सारा शगुफ्ता, शगुफ्ता रफीक और मंटो / जयप्रकाश चौकसे

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सारा शगुफ्ता, शगुफ्ता रफीक और मंटो
प्रकाशन तिथि : 11 जून 2013


सारा शगुफ्ता पाकिस्तान की शायरा थीं और उनकी मौत आज भी रहस्य है, परंतु भारत की शगुफ्ता रफीक का जन्म स्वयं उनके लिए हमेशा रहस्य ही रहा है और उस धुंध में वे बहुत भटकी हैं। बहरहाल, भारत की शगुफ्ता के जीवन के दर्द को सारा शगुफ्ता की शायरी में आप खोज सकते हैं, जो कहती हैं कि 'औरत का बदन ही उसका वतन नहीं, वह कुछ और भी है', दरअसल दोनों शगुफ्ता सआदत हुसैन मंटो की पात्र-सी नजर आती हैं। मंटो साहब ने विभाजन की पृष्ठभूमि में उसका कहर कैसा औरतों पर टूटा कि उनका 'ठंडा गोश्त' भी हवस का शिकार हुआ, जैसे विषय पर बहुत लिखा है, परंतु निर्मम हकीकत तो यह है कि विभाजन और युद्ध न भी हों तो भी कुछ औरतों को उसी दर्द से गुजरना होता है। दर्द वही होता है, वक्त बदल जाता है और मंटो-सा लेखक मौजूद नहीं होता। बहरहाल, सैंतीस वर्ष तक दर्द की दास्तां बनी रहीं शगुफ्ता रफीक इस समय सफल हैं, उनकी लिखी 'आशिकी-2' सुपरहिट हो चुकी है और वे महेश भट्ट के लिए एक फिल्म निर्देशित कर रही हैं। सच तो यह है कि महेश भट्ट ने ही उन्हें राह दिखाई और अवसर दिए।

शगुफ्ता रफीक के जीवन पर फिल्म बनाने का हक भी महेश भट्ट को है और कोई अन्य निर्देशक न्याय भी नहीं कर पाएगा। समाज की अंतडिय़ों में कुछ अफसाने होते हैं, जिन्हें वह व्यक्ति ही समझ सकता है, जो इन संकरी तंग रहस्यमय अंतडिय़ों से स्वयं गुजरा हो। शगुफ्ता रफीक का लालन-पालन अनवरी बेगम ने किया, जो कभी छोटी-मोटी भूमिकाएं करती थीं। वह कभी नायिका रहीं सईदा खान जिनका विवाह निर्माता कमल सदाना से हुआ था, की बहन मानी जाती हैं, परंतु कुछ लोगों का दावा है कि वह सईदा की ब्रिज सदाना से विवाह के पहले की नाजायज संतान हैं। एक अफवाह यह भी है कि वह किसी खानदानी रईस की अय्याशी का नतीजा हैं। बहरहाल अनवरी उसकी नानी ही मानी गईं और वह सईदा की बहन समझी गईं। ज्ञातव्य है कि ब्रिज सदाना ने बेइंतिहा शराब पी और नशे में अपनी पत्नी व बेटियों को गोली मारकर खुद को भी गोली मार ली। उस हादसे में केवल उनका पुत्र कमल सदाना ही बचा, जिसने शगुफ्ता की हमेशा सहायता की और उसे मौसी माने या बहन इस झमेले में वह नहीं पड़ा। उसने रिश्तों की भूलभुलैया से उभरकर उनकी सहायता की। बहरहाल, नानी और अपने को पालने वाली की आर्थिक तंगी तथा बीमारी के कारण शगुफ्ता ने बार गर्ल की तरह ठुमके लगाए और इंसानी गोश्त की मंडी में भी उसे बैठना पड़ा। वह तरह-तरह की विपदाओं में घिरती रहीं और समाज के दोजख से गुजरती गईं। महेश भट्ट ने उनसे एक फिल्म के दो दृश्य लिखवाए और फिर अनेक फिल्मों के लेखन में उन्हें अवसर दिया, जैसे 'राज-2', 'मर्डर-2' इत्यादि। उनकी अपनी पूरी लिखी फिल्म 'आशिकी-२' है। यह कमाल की बात है कि उन्होंने इस फिल्म की नायिका का पात्र एक सहनशील और विलक्षण त्याग करने वाली प्रेमिका की तरह गढ़ा, जिसे श्रद्धा कपूर ने आत्मसात करके निभाया।

शगुफ्ता के लेखन में कड़वाहट नहीं है, उन्होंने साहिर की तरह नहीं सोचा कि 'तजुरबाते हवादिस की शकल में, जो कुछ जमाने ने दिया, वह लौटा रहा हूं मैं।' गोयाकि शगुफ्ता ने अनुभवों के गरल को अपने कंठ में ऐसे साधा कि जहर उनके सोच तक नहीं पहुंचा। यह एक ऐसा लोहा है, जिसे अपने व्यक्तित्व में ढालना आसान नहीं। जो लोग औरतों को 'मोम की गुडिय़ा' समझते हैं, उनके लिए शगुफ्ता एक चुनौती हैं। ज्ञातव्य है कि सईदा ने 'मोम की गुडिय़ा' में अभिनय किया था। यह आसान नहीं होता कि आप जीवन के दलदल में अपना सिर हमेशा उस निगलते हुए कीचड़ से ताउम्र बचाए रखें। महेश भट्ट एक लकड़ी लिए दलदल के किनारे पर बैठे रहे कि शगुफ्ता को उभरने का अवसर मिले।

आज तमाम कड़वे अनुभवों का नतीजा यह है कि शगुफ्ता जीवन की सतहों के पार देख सकती हैं। उनको आज भी मुहब्बत पर यकीन है, परंतु वह बाइज्जत शरीफ लोगों से थोड़ा खौफ खाती हैं, क्योंकि शराफत के मुखौटों को उन्होंने गिरते देखा है। वह यह स्वीकार करती हैं कि वह एक प्रसन्न व्यक्ति नहीं हं, वह मुतमईन भी नहीं हैं। इंसानी बूचडख़ाने से गुजरने के अनुभव आज भी उनके अवचेतन की परतों में छाए हुए हैं, परंतु वह अपने लिखे अफसानों में इनका जिक्र नहीं करतीं। वे जिन बादलों से गुजरी हैं, उसकी ठंडक, उसका अंधेरा और उसमें कौंधती बिजली को उन्होंने अपनी रूह में जज्ब कर लिया है, परंतु अपने लेखक को उससे बचाए रखा है, जैसे तूफानों से गुजरती मां अपने शिशु को बचाती है। शिशु को जन्म देने की पैदाइशी चाह भी उनके व्यक्तित्व की घाटियों की गूंज मात्र बनकर रह गई है। सारा शगुफ्ता को सलाम, उनकी रूहानी जुड़वां भारतीय शगुफ्ता को सलाम और महेश भट्ट को प्रणाम। सआदत हुसैन मंटो को सलाम, जो आज भी उन पात्रों में जिंदा हैं, जिन्हें वे रच नहीं पाए। लेखक कभी नहीं मरते। सआदत के कद के तो कभी नहीं मरते।