सावधान, सावधान बोली लगाएं मेहरबान! / जयप्रकाश चौकसे

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सावधान, सावधान बोली लगाएं मेहरबान!
प्रकाशन तिथि :17 मार्च 2018


हाल ही में दो वर्ष पूर्व घटी बात प्रकाश में आई है कि एक पति अपनी पत्नी को जुए में हार गया और जीतने वाले के हाथ अपनी पत्नी को सौंप आया। विशेषज्ञों ने सही कहा है कि भारत में कभी कुछ ऐसा नहीं घट सकता, जो महाभारत में वर्णित नहीं है, गोयाकि हजारों वर्ष से हम वेदव्यास के लिखे महाकाव्य को ही जी रहे हैं। द्रौपदी भी जुए में हारी गई थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने अन्य भाइयों से आज्ञा लिए बिना ही द्रौपदी को दांव पर लगा दिया, जबकि वह पांचों भाइयों की सांझा पत्नी थी। सबसे बड़ी बात यह है कि द्रौपदी से ही उसे दांव पर लगाने की इजाजत नहीं ली गई। शास्त्रों से संविधान तक में महिला महिमा का बखान है परंतु व्यावहारिक तथ्य यह है कि वह दोयम दर्जे की नागरिक ही मानी गई है। कितने दशकों से संसद में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत प्रतिनिधित्व संबंधी बिल पास नहीं किया जा सका है। दरअसल, पुरुष महिला से भयभीत है। अंतरंगता क्षेत्र में भी वही भारी पड़ती है परंतु संस्कार नामक काल्पनिक जंजीर से उसकी इच्छा को बांध दिया गया है। यहां तक कि तफायफ भी अपना हक नहीं मांगती। लज्जा नामक भाव का आविष्कार भी महिला को दबाए रखने के लिए किया गया है। ज्ञातव्य है कि राजकुमार संतोषी ने 'लज्जा' नामक फिल्म में नारी विमर्श के इस विषय को लिया है। विवाह के समय भी दूल्हा कमर में छुरी या तलवार बांधे आता है और द्वाराचार के समय एक नारियल फोड़ता है, जिसे वधू पक्ष का सम्मान माना जाता है। कोई आश्चर्य नहीं कि बारात का बैंड 'नया दौर' का यह गीत जरूरत बजाता है 'ये धरती है वीर जवानों की…!' विवाह की रस्में युद्ध की रियाज से जुड़ी हुई है। यह मामला भारत तक सीमित नहीं है। ब्रिटिश लेखक थॉमस हार्डी के उपन्यास 'मेयर ऑफ कैस्टरब्रिज' में भी जुए में महिला को हार जाने का प्रसंग है और यश चोपड़ा ने इसी उपन्यास को राजेश खन्ना अभिनीत 'दाग' में प्रस्तुत किया था। यशराज के बड़े भाई बलदेवराज चोपड़ा तो विदेशी फिल्मों और उपन्यासों से इस कदर 'प्रेरित' थे कि उन्होंने एक फिल्म का नाम भी उड़ा लिया था। 'धूल का फूल,' जो प्रेरित थी 'ब्लॉसम इन डस्ट' से।

सनसनी के प्रति समर्पित एक पत्रकार 26 रुपए में एक जनजाति की महिला कमला को खरीद लाया और बड़े जोश से उसे पत्रकार परिषद में प्रस्तुत किया परंतु कमला का बाद में क्या हुआ यह कभी जाना नहीं गया। मूंदड़ा नामक फिल्मकार ने इस विषय पर फिल्म भी बनाई थी, जिसके एक दृश्य में खरीदी गई जनजाति की कन्या पत्रकार की पत्नी से पूछती है कि उसे कितने रुपए में वहां से खरीदा गया था। उसका यह सवाल एक झन्नाट तमाचे की तरह पुरुषों के गाल पर पड़ता है। जनजातियों की औरतों को सभ्य समाज की स्त्रियों से अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है। कुछ जनजातियों में पुरुषों को दहेज देना पड़ता है और दहेज के अभाव में वे कन्या के घर नौकर की तरह कुछ समय काम करते हैं। ऐसे ही एक प्रसंग में कन्या पुरुष से कहती है कि उसका पिता उससे इतना अधिक काम कराने वाला है कि वह मर जाए। अत: कन्या की प्रेरणा से वे दोनों भाग जाते हैं। स्मृति क्षीण हो रही है परंतु ऐसा लगता है कि मेहरुन्निसा परवेज ने बस्तर की जनजातियों पर अनेक कथाएं लिखी हैं। गुलशेर खान शानी के उपन्यास 'काला जल' पर एक सीरियल दूरदर्शन ने बनाया था।

पत्नी को वस्तु मान लेने के प्रसंग भी है। कुंती अपने पुत्रों को पत्नी आपस में बांट लेने को कहती है। क्या महज माता के प्रति आदर के कारण पांचों भाई द्रौपदी से विवाह के लिए तैयार हो गए या उनके अवचेतन में उसका सौंदर्य इस कदर दर्ज था कि उन्होंने अपनी मां को यह समझाने का प्रयास भी नहीं किया कि वे कोई वस्तु नहीं वरन स्त्री जीतकर लाए थे। महाभारत कई प्रश्नों के उत्तर देता है परंतु कई सवाल भी खड़े करता है। दरअसल, महाभारत उस घने जंगल की तरह है, जिसमें जितना अधिक प्रवेश करो उतने नवीन दृश्य देखने को मिलते हैं।

गिरीश कर्नाड के नाटक 'हयवदन' में स्वयंवर का विवरण है, जिसमें कन्या एक घोड़े के गले में वरमाला डाल देती है। 'हयवदन' में एक पहलवान और कवि मित्र हैं। एक भग्न मंदिर में सदियों से सोयी हुई देवी जागृत हो जाती है। महिला के लिए लड़े गए युद्ध में दोनों के सिर कट जाते हैं और देवी महिला से कहती है कि कटे हुए सिर धड़ पर रख दो तो वे दोनों को जीवित कर देंगी। महिला सबकुछ समझकर पहलवान का सिर कवि के धड़ पर और कवि का सिर पहलवान के धड़ पर रख देती है। कवि का मस्तिष्क पहलवान के धड़ पर लगा दिया गया है, अत: वह कवि हो जाता है और कसरत का त्याग करने के कारण फिर पहले जैसा हो जाता है। पहलवान का मस्तिष्क कवि के धड़ पर रख देती है। वह जंगल में लकड़ियां काटते हुए फिर पहले जैसा हो जाता है। इस तरह गिरीश कर्नाड संपूर्णता के मिथ को ध्वस्त कर देते हैं। हम सब आधे-अधूरे इम्परफेक्ट लोग हैं। इस नाटक की महिला ऐसा पुरुष चाहती है, जिसके शरीर में पहलवान-सा बल हो और विचार प्रक्रिया कवियों जैसी हो।

मैक्सिम गोर्की का कथन है कि बंदूक से चली हर गोली अंततोगत्वा किसी न किसी स्त्री के हृदय में ही जाकर धंसती है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में स्त्री को जुए में हार जाना पुन: यह सिद्ध करता है कि उसे 'वस्तु' ही माना जा रहा है। हमने लगभग आधी आबादी को वस्तु मान लिया है। अब हम किस बात पर गर्व कर रहे हैं और हुक्मरान किस विकास का ढोल पीट रहे हैं