सालगिरह / सुरेश सौरभ

Gadya Kosh से
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बात पुरानी है, जब भी याद आती है, दिल में सिहरन-सी मच जाती है। वह मेरी शादी की पांचवी सालगिरह थी। मैंने सोचा क्यों न इस बार थोड़ा धूमधाम से मनाई जाए, इस पर वह राजी हो गए और मैंने अपने आस-पास के मेहमानों को फोन से कह दिया कि फलां डेट को हमारी शादी की मैरिज एनिवर्सरी में आना है।

उस दिन हमारी खुशी का कोई पारावार न था। हमने अपने घर के लोगों के साथ मिलकर घर को खूब सजाया संवारा था, और अच्छे-अच्छे व्यंजनों की व्यवस्था मेहमानों के लिए कराई थी। मेहमान नियत समय पर आ गए और एक छोटी-मोटी पार्टी जैसा माहौल घर में बन गया। हम बहुत खुश थे। शादी की प्रथम बेला में उनसे मुलाकात की, खुशनुमा हसीन यादों की, रात की उस, मधुरिम शहनाई से मेरा मन का कोना-कोना भीगने लगा, पुलकित होने लगा।

उन यादों की खुशनुमा तासीर से सारा घर महकने लगा। सब मेहमान कोई न कोई गिफ्ट लेकर आ रहे थे। जब केक काटा गया, तब हमारी खुशियाँ हजार-हजार पंखों से परवाज भरने लगी। , हमने तय कर लिया था कि मेहमानों के जाने के बाद आज एक ही थाली वैसे ही खाना खाएंगे जैसे हमने उस दिन शादी की पहली रात खाया था।

सब चले गए मेहमान। मैं गिफ्टों को उठा-धर रही थी, तभी कोई मुझे एक अजीब टाइप का गिफ्ट नजर आया और तब मैंने प्रतिक्रिया की-पता नहीं लोग गिफ्ट के नाम पर क्या-क्या दे जाते हैं। "

तब वे भी बड़ी ट्यून में बोले-अब ज़्यादा बकवास न करो जल्दी-जल्दी सामान सेट करो मुझे बहुत जोरों की भूख लगी है। "

तब मैं गुस्से में बोली-तुमको कोई अकल नहीं है। यह भी नहीं देखते कि कौन क्या दे गया। और कुछ बताओ तो इन्हें बकवास ही सब लगती है। " और मुझे इतना कहना था, यह सुनते ही जाने कहाँ का उनके मन में बैठा क्रोध का ज्वालामुखी एकाएक उबल पड़ा, तेजी से उठे और दो-तीन करारे-करारे तमाचे हमारे जड़ दिए. मेरा फूल-सा चेहरा कुम्भला गया और चेहरे पर छाईं सारी खुशियों की रंगत बेनूर हो गई. मैं मुरझा गई और गुस्से में चीख कर बोली-आज के बाद ज़िन्दगी में कभी नहीं मैरिज एनिवर्सरी मनाऊंगी।

"हां-हाँ कभी न मानाओ पूरा दिन दौड़-भाग करते-करते बीत गया और जरा-सी बात पर मुझे बेअकल कह रही हैं।"

उस रात हम दोनों बिस्तर पर मारे गुस्से के मुंह घुमा-घुमा कर लेट गए. देर रात तक मैं रोती रही और वह भी सुबकते रहे। फिर हमारी कब आंखें लग गईं पता न चला।

सुबह उठ कर मैंने कहा-सॉरी। "

वे-बोले गलती मेरी थी मुझे भी इतना भड़कना नहीं चाहिए था और तुम्हारे ऊपर हाथ नहीं उठाना चाहिए था। लेकिन होनी थी और हो गई.

मैंने कहा-किस्मत की बात है, सारे मेहमानों ने इंजॉय किया और अच्छे-अच्छे व्यंजनों का स्वाद लिया और हमने-तुमने पाए सिर्फ़ गम के आंसू। इतना कहकर मैं उनके कंधे से लग कर फफक पड़ी।

वे हंस कर बोले-चलो हम अब दिन में मैरिज एनिवर्सरी मनाते है।

मैंने आंसू पोंछते हुए कहा-बिल्कुल हमेशा दिन में ही हम मनाएंगे और किसी मेहमान को नहीं बुलायेंगे। हमारा प्रेम दो आत्माओं का बंधन है, फिर इसमें कोई दिखावा या तामझाम की क्या ज़रूरत?

अब हममें मिलन की उस प्रथम बेला की भीनी-भीनी सुगंध समाने लगी। इस सुगंध से दुनियावी भौतिकता का कलुष जाता रहा और हमारे अंतर्मनों खुशियों के तानपूरे बजने लगे।