सार्थक फिल्मकार और सितारा फिल्में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 अप्रैल 2015
आजकल अनुराग कश्यप की रणबीर कपूर-अनुष्का अभिनीत 'बॉम्बे वेलवेट' का प्रोमो आकर्षित कर रहा है। यह अनुराग की पहली सितारा अभिनीत बड़े बजट की फिल्म है। अभी तक वह कॉलेज क्रिकेट खेल रहा था, इस बार उसका ब्रेबोर्न स्टेडियम में टेस्ट मैच खेलने के लिए चयन हुआ है। विगत चार दशकों से समानांतर फिल्म आंदोलन से जुड़े सार्थक फिल्में बनाने वाले प्राय: कम बजट में सार्थक फिल्में बनाते रहें हैं और इसी सार्थकता के नाम पर नसीर, ओमपुरी, शबाना, स्मिता पाटिल से कम मेहनताने में काम कराते रहे हैं। जब कोई सितारा या फिल्मकार उनके काम की प्रशंसा अखबारों में पढ़कर प्रभावित हुआ है, उसने उन्हें काम के लिए निमंत्रित किया है जैसे बलदेवराज चोपड़ा ने बासु चटर्जी से फिल्म बनवाई, शशि कपूर ने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, गिरीश कर्नाड से बड़े बजट की फिल्में बनवाईं। विधु विनोद चोपड़ा ने भी अपनी पहली तीन फिल्में अल्प बजट में बनाईं और फिर '1942: अ लव स्टोरी' सितारों के साथ बनाई।
प्रकाश झा को भी पहली दो सार्थक फिल्मों के बाद 'मृत्युदंड' में माधुरी और 'गंगाजल','अपहरण' में अजय देवगन का साथ मिल गया तथा 'राजनीति' में रणबीर कपूर व कटरीना कैफ मिले। प्राय: यह देखा गया है कि सितारों के साथ काम करने के बाद, फिल्म जगत बदलने का दावा करने वाले 'युवा विद्रोही' फिल्मकार फिर बिना सितारों के काम नहीं कर पाते गोयाकि सितारा नशा है। सच तो यह है कि सितारे के कारण जमकर खेलने के लिए बड़ा बजट मिल जाता है, अधिक दर्शक भी मिल जाते हैं। भारत में यही बात युवा आक्रोश के तेवर रखने वाले नेताओं के साथ होती है कि सत्ता मिलने पर वे उस व्यवस्था का अंग हो जाते हैं, जिसे उखाड़ फेंकने का कभी उन्होंने दावा किया था। यहां तक कि गरीब या दलित मेधावी छात्र परीक्षा में मेडल पाने के बाद ऊंची नौकरी पाकर न सिर्फ अपने समाज को भूल जाता है वरन् उसके साथ अपनी जड़ों को भी कालीन से छुपाते है। दीवाली पर अपने गरीब रिश्तेदारों को घर आमंत्रित करता है केवल अपना वैभव दिखाने के लिए। हमारे देश में सफलता और सत्ता की मिक्सी मनुष्य का डीएनए तक बदल सकती है।
बहरहाल, 'बॉम्बे वेलवेट' 'बॉम्बे फेबल्स' नामक उपन्यास से प्रेरित फिल्म है जो 50 से 60 तक के दशक के बॉम्बे के अपराध जगत की कथा है। अनुराग कश्यप ने श्रीलंका में उस दौर के बॉम्बे के सेट्स लगाए हैं और एक कॉर्पोरेट ने रणबीर कपूर के कारण 90 करोड़ फिल्म में खरीदी है। अफवाह है कि यह बजट अब निर्माता को कम लगता है परंतु इस संकट के दौर में किसी भी फिल्म का बजट बढ़ाया नहीं जा सकता। पहले प्रोमो में गुरु दत्त निर्मित, राज खोसला निर्देशित देव आनंद की 'सीआईडी' का गीत काम में लिया गया है। गीता दत्त ने ओपी नैयर का गीत 'जाता कहां है दीवाने' गाया था। बहरहाल, उस दौर के इस गीत के उपयोग ने फिल्म के समय को विश्वसनीयता दी है।
रणबीर कपूर का गेट अप आपको अमेरिका की नोए फिल्मों की याद दिलाता है। गेटअप अलपचीनो की 'स्कारफेस' के साथ ही 'स्कारफेस' के पहले संस्करण 1933 में बनी पॉल मुनि फिल्म की याद दिलाता है। अमेरिकी इतिहास के 1857, 1877 के मंदी दौर से कहीं अधिक भयावह मंदी का दौर 1929-1934 में आया था और उस संकट काल में हॉलीवुड ने ढेरों अपराध कथाएं बनाई थीं। गौरतलब यह है कि मंदी के इन तीनों दौरों का भारत पर कोई असर नहीं पड़ा परंतु 1997 और 2008 की अमेरिकी मंदी के दौर ने भारत के अर्थतंत्र को तोड़ दिया, क्योंकि हमने आर्थिक उदारवाद व भौगोलीकरण के बेलगाम घोड़ों की सवारी की है। आज वॉल स्ट्रीट में कोई छींकता है तो भारत की दलाल स्ट्रीट में शीतलहर आ जाती है। देश अपने सामर्थ्य और साधन से अपने चरित्र व संस्कार को कायम रखते हुए विकास करते है।