सामूहिक अवचेतन : शिष्य पाठ्यक्रम हो गया / जयप्रकाश चौकसे

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सामूहिक अवचेतन : शिष्य पाठ्यक्रम हो गया
प्रकाशन तिथि : 13 दिसम्बर 2014


कल 14 दिसंबर को राज कपूर का 90वां जन्मदिन है। उनकी मृत्यु को 26 वर्ष हो चुके हैं। आज का दौर ब्रेकिंग न्यूज का है। जीवन भी पढ़े हुए अखबार की तरह कूड़ेदान में फेंका जाता है। हमें हर दिन सुबह आज के अखबार की तलब लग जाती है। आज विगत सप्ताह देखी फिल्म याद नहीं रहती, परिवर्तन की गति से ही सबकी गति शासित है। ऐसे कालखंड में फ्रांस के विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली नेमिसिस नामक लड़की राज कपूर के सिनेमा और विदेश में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर शोध करने भारत आती है और कहीं से जानकारी मिलने पर मुझसे मिलने इंदौर आती है। राज कपूर के सिनेमा पर कोई एक्स्पायरी डेट नहीं है। 1951 में प्रदर्शित आवारा ने रूस में इतनी लोकप्रियता पाई कि अघोषित राष्ट्रीय फिल्म हो गई। राज कपूर के सिनेमा पर ख्वाजा अहमद अब्बास और नेहरू के प्रभाव के कारण समाजवादी झुकाव रहा है। लोगों का खयाल है कि इसी कारण साम्यवादी देशों में फिल्म ने लोकप्रियता पाई। उनकी फिल्मों को अबुल गमाल मोसल, निकितां ख्रुश्चेव और चाउ इन लाई ने पसंद किया, परंतु भारत के अवाम के साथ खाड़ी देशों में लोकप्रियता का क्या कारण रहा होगा?

दरअसल मानवीय करुणा एवं मनोरंजन पर किसी राजनैतिक दर्शन का ठप्पा नहीं होता। आंसूू और मुस्कान सार्वभौमिक हैं। अमेरिका में राजकपूर की फिल्मों का पुनरावलोकन सन् 82 में हुआ और कई शहरों में फिल्में दिखाई गईं। अच्छा है कि नेमिसिस रूसी नहीं थीं अन्यथा समाजवादी रुझान की बात उठती है। सच तो यह है कि घोर पूंजीवादी अमेरिका में भी धनाड्य व्यक्ति के नायक स्वरूप पर कम ही फिल्में बनती हैं। सिनेमा अवाम का मनपसंद माध्यम है और समाजवाद कोई गाली नहीं है। इस विचारधारा से प्रभावित रहे हैं बर्नाड शॉ, बट्रेंड रसेल और अनेक विद्वान। राइटिस्ट प्रभाव ने कभी महान लेखक, विचारक दिए ही नहीं। अधिकतम व्यक्तियों की व्यथा-गाथा से कौन प्रभावित नहीं होता। पूंजीवादी अमेरिका ने चार्ली चैपलिन को सर्वकालिक महान माना, पुरस्कृत किया। सत्यजित रॉय की श्रेष्ठतम रचना में गांव के गरीब परिवार का दर्द है, तो क्या उन्हें समाजवादी करार देंगे? दरअसल राजनैतिक नारेबाजी से पटी है आम मनुष्य की व्यथा-गाथा।

कहते हैं कि जब बादल छाते हैं तो अरसे पहले टूटकर जुड़ी हड्डी में कसक होती है। राजकपूर का सिनेमा ऐसा ही है कि मन में सकारण या अकारण उदासी छायी हो तो उनकी फिल्म का गीत या दृश्य कौंध जाता है। बरसते पानी में अनगिनत प्रेम गीतों का छायांकन हुआ है, परंतु हर वर्ष पहली ही फुहार पर 'प्यार हुआ इकरार हुआ' मन में गूंजने लगता है। बारिश लगातार या तेज हो रही हो तो 'लपक-झपक तू रे बरखा' याद जाता है। टेक्नोलॉजी ने प्रेम पत्र विधा का कत्ल कर दिया है, परंतु किसी प्रिय का पुराना पत्र देखकर ही याद आता है- 'यह मेरा प्रेम पत्र है, ये मेरी बंदगी, ये मेरी जिंदगी है।' कसकर भूख लगी हो और चांद रोटी की तरह नजर आए तो आवारा का संवाद याद आता है- 'जेलर साहब, यह कम्बख्त रोटी बाहर मिली होती तो भीतर क्यों आता।' यात्रा में जब लंबी सड़क गुनगुनाती है तो हमें याद आता है 'फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।'

राज कपूर ने पृथ्वी थिएटर्स के दिनों में दर्शक प्रतिक्रिया का महत्व समझा और हमेशा सामूहिक अवचेतन को समझने का प्रयास करते रहे। इसी सतत् प्रयास में जाने कब वे उस सामूहिक अवचेतन का अविभाज्य हिस्सा बन गए। अत: आईना देखते ही हमें पीछे खड़ा राज कपूर दिखता है। उनकी फिल्मों के गीतों के साथ जागते रहो का संवाद भी याद आता है- 'मैं गंवई गांव का आदमी रोजी की तलाश में महानगर आया और आपने मुझे क्या सिखाया कि नीचे गिरे आदमी की पीठ पर पैर रखकर आगे बढ़ो।' आज की भागमभाग और अव्वल आने की अघोषित राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में हम यही तो कर रहे हैं। श्री 420 के चोर बाजार के कबाड़ी की दुकान पर युवा नायक ईमान गिरवी रखता है तो नायिका विद्या पुस्तकें गिरवी रख रही है। आवारा का नायक अदालत में कहता है- 'अपराध के कीड़े मुझे जन्म से नहीं मिले, मैं तो पढ़-लिखकर जज बनना चाहता था, परंतु मेरी बस्ती के पास बहते नाले में कुलबुलाते कीड़ों ने मुझे काटा....।' साठ वर्ष पश्चात भी झोपड़ पट्टियों के पास से वे ही नाले बह रहे हैं। उसने हमारा सेठ सोनाचंद-धरमाचंद से परिचय कराया और आज सोनाचंद हमसे हमारी पहचान पूछ रहा है। हम किस गर्व से कहें कि दिल फिर भी है हिंदुस्तानी....।