साल्ट ब्रिज: एक मीठे रिश्ते की फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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साल्ट ब्रिज: एक मीठे रिश्ते की फिल्म
प्रकाशन तिथि :07 जनवरी 2019


फिल्मकार अभिजीत देवनाथ की हिंदुस्तानी भाषा में बनी फिल्म 'साल्ट ब्रिज' का सीमित सिनेमाघरों में प्रदर्शन हुआ है। कथासार कुछ इस तरह है कि ऑस्ट्रेलिया में बसे एक भारतीय परिवार का एक शादीशुदा व्यक्ति वहां बसी भारतीय महिला का गहरा मित्र हो जाता है। वह महिला भी शादीशुदा है और इन मित्रों के बीच गहरी मित्रता है परंतु किसी तरह का शारीरिक संबंध नहीं है। इस संबंध में एक लोकप्रिय भ्रांति यह है कि किसी पुरुष और किसी महिला की मित्रता में शारीरिकता शामिल हो ही जाती है और इस तरह अवैध संबंध बन जाते हैं परंतु इस फिल्म में बार-बार यह रेखांकित किया गया है कि इन मित्रों के बीच ऐसा कुछ नहीं है। मुख्य पात्र लंपट व्यक्ति नहीं है। शरीर तो एक सीमा है, मित्रता सीमातीत होती है। इस फिल्म में यह भी बताया गया है कि जो भारतीय विदेश में बसता है, वह वहां जाकर अत्यधिक भारतीय हो जाता है। जिस व्यक्ति ने भारत में रहते हुए कभी पूजा-पाठ नहीं किया, वह विदेश के अपने घर में एक पूजा स्थान बनाता है और बार-बार प्रार्थना करता है।

यह संभव है कि विदेश में शुद्ध भोजन मिलता है, ऑर्गेनिक ढंग से उपजाई वस्तुएं खाता है और हवा में प्रदूषण भी अत्यंत कम है तो उसे स्वयं का वहां बसना एक चमत्कार लगता है और इस चमत्कार को ही वह ईश्वर का आशीर्वाद मानकर बार-बार ईश्वर को धन्यवाद देता है। क्या इस तरह जीवन में आदर्श मूल्य का निर्वाह करना भी उस धन्यवाद ज्ञापन का एक हिस्सा माना जाना चाहिए। ज्ञातव्य है कि महान लेखक ज्यां पॉल सार्त्र और समान प्रतिभा की धनी सिमोन द ब्वॉ भी एक साथ रहते हुए कभी कभार ही अंतरंग हुए और जब भी वे किसी अन्य की ओर आकर्षित हुए यह बात उन्होंने एक-दूसरे से कभी छुपाई नहीं। पुरुष और महिला मित्र बने रह सकते हैं।

विदेश में बसे भारतीय अपनी प्रखर क्षेत्रीयता की संकीर्णता को विदेशों में भी कायम रखते हुए भिन्न, सामाजिक व सांस्कृतिक क्लबों का गठन करते हैं गोयाकि हमारा बंटा होना विदेश में कायम रह जाता है। फिल्म में भी इसी तरह की एक संस्था है, जो इस मित्रता पर प्रश्न उठाती है। नायक को निष्कासन की धमकी दी जाती है। वह अपने पथ पर ही चलता रहता है तो उसकी सदस्यता भंग करके उसे निष्कासित कर दिया जाता है जैसे किसी को अपने गांव से निकाल दिया जाए या उसकी नागरिकता उससे छीन ली जाए। इस कठोर कदम के बाद भी वह अपनी मित्रता कायम रखता है।

मित्रता कभी किसी छुपे हुए एजेंडे के लिए नहीं की जाती और किसी तरह का लाभ उठाने का उद्देश्य भी नहीं होता। इस रिश्ते की पवित्रता भी इसी में निहित है। इस फिल्म में नायक अपनों द्वारा देश निकाला दिए जाने के बावजूद मित्रता पर कायम रहता है और इसका उसने कारण भी फिल्म के क्लाइमैक्स में बताया है। इसे उजागर नहीं किया जा सकता और सच तो यह है कि खाकसार ने फिल्म देखी ही नहीं। यह लेख अन्यत्र जाहिर सामग्री पर आधारित है।

हर मनुष्य यह चाहता है कि वह अपने मन में छुपी हर बात किसी न किसी को कभी न कभी अवश्य बताए। इस तरह का संवाद एक मित्र के साथ हो सकता है। एक अन्य दृष्टिकोण यह है कि मित्रता एक तरह का आईना भी हो सकती है कि आप स्वयं को किसी अन्य के माध्यम से जान सकें। महाभारत के सार के रूप में भी वेदव्यास यह कहते हैं कि विभिन्न रिश्तों के बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया में हम स्वयं को जानने का प्रयास करते हैं। हम सारे प्राइड एवं प्रेज्यूडिस से मुक्त होकर स्वयं को नितांत नंग-धड़ंग रूप में देख सके। कबीर का दोहा 'घूंघट के पट खोल तोहे पिया मिलेंगे, झूठ वचन मत बोल तोहे फिर पिया मिलेंगे'। इन पंक्तियों का आशय यह है कि मनुष्य की आंख पर उसकी संपत्ति और बुद्धि के गर्व के घूंघट पड़े हैं इसलिए वह ईश्वर को नहीं देख पाता। स्वयं ईश्वर ने कभी कोई आवरण या घूंघट नहीं पहना है। सत्य तो हमेशा नंग-धड़ंग ही होता है। उसे स्वयं को छुपाए रखने का कोई कारण ही नहीं है। इस तरह मित्रता हमें 'घूंघट' मुक्त करती है।

मित्रता से प्रेरित पुस्तकें और फिल्मों की संख्या बहुत अधिक है। इनमें सबसे सशक्त फिल्म पीटर ओ टूल और रिचर्ड बर्टन अभिनीत 'बैकेट' मानी जाती है। रमेश सिप्पी की 'शोले' भी मित्रता को गरिमा प्रदान करती है। जय जिस सिक्के को उछालता है उसके दोनों भागों पर एक ही छवि अंकित है। यह भी मित्रता की एक परिभाषा हो सकती है। ताराचंद बड़जात्या की फिल्म 'दोस्ती' में एक अंधा और एक लंगड़ा मित्र है। अंधे के कंधे पर लंगड़ा बैठता है, क्योंकि एक मार्ग बता सकता है तो दूसरा चल सकता है। दरअसल श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की भी मिसाल दी जाती है। वे ब्राह्मण थे और युद्ध को क्षत्रियों का काम बताया गया है। बहरहाल मित्रताविहीन व्यक्ति सचमुच अत्यंत गरीब होता है परंतु मित्रता का रिश्ता बहुत त्याग मांगता है। सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मूर्खता को भी मित्रता की खातिर सहन करना पड़ता है। वैचारिक भिन्नता के साथ बनी मित्रता सचमुच दुर्लभ रिश्ता है। प्राय: हुक्मरान का कोई मित्र नहीं होता और हमारे हुक्मरान को तो शत्रुता को जन्म देने की महारत हासिल है।