साले हिजड़े / दीपक मशाल
वर्मा जी के बेटे का विवाह बड़े अच्छे से निपट गया था, सिर्फ विदा शेष थी। अचानक जाने कहाँ से ढोलक और ताली बजाते हुए ६-७ हिजड़ों की एक टोली विवाहघर में प्रकट हो गई। कुछ देर तक नाच-गाना करने और दुआएं देने के बाद हिजड़ों का मुखिया बारातियों से घर के मुखिया के बारे में पूछता हुआ वर्मा जी के पास पहुंचा और सीधे-सीधे पांच हज़ार के नेग की पेशकश कर दी। वर्मा जी पांच सौ से ज्यादा देने के मूड में कतई ना थे। सामने वाली पार्टी भी जिद्दी थी, बहुत कहने पर भी तीन हज़ार से एक पैसा कम लेने को राजी ना हुए।
वर्मा जी ने जब देने से इंकार किया तो वो सब स्वर्ग का द्वार दिखाने के नाम पर सब अपना घाघरा ऊपर उठाने लगे। झख मार कर इज्ज़त बचाने के लिए वर्मा जी ने अंटी से तीन हज़ार देकर उनको रफा-दफा किया। लेकिन उनके जाते ही गुस्से में वर्मा जी के मुँह से निकल ही गया- 'साले हिजड़े'।
मुझे एक सरकारी काम से उसी शहर में रुकना पड़ गया इसलिए बरात लौटने के एक दिन बाद अपने घर पहुंचा। घर पर पता चला कि तीन-चार बदमाश जंगल के रास्ते में बारात की बस को रोक, तमंचे की नोक पर सभी छप्पन बारातियों का माल-असबाब लूट ले गए।
सुनकर मेरे मुँह से तो कोई शब्द ध्वनित नहीं हुआ लेकिन मन वर्मा जी द्वारा कहे गए शब्द दोहराने से खुद को रोक ना पाया- 'साले...'