सालों बाद, नकोलिया बाध / अमित कुमार झा
तकरीबन सात सालों बाद नकोलिया बाध जाने का मौका मिला। इस बाध का न तो कोई ऐतिहासिक महत्त्व है और न ही यह आपको गूगल में मिलने वाला है। दरअसल, हमारे यहाँ बाध उस जगह को कहा जाता है, जहाँ दूर-दूर तक चारों तरफ केवल खेत ही खेत होते हैं। उस बाध में हमारे पूर्वजों के नौ कोले (कोला- खेतों का टुकड़ा) खेत थे।
ग्रीष्मावकाश में गाँव गया था, तो अचानक से नकोलिया (नौकोलिया) की याद आई. वर्षों तक वहाँ न जाने का कारण वहाँ की दूरी थी। यह बाध हमारे घर से तकरीबन कोस भर (कोस-२ मील) की दूरी पर है। तिस पर से जाने का कोई सड़क नहीं। बिल्कुल बाधे-बाध।
अपने चचेरे भाई दीपक को साथ लेकर मैं चल पड़ा। पसरिया पोखर के पास सड़क से उतरकर खेत के आरों (मेड़) पर चलते हुए पुरना पोखर के महाड़ पर पहुँचा। मैं हैरत में था कि महाड़ कहीं नजर नहीं आ रहा था। मुझे याद है कि इस पोखर की मिट्टी को गाँव की सबसे अच्छी चिकनी मिट्टी कहा जाता थी। चाहे घर साटना हो या मूर्तियाँ बनाना— लोगों की पहली पसंद यहीं की मिट्टी होती थी। मिट्टी माफियाओं ने महाड़ों की सारी मिट्टी बेच दी और अतिक्रमणकारियों ने उस जगह को अपना खेत बना लिया है। पहले इस पोखर में कमल खिला करता था। अब तो उसमें पानी ही नहीं है।
खैर, हम आगे बढ़े। सामने पैंतु चौधरी का आड़ा था। हालांकि यह निजी संपत्ति है, किंतु फिर भी गाँव के पर्यावरण के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण। यह एक आम का बगीचा है जिसमें अब केवल पचास-साठ पेंड़ बच गए हैं। फिर भी, इसमें तरह-तरह के आम फलते हैं यथा- फैजली, बंबइ, सिनुरिया, भेटरी, सब्जा, मालदह, कृष्णभोग इत्यादि।
थोड़ा आगे बढ़ने पर ठुट्ठा बाध आया। कहते हैं यहाँ पर एक बड़ा-सा पेंड़ था जो बाद में ठूँठ हो गया था। इसीलिए इसे यह नाम दिया गया था। इससे आगे पगबन्हा, फिर कदमक कूँड़ के पास हम सरङा धार पार हुए. सामने ही हमारा नकोलिया बाध था।
अपना खेत देखा। खेत में पटवा की फसल लहलहा रही थी। खेत की एकाध परिक्रमा कर लौट आया। आते-आते दीपक ने एक पेंड़ के पास बैठकर सुस्ताया और जामून भी तोड़ा।
घर आते-आते दीपक ने कहा— "कान पकड़ते हैं अमित भैया। फिर कभी यह बाध नहीं आएँगे हम। इतना दूर चलना आदमी का काम है क्या।" अब मैं उसे कैसे समझाऊँ कि यह बाध हमारे परिवार-समाज से लेकर देश तक का धरोहर है। हमारे पूर्वज वहाँ रोज जाया करते थे। मैंने तो दादाजी को दिन में तीन-तीन बार तक वहाँ जाते देखा है।