साया / प्रियंका गुप्ता
हवा बेहद सकून-भरी थी। उसने मेरा हाथ थामा था...बिलकुल हौले से; पर फिर भी किसी भी क्षण अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने को तैयार। हम उस छोटी—सी पहाडी पर थे। हमारे पीछे दूर तक फैला हरा-भरा मैदान था और नीचे की घाटी में मानो रंग-बिरंगे फूलों का गलीचा बिछा हो। मनोरम हवा में लाख सँवारने के बावजूद कोई न कोई आवारा लट मेरे गालों पर आ ही जाती थी...और लट भी इतनी बेशर्म कि उसके तरफ़ वाले गाल पर ही इतराहट दिखाने से बाज नहीं आ रही थी। आसमान में बेपरवाह घूमते बादलों ने अपनी हल्की-हल्की बौछारों में हमको भिगोने में कोई शर्म नहीं की थी। थोड़ी कँपकँपी के बावजूद बहुत अच्छा लग रहा था। मैं अपने सामने के नज़ारों को अपनी आँखों में भर रही थी और वो...वो तो उन सब से अनजाना-सा, बस मुझे ही घूँट-घूँट अपनी रूह तक उतारे जा रहा था। अचानक हवा इतनी तेज़ हुई कि मुझे लगा, मैं उड़ती हुई हजारों फ़ीट नीचे पहुँच फूलों के कफ़न में जा लिपटूँगी। घबराहट में मैं उसी से चिपट गई और उसने भी उतने ही प्यार से मुझे अपने करीब कर लिया। जाने क्या बात थी उसके आगोश में कि मुझे लगा, सारी ज़िंदगी बस यूँ ही बीत जाए... । मुझे अन्दर से महसूस हो रहा था, उन बाँहों के बीच रहते हुए कोई मेरा बाल भी बाँका नहीं कर पाएगा।
सहसा लगा, मेरे बिलकुल बगल से कोई ट्रेन सीटी बजाती निकल गई हो...और चौंककर मेरी आँखें खुल गईं। सिरहाने रखे अलार्म की चीख को एक भरपूर हाथ मारते हुए मैंने जल्दी से बंद तो कर दिया; पर मैं अभी भी भ्रम की स्थिति में थी जैसे। मैंने वापस आँखें बंद कर लीं, मानो आँखें मूँद लेने भर से मैं उसी दुनिया में वापस पहुँच जाऊँगी...उसी के सकून भरे आगोश में...जहाँ कुछ भी बुरा नहीं हो सकता...और फिर मेरे बगल में लेटे इस लिजलिजे-से इंसान का अस्तित्व ही नहीं होगा; पर ऐसा होता है भला...? दिल चाह रहा था, कुछ पल के लिए ही सही, वह दुनिया वापस मिल जाए; पर दिमाग़ ने मेरे अन्दर कुछ कोंचना शुरू कर दिया था। उठ जाओ... वरना सारा शेड्यूल गड़बड़ा जाएगा और साथ ही तुम्हारा पूरा दिन भी।
उठकर सारा काम निपटाते हुए भी मेरा मन मेरे साथ था ही नहीं। अगर दो सालों की गृहस्थी चलाने का अभ्यास न होता तो शायद मैं चाय में नमक डालती और सब्जी में चीनी...पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं एक रोबोट की तरह सब करती जा रही थी। सुरेश कब क्या कह रहे थे, क्या पूछ रहे थे...जवाब देने के अगले पल में भी मुझे कुछ याद नहीं था। मुझे तो ये भी नहीं समझ आया कि मेरी उँगली किस चीज से और कैसे जली। याद था तो वह पहाड़ी...घास का मैदान...फूलों की घाटी और...उसका आगोश।
घड़ी ने नौ बजा दिया था और उसके साथ ही दरवाज़े की घंटी भी बज गई। रोज़ तुरंत जाकर दरवाज़ा खोल देने वाली मैं उस पल पता नहीं क्यों अपनी जगह पर ही जम गई। ये वक़्त तो श्याम के आने का था। पिछले एक महीने से वह इसी समय आकर सुरेश को लेता था और शाम को वापस छोड़कर चाय पीता हुआ अपने घर चला जाता था। ये सिलसिला अभी अगले कई महीनों तक चलने वाला था, कम-से-कम जब तक सुरेश का टूटा हुआ हाथ फिर से सही से काम करने लायक नहीं हो जाता। वैसे भी जब हाथ सही था तब भी सुरेश कौन-सा काम सही तरीके से कर ही पाते थे कि अब उनसे कुछ करने की उम्मीद की जाए; पर अब तो उनके पास एक; पर मानेंट बहाना भी आ गया था अपने लाचार होने का। ऐसे में हमारे घर की दो गली बाद रहने वाला श्याम ही आगे आया। हमारे घर उसका आना-जाना तो पहले से ही था, सो ऐसी घड़ी में उसने सुरेश का बोझ ढोने का प्रस्ताव भी ख़ुद ही रख दिया था।
मुझे हमेशा की तरह किसी का अहसान लेने की आदत नहीं थी इसलिए एक झिझक के साथ मैंने उसका प्रस्ताव खारिज़ करना चाहा था; पर उसके इसरार और सुरेश के चिल्लाने के चलते मैं चुप लगा गई। मेरा उतरा चेहरा देखकर श्याम ने माहौल हल्का करने के लिए कह दिया था...अच्छा भाई ठीक है, मेरी इस सेवा के बदले तुम रोज़ मुझे शाम की चाय पिला दिया करना। कम-से-कम घर में माँ को भी मेरी एक कप चाय बनाने से मुक्ति मिलेगी। उसके कहने का अंदाज़ कुछ ऐसा था कि मैंने भी 'हाँ' में गर्दन हिला दी...और तब से यही रोज़ का सिलसिला हो गया।
मुझे कभी-कभी सुरेश और श्याम की उस तथाकथित दोस्ती की बात सोचकर हैरानी होती थी। कहाँ सुरेश, कहाँ श्याम...ज़मीन-आसमान भी नहीं...पाताल और आकाश जितना फ़र्क़ था दोनों में। एक तरफ़ अजीब-से हाव-भाव के साथ बातें करने वाले बदतमीज़ और भड़भड़िया क़िस्म के नकारा-से इंसान सुरेश...कहाँ इस उम्र में भी संयमित और मर्यादित रूप से रहने वाला श्याम। लम्बी-चौड़ी कदकाठी, गेंहुआ—सा सँवलाया रंग, घुँघराले बाल, सुतवा नाक, चेहरे पर अक्सर रहने वाली मंद-मंद मुस्कान...और आँखों में एक अजीब-सी शरारती, लेकिन मासूम-सी चमक वाले श्याम के आगे सुरेश किसी छिपकली-सा दिखते थे। शारीरिक-संरचना पर न भी जाओ तो भी अपनी हरकतों से वह मन में एक गिनगिनाहट—सी पैदा कर देते थे। चेहरे पर हमेशा एक अश्लीलता-सी ओढ़े रहने वाले सुरेश बिना वक़्त और माहौल देखे जब कुछ बेहूदा-सा बोल देते तो मेरा मन करता, उसी समय वहाँ से उठूँ और उनसे मीलों दूर निकल जाऊँ...; पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ...?
पापा ने शादी के बाद विदा करते समय गले तो नहीं लगाया; पर इतना ज़रूर कह दिया था कि अगर एक मेहमान की तरह मैं अपने मायके आई तो पूरा सत्कार होगा; पर अगर कभी किसी भी कारण से एक शरणार्थी के रूप में मैंने वहाँ आश्रय पाने की उम्मीद की तो वे ख़ुद घर के दरवाज़े हमेशा के लिए मेरे मुँह पर बंद कर देंगे। माँ ने भी आँसू भरी ख़ामोश आँखों के साथ पापा की बात में अपनी सहमति जताई थी। उन्होंने मेरे लिए फिलहाल घर के दरवाज़े भले ही खुले रखे होंगे, अपने दिल का दरवाज़ा उन सबके लिए मैं उसी पल बंद कर आई थी। पढ़ाई भी तो कुछ ऐसी नहीं करवाई गई मेरी कि ख़ुद कमा-खा सकूँ।
अपने सारे परिचितों के बीच लोकप्रिय इस श्याम से अपनी दोस्ती की बाबत एक बार सुरेश ने ही बताया था। बचपन से एक ही इलाके में होने के कारण हाय-हैलो तक का परिचय तो हमेशा से था; पर एक जगह काम करने के बावजूद घनिष्ठ मित्रता कभी नहीं रही। वह तो हमारी शादी के बाद एक-दो बार जब सुरेश ने ही मुलाक़ात होने पर उसे घर इनवाइट किया, तबसे वह घुल-मिल गया। बहरहाल, जो भी हो, श्याम से दोस्ती होने पर कहीं-न-कहीं सुरेश भी इतराते ही थे। अब जबसे उनका एक्सीडेंट हुआ, तबसे तो श्याम का रोज़ सुबह-शाम का आना-जाना हो गया। उसके कुछ देर के आ जाने से घर चहल-पहल से भर उठता था। मैं भी कुछ पल अच्छे से किसी से बोल-बतिया पाती थी...वरना आसपास की बाल-बच्चेदार औरतों के बीच दो साल बाद भी सूनी गोद वाली मैं तो बस गॉसिप का ही मसला थी। सामने भले न कोई कुछ कहे; पर लोगों के हाव-भाव से अंदाज़ा तो हो ही जाता है न।
श्याम अक्सर अपने घर-परिवार, बचपन और कॉलेज की बातें बताया करता था। उसने तो ये भी बताया कि उसके पैदायशी घुँघराले बालों और साँवले रंग की वज़ह से दादी ने उसका नाम 'श्याम' रख दिया था...पर बाद में उसकी शरारतों से आजिज़ आकर उन्होंने कहा भी था...अगर जानत होते कि श्याम जैसो नटखट भी होइए तो कबहूँ श्याम न बुलौवते। मेरे मुँह से पता नहीं किस झोंके में निकल गया था...कान्हा की तरह साँवले तो नहीं हैं, गेहुँएँ हैं...पर उनकी तरह मनमोहक ज़रूर हैं। कहते ही मुझे अहसास हो गया था...शायद अपनी मर्यादा से बाहर की बात बोल गई मैं...जाने अब वह मेरे बारे में क्या सोच लेगा। कहीं चरित्र का ख़राब समझ लिया तो...?
कई दिनों तक मैं एक अपराधबोध से ग्रसित रही थी। इतने जतन से मैंने अपनी सीमा-रेखा बनाकर रखी थी आज तक...खुद ही उसे कैसे लाँघ गई... ? बार-बार अपने चरित्र पर उठने वाली उसकी उँगली की कल्पना मुझे रुला-सा देती। मैं उसके सामने आने से बचने लगी थी। वह शायद मेरी मनस्थिति भाँप गया था, तभी तो एक दिन सुरेश को गाड़ी में बैठा पानी पीने के बहाने वह वापस आ गया था।
इतना गिल्ट में क्यों हो...? तुमने तो मेरी तारीफ़ की थी उस दिन...और तुम कोई पहली थोड़े न हो जिसने इस तरह का कॉम्प्लीमेंट दिया है मुझे। कॉलेज टाइम में जाने कितनी लड़कियाँ मरती थीं मुझ; पर ...पर आज तक मुझे किसी की तारीफ़ से इस तरह ख़ुशी मिली ही नहीं, जितना तुम्हारे मुँह से सुनकर अच्छा महसूस हुआ था।
सुरेश का दोस्त होने के नाते मैं शुरू से उसे 'आप' कहती थी और छोटी होने के कारण वह मुझे 'तुम' कहकर ही बुलाता। आज तक तो कभी ध्यान नहीं दिया; पर पता नहीं उसकी बातों से मेरा गिल्ट कम हुआ या फिर कोई और वज़ह थी, उस दिन उसके इस तरह 'तुम' कहकर बात करना बेहद भला लगा। मानों अनजानों से भरी इस दुनिया में कहीं कोई अपना दिख जाए... ।
उस दिन के बाद से हम फिर पहले की तरह बोलने-बतियाने लगे थे। अब तो अक्सर वह मर्यादा के दायरे में रहता हुआ मुझसे मज़ाक भी करने लगा था। उसकी चुटकी लेने पर मैं पता नहीं क्यों शरमा भी जाती और हल्का-सा घबरा भी जाती। ऐसे में अक्सर चोर निगाहों से मैं सुरेश की ओर भी देख लेती...कभी वह न उखड़ जाएँ...; पर जाने सुरेश को इस तरह के सहज हास्य की समझ नहीं थी या उन्हें; पर वाह नहीं थी, मैं समझ नहीं पाती थी। सुरेश का तो पता नहीं; पर इतना ज़रूर था कि उस माहौल को मैं एन्जॉय करने लगी थी।
सब कुछ तो अच्छा चल रहा था न...फिर आज का वह सपना...? मैं बार-बार उसमें देखा चेहरा याद करने की कोशिश कर रही थी; पर यादों में तो वह अनोखा-सा अहसास ही बस गया था। चेहरा तो धुंधला-सा था। हारकर मैंने सब भुलाने का बहुत प्रयास किया; पर ये भी मेरे बस में नहीं था। अच्छा लगने के बावजूद अब मैं जितना उस सपने से दूर छिटकने की कोशिश करती, उतना ही वह किसी जिद्दी बच्चे—सा आकर मुझसे चिपट जाता। चेहरा याद न होने के बावजूद पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था, श्याम ही आया था मेरे उस सपने में...पर क्यों और कैसे...? मैं तो कभी उसके बारे में नहीं सोचती...कभी किसी ग़लत भावना से उसको देखा भी नहीं...खुद कभी उसके साथ की चाह नहीं की...फिर...?
सुरेश के लाख चिल्लाने के बावजूद मैंने दरवाज़ा नहीं खोला था। हारकर भुनभुनाते हुए वह ख़ुद ही बाहर निकल गए और हमेशा की सतर्क रहने वाली मैं बिना दरवाज़ा बंद करने की; पर वाह किए सीधा बाथरूम में घुस गई। उस दिन की तरह श्याम पानी पीने के बहाने फिर अन्दर आ गया तो...?
शावर के नीचे मैं कपड़ों समेत ही खड़ी हो गई। सुना है ऐसे बहते पानी के साथ मन के ऐसे विचार भी कहीं दूर बह जाते हैं; पर ऐसा कुछ होता महसूस नहीं हो रहा था...उलटा शावर से गिरती बूँदें मुझे ही बहाती हुई उसी वादी में ले गईं जहाँ से शायद मैं कभी वापस आना ही नहीं चाहती थी।
मुझे किसी तरह से चैन नहीं मिल रहा था। शादीशुदा हूँ मैं, ऐसे सपने कैसे देख सकती थी? मेरे अन्दर का गिल्ट बढ़ने लगा था। किससे पूछूँ, किससे कहूँ मन की ये बात...? जानती थी कि जो भी सुनेगा, मुझे ही ग़लत समझेगा। श्याम के साथ मेरे हँसने-बोलने को लेकर अटकलें लगेंगी और हर इंसान बिना आग के भी धुआँ देखने का दावा भी करेगा। जिसने भी सुरेश को देखा है, उसे तो पक्का यक़ीन हो जाएगा कि कहीं कुछ तो है। श्याम का क्या है, वह तो मर्द था...उस पर उँगली कौन उठाएगा भला...? बल्कि सबको यही लगेगा कि मैंने उसे फँसाया है।
वक़्त कैसे बीत रहा था, इसका अहसास भी नहीं था मुझे। नहीं पता कि अपने अन्दर के बेइंतिहा गिल्ट के कारण या फिर घंटों उसी तरह गीले कपड़ों में बैठने की वज़ह से शाम होते-होते मैं बुखार से बेसुध हो चुकी थी। दरवाज़े की लगातार चीखती घंटी से दिमाग़ हल्का सजग तो हुआ; पर दरवाज़ा खोलने के बाद का मुझे कुछ याद नहीं रहा। किसने मुझे अन्दर लाकर बिस्तर पर लिटाया, डॉक्टर कैसे घर आया और कौन दवा खाने के पहले इसरार करके चम्मच-चम्मच भरके मुझे खिचड़ी खिला गया...सब कुछ सुबह के उसी सपने की तरह धुँधलाया हुआ था।
दवा खाकर शायद मैं गहरी नींद सो गई... । शायद एक और सपना था; पर इस बार एकदम साफ़...जैसे मैं सचमुच थी उस जगह। समुद्र के बीचों-बीच एक सुनसान टापू पर निपट अकेली...दूर-दूर तक पानी की नहीं, बल्कि सुलगती आग की लहरें हवा बेहद सकून-भरी थी। उसने मेरा हाथ थामा था...बिलकुल हौले से; पर फिर भी किसी भी क्षण अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने को तैयार। हम उस छोटी—सी पहाडी पर थे। हमारे पीछे दूर तक फैला हरा-भरा मैदान था और नीचे की घाटी में मानो रंग-बिरंगे फूलों का गलीचा बिछा हो। मनोरम हवा में लाख सँवारने के बावजूद कोई न कोई आवारा लट मेरे गालों पर आ ही जाती थी...और लट भी इतनी बेशर्म कि उसके तरफ़ वाले गाल पर ही इतराहट दिखाने से बाज नहीं आ रही थी। आसमान में बेपरवाह घूमते बादलों ने अपनी हल्की-हल्की बौछारों में हमको भिगोने में कोई शर्म नहीं की थी। थोड़ी कँपकँपी के बावजूद बहुत अच्छा लग रहा था। मैं अपने सामने के नज़ारों को अपनी आँखों में भर रही थी और वो...वो तो उन सब से अनजाना-सा, बस मुझे ही घूँट-घूँट अपनी रूह तक उतारे जा रहा था। अचानक हवा इतनी तेज़ हुई कि मुझे लगा, मैं उड़ती हुई हजारों फ़ीट नीचे पहुँच फूलों के कफ़न में जा लिपटूँगी। घबराहट में मैं उसी से चिपट गई और उसने भी उतने ही प्यार से मुझे अपने करीब कर लिया। जाने क्या बात थी उसके आगोश में कि मुझे लगा, सारी ज़िंदगी बस यूँ ही बीत जाए... । मुझे अन्दर से महसूस हो रहा था, उन बाँहों के बीच रहते हुए कोई मेरा बाल भी बाँका नहीं कर पाएगा।
सहसा लगा, मेरे बिलकुल बगल से कोई ट्रेन सीटी बजाती निकल गई हो...और चौंककर मेरी आँखें खुल गईं। सिरहाने रखे अलार्म की चीख को एक भरपूर हाथ मारते हुए मैंने जल्दी से बंद तो कर दिया; पर मैं अभी भी भ्रम की स्थिति में थी जैसे। मैंने वापस आँखें बंद कर लीं, मानो आँखें मूँद लेने भर से मैं उसी दुनिया में वापस पहुँच जाऊँगी...उसी के सकून भरे आगोश में...जहाँ कुछ भी बुरा नहीं हो सकता...और फिर मेरे बगल में लेटे इस लिजलिजे-से इंसान का अस्तित्व ही नहीं होगा; पर ऐसा होता है भला...? दिल चाह रहा था, कुछ पल के लिए ही सही, वह दुनिया वापस मिल जाए; पर दिमाग़ ने मेरे अन्दर कुछ कोंचना शुरू कर दिया था। उठ जाओ... वरना सारा शेड्यूल गड़बड़ा जाएगा और साथ ही तुम्हारा पूरा दिन भी।
उठकर सारा काम निपटाते हुए भी मेरा मन मेरे साथ था ही नहीं। अगर दो सालों की गृहस्थी चलाने का अभ्यास न होता तो शायद मैं चाय में नमक डालती और सब्जी में चीनी...पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं एक रोबोट की तरह सब करती जा रही थी। सुरेश कब क्या कह रहे थे, क्या पूछ रहे थे...जवाब देने के अगले पल में भी मुझे कुछ याद नहीं था। मुझे तो ये भी नहीं समझ आया कि मेरी उँगली किस चीज से और कैसे जली। याद था तो वह पहाड़ी...घास का मैदान...फूलों की घाटी और...उसका आगोश।
घड़ी ने नौ बजा दिया था और उसके साथ ही दरवाज़े की घंटी भी बज गई। रोज़ तुरंत जाकर दरवाज़ा खोल देने वाली मैं उस पल पता नहीं क्यों अपनी जगह पर ही जम गई। ये वक़्त तो श्याम के आने का था। पिछले एक महीने से वह इसी समय आकर सुरेश को लेता था और शाम को वापस छोड़कर चाय पीता हुआ अपने घर चला जाता था। ये सिलसिला अभी अगले कई महीनों तक चलने वाला था, कम-से-कम जब तक सुरेश का टूटा हुआ हाथ फिर से सही से काम करने लायक नहीं हो जाता। वैसे भी जब हाथ सही था तब भी सुरेश कौन-सा काम सही तरीके से कर ही पाते थे कि अब उनसे कुछ करने की उम्मीद की जाए; पर अब तो उनके पास एक; पर मानेंट बहाना भी आ गया था अपने लाचार होने का। ऐसे में हमारे घर की दो गली बाद रहने वाला श्याम ही आगे आया। हमारे घर उसका आना-जाना तो पहले से ही था, सो ऐसी घड़ी में उसने सुरेश का बोझ ढोने का प्रस्ताव भी ख़ुद ही रख दिया था।
मुझे हमेशा की तरह किसी का अहसान लेने की आदत नहीं थी इसलिए एक झिझक के साथ मैंने उसका प्रस्ताव खारिज़ करना चाहा था; पर उसके इसरार और सुरेश के चिल्लाने के चलते मैं चुप लगा गई। मेरा उतरा चेहरा देखकर श्याम ने माहौल हल्का करने के लिए कह दिया था...अच्छा भाई ठीक है, मेरी इस सेवा के बदले तुम रोज़ मुझे शाम की चाय पिला दिया करना। कम-से-कम घर में माँ को भी मेरी एक कप चाय बनाने से मुक्ति मिलेगी। उसके कहने का अंदाज़ कुछ ऐसा था कि मैंने भी 'हाँ' में गर्दन हिला दी...और तब से यही रोज़ का सिलसिला हो गया।
मुझे कभी-कभी सुरेश और श्याम की उस तथाकथित दोस्ती की बात सोचकर हैरानी होती थी। कहाँ सुरेश, कहाँ श्याम...ज़मीन-आसमान भी नहीं...पाताल और आकाश जितना फ़र्क़ था दोनों में। एक तरफ़ अजीब-से हाव-भाव के साथ बातें करने वाले बदतमीज़ और भड़भड़िया क़िस्म के नकारा-से इंसान सुरेश...कहाँ इस उम्र में भी संयमित और मर्यादित रूप से रहने वाला श्याम। लम्बी-चौड़ी कदकाठी, गेंहुआ—सा सँवलाया रंग, घुँघराले बाल, सुतवा नाक, चेहरे पर अक्सर रहने वाली मंद-मंद मुस्कान...और आँखों में एक अजीब-सी शरारती, लेकिन मासूम-सी चमक वाले श्याम के आगे सुरेश किसी छिपकली-सा दिखते थे। शारीरिक-संरचना पर न भी जाओ तो भी अपनी हरकतों से वह मन में एक गिनगिनाहट—सी पैदा कर देते थे। चेहरे पर हमेशा एक अश्लीलता-सी ओढ़े रहने वाले सुरेश बिना वक़्त और माहौल देखे जब कुछ बेहूदा-सा बोल देते तो मेरा मन करता, उसी समय वहाँ से उठूँ और उनसे मीलों दूर निकल जाऊँ...; पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ...?
पापा ने शादी के बाद विदा करते समय गले तो नहीं लगाया; पर इतना ज़रूर कह दिया था कि अगर एक मेहमान की तरह मैं अपने मायके आई तो पूरा सत्कार होगा; पर अगर कभी किसी भी कारण से एक शरणार्थी के रूप में मैंने वहाँ आश्रय पाने की उम्मीद की तो वे ख़ुद घर के दरवाज़े हमेशा के लिए मेरे मुँह पर बंद कर देंगे। माँ ने भी आँसू भरी ख़ामोश आँखों के साथ पापा की बात में अपनी सहमति जताई थी। उन्होंने मेरे लिए फिलहाल घर के दरवाज़े भले ही खुले रखे होंगे, अपने दिल का दरवाज़ा उन सबके लिए मैं उसी पल बंद कर आई थी। पढ़ाई भी तो कुछ ऐसी नहीं करवाई गई मेरी कि ख़ुद कमा-खा सकूँ।
अपने सारे परिचितों के बीच लोकप्रिय इस श्याम से अपनी दोस्ती की बाबत एक बार सुरेश ने ही बताया था। बचपन से एक ही इलाके में होने के कारण हाय-हैलो तक का परिचय तो हमेशा से था; पर एक जगह काम करने के बावजूद घनिष्ठ मित्रता कभी नहीं रही। वह तो हमारी शादी के बाद एक-दो बार जब सुरेश ने ही मुलाक़ात होने पर उसे घर इनवाइट किया, तबसे वह घुल-मिल गया। बहरहाल, जो भी हो, श्याम से दोस्ती होने पर कहीं-न-कहीं सुरेश भी इतराते ही थे। अब जबसे उनका एक्सीडेंट हुआ, तबसे तो श्याम का रोज़ सुबह-शाम का आना-जाना हो गया। उसके कुछ देर के आ जाने से घर चहल-पहल से भर उठता था। मैं भी कुछ पल अच्छे से किसी से बोल-बतिया पाती थी...वरना आसपास की बाल-बच्चेदार औरतों के बीच दो साल बाद भी सूनी गोद वाली मैं तो बस गॉसिप का ही मसला थी। सामने भले न कोई कुछ कहे; पर लोगों के हाव-भाव से अंदाज़ा तो हो ही जाता है न।
श्याम अक्सर अपने घर-परिवार, बचपन और कॉलेज की बातें बताया करता था। उसने तो ये भी बताया कि उसके पैदायशी घुँघराले बालों और साँवले रंग की वज़ह से दादी ने उसका नाम 'श्याम' रख दिया था...पर बाद में उसकी शरारतों से आजिज़ आकर उन्होंने कहा भी था...अगर जानत होते कि श्याम जैसो नटखट भी होइए तो कबहूँ श्याम न बुलौवते। मेरे मुँह से पता नहीं किस झोंके में निकल गया था...कान्हा की तरह साँवले तो नहीं हैं, गेहुँएँ हैं...पर उनकी तरह मनमोहक ज़रूर हैं। कहते ही मुझे अहसास हो गया था...शायद अपनी मर्यादा से बाहर की बात बोल गई मैं...जाने अब वह मेरे बारे में क्या सोच लेगा। कहीं चरित्र का ख़राब समझ लिया तो...?
कई दिनों तक मैं एक अपराधबोध से ग्रसित रही थी। इतने जतन से मैंने अपनी सीमा-रेखा बनाकर रखी थी आज तक...खुद ही उसे कैसे लाँघ गई... ? बार-बार अपने चरित्र पर उठने वाली उसकी उँगली की कल्पना मुझे रुला-सा देती। मैं उसके सामने आने से बचने लगी थी। वह शायद मेरी मनस्थिति भाँप गया था, तभी तो एक दिन सुरेश को गाड़ी में बैठा पानी पीने के बहाने वह वापस आ गया था।
इतना गिल्ट में क्यों हो...? तुमने तो मेरी तारीफ़ की थी उस दिन...और तुम कोई पहली थोड़े न हो जिसने इस तरह का कॉम्प्लीमेंट दिया है मुझे। कॉलेज टाइम में जाने कितनी लड़कियाँ मरती थीं मुझ; पर ...पर आज तक मुझे किसी की तारीफ़ से इस तरह ख़ुशी मिली ही नहीं, जितना तुम्हारे मुँह से सुनकर अच्छा महसूस हुआ था।
सुरेश का दोस्त होने के नाते मैं शुरू से उसे 'आप' कहती थी और छोटी होने के कारण वह मुझे 'तुम' कहकर ही बुलाता। आज तक तो कभी ध्यान नहीं दिया; पर पता नहीं उसकी बातों से मेरा गिल्ट कम हुआ या फिर कोई और वज़ह थी, उस दिन उसके इस तरह 'तुम' कहकर बात करना बेहद भला लगा। मानों अनजानों से भरी इस दुनिया में कहीं कोई अपना दिख जाए... ।
उस दिन के बाद से हम फिर पहले की तरह बोलने-बतियाने लगे थे। अब तो अक्सर वह मर्यादा के दायरे में रहता हुआ मुझसे मज़ाक भी करने लगा था। उसकी चुटकी लेने पर मैं पता नहीं क्यों शरमा भी जाती और हल्का-सा घबरा भी जाती। ऐसे में अक्सर चोर निगाहों से मैं सुरेश की ओर भी देख लेती...कभी वह न उखड़ जाएँ...; पर जाने सुरेश को इस तरह के सहज हास्य की समझ नहीं थी या उन्हें; पर वाह नहीं थी, मैं समझ नहीं पाती थी। सुरेश का तो पता नहीं; पर इतना ज़रूर था कि उस माहौल को मैं एन्जॉय करने लगी थी।
सब कुछ तो अच्छा चल रहा था न...फिर आज का वह सपना...? मैं बार-बार उसमें देखा चेहरा याद करने की कोशिश कर रही थी; पर यादों में तो वह अनोखा-सा अहसास ही बस गया था। चेहरा तो धुंधला-सा था। हारकर मैंने सब भुलाने का बहुत प्रयास किया; पर ये भी मेरे बस में नहीं था। अच्छा लगने के बावजूद अब मैं जितना उस सपने से दूर छिटकने की कोशिश करती, उतना ही वह किसी जिद्दी बच्चे—सा आकर मुझसे चिपट जाता। चेहरा याद न होने के बावजूद पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था, श्याम ही आया था मेरे उस सपने में...पर क्यों और कैसे...? मैं तो कभी उसके बारे में नहीं सोचती...कभी किसी ग़लत भावना से उसको देखा भी नहीं...खुद कभी उसके साथ की चाह नहीं की...फिर...?
सुरेश के लाख चिल्लाने के बावजूद मैंने दरवाज़ा नहीं खोला था। हारकर भुनभुनाते हुए वह ख़ुद ही बाहर निकल गए और हमेशा की सतर्क रहने वाली मैं बिना दरवाज़ा बंद करने की; पर वाह किए सीधा बाथरूम में घुस गई। उस दिन की तरह श्याम पानी पीने के बहाने फिर अन्दर आ गया तो...?
शावर के नीचे मैं कपड़ों समेत ही खड़ी हो गई। सुना है ऐसे बहते पानी के साथ मन के ऐसे विचार भी कहीं दूर बह जाते हैं; पर ऐसा कुछ होता महसूस नहीं हो रहा था...उलटा शावर से गिरती बूँदें मुझे ही बहाती हुई उसी वादी में ले गईं जहाँ से शायद मैं कभी वापस आना ही नहीं चाहती थी।
मुझे किसी तरह से चैन नहीं मिल रहा था। शादीशुदा हूँ मैं, ऐसे सपने कैसे देख सकती थी? मेरे अन्दर का गिल्ट बढ़ने लगा था। किससे पूछूँ, किससे कहूँ मन की ये बात...? जानती थी कि जो भी सुनेगा, मुझे ही ग़लत समझेगा। श्याम के साथ मेरे हँसने-बोलने को लेकर अटकलें लगेंगी और हर इंसान बिना आग के भी धुआँ देखने का दावा भी करेगा। जिसने भी सुरेश को देखा है, उसे तो पक्का यक़ीन हो जाएगा कि कहीं कुछ तो है। श्याम का क्या है, वह तो मर्द था...उस पर उँगली कौन उठाएगा भला...? बल्कि सबको यही लगेगा कि मैंने उसे फँसाया है।
वक़्त कैसे बीत रहा था, इसका अहसास भी नहीं था मुझे। नहीं पता कि अपने अन्दर के बेइंतिहा गिल्ट के कारण या फिर घंटों उसी तरह गीले कपड़ों में बैठने की वज़ह से शाम होते-होते मैं बुखार से बेसुध हो चुकी थी। दरवाज़े की लगातार चीखती घंटी से दिमाग़ हल्का सजग तो हुआ; पर दरवाज़ा खोलने के बाद का मुझे कुछ याद नहीं रहा। किसने मुझे अन्दर लाकर बिस्तर पर लिटाया, डॉक्टर कैसे घर आया और कौन दवा खाने के पहले इसरार करके चम्मच-चम्मच भरके मुझे खिचड़ी खिला गया...सब कुछ सुबह के उसी सपने की तरह धुँधलाया हुआ था।
दवा खाकर शायद मैं गहरी नींद सो गई... । शायद एक और सपना था; पर इस बार एकदम साफ़...जैसे मैं सचमुच थी उस जगह। समुद्र के बीचों-बीच एक सुनसान टापू पर निपट अकेली...दूर-दूर तक पानी की नहीं, बल्कि सुलगती आग की लहरें मुझे निगलने को तैयार लपकी आ रही थीं। मैं चीखना चाहती थी, किसी को अपनी सहायता के लिए आवाज़ देना चाहती थी; पर उन अकेलेपन के लम्हों में मेरी आवाज़ ने भी मेरा साथ छोड़ दिया था। कोई कितना अकेला हो सकता है, उन खौलती लपटों के बीच भी मुझे पूरा अहसास हो रहा था।
उस गर्मी से तरबतर हो बेचैनी से भरी सहसा मेरी आँख खुली तो सामने चाय का कप लिए श्याम की माताजी थीं। सुरेश के बारे में पूछा तो पता चला, वह ऑफिस जा चुके थे। हाथ टूटने पर जिस इंसान की मैंने दिन-रात एक करके सेवा की, वह मेरे ऐसे बीमार पड़ने पर एक दिन की छुट्टी भी न ले सका। सुरेश का स्वभाव जानने के बावजूद अपनी किसी भी तकलीफ़ में जाने क्यों हमेशा एक क्षीण-सी आशा लगती थी कि वह मेरा थोड़ा—सा साथ तो दे ही देंगे; पर हमेशा मेरे दिल की तरह मेरी वह आशा भी टूट ही जाती थी।
मैं तो बेहतर महसूस करने लगी थी; पर मेरा मन अब भी वैसा ही था...शिथिल और बेचैन। बार-बार मुझे लग रहा था, मैंने मर्यादा की रेखा शायद दूसरे के लिए खींची थी, ख़ुद के लिए... अपने मन के लिए कोई लक्ष्मण-रेखा खींचने में मैं चूक गई थी।
रात गहरा चुकी थी। शाम का खाना श्याम की माताजी ही बनाके उसके साथ वापस चली गई थीं और मेरी तबीयत के कारण ही श्याम भी नहीं रुका था। खा-पीकर हमेशा की तरह सुरेश बिस्तर पर लेटते ही खर्राटे भरने लगे थे और मैं हलकी कमज़ोरी के बावजूद नींद को बुलाने के लिए खिड़की पर आकर खड़ी हो गई थी। बाहर आसमान पर खिले चाँद की चाँदनी मुझे भिगोती हुई मेरे हिस्से के बिस्तर पर जाकर सो गई थी। ऐसा लगा मानो उसी का हाथ थामे मेरा साया भी वहीं खड़ा हुआ हो।
कुछ देर खिड़की से पीठ सटाकर मैं उन दोनों को देखती रही। मुझे अच्छा लगने लगा; पर फिर कुछ ही पलों में जाने मुझे क्या हुआ कि मैंने खिड़की बंद की और अपने हिस्से के बिस्तर पर ख़ुद को बिखरा दिया। कमरे में न अब चाँदनी थी...न मेरा वह साया।
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