सारंगा / ममता व्यास
आज फिर उस बूढ़े ने समन्दर को हसरत भरी निगाहों से ताका और बोझिल कदम लिए सर झुका कर चल दिया। न जाने कितने बरसो से वो इसी तरह समन्दर किनारे आता है और बिन कुछ कहे सुने लौट जाता है। आती -जाती लहरें उस पर हंसती हैं और वो उन्हें दुःख से देखता है। उस बूढ़े के हुलिए से लगता है जैसे वो चार सौ साल का हो गया हो और न जाने कितने बरसों से वो यूँ ही भटकता है समन्दर किनारे न उसे मौत आती है न चैन...
अजीब सा हुलिया था उसका अजीब से कपड़े और अजीब से बाल, चेहरे कि झुर्रियां ऐसी मानो किसी पत्थर पर आयतें खुदी हों। गले में एक पुराना सा ताबीज लटकता था। उसके पास किस्से -कहानियों के अनमोल खजाने थे। अक्सर वो मन बहलाने को बस्ती चला जाता और बच्चों को कहानियां सुनाता। बस्ती के सभी बच्चे उसे बहुत प्यार करते हैं और कहानी सुनाने कि जिद करते।
आज भी वो थके कदमों से बस्ती जा पहुंचा हमेशा की तरह बच्चों ने आज फिर जलपरी की कहानी सुननी चाही। बूढा आज फिर टालना चाहता था लेकिन बच्चों ने जब जिद पकड़ ली तो कहने लगा।
"आज मैं तुम्हे जलपरी और मछुआरें की कहानी सुनाता हूँ।"
उसकी देह में गजब की बिजली भरी हुई थी पल भर में यहाँ से वहां उछल जाती थी उसकी आखें हिरनी जैसी थी इसलिए वो उसे मृगनयनी बुलाता था। जब वो हंसती तो उसके मुंह से मोती गिरते..."
" क्या वो परी थी” (एक जिज्ञासु बच्चे ने टोका )
"हाँ ...वो परी ही थी” (बूढ़े ने गहरी सांस ली )
"लेकिन परियां तो आसमान में होती है”(अब दूसरे बच्चे ने होशियारी दिखाई )
"हाँ होती तो आसमान में ही हैं बच्चों, लेकिन कभी -कभी कोई परी आसमान से उड़ते हुए समन्दर में गिर जाती है और फिर वो तैरने लगती है”
"परियां क्या जादूगरनी होती है? वो कहीं भी आ जा सकती है? इसका मतलब वो जरुर इमली के पेड़ वाली चुड़ैल की तरह होती होगी भूतनी हैं न?” (मुनिया डरते हुए बोली )
बच्चों की बात सुनकर बूढा हंस पड़ा और बोला” नहीं रे ..मुनिया वो भूतनी या चुड़ैल नहीं होती वो तो बहुत ही प्यारी होती हैं। हम इंसानों से भी अच्छी और सच्ची, अब बीच में मत बोलना (बूढ़े ने बच्चों का डांटा )
इतना कहकर बूढा न जाने किस गहरी याद में खो गया और कहानी सुनाने लगा या बनाने लगा।
बात बहुत पुरानी है आज से सौ साल समझ लो। तब भी इसी समन्दर के किनारे मछुआरों की बस्ती हुआ करती थी उन दिनों समंदर के किनारे सिर्फ मछुआरों की जागीर हुआ करते थे। कभी -कभार शहर के लोग या अंग्रेज अपनी छुट्टियाँ बिताने आते थे। इस बस्ती के मछुआरे उन मेहमानों को खुश करने के लिए तरह -तरह की मछलियाँ पकड़ा करते थे। उन दिनों एक ही धंधा हुआ करता था मछली पकड़ना या समन्दर की तलहटी से बेशकीमती मोती खोजना और बेचना।
इस बस्ती में एक नौजवान रहता था। नाम था सारंगा,बस्ती के सभी लोग सारंगा को बहुत प्यार करते थे क्योकि उसका का दुनिया में कोई नहीं था। पिछले बरस एक तूफ़ान में उसका पूरा परिवार समंदर में डूब गया था।
तब से वो अकेला ही अपनी झोपड़ी में रहता था। सारंगा बचपन से ही बहुत तेज दिमाग का बच्चा था। उसकी मीठी आवाज और हंसमुख चेहरे से कोई भी पहली बार में ही प्रभावित हो जाता था।
अपनी जिज्ञासु और सीखने की प्रवृत्ति चलते उसने बुजुर्ग मछुआरों से जाल फेंकना और मछली पकड़ने का हुनर उसने कम उमर में ही सीख लिया था।उसमे समन्दर की तलहटी में जाकर बेशकीमती मोती खोजने का हुनर भी उसने पाया था। अक्सर वो ऐसे लोगों से घिरा भी रहता था जो उसकी प्रशंसा करते थे । उसे पूरी बस्ती का प्यार मिलता था और वो भी बस्ती के लोगो को बहुत प्यार करता था।
वो अपने काम में बहुत कुशल था। सारी बस्ती उसकी कुशलता का लोहा मानती थी। वो जब समन्दर में जाल फेंकता था तो कभी भी जाल खाली नहीं आता था। समन्दर में जाल डाल कर सारंगी की धुन छेड़ देना और दूसरी दुनिया में खो जाना उसकी अनोखी अदा थी। सारंगी की धुन सुन कर समन्दर की मछलियाँ मंत्रमुग्ध सी किनारे पे आ जाती और उसके जाल में फंस जाती थी। थोड़ी देर बाद वो सारंगी बजाना बंद करता और गर्व से मुस्कुराते हुए अपना जाल समेटता और चलता बनता। अन्य मछुआरे सारा -सारा दिन किनारे पे जाल बिछाए रखते लेकिन एक भी मछली उनके जाल में नहीं आती थी। उसकी इस जीत पे सभी बस्ती के मछुआरे मन ही मन जलते थे। लेकिन पीठ पीछे उसके हुनर की तारीफ़ भी किया करते थे। सारंगी वादक मछुआरा सिर्फ संगीत का जानकर ही नहीं था उसमे और भी कई सारे हुनर थे जिनकी वजह से बस्ती के अन्य मछुआरों से सर्वश्रेष्ट था।
समंदर किनारे आने वाले विदेशी पर्यटकों से उसने कई सारी भाषाएँ सीखी थी। उसे किस्से कहानियाँ याद थे और जब वो कोई कहानी या किस्सा सुनाता तो लोग उसकी आवाज और अंदाज के दीवाने हो जाते। उसमे अजनबियों को अपना बना लेने का हुनर था। एक तरह से वो बहुरुपिया था उसके कई विविध रूप थे अपने लाभ के लिए वो कोई भी रूप बदल लेता था । और उसे अपनी इस अदा पे बड़ा अभिमान था और वो अपनी कला पे आत्ममुग्ध रहता था।
जैसे समंदर की मछलियों पे उसका एकाधिकार हो गया था ऐसे ही वो लोगों के दिलो पे भी एकाधिकार चाहता था। उसे मछलियों का कारोबार करते हुए बरसो गुजर गए थे।
बस्ती वालों का प्यार मिलने व् सम्मान मिलने पर भी उसके मन में न जाने क्यों हमेशा एक अजीब सी बैचनी बनी रहती थी। उसे कभी समझ नहीं आता था आखिर उसे क्या चाहिए उसके भीतर हमेशा एक असंतोष और अतृप्ति का भाव कायम रहता था। अपने परिवार को खोने का गम भी उसके दुःख की एक वजह थी और एक वजह थी उसका अपना अजीब सा स्वभाव दिनभर हँसी मजाक और प्यार लुटाने वाला सारंगा समन्दर किनारे आकर अक्सर उदास हो जाता था।
वो जब भी बहुत उदास होता अपनी झोपड़ी से सारंगी उठा लाता और एक दर्द भरी धुन बजाता। लेकिन ये धुन भी अधूरी ही आती थी उसे वो उसे कभी पूरी नहीं कर सका था।
आज फिर जब वो दर्द से भर गया तो सारंगी उठा लाया। अभी उसने बजाना शुरू ही किया”सा नि ध नि सां सारे, सा नि ध प.....”
उसे ऐसा लगा कोई उसके साथ साथ गा रहा है लेकिन दूर- दूर तक कहीं कोई इंसान नहीं था न कोई पेड़ न पंछी।
उसे वहम हुआ होगा। उसने फिर बजाया” सा नि ध नि सा, सा रे सा नि ध प .....”
अबकी बार फिर कोई गा रहा था उसने सारंगी बजाना बंद कर दिया और आवाज पकड़ने की कोशिश करने लगा।
तभी मधुर आवाज गूंजी
“ बजाओ, बंद क्यों कर दिया?”
“कौन हो?”
मछुआरे ने सारंगी बजाना बंद कर दिया और उस आवाज को सुनने की कोशिश करने लगा। तभी समन्दर का पानी जोर से हिला एक मिनिट तक शान्ति रही लेकिन अगले ही पल समन्दर में से छपाक की आवाज के साथ एक सुन्दर आकृति निकली जिसकी गुलाबी देह पानी में भीगी हुई थी उसके लम्बे सुनहरे बाल पानी में दूर तक तैर रहे थे। और उसकी दो नीली गहरी आखें थी और गाल गुलाबी जिन्हें देख कर लगता था गुलाबी धरती पे दो नीले समन्दर उगे हो। और खूबसूरत दो बाहें जिनके सहारे वो तैर रही थी।
मछुआरें ने समन्दर में हजारों प्रकार की मछलियाँ देखी थी बरसों से वो मछलियों का कारोबार कर रहा था। समन्दर में कई बार डूबती तैरती लाशें भी दिख जाती थी लेकिन ऐसी बोलने वाली जीती - जागती स्त्री देख कर वो मन ही मन डर गया उसे लगा आया तो ये कोई कोई चुड़ैल है या उसने कल रात ज्यादा ही अफीम खा ली होगी जो अभी तक नशा नहीं उतरा। वो बेहोश होने को था कि उसने फिर मीठी आवाज में कहा
“ बजाओ न ये बाजा”
" ये बाजा नहीं सारंगी है” (उसे जैसे होश आया )
यहाँ इतने गहरे समन्दर में क्या कर रही हो आओ ऊपर नहीं तो डूब जाओगी, मर जाओगी “ कहकर सारंगा ने हाथ बढ़ा दिया।
जवाब में वो जोर से हंस पड़ी उसके हंसते ही समन्दर की सभी लहरें भी हंस पड़ी
“ मैं डूबने से नहीं बाहर आने से मरूंगी”
इतना कहकर उसने छपाक से समन्दर में गोता लगाया और गायब हो गयी। अगले ही पल वो दूसरी जगह से उछली और मछली की तरह पानी पे तैरने लगी।।मछुआरे ने अपना सर पकड़ा और बैठ गया उसे इस तरह परेशान होते देख वो फिर हंसी” क्यों डर गए? देखो मैं डूब नहीं सकती”
अब मछुआरे ने ध्यान से देखा वो चंचल खूबसूरत स्त्री की देह आधी मछली की तरह बनी थी।
" ओह ये क्या बला है, डायन, जादूगरनी या कुछ और .." (उसका सर चकराया )
" डरो, नहीं मैं जलपरी हूँ। समन्दर में रहती हूँ। तुम्हारी मीठी धुने सुनकर हजारों मछलियाँ सम्मोहित होकर तुम्हारे पास आती है। मैं कभी नहीं आई लेकिन आज तुमने जो दर्द भरी धुन बजायी तो खुद को रोक नहीं सकी”
" न जाने इस धुन में कैसा आकर्षण था, मुझे ऐसा लगा ये तुम मेरे लिए ही बजा रहे हो, क्या तुम उसे पूरा बजाओगे मेरे लिए”..( उसने मनुहार की )
" हाँ, जरुर मछुआरें ने सारंगी उठाई और बजाने लगा” सा नि ध नीं सां, सारे सानी धप ...."
" बस ...मुझे इसके आगे नहीं आती ये अधूरी है बरसों से मैं इसे अधूरी ही बजाता हूँ इसे मैंने कब सीखा पता नहीं”
" जरा फिर से तो बजाओ”
" सा नी ध नी सां, सारे सां नी ध प ...." (मछुआरा उदास हो गया )
" मग मरे गम पग मरे सा, सानी धप मग मरे सा ..." ( लो ये पूरी हो गयी जलपरी चहकी )
" अरे ..ये तो कमाल हो गया ये तुमने कब सीखी?” (वो हैरान और बहुत खुश था )
" पता नहीं बस आती है ये भी आधी ही आती थी मुझे, आज जब तुम्हे बजाते सुना तो इसे पूरा करने चली आई”
" तुम तो बहुत मीठा गाती हो और गाते हुए कितनी सुन्दर दिखती हो” (मछुआरें की आखें उसके चेहरे पर गड गयी )
" मैं तुम्हे मृगनयनी पुकारूँ?”
" हाँ, और मैं तुम्हे क्या पुकारूँ? (जलपरी ने सवाल किया )
" सारंगा” (मछुआरे ने जवाब दिया )
"सारंगी बजाते हो इसलिए ये नाम रख दिया”
"नहीं ..सारंगी बजाने वाले को सारंगिया कहते है मेरा नाम सारंगा है” (मछुआरे ने ज्ञान दिया )
"ओह फिर तुम्हारे नाम का क्या मतलब है”?
" बस्ती के लोग कहते है कि मैं एक छोटी सी नाव में बहता हुआ कहीं से आ गया था फिर किसी मछुआरें के परिवार ने मुझे पाला। सारंगा मतलब छोटी सी नाव, इसलिए मेरा नाम सारंगा है”।
" मतलब ..तुम भी मेरी तरह निष्काषित हो, ठुकराए गए या त्यागे गए” (जलपरी जोर जोर से हंसने लगी )
" अजीब हो तुम दुःख की, रोने की हर बात पे तुम जोर जोर से हंसती हो। तुम्हे कभी कोई दुःख नहीं सताता?"
" सताता है न लेकिन मेरी खतरनाक हंसी सुनकर भाग जाता है”
( इस बात पे दोनों हंसने लगे )
मैं तुम्हे सारंगा नहीं अनपढ़ मछुआरा पुकारूंगी”
" क्यों? बताओ? सारंगा ने बुरा सा मुंह बनाया
"आज नहीं अगली बार,अब मुझे जाना होगा" जलपरी जाने लगी
'सुनो ...कब आओगी?"
"जल्दी ही विदा अब”
आज मछुआरा मछली पकड़ना ही भूल गया था उस जलपरी के बातों में न जाने क्या जादू था उसका सारा दुःख दर्द ही दूर हो गया था।
आज वो बहुत खुश था उसे इस वीरान टापू पे पहली बार कोई साथी मिला था जो उसकी बात समझा और सुन सका था। उसकी बरसों की अधूरी पड़ी धुन आज पूर्ण हो गयी थी। आज उसे अजीब सा सुकून मिला जैसे कोई बरसों की आस आज पूरी हुई थी। वो जलपरी के ख्यालों में खो गया सोचने लगा।
पहली मुलाकात में इतनी बातें मैंने आजतक किसी से नहीं की थी।
वो दोनों अब रोज मिलने लगे, उन दोनों की बातें बड़ी अजीब किस्म के होती थी न प्रेम न देह न ज्ञान न विज्ञानं बस वो दोनों एक दूजे के साथ बहते थे अपनी कल्पनाओं कि लहरों पे। उनकी बातों में हजारों किस्से होते थे कहानियां और उन्ही बातों के बीच वो अपने मन के अहसास भी घोल देते थे। दोनों नहीं जानते थे उनका क्या रिश्ता था लेकिन वो बस मिलते थे दोनों एकदूजे से मिलकर खुद को खोजते कभी खुद को खो देते थे। वो दोनों बहुत खुश थे।
जलपरी का दुनिया में कोई नहीं थी वो समन्दर को ही अपना सबकुछ मानती थी उन्हें ही बाबा पुकारती थी। आज उसने अपने दिल का हाल समन्दर बाबा से कह दिया।
" बाबा उसका नाम सारंगा है पर मैं उसे अनपढ़ मछुआरा कहती हूँ। वो मेरी तरह ही है बिलकुल पागल”
समंदर ने आह भरी” ओह क्या तुम किसी इन्सान से मिली हो? ये इन्सान किसी के सगे नहीं होते, इनके पास शातिर दिमाग होता है। सभी छल -बल होते हैं। ये अपनी जिन्दगी में जब बहुत दुखी होते है तो नदी, पहाड़, समंदर पे पनाह लेते हैं और जब इनका मन भर जाता है तो वापस चले जाते हैं। ये अपने दुखो की, अवसादों की, अपराध बोध की गठरी छोड़ जाते हैं। फिर कभी पलट कर भी नहीं देखते। (समन्दर आज फिक्रमंद था )
“बाबा --आप नहीं समझते, वो मेरी बोली समझता है मेरी तरह उसकी आवाज है। वो हँसता भी मेरी तरह है और रोता भी मुझ जैसा ही है। वो जब बात करता है तो बिलकुल मेरी तरह लगता है उसे कोई बात पूरी नहीं बतानी होती वोआधी -अधूरी बात को भी यानि मेरे कहने से पहले ही समझ लेता है। बाबा ..वो जब उदास होता है और किसी बात पे रोता है तो उसकी आखों से बिलकुल मेरी तरह आसूं आते है। वो मेरे बिन कहे मेरी उदासियों को भांप लेता है। उसे मेरी तरह संगीत की समझ है उसे मेरी आवाज मीठी लगती है जबकि .यहाँ इस बेजुबान साथियों के बीच रह -रह कर मैंने अपनी आवाज, हंसी और मुस्कान सब खो दी थी। उस अनपढ़ मछुआरें ने मेरी इन खोयी हुई चीजों से मेरी पहचान करवाई है। अब तक इनका कोई मोल नहीं था बाबा ये बुद्धू आक्टोपस, ये आलसी मगरमच्छ और ये गूंगे बहरे घोंघे और सीपिया कभी मेरे किसी गीत को सुनकर मुग्ध नहीं होते।”जलपरी एक सांस में सब बोल गयी )
" ओह (समन्दर ने आह भरी ) बेटी तुम्हे कैसे समझाऊं? वो तुम जैसा होकर भी तुम जैसा नहीं हो सकता। वो इंसान है इस धरती का सबसे चतुर चालाक प्राणी।उसके पास दिमाग है और तुम आधी इन्सान होकर भी इस धरती के इंसानों से अलग हो। तुम उसे आधे हिस्से से महसूस कर सकती हो जबकि वो अपनी पूरी देह से तुमसे मिलता है। तुम दोनों एकदूजे से बहुत अलग हो। तुम उससे मिलना छोड़ दो ये अंत में तुम्हे बहुत दुःख होगा मैं जानता हूँ” समन्दर की आवाज भर्रा गयी।
"आप किसी से मिले बिना उसके बारे में राय नहीं बना सकते”
" बेटी ....सदियों से मैं यहाँ हूँ, हजारों बार मेरी लहरों ने इस धरती को डुबोया है मेरी आखों के सामने कई बार इंसानों की बस्तियां बनी और मिटी हैं। और मैं सदियों से इंसानी फितरत से वाकिफ हूँ। मुझमे मिलने वाली हर नदी अपने साथ हजारों कहानियाँ लेकर आती हैं। हर दिशा से आने वाली नदी के पास इंसानों के दुखों के प्रेम के, हार के जीत के, प्रीत के रीत के हजारों किस्से होते हैं। जब -जब भी ये इंसान अपने दुखों से घबराया उसने नदियों की शरण ली। अपने प्रेम के, मन्नतों के दुआओं के दीपक नदियों में सिराये हैं । यही नहीं, अपने पापों की गठरी भी इन्होने नदियों में जाकर बहायी है। धोखे, फरेब, छल -बल की कहानियां दर्ज है मेरी लहरों पे,” समन्दर ने समझाया ....
" तुम इन बहरूपिये इंसानों को नहीं जानती ये सिर्फ अपने मतलब के लिए हमारे पास आते हैं। हजारों सालों ने अपने मतलब के लिए प्रकृति को नष्ट किया है।
"हर मछुआरा बेशकीमती मोतियों को पाना चाहता है और वो हमेशा मोतियों के लोभ में समन्दर के पास आते हैं। कोई नमक के लिए आता है कोई मछलियाँ लिए जाता है।" अपने मतलब के पूरे होते ही ये चले जाते हैं और फिर कभी पलट के नहीं आते ("समन्दर ने समझाइश दी )
" बाबा ये मोती क्या होते है? ये कीमती क्यों होते हैं?” जलपरी ने जिज्ञासा दिखाई।
" सुन बावली ..तू जब -जब रोती है न तेरी आखों से जो आसूं गिरते है वो आसूं नन्ही सीपी अपनी गोद में सहेज लेती है और फिर एक दिन उन्हें सुन्दर चमकदार मोती में बदल देती है जो मेरी तलहटी में बिखरे होते हैं। धरती पर जब किसी के आसूं गिरते है तो मिटटी में मिल जाते हैं उन्हें कोई नहीं सहेजता लेकिन समन्दर में तेरे आसूं सीपियाँ सहेज लेती हैं और उनसे मोती बना देती हैं।
" बाबा मेरे पास क्या है? कुछ भी तो नहीं मुझसे उसका क्या स्वार्थ हो सकता है मैं कोई मछली नहीं जिसे वो जाल में फंसा कर ले जाये और बेच दे। या मैं कोई नायाब मोती हूँ जिसे वो उठाकर ले जाएगा वो मुझे प्रेम करता है बाबा मैंने उसकी आखों में सच्चाई देखी और बातों में गहराई वो सिर्फ मुझसे मिलने समन्दर किनारे आता है” (जलपरी रो पड़ी )
" तुम बहुत भोली हो वो अपनी उदासी अपना, अकेलापन और अपना अवसाद दूर करने के लिए तुम्हारे पास आता है। तुम्हारी भोली हंसी और प्रेम उसे कुछ पल का सुकून देता है। तुमसे वो समन्दर के किस्से सुनता है उन्हें बस्ती में जाकर सुनाता है। तुम उसे अनोखी लगती हो और वो तुम्हारे रहस्य को जान लेना चाहता है ताकि वो एक दिन बस्ती को बता सके उसने जलपरी का रहस्य जान लिया ताकि उसे सम्मान मिले दौलत मिले शोहरत भी।"
"बाबा ये ये दौलत, शोहरत मान सम्मान क्या बहुत बड़ी चीज होते हैं? प्रेम से भी बड़ी चीज? मन का कोई मोल नहीं? मन कोई नहीं समझता? (जलपरी लगभग रो पड़ी )
समंदर जोर से हंस पड़ा” अरे ...पागल ये इंसान अपना पूरा जीवन धन दौलत और शौहरत के पीछे भागते हुए ही बिता देते हैं। इनका हर काम, हर बात, हर विचार दौलत शोहरत और स्वार्थ से जुड़ा होता है। हाँ ये बात अलग है कि वो अपने स्वार्थ, लोभ . लालच और जरूरत को हमेशा प्रेम और दोस्ती जैसे पवित्र नाम देता है। वास्तव में ये इन्सान कभी किसी से प्रेम नहीं करते। और फिर ये तो मछुआरों की बस्ती है ये मछलियों को पकड़ते हैं, बेचते है और शहरी लोगो से मोटी रकम लेते है।जो समन्दर इन्हें आश्रय देता है पनाह देता है हमेशा से लालन पालन करता है ये इससे ही दगा करते है। ये समन्दर की सम्पदा की चोरी करते है और परदेसियों को बेचते है। ये किसी के सगे नहीं” समन्दर ने अपने अनुभवी आखों को बंद किया और चुप हो गया।
जलपरी को समझ नहीं आता था वो अपने समन्दर बाबा की बात माने या सारंगा की उसे तो कभी दोनों सही लगते कभी दोनों गलत। कभी उसे लगता दोनों में से कोई भी उसे नहीं समझता।
वो सिर्फ इतना जानती थी कि उसे उस अनपढ़ मछुआरे के पास चैन मिलता था ख़ुशी मिलती थी और वो उसे अच्छा लगता था बस .. वो अनपढ़ मछुआरा उसके बारे में क्या सोचता है उसे इस बात से कोई लेना देना नहीं था।
अब जब भी सारंगा उसे मन ही मन पुकारता जलपरी सारे तूफान, भंवर पार करके किनारे पहुँच जाती। सारंगा भी पागलों कि तरह उसका इंतजार करता।जरा देर होने पर शिकायत करता और जल्दी ही रूठ कर मान भी जाता।
“वो घंटो बातें करते रहते हर किसी बात पे पागलों की तरह हंसते रहते। जलपरी बड़ी देर तक हंसती रही उस दिन किसी बात पे।
" तुम ऐसे ही हंसती रहा करो तुम हंसती हो तो मुझे बहुत अच्छा लगता है”
"सारंगा ..एक बात कहूँ? बहुत ही सच्ची और पवित्र बात”
" हाँ बोलो”
" सारंगा .... मैं एक शापित परी हूँ यहाँ इतने बड़े समन्दर की कैद में हूँ लेकिन मैं फिर भी हंसती हूँ लेकिन सोचती हूँ कभी जब तुम चले गए और लौट कर न आये तो मैं क्या करूगीं? मेरे लिए तुम्हारा चले जाना मेरे जीवन का सबसे असहनीय दुःख होगा मुझे कभी छोड़ कर मत जाना”(कहकर वो रो पड़ी )
" अच्छा? इतना प्रेम करती हो मुझसे?"
" क्या ये प्रेम है? मैं नहीं जानती”
" और किसी दिन में सच में नहीं आया तो? क्या करोगी”?
" समन्दर से बाहर आकर तुम्हे खोजूंगी और नहीं मिले तो किनारे पर ही जान दे दूंगी”
"जवाब में सारंगा जोर से हंसने लगा” हा हा हा अजीब हो तुम आसमान की शहजादी, समन्दर की राजकुमारी जिसके पास सबकुछ है सौन्दर्य, मीठी आवाज समन्दर की अतुल्य सम्पदा फिर भी अकेली ..तुम्हे पता नहीं तुम्हारे समन्दर का एक -एक मोती बेशकीमती है हर रंगीन पत्थर। एक एक मोती की तलाश में गोताखोर जिन्दगी बीता देते हैं" (मछुआरे ने समझाया )
" ओह ....ये पत्थर कीमती है? क्या तुम जानते हो ये मोती कैसे बनते है?” (जलपरी ने आह भरी )
" नहीं ..काश मुझे इन्हें बनाने का कोई तरीका पता होता तो मैं बस्ती का सबसे धनवान मछुआरा होता” (उसने मजाक किया )
" तुम्हे पसंद है ये पत्थर?,अबसे जब भी मैं आउंगी तुम्हरे लिए हरे मोती ले आउंगी,नहीं दिखोगे तो किनारे रख जाउंगी”
"सच”? तुम बहुत प्यारी दोस्त हो मेरी”
जवाब में जलपरी मुस्काई ....
" और तुम हो मेरे अनपढ़ मछुआरे” (जलपरी हंसी )
” तुम मुझे अनपढ़ मछुआरा क्यों कहती हो? तुम नहीं जानती इस पूरी बस्ती में मैं अकेला ही सबसे पढ़ा लिखा हूँ। मैंने न जाने कितने देशों की किताबे पढ़ी हैं। यहाँ आने वाले पर्यटकों से उनकी भाषाएं सीखी हैं। मुझे संगीत की बहुत समझ है, मछलियों को पकड़ने का हुनर है और मैं बस्ती का सबसे कम उम्र का सबसे होनहार मछुआरा हूँ \ ये बस्ती हर साल मुझे सम्मान भी देती ह।
और तुम मुझे अनपढ़ मछुआरा कहकर मेरी हंसी उडाती हो, तुम जलती हो मुझसे मेरे हुनर से ..है न?
जवाब में जलपरी फिर बड़ी जोर से हंसी वो जितनी बार हंसती उसके मुंह से कई सारे मोती गिरते ..जिन्हें मछुआरा हैरानी से देख रहा था।
जलपरी बोली” अरे ..मछुआरें मेरे लिए तुम्हारा किताबी ज्ञान या हुनर कोई मायने नहीं रखता है और न ही तुम्हारी व्यापारिक समझ का मेरे लिए महत्व है।मैं तो तुम्हे अनपढ़ इसलिए कहती हूँ क्योकिं बरसों से समन्दर और तुम्हारा गहरा नाता है। तुम बरसों से मछलियों का कारोबार कर रहे हो, काँटा फेंकने में तुम्हारा कोई सानी नहीं, अपने हुनर में उस्ताद हो। मछलियाँ तुम्हारे जाल में खुद ब खुद फंस जाती हैं। लेकिन तुम ने कभी समन्दर पे लिखी इबारत नहीं पढ़ी ..सदियों से समंदर ने अपनी पीडाएं लहरों पे लिखी हैं उन्हें नहीं पढ़ सके ... तुमने सिर्फ मोती देखे, उनकी चमक देखी, उनका व्यापार किया। वो मोती कैसे बने? क्या पीड़ा है सीप की? कितनी प्यासी है वो ..कितनी बेबस है हर मछली, समन्दर खुद कितना अकेला है समन्दर के भीतर क्या तुम जान सके हो?नहीं न। क्या जान सके तुम कि क्यों कोई उड़ने वाली परी आसमान छोड़ समन्दर के रस्ते एक अनपढ़ मछुआरे से मिलने क्यों चली आई?(हा हा हा जलपरी बड़ी देर तक हंसती रही)
मछुआरा उसकी गहरी और रहस्यमयी बातें सुनकर हैरान था आज उसे सच में पहली बार खुद के अनपढ़ होने का अहसास हुआ था। उसने जाल उठाया और बिन कुछ बोले बस्ती चला गया। उस दिन के बाद उसे कभी चैन के नींद नहीं आई। कौन है ये जलपरी? किस ग्रह से आई है? क्या ये सिर्फ मुझसे मिलने ही आसमान से आई है इसके पास जाने से मुझे सुकून क्यों मिलता है? हजारों सवाल उसे कचोटते रहे और उनसे भागता रहा।
समय बीतता रहा जलपरी रोज आती और एक हरा मोती साथ में लाती। एक दिन उसने कहा ये मोती सम्भाल कर रखना मैं रहूँ न रहूँ ये हमेशा तुम्हारे पास रहेंगे। इन्हें तुम मेरी दुआ, मेरा प्रेम, मेरी दोस्ती, मेरे खत या मेरी याद कुछ भी नाम दे सकते हो। तुम बस इन्हें संभालते जाओ।
“कहाँ से लाती हो इतने मोती और क्या करूँगा मैं इनका? मुझे नहीं चाहिए ये सब। मैं बस तुम्हे देखना चाहता हूँ पूरी तरह से छूना भी चाहता हूँ इन मोतियों से और तुम्हारी बातों से अब जी नहीं बहलता” (सारंगा आज प्रेम से भरा हुआ था )
“ सारंगा ...हम जलपरियाँ समन्दर में ही साँस लेती हैं बाहर आने पर मेरा मरना निश्चित है और तुम समन्दर के भीतर एक पल भी नहीं जी सकोगे। हम कभी मिल नहीं सकते लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हम प्रेम करना छोड़ दे मैं जब तक जीवित हूँ मैं यूँ ही तुमसे मिलने आती रहूंगी तुम भी आओगे न हमेशा? बोलो सारंगा .बोलो तो सही कुछ” (जलपरी का गला रुंध गया )
उस दिन फिर से सारंगा बिन कुछ कहे चला गया।
कई दिनों तक सारंगा उस समन्दर किनारें नहीं आया। जलपरी बिना नागा किये वहां रोज आती रही और हरे मोती रखती रही। सारंगा उसे छिप- छिप कर देखता और मन ही मन उसके इंतजार पे खुश होता। उसके उदास और निराश होकर चले जाने के बाद सारंगा किनारे रखे वो हरे मोती उठाकर चूमता और अपने खींसे में डाल लेता। उसने जानबूझकर जलपरी से मिलना बंद कर दिया था। अब वो जलपरी के जादू से खुद को बचा लेना चाहता था।
उधर, इतंजार, दर्द, विरह और नाउम्मीदी ने जलपरी को तोड़ दिया था उसकी देह में अब पहले कि तरह उर्जा नहीं रही वो अब इक पल में यहाँ से वहां उछलती नहीं थी। उसने अपनी आवाज फिर से खो दी थी उसकी हंसी और मुस्कान सब खतम हो गया था। अब वो दिनभर चुप रहती। सारंगा अब कभी लौटेगा ...अब इस बारे में सोचना छोड़ दिया था उसने ...लेकिन रोज किनारे पे जाकर हरे मोती रखना वो नहीं भूली थी।
समय गुजरता गया जलपरी देखती रहती अब सारंगा दूसरे किनारों पे मछली पकड़ता रहता है शाम तक जाल डाल कर सारंगी बजाता रहता है लेकिन जलपरी के पास नहीं आता।
जलपरी उसके इस अजीब से व्यवहार का कोई कारण नहीं समझ पायी। उसकी सारंगी की धुन को वो दूर से ही सुनती और पीड़ा से भर जाती चुप-चाप हरे मोती किनारे पे रखती और चली जाती। अब वो बहुत दुखी रहती थी अपने समन्दर बाबा से भी उसने बात बंद कर दी थी।
इस बीच सारंगा ने कई अलौकिक धुनें रची वो अपनी इस रचना पर मंत्रमुग्ध था। वो आसपास की सभी मछलियों को अपनी धुनें सुनाता और खुश होता। वो दूर से उसे ख़ामोशी से देखती रहती। एक दिन जब सारंगा दूसरे किनारे पे जाल डाल कर बैठा था तो जलपरी खुद को रोक नहीं सकी और उसके पास चली गयी और दुखी स्वर में बोली” क्या हुआ है तुम्हे सारंगा ...? तुम मुझसे अब पहले की तरह बात नहीं करते मुझतक आते भी नहीं क्या हुआ तुम्हे” (जलपरी रो पड़ी )
"देखो ...आज एक बात समझ लो तुम इस तरह मेरा इंतजार मत किया करो। हम मछुआरे हैं कभी एक जगह नहीं टिकते मछलियों के व्यापार में हमें दूर -दूर जाना ही होता है। हाँ ये बात सच है कभी किसी वक्त मुझे भी तुमसे बात करना अच्छा लगता था और मैं सब कुछ भुलाकर तुम्हारे पास घंटो बैठा रहता था। लेकिन अब समय बदल गया है परिस्थितियाँ बदल गयी है तुम्हारे पास आने के बाद मैं सब कुछ भूल जाता था अपनी बस्ती अपना कारोबार सब ..बस एक तुम याद थी और ये सारंगी लेकिन जिन्दगी तुम दोनोंसे नहीं चलती समझी तुम?"
" तो जिन्दगी कैसे चलती है सारंगा..."?
"“तुम क्या जानो,न तुम्हे रोटी कमाने की फिकर होती है न रहने के लिए घर बनाने की या किसी अन्य चीजों की लेकिन हम इंसान है हमारी जरूरते अलग है तुमसे। मैं एक गरीब मछुआरा हूँ तुम्हारी तरह कहीं का राजकुमार नहीं चली जाओ यहाँ से दोबारा कभी मत आना। तुम्हारी प्रेम भरी बातों से आत्मीयता से मेरे जीवन में खुशियाँ नहीं आ सकती उलटा तुम्हारा इस तरह इन्तजार करना मुझे दुःख देता है मुझे अकेला छोड़ दो” (मछुआरे ने जलपरी को अपमानित करते हुए कहा )
" मैं फिर भी तुम्हारा इंतजार करूगीं जब मन हो आ जाना” (जलपरी चली गयी )
सारंगा फिर कभी नहीं लौटा आज जलपरी उस दिन बहुत उदास थी न जाने कितने दिनों से उसने अपने बाबा से भी बात नहीं की थी। आज उनके पास चली तो आई पर बोलने के लिए कुछ नहीं सूझ रहा था बड़ी हिम्मत जुटा कर बोली” बाबा अप मुझसे बहुत नाराज है न, मैंने आपकी कोई बात नहीं मानी मैंने आपके लाख मना करने पर भी उस अनपढ़ मछुआरे से मिलने गयी ...अब तो वो ही मुझे छोड़ गया बाबा अब आप नाराज न रहो” (जलपरी रो पड़ी )
" बेटी उसे तो एक दिन जाना ही था इसमे दुःख की बात नहीं है मुझे तो इस बात का दुःख है तुमने अभी भी उस किनारे पे जाना नहीं छोड़ा है न?” (समन्दर की आवाज में दुःख था )
" पता है बाबा ....जब मैं बरसों पहले आसमान से शापित होकर धरती पे गिरी थी तब आपने ही मुझे मरने से बचाया मेरे टूटे पंखों को सिलकर मेरी एक पूंछ बनायीं ताकि मैं समन्दर में तैर सकूँ। बाबा मुझे मेरे माता -पिता की कभी याद नहीं आई जिस दिन उन्होंने मुझे ठुकराया मैंने उसी दिन उन्हें भुला दिया। याद है बाबा मैं तब भी कितना हंसती थी न, फिर समन्दर के इन अजनबियों साथियों के बीच रहकर भी मैंने कोई शिकायत नहीं की। जबकि ये समन्दर मेरे लिए एक कैद से ज्यादा कुछ नहीं था आपने मुझे इस कैद में सुरक्षित तो रखा लेकिनं बाबा मेरे जैसा कोई दूसरा साथी यहाँ नहीं था मैंने अपनी आवाज खो दी हंसी और मुस्कान भी,मैं भी इन बेजुबानों के संग बेजुबान हो गयी थी पत्थरों के संग पत्थर सी लेकिन फिर भी मैं दुखी नहीं थी।
आधी परी और आधी मछली बन जाने के शाप की पीड़ा और फिर इस कैद के दुःख के बाद भी मैंने जीना सीख लिया था बाबा। लेकिन उस अनपढ़ मछुआरे को खोने का दुःख इन सब दुखो से बड़ा क्यों लगता है बाबा?
इस एक दुःख ने मुझे क्यों तोड़ दिया बाबा?
" उसे तो एक दिन जाना ही था उसका तुम्हारा कोई मेल नहीं था वो तुम जैसा नहीं था अब देर से सही लेकिन तुम अब ये बात समझ लो तो बेहतर होगा” कहकर समन्दर ने उसे गले लगा लिया।
समय बीतता गया मछुआरा अपने कारोबार में उलझ गया था। उसका जब भी मन बैचेन होता तो वो सारंगी बजाता उसने इस बीच बहुत सुन्दर और मधुर धुनें रची। एक अजीब से दर्द की टीस उसके भीतर क्यों उठती है वो समझ नहीं पाता था। मन की बैचेनी कम करने के लिए वो रोज नयी धुन बनाता अपने दर्द को सरगम में ढालता और खो जाता। उसे याद आती जलपरी की हर बात वो कहती थी”अभी तुमने अपनी सर्वश्रेष्ट धुनें नहीं बनायीं है क्योकिं अभी तुम्हे अपने जीवन का सर्वश्रेष्ट प्रेम भी तो नहीं हुआ है जिस दिन होगा उस दिन देखना तुम कमाल करोगे”सारंगा को अब लगता था यही है उसकी सर्वश्रेष्ट धुनें इससे बेहतर अब वो कभी नहीं बना सकेगा। अभी वो जलपरी की कही हुई सभी बातें याद कर ही रहा था कि बस्ती के सरदार का बुलावा आ गया और सारंगा उनसे मिलने चल दिया।
बस्ती के सरदार ने सारंगा को अपने पास बिठाया और समझाया “ सारंगा सुनो ...पूरा एक साल गुजर गया तुमने इस साल बस्ती के लिए कोई काम नहीं किया अगले महीने चुनाव है और मेला भी लगने वाला है सभी विदेशी पर्यटक आयेंगे। तुमने इस साल न तो कोई मोती खोजे न रंगीन पत्थर और ना ही स्वादिष्ट मछलियां। अगर तुम ये सब नहीं कर पाए तो बस्ती के लोग तुम्हे सरदार नहीं बनने देंगे और न इस साल का सम्मान ही तुम्हे मिलेगा। मैं चाहता हूँ तुम इस बस्ती के लिए काम करो और नाम भी कमाओ।
सारंगा को याद आया उसके पास तो इस बरस बहुत से मोती एकत्र हो गए है। जलपरी के लिए तो वो मात्र पत्थर थे लेकिन बाजार में इनके ऊँचे दाम होंगे उसने सभी मोतियों को इकठ्ठा किया और सरदार को दिखाया। बस्ती के सभी लोग उन अनोखे मोतियों को देख कर हैरान थे इतने मोती? वो भी इतनी संख्या में, सभी की नज़रों में सारंगा एक बार फिर हीरो बन गया था।
तयशुदा समय पर बस्ती में मेला लगा और बहुत से देश विदेश के पर्यटक कीमती मोती के लोभ में बस्ती तक आये। सारंगा ने उन सभी मोतियों को बेच दिया और बदले में काफी रूपया कमाया। किसी पर्यटक कि सलाह पे उसने शहर जाकर मोतियों को तराशना भी सीख लिया था ताकि वो उन्हें और खूबसूरत बना सके। समय बीत रहा था सारंगा मोतियों की चमक में खोया था और वो बस्ती और जलपरी को लगभग भूल चुका था। अब वो शहर में ही रहने लगा था।
अचानक एक दिन उसकी नजर शहर के किसी अख़बार पे पड़ी खबर छपी थी मछुआरों की पुरानी बस्ती के पास एक जलपरी पाई गयी किनारों पे पड़ी हुई जलपरी सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी। मिडिया वाले, अख़बार वाले सभी उस मरी हुई जलपरी के फोटो खींच रहे थे। कुछ बुद्धिजीवी उसके समन्दर से बाहर कूद जाने पर चर्चा, बहस कर रहे थे। कुछ कहानीकारों ने कहानी और कवियों ने कविता भी रच डाली थी।
जलपरी पानी से बाहर क्यों कूदी? क्या वो जल में रहकर भी प्यासी थी? क्या ऐसी और भी जलपरियाँ समन्दर में है आदि बाते हो रही थी।
खबर पढ़कर सारंगा का दिल बैठ गया वो जल्द से जल्द बस्ती पहुँच जाना चाहता था। रस्ते भर उसे जलपरी और उसकी बातें याद आती रही मन ही मन बोल उठा” ओह जलपरी मेरे पास अब तुम्हारी दी गयी कोई निशानी नहीं बची। मैंने उन्हें बेच दिया तुम्हारे सभी हरे मोतियों को जिनमे तुम्हारी दुआ, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी दोस्ती तुम्हारी याद और तुम्हारी खुशबू मौजूद थी”
समन्दर किनारे बहुत भीड़ थी जैसे तैसे सारंगा जलपरी की लाश तक पहुंचा... उसने आज पहली बार जलपरी को इतने करीब से देखा था उसके के होठों पे आज भी मुस्कान थी। सारंगा ने उसके दोनों हाथ अपने हाथ में लिए एक हाथ की मुट्ठी अभी भी बंद थी जो अब नहीं खुल रही थी सारंगा ने बड़ी मुश्किल से उस मुट्ठी को खोला उसमे एक हरा मोती बंद था।
सब कहकर बूढा उठकर चल दिया आज अचानक उसके गले में पड़ा हुआ ताबीज टूट गया था जो उसने सौ सालों से गले में बांध रखा था ताबीज के गिरते ही उसमे बंधा हरा मोती चमकने लगा था।