सामूहिक नरसंहार / हरि भटनागर
बहुत छोटी-सी घटना है।
उन दिनों मैं मध्यप्रदेश के एक कस्बे में रहता था। वह क़सबा बहुत ही छोटा था और बहुत ही कम आबादी वाला। किसी से भी किसी के बारे में पूरी मालूमात की जा सकती थी। सम्भव है अब ऐसा न हो। लेकिन बड़ा दिलचस्प क़सबा था वह। किसी भी क़सबे से पीछे नहीं, किसी भी बात में। राजनीति में सबसे आगे, महँगाई में सबसे आगे और गुण्डई में तो ख़ैर सबसे आगे था ही। बहरहाल, मैं वहाँ दुमंजिले मकान में किराए पर रहता था। नीचे के हिस्से में मैं रहता था। बाएँ तरफ़ के हिस्से में तीन किराएदार थे। दाएँ तरफ़ मकान मालिक रहता था। ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए लोहे की सीढ़ी थी। सीढ़ी कमाल की थी। कुछ इस तरह थी कि उसमें पूरा पैर नहीं समाता था। चढ़ते वक्त़ उतनी परेशानी न होती जितनी उतरते वक्त़ होती। हौल रहता कि अब गिरे कि तब गिरे। ख़ैर, किसी तरह लोग चढ़-उतर जाते थे। कहते हैं कि सावधानी में दुर्घटनाएँ नहीं होतीं। यह बात इस सीढ़ी से जुड़ी थी। कोई भी आदमी या बच्चा इस सीढ़ी से कभी न गिरा। सीढ़ी में कुछ ऐसा था कि पाँव रखते ही झन्नाती थी। उसकी यह झन्नाहट नीचे के ख़ानों से भी सुनी जा सकती थी। पता पड़ जाता कि कोई सीढ़ी पर है।
ऊपर की मंज़िल पर एक हाॅलनुमा कमरा था। कमरे में रसोई थी लेकिन नहाने और पाखाने के लिए किराएदार को नीचे आना पड़ता था। कमरे की बाहरी दीवारों का पलस्तर जगह-जगह से झड़ रहा था और चारों तरफ़ काली-हरी काई बनी हुई थी।
ऊपर की तरफ़ नाली में पीपल के पेड़ निकल आए थे जिनकी जड़ें नाली के सहारे होती हुईं, नाली में कहीं खो गई थीं। कमरे की अन्दर की दीवारें सीलन की वजह से नम और बदरंग थीं। सीलन ने उन पर असंख्य तस्वीरें बना दी थीं जो अबूझ थीं। छत धुएँ से काली थी और जगह-जगह उनमें से मोर्चाखाई पपड़ियाँ झड़ रही थीं। कमरे में एक खिड़की थी जिसे बन्द करके अलमारी को शक्ल दे दी गई थी। एक कोने में रसोई थी। पानी निकास की व्यवस्था न थी इसलिए दीवार के सहारे एक हौदी बनाने के साथ सीमेंट की एक मेड़ बना दी गई थी जो दरवाज़े तक जाती थी। पानी जिसके सहारे आता और बाहर झज्जे पर छुट्टा फैलता और उसी तरह नीचे गिरता। रसोई की उस हौदी में बर्तन मले जाते और मंजन-कुल्ले के साथ वक्त़ ज़रूरत पर पेशाब भी की जाती।
शुरू-शुरू में, नीचे के हम किराएदारों में ऊपर से गिरने वाली ‘रस-बूँदों’ से भारी नाराज़गी थी। मकान मालिक से कई बार पानी निकास की व्यवस्था के लिए कहा भी, लेकिन मकान मालिक भी एक चीज़ था। वह काला, मोटा और बड़ी तोंद का मालिक था। गंजा था और आँखों पर हल्का काला चश्मा लगाता था जिसमें उसकी आँखें मिचमिचाती रहतीं। हर वक्त़ वह सफारी सूट डाटे रहता। हम लोगों की नाराज़गी पर वह ज़रा भी नाराज़ न होता। मुस्कुराता कहता - बस, अगले साल ऊपर की छत ढलेगी, उसी के साथ सब ठीक हो जाएगा .... पिछले दस सालों से वह यही एक बात दोहराता आ रहा था। इसलिए हम लोगों ने अब उससे कुछ कहना ही छोड़ दिया था। मकान से वह पूरी तरह उदासीन था। हम अपने हिस्से की खुद पुताई करा लेेते और मरम्मत। वह भी ख़ुश था और हम भी। हालाँकि हम अन्दर से बेहद नाराज़ थे। लेकिन कर क्या सकते थे? कम किराए की वजह से यह मकान छोड़ा भी न जाता था; इसलिए इसी में कुण्डली मारे हर तरह की तकलीफ़ बरदाश्त करते आ रहे थे।
फागुन रहा होगा जब ऊपर की मंज़िल के किराएदार ने मकान छोड़ दिया। उसे सरकारी मकान मिल गया था। मेरा मन हुआ कि उसे किराए पर ले लूँ। दो सौ रुपए किराया था, किसी तरह एडजस्ट कर लूँगा। दोस्त-एहबाब इतने आते हैं कि एक कमरे में दिक़्क़त हो जाती थी। मकान मालिक से बात की तो वह भाव खाने लगा। भौहें चढ़ाकर बोला - पाँच सौ लगेगा। मैंने कहा, मंगल तो दो सौ देता था। उसने कहा, ख़ाली होते ही मकान के किराए बढ़ जाते हैं। अभी आप ख़ाली करें तो आठ सौ में जाए। मैंने बढ़ाया क़दम पीछे कर लिया। नतीजा था कि चार महीने कमरा ख़ाली पड़ा रहा। न मुझे दिया गया और न ही मेरे जैसे ज़रूरतमन्द को। एक दिन पता लगा कि कमरा उठ चुका है। पाँच में नहीं, बल्कि छः सौ में। किसे दिया गया? कौन है वह शख़्स? हमें जिज्ञासा थी। एक दिन मैंने मकान मालिक से पूछा कि कमरा किसे दिया है, चार महीने से तो सुनता आ रहा हूँ कि उसी वक्त़ तीन ठेलों से सामान उतरने लगा। एक दुबली-पतली औरत जिसकी लटें चेहरे के आगे लहरा रही थीं और जो धोती के पल्लू को छाती के साथ पीछे फेंटे की तरह लपेटकर कसे थी-अकेले ठेलेवालों के सहारे अपना सामान उतार रही थी। उसके साथ तीन एक साल का बच्चा था।
औरत की शक्ल-सूरत से ऐसा लगता था जैसे नियति ने उसके साथ क्रूर मज़ाक किया और उसके आदमी को छीनकर उसे बेसहारा कर दिया हो। और वह उसके ग़म में छाती पीट-पीटकर अभी बेतरह रोई है। लेकिन ऐसा न था। उसका आदमी जीवित था और कुछ दिनों के बाद ही उसके साथ ऊपर रह रहा था।
मैंने मकान मालिक से औरत-मर्द के बारे में पूछा। मकान मालिक का मुस्कुराता चेहरा यकायक मुरझा गया। चश्मे के अन्दर से मिचमिचाती आँखों को स्थिर करता वह बोला - क्या बताऊँ? - लम्बी साँस छोड़ता वह आगे बोला - बड़ी गफ़लत हो गई। मैं तो सोचता था कि वह राँड-बेवा है, गरीब है, चलो दे दो कमरा, जितना भी किराया देना होगा दे देगी, लेकिन वह राँड थोड़े ही थी! - मकान मालिक के चेहरे पर ग़्ाुस्सा उभर आया - राँड जैसी लगती है हरामखोर! और वह मुस्टण्ड, उसका आदमी है कमीन! - मकान मालिक ने मेरी बाँह पकड़ी - मैं तो मकान देकर फँस गया। उसका मर्द अच्छा नहीं। आँखें देखो जैसे कातिल हो! ओफ्फ!
मैंने मन में कहा - अब रो, जब मैं माँग रहा था तब दिमाग़ आसमान में था।
तीसरे-चैथे दिन मकान मालिक ने मेरा कन्धा छूते हुए, मिचमिची आँखों में ख़ौफ़ के साथ सूचना दी - मदन बाबू, यह तो बड़ा गड़बड़ आदमी है। पीछे जमीर साब हैं न, उन्होंने बताया कि यह आदमी पास के गाँव का छँटा बदमाश है, खेती-बारी के लफड़े में पड़ोसी की हत्या कर चुका है और पुलिस को दे-देवा के साफ़ बच के निकल गया ....
मैंने पूछा - तो आपने मकान क्यों दे दिया, बिना पूछे-ताछे?
- दरअसल मैंने कोई दरयाफ्त नहीं की। वह राँड आई और रोने लगी। मुझे दया आ गई, सोचा बेवा है, अकेली है, कमरा दे दिया लेकिन ....
- अभी भी देर नहीं हुई है, आप उसे चलता करो।
मकान मालिक कुछ देर चुप रहा, फिर बोला - आसान नहीं है। उसका मर्द तो ज़ालिम है। वह तो मरने-मारने को तैयार हो जाएगा। पता है जमीर साब ने ता
कल अख़बार में छपा उसका फोटो भी दिखाया। मकान मालिक यकायक चुप हो गया। अँगुली से कान खुजाने लगा, बोला - अब यार, जैसा भी है, जब अपने साथ गड़बड़ नहीं कर रहा है तो गड़बड़ कैसा?
मकान मालिक हौल के साथ आश्वस्त-सा दिख रहा था। कहने लगा - वह कैसा भी बदमाश और ज़ालिम है, जब तक हम उससे उलझें नहीं, वह क्यों उलझने लगा। बुदबुदाते हुए मकान मालिक अपने कमरे की ओर बढ़ा जिसकी खिड़की से उसकी लड़की उसे बुलाने के लिए आवाज़ें दे रही थी। अमरूद के पेड़ की छाया में खड़ा मैं मकान मालिक से सहमत होते हुए भी आशंका में डूबा था। गड़बड़ आदमी जहाँ भी रहता है, गड़बड़ी करता है, कोई उलझे, न उलझे। यह सोचते ही एक हौल मेरे मन में बैठ गया जो लाख समझाने के नहीं निकला। पता नहीं क्यों मैं उसे देखते ही काँप जाता। हौल से बचने का एक ही रास्ता था। उसकी तरफ़ देखो नहीं, उससे या उसकी घरवाली से कोई रार मोल न लो। आख़िरकार मैंने ऐसी कई दलीलों से अपने विचलित मन को किसी तरह शान्त किया। बावजूद इसके मन तो मन था। अनेक आशंकाओं से घिरा रहता
वह आदमी ज़्यादातर ऊपर छज्जे पर खड़ा दीखता। वह एकदम काला था, कोयले की तरह। वह धोती पहनता जो घुटनों तक होती। घुटनों से नीचे टखनों तक उसके पैर गझिन बालों से भरे थे। यही हाल उसके पीठ, पेट, छाती और हाथों का था जहाँ गझिन बाल चींटों जैसे चिपटे लगते। सिर के बाल पहलवानों की तरह महीन थे। गरदन तगड़ी और मूँछ तलवार जैसी खिंची थी। बायाँ हाथ पीछे बाँधे, दायाँ हाथ होंठों पर मुट्ठी की तरह कसे वह बीड़ी के धुएँ में डूबा रहता। लम्बे कशों के साथ मुट्ठी को वह रह-रह रखता और हटाता जाता था।
बीड़ी के क़शों में वह इस कदर डूब जाता कि उसे होश ही न रहता कि उसका तीन बरस का बच्चा उसके घुटनों पर हाथ मारता, नाक बहाता, रोता हुआ, गोदी में आने के लिए काफ़ी देर से ज़िद कर रहा है।
थोड़ी देर में उसकी पत्नी, गाुस्से में लाल कमरे से निकलती और बच्चे को उठा, बड़बड़ाती हुई, कमरे में वापस चली जाती।
वह घर का कोई काम नहीं करता। पत्नी ही सारा काम करती - झाड़ू-बुहारी से लेकर नीचे से पानी भरने तक का। रहा राशन-पानी जुटाने का काम - वह घर के भाई-बन्द माह में एक बार गाँव से लाकर रख जाते। ये महाशय बहुत ही कम नीचे उतरते।
नौतपा जब अपने चरम पर था और उसके ताप पर हम दाँत पीसने के अलावा कुछ भी करने में असमर्थ थे, तभी एक झंझट हो गई जिसने मेरे प्राण नहों में समो दिए।
बात यों हुई कि उस ख़ूँख़ार आदमी की औरत जो शक्ल-सूरत से रोती नज़र आती है, नीचे से पानी भर रही थी। ग़लती या गुस्ताखी जो भी कहें, यह हुई कि मैंने भरकर बहती बाल्टी नल के नीचे से हटा दी और अपनी बाल्टी लगा दी कि बस वह मुझसे उलझ पड़ी।
मैंने कहा - बहन जी, आप इत्ता नाराज़ क्यों हो रही हैं? मैंने आपकी बाल्टी ही तो हटाई, वह भी भरी। ख़ाली तो नहीं हटाई।
वह तिड़ककर बोली - मेरी भरी बाल्टी भी हटाई तो क्यों हटाई?
मैंने कहा- वह भरकर बह रही थी।
- तो बहने देते।
- तो फिर लगाये देते हैं।
वह बोली - क्यों लगाये देते हैं?
मैं हतप्रभ - हद्द है!
वह बोली - क्या हद्द है?
मैं बोला - यही कि ....
वह बोली - भरी बाल्टी फिर से लगा देते हैं।
मैं बोला - जी।
मुँह बिराते वह बोली - जी! आँखों में रोष भरकर उसने आगे कहा - आप लोग भर रहे होते हैं तो मैं झँकती नहीं। मैं भर रही हूँ तो आप टाँग क्यों अड़ा रहे हैं।
मैंने कहा - मैंने टाँग नहीं अड़ाई।
वह बोली - सिर अड़ाया था।
मेरा दिमाग़ भन्ना गया। फिर भी अपने को काबू में रखा। अश्लील जुमले को शालीनता में कहा - अब आप उसे सिर कह लीजिए।
उसने मुझे कर्री निगाहों से देखा गोया चिथड़ा बना डालेगी। स्पष्ट था कि वह मेरा मर्म भाँप गई थी। फुफकार कर बोली - बदतमीजों को औरतों से बात करना नहीं आता।
मैं बोला - औरत जब ढंग से बात करे तो ....
वह अँगुली नचाकर बोली - अब आप मुझे ढंग सिखाएँगे?
मैं उसी अश्लीलता के बहाव में था - ढंग तो आप बेहतर जानती हैं ....
उसका पैर जैसे अंगार पर पड़ गया हो, बोली - ढंग अपनी उस राँड का सिखा .... पत्नी की तरफ़ इशारा करते, तिड़तिड़ाते हुए उसने मेरी बाल्टी जो आधी भरी थी, मेरे आगे इस तरह पटकी कि उसका पानी ज़ोरों से ऊपर उछला, मुँह को सराबोर करता सीने पर कमीज़ और बनियान में समा गया।
अब मैं पूरी तरह ग़्ाुस्से के हवाले था। आँखों में आग जलने लगी। भुजाएँ धड़ से छटक-सी रही थीं। कुछ न सूझा तो अपनी बाल्टी उठाई और उसी अन्दाज़ में ज़मीन पर पटकी जैसे उस औरत ने पटकी थी। लेकिन इस बार पानी न उछला। वह औरत उछली क्योंकि बाल्टी उसके पैर की अँगुलियों पर गिरी थी।
मैं एकदम सकते में आ गया। बाल्टी पैर पर गिर जाएगी, तनिक गुमान न था। लेकिन ऐसा हो गया। मेरा शरीर ऐसा हो गया था जैसे समूचा ख़ून निकल गया हो। मैंने आँखें मूँद लीं। जब खोलीं तो देखा - औरत चारदीवारी पर भहराई-सी अपना बायाँ पैर उठाए थी। आँखें अधमुँदी थीं और मुँह खुला। लगता था साँस अन्दर कहीं रुक गई है। चेहरा सुर्ख हो रहा था और उस पर पीड़ा को महसूस किया जा सकता था। पैर की अँगुलियों पर जहाँ बाल्टी गिरी थी, पहले चाक की सफे़द लक़ीर जैसी खिंची थी, फिर उसमें से ख़ून चुचुआने लगा।
सहसा औरत के बदन में कम्पन हुआ। साँस ज़ोरों से चलने लगी। सम्भवतः ख़ून को देखते ही, उसकी आँखों में आँसू चू पड़े और वह फर्श पर बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
अब मैं गहरे संकट में था। जिससे दूर रहने और न टकराने का फै़सला किया था, उसी से खामखाह झंझट हो गया। मैं अपने कमरे में था। पत्नी, मकान मालिक और दूसरे किराएदार सब मुझसे ख़फा हैं। सब यही कह रहे हैं कि औरत से उलझने की क्या ज़रूरत थी। मैंने कहा, मैं कहाँ उलझा? उलझी तो वह। पत्नी बोलीं, मैं इशारे कर रही थी लेकिन आप हैं कि बहस किए जा रहे हैं। मकान मालिक ने कहा, मैं पहले ही ख़बरदार कर चुका था कि आदमी गड़बड़ है, रहस्यखोर है, उससे दूर रहना, लेकिन आप माने नहीं। मैंने गहरी साँस ली, कुछ कहना चाहा मगर पत्नी फिर बमक उठीं, अब आप यादव जी से लड़ जाइए। मैंने सिर नीचा कर लिया। हाथ मलने लगा- हद्द है।
थोड़ी देर के विलाप के बाद औरत सीढ़ी झन्नाती ऊपर चली गई थी और हम लोग आसन्न ख़तरे से कैसे निपटा जाए - इस पर सोच रहे थे। गड़बड़ आदमी का क्या भरोसा, आए और लट्ठ चमका जाए तो क्या कर लेंगे, थाने जाएँगे, लेकिन होगा क्या? वह मूजी तो अपना काम कर लेगा।
काफ़ी देर तक हम लोग दम साधे बैठे रहे। या कहें, उस ख़ूनी के उतरने का इन्तज़ार करते रहे। वह गुस्से में पागल उतरेगा क्योंकि मैंने उसकी बीवी के साथ बदसलूकी की है, उसका अपमान किया है, चोट पहुँचाई है, इसे वह क्यों कर बर्दाश्त करेगा? सीधे-साधे हम जैसे लोग नहीं कर सकते, मरने-मारने पर उतारू हो जाएँ, फिर तो वह ज़ालिम ठहरा।
दोपहर हुई, फिर शाम। फिर रात। दूसरा दिन हुआ। इस तरह तीन दिन निकल गए - वह आदमी नहीं उतरा। हम लोगों ने सोचा कि औरत लड़ंका है, सबसे बेवजह उलझती रहती है, आदमी ने सम्भवतः इसी वजह से उलझना उचित नहीं समझा, अन्यथा वह फाड़ खाता।
इस बीच औरत लँगड़ाती हुई, अस्पष्ट-सा बड़बड़ाती, अँगुलियाँ चटकाती कोसती गुस्से में तम-तम किसी तरह चलती, नीचे से ऊपर पानी भरने आती रही। चोट खाई जगह पर उसने लाल-लाल मरहम जैसा कुछ लगा रखा था, बावजूद इसके अँगुलियाँ सूजी थीं।
आने वाले दिनों में औरत के पैर का घाव पुर गया, सूजन मिट गई और वह भली-चंगी हो गई और हम पूरी तरह सहज। मैंने कान पकड़े। कसमें खाईं। आगे से कोई ग़लती न करूँगा। उठक-बैठक लगा ली।
गुलाबी ठण्ड वाले दिन शुरू हो गए थे। बावजूद इसके दिन में तेज़ धूप होती। हम इसकी शिकायत करते लेकिन शाम को गुलाबी ठण्ड में देर तक घूमते। अँधेरा होते ही बड़ा-सा चाँद पेड़ों के झुरमुट से काँपता हुआ ऊपर उठता और धीरे-धीरे आसमान में अपना असली रूप धारण करता जाता। हवा इतनी हल्की और साफ़ होती कि फेफड़ों में भरकर उड़ने को जी करता।
ऐसी ही शाम का मज़ा लेकर उस शाम जब मैं घर लौटा तो दरवाजे़ पर उस औरत को खड़ा पाया। औरत के चेहरे पर गुस्सा था। हाथों में उसके साड़ी थी जिसे वह कस के दबोचे थी। सामने मकान मालिक, मकान मालकिन और पड़ोसी, कपूर साहब भी थे। पहले तो मैं कुछ समझ न पाया। घर में दाखिल हुआ तो पत्नी ने बात स्पष्ट की।
औरत ने सूखने के लिए डौली पर साड़ी डाली थी। गीली थी तो गिरी नहीं, जब फरैरी हुई और सूख गई तो नीचे आ गिरी। मेरी बेटी, सोफू ने साड़ी गिरते देखी। पहले तो उसने आँटी को आवाज़ें लगाईं। जब आँटी ने नहीं सुना तो उसने उठाने का काम खुद कर डाला। साड़ी बेगनबेलिया के झाड़ पर गिरी थी, काँटों में बिंधी थी। सोफू थी कि निकालने में लगी थी। साड़ी तो उसने निकाल ली लेकिन साड़ी में कई खोंते लग गए थे। पहनने लायक नहीं रह गई थी। पत्नी ने उस औरत से कहा, आप चिन्ता न करें, मैं आपको दूसरी और इससे अच्छी साड़ी मँगा दूँगी।
मगर वह औरत कोई बात सुनने को तैयार न थी।
इस बीच पत्नी बाथरूम गईं और मैं छोटे-छोटे डग बढ़ाता बाहर आ खड़ा हुआ।
मैं उस औरत से बात नहीं करना चाह रहा था, लेकिन वह जबरन मुझसे मुखातिब हुई - यह साड़ी आप रखिए।
- मैं क्या करूँगा इसका।
- आप जो भी करें।
- आप जो भी करें - मैंने धीमी आवाज़ में उसकी बात को उसी की तरफ़ ठेलना चाहा।
- जो भी करें मतलब? जलती आँखों से उसने प्रश्न किया मानो मैंने कोई अपशब्द कहा हो।
- आप नाहक उलझ रही हैं, जब आपसे कह दिया गया है कि नई साड़ी आपको मिल जाएगी तो फ़िजूल हुज्जत क्यों कर रही हैं? यकायक मकान मालिक ने मध्यस्थता करते सभी अँगुलियों में पहने अँगूठी वाला हाथ उठाते बहुत ही विनम्र स्वर में कहा।
वह अँगुली उठाकर तिरछी नज़रों से बोली - आप बीच में क्यों पड़ रहे हैं?
- मैं बीच में नहीं पड़ रहा हूँ, फालतू हुज्जत खतम करना चाहता हूँ, छोड़िए, जाने दीजिए, साड़ी फट गई अब क्या हो सकता है - मकान मालिक ने फिर उसी स्वर में कहा।
- क्या नहीं हो सकता? वह बोली।
इस बीच पत्नी आ गईं, बोलीं - बहन जी, आप एक नहीं दो साड़ी ले लीजिए इसके बदले में, खुद खरीद लाइए। लेकिन बात मत बढ़ाइए।
- मैं बात बढ़ा रही हूँ कि आप लोग - वह कठोर लहजे में बोली - यह साड़ी मेरी माँ की है, उसने वैष्णव देवी को ओढ़ाई थी, फिर मुझे लाकर दी ....
- ओऽऽ - मकान मालिक ने मुँह गोल किया - इसीलिए आप ....
वह बोली - हाँ, इसीलिए हुज्जत कर रही हूँ।
- लेकिन बहन जी, अब इसे आप सम्हालकर रख दीजिए, जो हो गया, सो हो गया।
मकान मालिक के समर्थन में पत्नी ने भी यही वाक्य सिर हिलाकर दुहराया।
इस बीच सोफू ऊन का प्लास्टिक का बहुत ही मजबूत थैला अन्दर से ले आई। साड़ी को सम्हालकर सुरक्षित रखा जा सकता था थैले में - मुझे सोफू की अक्ल पर हँसी आई। साथ में यह भी सोचने लगा कि अगर इस औरत ने थैला देख लिया तो चिढ़ जाएगी और अनर्थ हो जाएगा - इस लिहाज से थैला मैंने सोफू से लिया और कुर्ते के अन्दर छिपाता हुआ कमरे में जाने लगा कि वह औरत शेरनी की तरह मेरे ऊपर झपटी। मजबूत हाथों से उसने मेरा गिरेबान पकड़ा और दाँत पीसते हुए पलक झपकते, मेरे कुर्ते को फाड़कर दो हिस्सों में बाँट दिया।
- पन्नी में रख अपना कफ्फन!!! कहते हुए उसने ज़मीन पर थूका और जलती आँखों हम सबको घूरकर देखते हुए आगे कहा- देवी माँ का अपमान किया है, तुम सब उच्छिन्न हो जाओगे।
दो फाँक में बँटा कुर्ता और औरत की हरकत पर मैं सन्न था। यह बहुत बड़ी हतक थी। मैं गुस्से से पागल होता, इससे पहले पत्नी गुस्से से तमक उठीं। तेजी से आगे बढ़कर उन्होंने औरत की पीठ पर ज़ोरों का धौल जमाया। कुर्ता फाड़कर औरत विजय-मुद्रा में हम सबको देखकर मुड़ रही थी कि धौल से अपने को सम्हाल न पाई, लड़खड़ाई और फर्श पर मुँह के बल गिर पड़ी।
अब फिर पहले जैसी समस्या थी। न चाहते हुए भी उस औरत से टंटा हो ही गया था। और हमें पूरी तरह यक़ीन था कि औरत का आदमी इस बार ज़रूर लट्ठ लेकर उतरेगा क्योंकि इस बार औरत का आगे का एक दाँत टूट गया था और वह बुरी तरह लहूलुहान थी। आदमी ने अपनी आँखों के सामने उसे गिरते देखा था, वह ड्योढ़ी पर बीड़ी के धुएँ उड़ाता खड़ा था, उघारे बदन, जैसा कि हमेशा खड़ा होता है।
एक-एक पल बड़ी मुश्किल से बीत रहा था। लेकिन समय रुकता कहाँ है? शाम से धीरे-धीरे रात हुई और सबेरा हुआ। फिर दोपहर, शाम और फिर रात। इस तरह वक्त़ बीतता गया और तीन-चार दिन गुज़र गए - वह आदमी नहीं उतरा। मकान मालिक ने बताया कि औरत बुरी तरह रोती रही लेकिन वह टस से मस न हुआ। औरत ने उसे बुरा-भला भी कहा मगर वह बेजान, बेहिस, काठ बना रहा!
पता नहीं क्यों, आदमी के इस बर्ताव को लेकर हममें काफ़ी ग़्ाुस्सा था। वह लड़ा-झगड़ा नहीं और न ही लट्ठ लेकर उतरा - यह बात अपने में सुखद थी ही, लेकिन वह क्यों नहीं हरकत में आया? यह बात हमें छेद रही थी। मकान मालिक ने कहा कि मेरे साथ ऐसा हो तो चाहे पिट जाऊँ लेकिन मर-मिटूँ। मैंने भी तकरीबन ऐसा ही भाव प्रकट किया। दूसरे पड़ोसियों ने भी तकरीबन-तकरीबन ऐसे ही अलफ़ाज़ दोहराए।
मकान मालिक ने उसे मरा कुत्ता कहा। मैंने मरे जानवर की खाल। पत्नी के आदमी के नाम पर कलंक। और इस बात पर शर्म महसूस करते रहे कि फ़िजूल हम उससे ख़ौफ़ खाते रहे। पत्नी ने मकान मालिक को आड़े हाथों लिया जिन्होंने उसके बारे में हवा फैलाई थी कि किसी की हत्या करके यहाँ रहने आ गया है। अगर वह ऐसा होता तो यहाँ क्यों आता? निडर, निर्भीक मूजी आदमी अपने ठीहे से हिलता नहीं। वहीं बना रहता है। भागना तो सीधे-सादे लोगों का काम है।
उस आदमी के बारे में हमने अपने दिलों में यह धारणा बना ली थी लेकिन उस दिन के वाकेआ ने हमारी धारणा के परखचे उड़ा दिए और हमारी जान-सी निकाल ली ....
हुआ यह कि पाइप लाइन ख़राब होने की वजह से तीन दिन से नल में पानी नहीं आ रहा था। उस दिन सुबह जब नल से सूँ-सूँ और थोड़ी गुर्राहट के बाद पानी टपका तो सबसे पहले मैंने बाल्टी लगा दी। अन्दर मैं दूसरे बर्तन लाने के लिए गया ही था कि देखा, ऊपर वाली औरत ने मेरी अधभरी बाल्टी हटा दी और अपना गगरा लगा दिया। मैंने कहा - बाल्टी तो भर जाने दीजिए।
उस औरत ने लापरवाही से कहा- आधी बाल्टी से काम चलाइए, मेरे बाद भर लीजिएगा।
- आपके बाद क्यों भर लूँगा?
- इसलिए कि अभी आपके पास आधा बाल्टी पानी है और मेरे पास एक बूँद नहीं।
मैंने कहा - थोड़ा तो सब्र करतीं आप।
उसने कहा - थोड़ा आप कर लीजिए।
मैंने कहा - उस दिन तो आप भरी बाल्टी हटाने पर पें-पें कर रही थीं।
वह तिड़क उठी - ढंग से बात करिए। पें-पें क्या होता है?
अब मैं निधड़क था ही। उसकी बात पर अलफ हो गया और उसका गगरा परे कर अपनी बाल्टी लगाता बोला - पें-पें ये होता है।
- ये नहीं होता - उसने मेरी भरी बाल्टी उठाकर दूर फेंक दी और आँखें मटकाकर बोली - पें-पें ये होता है।
अब मेरा मूड आॅफ हो गया। मैंने आव देखा न ताव उसका गगरा उठाया और फर्श पर पटक दिया। गगरा ज़ोरों की आवाज़ करता दूर तक ढनगता चल गया।
इस बीच ऊपर से कोई चीखा। मैंने देखा, औरत का मर्द था जो उघारे बदन ड्योढ़ी पर झुका नीचे देख रहा था। बड़ी-बड़ी बाहर को निकली पड़ती आँखें ऐसी लग रही थीं जैसे उनमें से आग निकल रही हो। और उस आग से वह मुझे जलाकर ख़ाक़ कर डालेगा!
आदमी का चीखना था कि यह औरत ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाती हुई छाती पीटने लगी।
मैं सन्न रह गया। चीख और रोने-पीटने का ही असर था कि मेरी पत्नी, मकान मालिक, मकान मालकिन, कपूर साहब और दूसरे पड़ोसी अपने-अपने कमरों से निकलकर बाहर आ खड़े हुए। माजरा समझते उन्हें देर न लगी।
ज़ोरों की सीढ़ियाँ बजीं। तात्पर्य कि वह आदमी आज अपने नंगे रूप में आ गया है। वह मुझे चटका ही देगा। वह सीढ़ियाँ धड़-धड़ उतर ही रहा था कि पत्नी समेत सारे पड़ोसी मेरे गिर्द कवच जैसे आ खड़े हुए।
यकायक वह आदमी दीवार की ओट से सामने प्रकट हुआ। पसीने से वह लथपथ था। बाएँ हाथ से धोती की लाँग उठाए दाएँ हाथ से ठुड्डी खुजलाता सपाटे से शेर की तरह वह हम लोगों के सामने खड़ा हो गया, लगता था, बिना हाथ लगाए आँखों से चीर कर सबके दो टुकड़े कर देगा।
हम उसके वार के इन्तज़ार में थे कि यकायक वह अपनी पत्नी की तरफ़ मुख़ातिब हुआ, महीन आवाज़ - जिसे हमने पहली बार सुनी थी - में बोला - इतनी चिल्ला चोट क्यों? यहाँ झगड़ा-झंझट है तो परली पार से पानी ले आओ। वहाँ भी फसाद हो, तो नद्दी से काढ़ लाओ।
पत्नी तमक कर हाथ मटकाती बोली - और तू मर्द होके कमर पे हाथ रख खड़ा रह बीड़ी पीता!
वह बोला - मेरा तो अपने हक के लिए भी किसी से कर्रा बोलते जी मितलाता है। झगड़ा करूँ तो पता नहीं क्या हो। .... तेरे पाँव पड़ता हूँ, अकड़फूँ छोड़, ऊपर आ ....
यह कहता वह धीरे-धीरे चलता, सीढ़ियाँ झन्नाता ऊपर चला गया।
हम लोगों पर बिजली-सी गिर पड़ी। लगा, किसी ने उस व्यक्ति का नहीं, हमारा काम तमाम कर दिया है।