सारी तालीमात / असगर वज़ाहत
हर तीन-चार साल के बाद शहर में फसाद हो जाता है, ढाटे बाँधे हुए। 'हर-हर महादेव' का नारा लगाते हिन्दुओं के गिरोह मुसलमानों के मोहल्लों पर हमला करते हैं और मुसलमान, हिन्दुओं पर जिहाद बोले देते हैं। आग लगाई जाती है जो होली-ईद मिलन, एकता के सिद्धान्तों और साम्प्रदायिकता विरोधी कमेटियों की कागजी दीवार को भस्म कर देती है। दो-चार दिन तक गिरोह सक्रिय रहते हैं। तेजाब, चाकू, लाठियाँ, बल्लम और एक-आध बन्दूक, देशी कट्टे लिए शत्रु की खोज में केवल एक-आध आदमी, औरत या दुकान ही नजर पड़ती है जिसका तत्काल फैसला कर दिया जाता है। कासिमपुरे में अफ़वाहों का बाजार गर्म हो जाता है। 'आज रात दो हजार हिन्दू हमला करने वाले हैं।' मोहल्ले के लड़के अपनी-अपनी छतों पर ईंटें जमा करने लगते हैं। 'आज पुलिस ने मास्टर रहमत अली का घर जला दिया।' 'झूठ? क्या बकते हो?' 'गफूर ने अपनी आँखों से देखा है।' 'यही तो गड़बड़ है मियाँ, पुलिस भी उनका साथ देती है, नहीं तो इन धोती बाँधने वालों को एक घण्टे में ठीक कर दें। लेकिन सरकार से कौन लड़ सकता है?' कासिमपुरा, नवाबगंज, रहमताबाद में मुसलमानों की सौ फीसदी आबादी है। लेकिन पूरे शहर में फिर भी हिन्दू ज्यादा है। अगर हमला बोल दिया तो क्या होगा? मौत का डर मोहल्ले की रग-रग में चमक जाता है।
सड़कें ऊसर की तरह सुनसान हो जाती हैं। पुलिस के जूतों और सीटियों की आवाजों के सिवा कुछ नहीं सुनाई देता; कभी-कभी पुलिस जीप की आवाज आती है और फिर सन्नाटा छा जाता है-'बड़े पुल के पास मुसलमान की लाश मिली है'-'आज पुलिस की गश्त नहीं हो रही है, जरूर हमला होगा।' पूरा मोहल्ला एक ठण्डे भयानक तनाव और डर में डूब जाता है। चार-पाँच दिन के बाद छुटपुट चाकू की वारदातें शुरू हो जाती हैं। पतली तंग गली के कोने पर तीन-चार आदमी मिलकर राशन की तलाश में निकले किसी झल्लीवाले या रिक्शेवाले को चाकू मार देते हैं। घुटी-घुटी-सी भयानक चीख, भागते हुए पैरों की आवाजें, खिड़कियाँ खुलने का शोर और फिर 'अल्लाहो अकबर' के नारे सुनाई पड़ते हैं।
हर दंगे के बाद हिन्दुओं के मोहल्ले के आसपास रहने वाले मुसलमान किसी मुसलमानी मोहल्ले में आ जाते है और मुसलमानों की बस्ती के पास रहने वाले हिन्दू रस्तोगीगंज या रघुवीरपुरा चले जाते हैं।
मुसलमानी मोहल्लों में दाढ़ियों की तादाद बढ़ जाती है। मस्जिद में नमाजी अधिक आने लगते हैं। लोग देर तक गिड़गिड़ाकर दुआएँ माँगने लगते हैं। गुण्डा पार्टी लूट के माल को इधर-उधर करने में लग जाती है। हथियार जमा करने का चन्दा वसूल करती है। पता नहीं अगले फसाद में सिर्फ गोलियाँ ही चलें। शहर में कितने हिन्दुओं के पास बन्दूकें हैं और कितने मुसलमानों के पास? दस और एक का भी तो औसत नहीं पड़ता; कारतूस जमा किए जाते हैं। लेकिन पुलिस का ख्याल आते ही सबकी हवा बिगड़ जाती है। जुग्गन, रहमत के होटल के सामने बहती नाली में बलगम थूककर कहता है, यही तो गड़बड़ है जिगर। पुलिस अगर किसी तरफ से...
अब साले, हाजीजी से चन्दा क्यों नहीं लेते? कारखाना चलाते हैं हराम में?
हाजीजी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहते हैं, इस बार तो माशा-अल्लाह तुम लोगों ने भी कुछ किया।
'हाजीजी, आप हाथ रख दें तो देखिए क्या नहीं कर दिखाते।'
हाजीजी एक हजार रुपया चन्दा देते हैं और जुग्गन की पार्टी चली जाती है। वैसे हाजी जी को एक हजार चन्दा देने की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि उनका कारखाना कासिमपुरे के बीचोंबीच है। कारीगर भी सौ फीसदी मुसलमान है। हाजी जी हिन्दुओं को रखते ही नहीं। कहते हैं, कौम की खिदमत करने का मौका खुदा ने दिया है तो उसे क्यों छोडूँ? मुसलमान कारीगर भी हाजीजी के कारखाने में काम करना चाहते हैं। जान प्यारी है, पैसा नहीं।
शहर तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। स्टेशन से उत्तर की तरफ़ चले जाइए तो सिविल लाइन्स का इलाका है। चौड़ी सड़क पर दूर तक कोठियाँ बनी हुई हैं। डी.एम. की कोठी से सड़क शुरू होती है और इंजीनियर साहब की कोठी के पास मुड़ जाती है। यहाँ पर हाजी करीम और वीरेन्द्र बाबू की कोठियाँ एक-दूसरे से मिली हुई बनी हैं। रफीक मंजिल, जहाँ कभी मोहम्मद अली जिन्ना ठहरा करते थे, के बराबर में जनसंघ के अध्यक्ष पण्डित सोमदत्त गौड़ का बंगला है। नवाब अब्दुल मजीद खाँ, जो अंग्रेजी राज में बड़े ऊँचे ओहदों पर काम कर चुके थे, की कोठी के बिलकुल सामने जिला कांग्रेस के नेताजी का विशाल 'स्वराज निवास' है।
स्टेशन से दक्खिन की तरफ़ जाइए तो चमकता हुआ साफ़ बाजार मिलेगा जिसकी बड़ी-बड़ी दुकानों में इतना सामान भरा हुआ है कि अगर हर एक घर में एक-एक चीज+ पहुँचा दी जाए तब भी किसी चीज की कमी नहीं पडे+। इस सड़क पर रिक्शों, मोटरों, साइकिलों की भीड़ में चलना मुश्किल हो जाता है। इसी सड़क पर शहर के बड़े रेस्तरां भी हैं और सिनेमाघर भी। शराब की दूकानें भी और जौहरियों की गद्दियाँ भी। यहाँ रात में चमचमाती हुई रॉडों की रोशनी होती है और कूल्हे से कूल्हा छिलता है। इस सड़क के दोनों तरफ़ गलियाँ हैं। कुछ हद तक साफ़-सुथरी और पक्की गलियों में पक्के मकान बने हुए हैं जिनमें हिन्दू रहते हैं। इन मोहल्लों में मकान लेने कोई मुसलमान नहीं जाता। जैसे उनको मालूम है कि शहर का यह हिस्सा दूसरी तरह के लोगों के लिए बना है और वे दूसरी तरफ के लोग हैं। दफ्तरों के बाबू, स्कूल के मास्टर, छोटे दूकानदार, अलग-अलग नौकरियों और धन्धों में लगे हुए वे सब हिन्दू हैं। इसी सड़क पर और बढ़ते चले जाइए तो बड़े चौराहे के बाद चमकीली दूकानें खत्म हो जाएँगी। कुछ फल बेचने वालों की छोटी-छोटी दूकानें हैं। उसके बाद बांद बेचने वालों की छोटी-छोटी और पुरानी दूकानें हैं जिनमें बैठे दुकानदार सूरत ही से मुसलमान लगते हैं। जवानों के चेहरों पर काली खशखशी दाढ़ी और आँखों में सख्ती दिखाई पड़ती है। बूढ़ों के चेहरों पर सफेद लम्बी दाढ़ियाँ, माथे पर गट्टे का निशान। वे अपनी दूकानों पर इस तरह बैठते हैं, जैसे घर में आराम से बैठे हों। बैठे-बैठे 'नहीं' कह देने में इनका कोई जवाब नहीं है। ग्राहकों को देखकर न हँसते हैं और न मुस्कुराते हैं। शायद ग्राहकों का आना इनको अच्छा नहीं लगता। न उनकी पूरी बात सुनने की कोशिश करते हैं और न अपनी पूरी बात उनको बताते हैं।
बांद वालों की दुकानों के बाद से बाजार की चहल-पहल अपना रंग-ढंग बदल लेती है। अब बाईं तरफ़ एक लाइन से बिस्कुट बनाने वालों की दूकानें हैं जहाँ दूकानदार तहमद बाँधे, बनियान पहने बिस्कुटों के लिए मैदा फेंटते दिखाई पड़ते हैं। आठ-नौ साल के बच्चे बड़े-बड़े बर्तनों को धोते, गन्दी-गन्दी गालियाँ बकते रहते हैं। हर दुकान पर एक-आध आदमी बेकार बैठा दिखाई पड़ता है। बिस्कुट बनाने वालों की गन्दी दुकानों के सामने लाइन से दूर तक खाने के होटल हैं कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य हो सकता है कि इस बस्ती में रहने वाले लोगों ने खाने के अतिरिक्त और किसी चीज की दूकान खोलने की बात क्यों नहीं सोची? सिर्फ चाय के होटल, बिस्कुट की दुकानें, खाने के होटल, कबाब की दूकानें ही दूर तक दिखाई देती हैं। पहला यामीन टी स्टॉल है। अन्दर सफेद पत्थर की मेजों पर लगातार मक्खियाँ भिनकती रहती हैं। उर्दू के एक-दो अख़बार, जिन पर काफ़ी चाय गिर चुकी होती है, बुलन्द आवाज में पढ़े जाते हैं। यासीन दुकान के सामने वाले दर में भट्टी के सामने खड़ा चाय बनाता रहता है या ऊपर लगे रेडियो के कान उमेठा करता है, जिस पर जालीदार गिलाफ चढ़ा हुआ है। भट्टी के दाहिनी तरफ़ शीशे के गन्दे मर्तबानों में बिस्कुट भरे रहते है। जिनसे यासीन बिलकुल तटस्थ दिखाई देता है। इन बिस्कुटों को जब कोई ग्राहक माँगता है तो यासीन बड़ी बेजारी से एक बिस्कुट इस तरह मेज पर रख देता है, जैसे गाली दे रहा हो। ये पुराने बिस्कुट सिर्फ औंटी हुई चाय में डुबोकर ही खाए जा सकते हैं। यासीन टी स्टॉल के बाद एक कबाब वाले की छोटी-सी दुकान है जो भैंस के कीमे की सींक लगाता है। इस दुकान के सामने खड़े होने पर आग की चिंगारियों के साथ भुने हुए गोश्त की खुशबू नाक में घुस जाती है। साथ ही लगा हुआ खाने का एक और होटल है जिसके नाम का बड़ा बोर्ड दसियों बरसातों को न सह पाने की वजह से जंग लगा टीन बन चुका है। एक बहुत बड़े थाल में रखी बिरयानी के पीछे मोटा अब्दुल गफूर बैठा गोश्त निकाला करता है। उसके चारों तरफ़ बड़ी पतीलियों में कीमा, कलेजी, भेजा, छोटे का और बड़े का गोश्त सजा रहता है। खजहे कुत्ते होटल के अन्दर आकर मेज के नीचे से हड्डियाँ उठा ले जाते हैं। होटल में काम करने वाले लड़के गन्दे और चिक्कट पकड़े पहने ग्राहकों के सामने बड़े गोश्त की रकाबियाँ और रोटियाँ पटक देते हैं। हड्डी को चबाकर नीचे फर्श पर फेंक देने का या खाना खाने की कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे गिलास के अन्दर हाथ डालकर हाथ धो लेने पर किसी को एतराज नहीं होता। दीवारों पर इस्लामी कलैण्डर या मक्का-मदीने की तस्वीरें या कुरआन की आयतें आने-जाने वालों को देखती हैं। होटल के बैरे, जिन्हें किसी भी तरह आप बैरा नहीं कह सकते, से अगर खाने के बारे में पूछें तो वह एक ही साँस में दस खानों के नाम गिनवाकर आपकी तरफ़ इस तरह देखेगा जैसे एहसान किया हो। इसके बाद बिस्मिल्ला होटल है जो और भी गन्दा और सस्ता है। इन दूकानों और होटलों से ये तो पता चल ही जाता है कि इन मोहल्लों में रहने वालों को खाने और विशेश रूप से गोश्त खाने में बड़ी दिलचस्पी है। गन्दे और फटे चीथड़े लगाए, खाँसी से बेतरह परेशान, छोटे-छोटे लड़के हाथ में कई जगह से चिपटा अल्मुनियम का प्याला लिए आते हैं, 'कीमा दे दो, कीमा, एक प्लेट।' और कीमा लेकर गली में भाग जाते हैं। इन गलियों में इतनी जगह भी नहीं है कि तीन-चार आदमी एक साथ चल सकें। दोनों तरफ़ नालियाँ और उनमें पड़े पाखाने और पेशाब की तेज खारी बदबू हर वक्त गली में तैरती रहती है। जहाँ कहीं भी गली जरा-सी चौड़ी है वहाँ जमादार की टोकरी रखी दिखाई पड़ती है। गली के फर्श पर लगाई गई ईंटें बुरी तरह घिसकर ऊबड़-खाबड़ हो गईं हैं। दोनों तरफ़ की ऊँची दीवारों के कारण गली में हल्का-सा अँधेरा और सीलन रहती है। ककई ईंटे से बनी दीवारों पर मर्दानगी बढ़ानेवाली दवाओं के इश्तिहार या उर्दू में लगे पोस्टर दिखाई पड़ते हैं जो किसी 'मीलाद शरीफ' या 'उर्दू के क़त्ल' और 'क़ौम पर मुसीबत' की इत्तिला देते हैं। आमतौर पर घरों के नाबदान गली में खुलते हैं जिसके ऊपर लटका टीन गलकर गायब हो चुका होता है। ऊपर कोठों में रेडियो की तेज आवाज या चीख-पुकार सुनाई देती रहती है। टीन के गले पाइपों से ऊपर का गन्दा पानी गली में गिरता है तो उसके छींटे पूरी गली में फैल जाते हैं। गली में खुलने वाले पुराने और बरसाती पानी में गले दरवाजों पर टाट का चिथड़ा पर्दा किसी भी वजह से कभी हट जाता है तो धुआँया हुआ दालान दिखाई पड़ जाता है। सुबह और शाम कोयले की अंगीठियाँ जब गली में आ जाती हैं तो पूरी गली नीचे धुएँ से घिर जाती है। किसी पर्दे के पीछे से कोई पीले या पतले चेहरेवाली लड़की झाँकती है। और दो नंगे बच्चे, जिनके पेट फूले होते हैं, अन्दर घुस जाते हैं।
यह शहर का तीसरा हिस्सा है जहाँ सौ फीसदी मुसलमान रहते हैं। इन मोहल्लों में शायद ही कभी कोई हिन्दू आता हो। आने की ज+रूरत ही क्या है? और मकान लेने या रहने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। हाँ, इन मोहल्लों के पीछे कुछ चमार, पासी या कुछ इसी तरह के लोग झोपड़ियों में रहते हैं। ये लोग भी इसी तरह की जलील और भुखमरी वाली जिन्दगी जीते हैं, जैसी कि मोहल्ले के दूसरे लोग।
इस मोहल्ले से म्युनिसिपैलिटी में मुसलमान ही इलेक्शन जीतते हैं। हिन्दू खड़े हीं नहीं होते। स्कूलों के मास्टर मुसलमान है। डॉक्टर मुसलमान है, दूकानदार मुसलमान हैं, छोटे-मोटे दूसरे काम करने वाले मुसलमान हैं। इस नीम के पास वाली गली के अन्दर चले जाइए तो आगे चलकर एक बड़ा-सा पुराना मकान दिखाई पडेगा, जिसके दरवाजे+ पर छोटी-सी तख्ती में 'हाजी अब्दुल करीम एण्ड को' लिखा दिखाई देगा। यही हाजीजी का कारखाना है। 'हाजी अब्दुल करीम एण्ड को' के ताले ही हिन्दुस्तान के मशहूर ताले हैं। आजकल तो कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा ताला बनाने का काम शुरू कर देता है, नहीं तो सन् तीस में सिर्फ हाजीजी का ही एक कारखाना था।
एक हजार रुपए देना हाजीजी को खल गया था। लेकिन और कोई रास्ता नहीं था। यही लोग वक्त पर काम आते हैं। कामरेड थान सिंह ने जिस जमाने में मजदूरों से दोस्ती करनी शुरू की तो हाजीजी ने जुग्गन ही से कहा था। और जुग्गन ने सब ठीक कर दिया था।
हाजीजी ने टोपी उतारी, सिर पर हाथ फेरा और 'अल्लाह-अल्लाह' करके तख्त पर लेट गए। अन्दर कारखाने में काम हो रहा था। हाजीजी ने लेटे-ही-लेटे एक अंगड़ाई ली और जोर से बोले, 'रहमत, मुझे एक कटोरा पानी पिला दे।'
अन्दर लोहा पीटने और छोटे-बड़े हथौड़े चलने की आवाजों में हाजीजी की आवाज दब गई। वह फिर जोर से चिल्लाए, 'कहाँ रहते हो? तुम्हें घण्टों से बुला रहा था, 'हाजीजी रहमत को देखकर बोले। वह अन्दर से निकलकर आया था। 'मुझे एक कटोरा पानी पिला दो और वह आर्डरवाला खत लिखा या नहीं? आज स्टेशन से बिल्टी भी छुड़ानी है और लीवर, कमानी, स्क्रू का काम जो मोहल्ले में बँटा था, वापस हो गया?' वह गॉव-तकिये से लगकर बैठ गए। उनकी बड़ी तोंद एक छोटा-सा टीला लगने लगी। आठवीं पास रहमत हाजीजी का मैनेजर है। दफ्तर में झाडू देने से लेकर लिखा-पढ़ी तक का काम करता है। हाजीजी उससे बड़ा खुश रहते हैं, लेकिन कभी जाहिर नहीं होने देते। सौ रुपए में ऐसा मैनेजर आजकल कहाँ मिलेगा?
'रब्बन बी का काम अभी तक नहीं आया है। फ़साद में उसका घर जल गया था न! इस वजह से।'
'कितने का माल था?'
तीन सौ का।
'ठीक है। मजदूरी में धीरे-धीरे काट लो। आए तो और माल बनाने को देना। अल्लाह-अल्लाह क़ौम पर क्या मुसीबत आई है!' वह पानी पीकर फिर लेट गए।
लीवर, कमानी, स्क्रू, रिपिट और कवर बनाने का काम हाजीजी मोहल्ले में बँटवा देते हैं, बल्कि औरतें खुद ही आकर ले जाती हैं। ये छोटे-मोटे काम औरतें-बच्चे मिलकर कर लेते हैं। दिन-भर औरतें, लड़कियाँ और बच्चे काम करके शाम कारखाने में आकर दे जाते हैं और महीने में हिसाब हो जाता है। हाजीजी बड़े फ़ख्र से कहते है, इसीलिए तो मैं बड़ी मशीनें नहीं लगाता। गरीबों की रोटी मारी जाएगी। अभी कम-से-कम पेटभर खाना मिल जाता है।
हाजीजी पढ़े कम लेकिन कढ़े ज्यादा है। उन्हें मालूम है कि बड़ी मशीनें लगाने से वह मिट सकते हैं। वह घाटे का काम है। अभी तो फैक्ट्री एक्ट ही नहीं लागू होता 'हाजी अब्दुल करीम एण्ड को' पर, जो काम कम-से-कम तीन सौ आदमी करते, मोहल्ले की औरतें कर देती हैं। लेबर इंस्पेक्टर के आने से पहले ही चन्दू का लौंडा, जो लेबर ऑफिस में चपरासी है, आकर हाजीजी को बता देता है। हाजी आधे से ज्यादा मजदूरों और कारीगरों को पिछली खिड़की से बाहर कर देते हैं। ऐसी बात नहीं है कि लेबर इंस्पेक्टर नहीं जानता। हाजीजी को मुँह बन्द करने के तरीके मालूम हैं। अब जब फैक्ट्री एक्ट ही नहीं लागू हो पाता तो छुट्टियाँ, बोनस, ई.एस.आई. का झगड़ा ही खत्म हो जाता है। हाजीजी इतवार की छुट्टी भी नहीं देते। कहते हैं, वहीं होगा जो होता चला आया है। जिसे न करना हो वह वीरेन्द्र बाबू के कारखाने में चला जाए। वीरेन्द्र बाबू के कारखाने का नाम आते ही सबके चेहरे सुत जाते हैं। सैकड़ों हिन्दुओं के बीच एक-आध मुसलमान कैसे काम कर सकता है? अगर किसी दिन फसाद हो गया तो.....?
हाजीजी कर्रा पड़ने के बाद मुलायम लहजे में समझाते हैं, 'इस्लाम तुम्हें यही सिखाता है कि एक मुसलमान के कारखाने में काम छोड़कर थोड़े से लालच में हिन्दू के कारखाने में चले जाओ? वीरेन्द्र बाबू से तुम्हारा क्या रिश्ता है? मैंने माना कि तुमको यहाँ तकलीफ़ है थोड़ी, लेकिन आराम भी तो है। ईद-बकरीद की छुट्टी देता हूँ। नमाज-रोजे में तुम्हारे साथ हूँ। अरे भाई, मैं तो यहाँ से वहाँ तक तुम्हारे साथ हूँ। कोई ज्यादती करूँ तो अल्लाह के यहाँ दामन थाम सकते हो। लेकिन वीरेन्द्र बाबू के यहाँ क्या करोगे? अगर कभी फ़साद हो गया तो मार ही तो दिए जाओगे न? इस्लाम की सारी तालीमात को भूल गए हो? यही तो कौम में सबसे बड़ी खराबी है कि एक मुसलमान किसी दूसरे भाई का फायदा नहीं देख सकता। जाओ भाई जाओ, जिसे जाना हो जाओ। मैं तो वही करूँगा तो करता आया हूँ। वह अपनी लाल आँखों से मजदूरों की तरफ देखते हैं, 'जाओ वीरेन्द्र बाबू के कारखाने! अपने मुसलमान भाई के मिट जाने की परवाह क्यों करते हो?' उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। 'अल्लाह-अल्लाह'। कोई नहीं जाता। सब सच्चे मुसलमान हैं पावर प्रेस चलने लगती हैं लोहा गलाया जाने लगता है। और पुराना बड़ा मकान धुएँ और उसकी बदबू से भर जाता है। सेठ हाजी करीम बाहरी कमरे यानी ऑफिस में गॉव-तकिये से लगकर लेट जाते हैं। सोचते हैं, 'अल्लाह की बड़ी मेहरबानी है उन पर। दूसरे कारखानों में कभी पी.एफ. के लिए हड़ताल होती है तो कभी कम्पंसेशन ग्रेच्युटी के लिए धरना होता है। ले-ऑफ और लॉक आउट के चक्करों में कहीं काम हो सकता है? इनकमटैक्स, प्रोफेशनलटैक्स और पता नहीं कैसे-कैसे टैक्स लगे हुए हैं। किसी मजदूर को निकाल नहीं सकते, किसी को रख नहीं सकते तो फिर मालिक काहे के?'
हाजीजी 'अल्लाह-अल्लाह' करके फिर लेट गए। कारखाने में काम हो रहा था ।