सार-संक्षेप / कविता भट्ट

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निष्कर्ष

योगदर्शन में योगाभ्यास के दो लक्ष्य हैं-पहला वैयक्तिक अनुशासन एवं दूसरा आध्यात्मिक उन्नति। मानव समाज के औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं तकनिकीय विकास ने व्यक्ति के भौतिक इच्छाएँ बढ़ा दी। हम विकास के ऐसे संक्रमण काल में रह रहे हैं; जिसमें एक ओर भौतिक इच्छाओं और मनोशारीरिक स्वास्थ्य का संतुलन बनाना है तथा दूसरी ओर मानव समाज के कल्याण हेतु नैतिक एवं आध्यात्मिक मापदण्डों का भी पालन करना है। मानव किसी मशीन के समान कार्य नहीं कर सकता तथा मानसिक शान्ति एवं शारीरिक स्वास्थ्य आदि उसकी प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। इन आवश्यकताओं के पूर्ण होने पर ही वह लम्बे समय तक स्वस्थ एवं सक्षम रहते हुए आत्मिक कल्याण की ओर भी अग्रसर हो सकेगा। यह मानव समाज के दीर्घकालीन एवं स्थायी मूल्यों और समग्र वैयक्तिक विकास हेतु अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार के विरोधाभासी एवं कठिन उद्देश्यों को पूर्ण करने की सामथ्र्य मात्र योगदर्शन में विवेचित विभिन्न योगाभ्यासों द्वारा ही विकसित हो सकती है। इसी कारण योगदर्शन सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हुई है; किन्तु इसका आधा-अधूरा और एकपक्षीय प्रचार चिंता का विषय है। आजकल प्रायः, योग का प्रचार मात्र आसनों को शारीरिक व्यायाम के समान प्रचारित करने तक ही सीमित हो गया है या फिर कुछ लोग मात्र शारीरिक लाभों हेतु प्राणायाम एवं ध्यान को भी आंशिक रूप से अपनाते हैं। वस्तुतः, इन अभ्यासों के साथ ही इसके नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाने व प्रचारित करने की भी महती आवश्यकता है।

प्रस्तुत पुस्तक में राजयोग एवं हठयोग की ऐतिहासिकता, सम्बन्धित साहित्य, इनके उद्देश्य, व्यक्तित्व की शास्त्रीय एवं आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा, आदर्श भोजन एवं उसका व्यक्तित्व पर प्रभाव, नित्यकर्म, योग हेतु आवश्यक नियम, योगाभ्यास की आवश्यकता-पूर्वापेक्षा तथा यम से लेकर ध्यान तक योग के अभ्यासों के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्ष को एक साथ प्रस्तुत किया गया है। एक साथ इतनी सामग्री को सरल भाषा में समेटना निश्चित रूप से कठिन कार्य था; किन्तु इसका प्रयास किया गया है कि यह सब अध्ययन सामग्री एक साथ पढने से अपेक्षित उद्देश्य प्राप्त होंगे। व्यक्तित्व परिष्करण के साथ ही आध्यात्मिक चेतना के मार्ग को प्रशस्त करना इस पुस्तक का मूल उद्देश्य है। कुछ बिंदुओं को छोड़ देना विषय की सीमा थी एवं मानवीय भूलवश कुछ तथ्यों का छूट जाना और यथोचित व्याख्या न हो पाना स्वाभाविक है। इन बातों को छोड़कर पुस्तक को मुख्य उद्देश्य तक पहुँचाने का हमने पूर्णरूपेण प्रयास किया है। पुस्तक के अध्यायों की मुख्य विषयवस्तु तथा उनका सार अतिसंक्षेप में इस प्रकार है।

व्यक्ति की समग्र स्वस्थता, व्यक्तित्व का विकास, संतुलन एवं समरसता तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान जैसे पाँच बिन्दुओं के अन्तर्गत रखकर योगाभ्यास की आवश्यकता को पहले अध्याय में स्पष्ट किया गया है। इसके अतिरिक्त पारंगत एवं योग्य गुरु, यथोचित भोजन, आदर्श दिनचर्या, स्थान एवं समय, आवृŸिा, वातावरण, ईश्वर प्रणिधान तथा निष्ठा एवं विश्वास आदि को पूर्वापेक्षाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन्हें समझकर ही यदि अभ्यास प्रारम्भ किया जाय तो फलस्वरूप अनेक सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे।

दूसरे अध्याय में मानव व्यक्तित्व के विविध पक्षों को शास्त्रीय एवं आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। व्यक्तित्व को जानने से यह लाभ है कि अपने व्यक्तित्व में उपस्थित कमी को अभ्यासों के द्वारा दूर किया जा सकता है। स्वस्थ व्यक्तित्व प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्तित्व में उपस्थित कमियों को दूर करने का अभ्यास यम तथा नियम के पालन से प्रारम्भ होता है। इसीलिए तीसरे अध्याय में यम तथा नियम को विवेचित किया गया है।

योग के नैतिक पक्ष अर्थात् यम को प्राथमिक अभ्यास के रूप प्रस्तुत किया गया है। आधुनिक काल में हिंसा से उपजी भय एवं अस्थिरता का निदान अहिंसा के ज्ञान एवं इसके पालन से सम्भव है। सत्य को यम के रूप में पालन करने से समाज के व्यक्तियों में आपसी विश्वास स्थापित होगा। ऐसा होने से भय, असुरक्षा तथा अविश्वनीयता समाप्त होगी। इसलिए इसका ज्ञान व इसका पालन दोनांे आवश्यक हैं। अस्तेय के ज्ञान एवं पालन से भी भय एवं अविश्वास का वातावरण समाप्त होकर एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा। सभी व्यक्तियों को यदि ब्रह्मचर्य का ज्ञान होगा और वे उसका पालन करेंगे तो चारित्रिक उत्थान होगा। इसी प्रकार अपरिग्रह भौतिक सम्पदा के अनावश्यक संचय से बचाकर व्यक्ति को भौतिक इच्छाओं से निकालकर आध्यात्मिक कल्याण हेतु अग्रसर करेगा। आधुनिक काल में प्रत्येक व्यक्ति को छोटी उम्र से ही नैतिक नियमों का ज्ञान होना एवं उनका पालन करना सिखाया जाना चाहिए। ये नैतिक मापदण्ड व्यक्ति को आत्मिक चेतना की ओर प्रवृत्त करते हैं। व्यक्ति समाज की इकाई है; यदि इकाई दृढ़ एवं अनुशासित होगी तो आदर्श समाज का निर्माण होना निश्चित है। इन यमों का व्यवस्थित एवं सुस्पष्ट वर्गीकरण तथा प्रस्तुतीकरण योगदर्शन को विशिष्ट बनाता है।

नियमों के अन्तर्गत व्यक्तिगत एवं चारित्रिक उत्थान के कुछ और पक्षों को योगदर्शन में स्पष्ट किया गया है। शौच के ज्ञान एवं पालन द्वारा शारीरिक एवं मानसिक स्वच्छता व्यक्ति को समग्र स्वस्थता एवं दृढ़ता प्रदान करती है। सन्तोष का ज्ञान एवं पालन प्रसन्नता एवं आत्मभाव को पोषित करता है; जिससे दुःखों से मुक्ति मिलती है। तप व्यक्ति को जीवन की कठिन एवं विषम परिस्थितियों को सहने एवं उनका निदान करने की क्षमता का विकास करने हेतु अद्वितीय साधन है। स्वाध्याय ज्ञान एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु आवश्यक है। बालकों में यदि स्वाध्याय का भाव विकसित होगा तो वे सफलता एवं विद्वता दोनों के भागीदार बनेंगे। प्रतिस्पर्धा से युक्त आधुनिक काल में वे ऐतिहासिक सफलता प्राप्त करने में सफल होंगे। ईश्वर-प्रणिधान के द्वारा व्यक्ति में किसी अदृश्य एवं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति समर्पण विकसित होता है; जिससे भय एवं असुरक्षा जैसी प्रवृत्तियाँ समाप्त हो जायेंगी। इस प्रकार नियम के पालन से अनेकानेक लाभ है; प्रत्येक व्यक्ति को इनकी जानकारी प्राप्त करके इनका पालन करने के प्रति सचेत करना चाहिए।

नियमों में से शौच एक ऐसा नियम है; जिसका सैद्धान्तिक ज्ञान होने के साथ ही क्रियात्मक ज्ञान भी होना चाहिए। इसके लिए हठयोग के षट्कर्म अभ्यास के छः शुद्धिकर्मों-धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक एवं कपालभाति को चैथे अध्याय में प्रस्तुत किया गया है। ये षट्कर्म व्यक्ति को योगाभ्यास के आसनादि अभ्यासों से पूर्व अवश्य करने चाहिए। षट्कर्म अभ्यास की धारा में अपेक्षित ढंग से नहीं अपनाया जा रहा है; उसे मुख्य धारा में सम्मिलित करने के तथ्यों के साथ ही सभी शुद्धिकर्मों के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्ष को प्रस्तुत किया गया है। इनका ज्ञान प्राप्त करके इन्हें अपनाया जाना चाहिए।

पांचवें अध्याय में आसन के तात्पर्य आदि को स्पष्ट करने के साथ विभिन्न शरीर संवर्धनात्मक, शिथिलीकारक एवं ध्यानात्मक आसनों को उनकी विधि एवं लाभों आदि के साथ विवेचित किया गया है। आसनों के अभ्यास द्वारा विभिन्न रोगों की चिकित्सा के साथ ही रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास आदि जैसे अन्य लाभ भी प्राप्त होते हैं। व्यक्ति को इनकी जानकारी प्राप्त करते हुए नित्यप्रति के अभ्यास में इन्हें अपनाना चाहिए। ऐसा होने मनोशारीरिक दृढ़ता एवं स्वास्थ्य जैसे लक्ष्य प्राप्त होते हैं।

आसनों के अभ्यास से प्राप्त शारीरिक दृढ़ता के पश्चात् किसी ध्यानात्मक आसन में बैठते हुए प्राणायाम करना सरल हो जाता है। इसके पश्चात् प्राणायाम करते हुए शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के साथ ही आध्यात्मिक लक्ष्यों का मार्ग भी प्रशस्त हो जाता है। छठे अध्याय में प्राणायाम के विभिन्न प्रकारों को विवेचित करते हुए उनसे प्राप्त शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभों को प्रस्तुत किया गया है।

आध्यात्मिक मार्ग में और भी अधिक सक्रिय होने हेतु एकाग्रता जैसे लक्षण विकसित करना आवश्यक है। इसके लिए हमने सातवें अध्याय में ध्यान के भिन्न प्रकारों के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्ष को स्पष्ट किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्याहार एवं धारणा को भी संक्षेप में स्पष्ट किया गया है; जबकि इनकी अधिकांशतः चर्चा नहीं की जाती। मुद्रा एवं बन्ध को यथोचित स्थानों पर अतिसंक्षेप में प्रस्तुत किया है; किन्तु छात्रों के दृष्टिकोण से जितना अपेक्षित है; मात्र उतना ही।

ध्यातव्य है कि मानव मन की प्रकृति, उसके विचलन एवं उसकी समग्र स्वस्थता का सर्वाेत्कृष्ट विश्लेषण योगदर्शन में ही किया गया है। मात्र उनको नवीन दृष्टिकोण के साथ समझने और समझकर अपनाने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही व्यक्तिगत स्वस्थता, नैतिकता, सामाजिक उत्थान एवं आध्यात्मिक कल्याण जैसे लक्ष्य एक साथ पूर्ण हो सकते हैं। साथ ही भारतीय दर्शन की इस समृद्ध शाखा को नवीन आयामों के साथ लोकप्रियता प्राप्त होगी तथा इसके अनछुए पक्षों पर छात्रों एवं जनसामान्य का ध्यान आकृष्ट हो सकेगा। सभी धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों की परिधि से ऊपर उठकर; व्यक्तिगत स्वस्थता, नैतिकता एवं सर्वांगीण कल्याण हेतु योगाभ्यास के सभी अभ्यासों का ज्ञान प्राप्त करके इन्हें अपनाना चाहिए। इसमें समस्त मानव जाति का कल्याण निहित है।

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