भाषण शैली में गब्बर का अनुकरण किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू अंग्रेजी में सोचते थे और मन ही मन हिंदी में अनुवाद करके भाषण देते थे। अत: कुछ क्षणों की खामोशी रहती थी। दिलीप कुमार ने भी अपनी संवाद अदायगी में यही शैली अपनाई। यह स्वत: हुआ या जानकर किया गया, यह बताना कठिन है।
हिटलर की मृत्यु के बाद उसकी हिंसा पर अनेक फिल्में बनी हैं। एक फिल्म में जेलर अपने कैदियों को कष्ट देने के लिए नित नए तरीके खोजता है। कभी-कभी वह दया भी दिखाता है परंतु उसकी दया भी बड़ी मारक होती है। एक बार वह एक उम्रदराज कैदी से पूछता है कि उसकी कौन सी आंख में पत्थर जड़ा है। युद्ध में घायल होने पर जर्मन डॉक्टर ने उसकी एक आंख में पत्थर इस खूबी से जड़ा है कि असल-नकल में भेद बताना कठिन है। उम्रदराज व्यक्ति एक क्षण में ही कहता है कि जेलर की सीधी आंख में पत्थर जड़ा है। वह स्पष्टीकरण देता है कि पत्थर की आंख में कुछ दयावान उसने देखा है। सलीम-जावेद की ‘दीवार’ में अपराधी अपने वैभव का विवरण देता है, तो ईमानदार पुलिस अफसर कहता है कि उसकी एकमात्र संपत्ति उसकी मां है। ‘मेरे पास मां है’, सामूहिक अवचेतन में गहरे पैंठ गया। वर्तमान में उम्रदराज लोग वृद्धाश्रम में भेजे जा रहे हैं जबकि शहर के अधिकांश मकानों पर मातृ कृपा या इसी अर्थ के शब्द लिखे हुए हैं।
यह भी गौरतलब है कि फिल्म गीतों में मुखड़े याद रहते हैं परंतु अंतरों को कम लोग ही याद रखते हैं। ‘आज की रात नींद नहीं आएगी, साकिया सुना है तेरी महफिल में रतजगा है।’ ‘साहब बीवी और गुलाम’ में प्रयुक्त गीत टेलीविजन पर ‘क्यों उत्थे दिल छोड़ आए’ में भी सुनाई पड़ रहा है। शायद यह कोई पुरानी बंदिश है। हमारे पास इसका खजाना है। सुना है कि प्रचार तंत्र ने सामूहिक अवचेतन में नारेबाजी द्वारा आमूल परिवर्तन कर दिया है। प्लास्टिक शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ है। सभी क्षेत्रों में हुए विकास का उपयोग प्रचार तंत्र में किया जाता है। प्रचार तंत्र पर किताबें लिखी जा सकती हैं। शोध करने के लिए नए क्षेत्र उपलब्ध हैं।