सावधान ! आलिया भट्ट आ रही हैं / जयप्रकाश चौकसे

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सावधान ! आलिया भट्ट आ रही हैं
प्रकाशन तिथि : 19 अक्तूबर 2012


करण जौहर की 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' में महेश भट्ट की पुत्री आलिया भट्ट को देखकर पांचवें दशक की हॉलीवुड सितारा एलिजाबेथ टेलर का स्मरण बरबस हो आता है। कहीं कहीं आभास होता है कि १९९५ की ऐश्वर्या रॉय सामने आ गई हैं। वह न केवल सुंदर हैं, वरन अभिनय क्षमता का आभास भी देती हैं। इसी तरह निर्देशक डेविड धवन के सुपुत्र वरुण ने भी प्रतिभा का संकेत दिया है। फिल्म के तीसरे नए चेहरे ने भी संयत काम किया है। इस फिल्म को बनाने का मूल उद्देश्य चालीस पार सितारा शासित उद्योग में नई प्रतिभाओं को प्रस्तुत करने का रहा है। प्राय: नए चेहरों के साथ चार-पांच करोड़ की लागत से फिल्म बनाई जाती है और प्रचार पर दो करोड़ से अधिक खर्च नहीं किया जाता। करण जौहर ने इसे शाहरुख अभिनीत फिल्म की तरह बनाते हुए शूटिंग पर पैंतीस करोड़ खर्च किए हैं और जमकर प्रचार भी किया है। उनके साहस की प्रशंसा करनी होगी। यह बात अलग है कि केवल नेक इरादों और साहस से सार्थक फिल्म नहीं बनती।

करण जौहर को भव्यता प्रस्तुत करने का जुनून है और नाच-गाने के फिल्मांकन पर वे जमकर मेहनत करते हैं। इस फिल्म में भी करण जौहर की तमाम फिल्मों की तरह भव्यता, गीत-संगीत इत्यादि है। एक पहाड़ों की तरह पुराने प्रेम त्रिकोण को उन्होंने एक भव्य शिक्षा संस्थान की पृष्ठभूमि पर रचा है और संस्था लगभग एक छोटे शहर की तरह भव्य पैमाने पर प्रस्तुत की है। शिक्षा का ऐसा मंदिर कभी देखा नहीं और यह शिक्षा के उस सोमनाथ मंदिर की तरह है, जिसे लूटा नहीं गया है। मंदिर में आस्था के गौण होने और आडंबर के भव्य होने की तरह पाठ्यक्रम में शिक्षा गौण है, परंतु खेल-कूद और अन्य प्रतिस्पर्धाएं ओलिंपिक के पैमाने पर आयोजित की जाती हैं। इसमें छात्रवृत्ति पर पढऩे आया अनाथ गरीब छात्र नायक है, नायिका अमीर परिवार की है और जिस लड़के से प्यार करती है, उसे अंबानी की तरह अमीर बताया गया है। उसे अपने संगीतकार बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले पुत्र से नफरत है और मात्र इस रईस को पराजित करने के लिए गरीब मेधावी छात्र जानकर एक प्रतियोगिता हार जाता है। इस तरह गरीब की विशाल हृदयता के फॉर्मूले का इस्तेमाल भी है। गरीब नायक का पात्र एयन रैंड की 'द फाउंटेनहेड' से हावर्ड रोर्क के पात्र की प्रेरणा से रचा लगता है। दरअसल स्कूल-कॉलेज की पृष्ठभूमि पर देश-विदेश में अनेक महान फिल्में रची गई हैं, जैसे 'ग्रेजुएट' और भारत में 'मेरा नाम जोकर' का शुरुआती हिस्सा, परंतु करण की इस फिल्म में उन बातों के बदले प्रेम और प्रतियोगिता पर जोर दिया गया है। अत: यह खेल किसी भी पृष्ठभूमि पर रचा जा सकता था, परंतु युवा वर्ग के लिए फिल्म गढऩी थी, इसलिए शायद कॉलेज को रखा गया है। दरअसल इस फिल्म का उद्देश्य नए सितारों को महंगी फिल्म में प्रस्तुत करना मात्र था, अत: इसके अन्य पक्षों पर कैसे बात की जा सकती है और आलिया भट्ट का सौंदर्य फिल्म के चकाचौंध को भी मात दे देता है। उन पर से निगाह ही नहीं हटती।

इस युवा मौज-मस्ती वाली फिल्म में प्राचार्य को समलैंगिक रुचियों वाला बताना आवश्यक नहीं था और उसकी मृत्यु के क्षण की गरिमा भी इस संवाद या संकेत से नष्ट हो जाती है कि अगले जन्म में मिलेंगे। यह कुछ ऐसा ही है, मानो तीरों की सेज पर भीष्म के अंतिम क्षण में शिखंडी आकर कहे कि अगले जन्म में मिलेंगे। बहरहाल, करण जौहर शायद यह कहना चाहते हैं कि भारत में भी समलैंगिकता को वही आदर और स्वीकृति मिलनी चाहिए, जो पश्चिम के देशों में मिलती है। परंतु इस उद्देश्य के लिए उन्हें अलग से एक पूरी फिल्म रचनी चाहिए और इसके तड़के से सामान्य कहानियों को बचाना चाहिए।

फिल्म में प्रतियोगिता के पश्चात पुरस्कार वितरण समारोह में धवन द्वारा पुरस्कार को नहीं ग्रहण करना क्योंकि मात्र वही जानता है कि नायक ने जानकर उसे जिताया है, एक गंभीर भावनात्मक दृश्य है, परंतु उसमें एक नाराज युवा द्वारा प्रतियोगिताओं के व्यर्थ होने पर भाषण अटपटा लगता है और आभास होता है कि यह '३ इडियट्स' का प्रभाव है। बहरहाल, इस फिल्म से उद्योग को तीन प्रतिभाशाली कलाकार मिले हैं, जिनमें नायिका का सौंदर्य चमत्कारी प्रभाव रखता है। यही इस फिल्म का सशक्त पक्ष है। फिल्म में कॉलेज परिसर में कन्याएं 'बेवॉच' से सैट पर आई लगती हैं।