साहब, बीवी, गुलाम, गैंगस्टर और अवाम / जयप्रकाश चौकसे

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साहब, बीवी, गुलाम, गैंगस्टर और अवाम
प्रकाशन तिथि : 24 जुलाई 2018


तिगमांशू धूलिया की 'साहब, बीवी और गैंगस्टर 3' का प्रदर्शन होने जा रहा है। इस शृंखला में नायक बदलते रहे हैं परंतु 'साहब' की भूमिका में जिमी शेरगिल तीनों भागों में रहे हैं। जिमी शेरगिल ने 'तनु वेड्स मनु' में भी प्रेम में मात खा जाने वाले चरित्र अभिनीत किए हैं। उन्हें प्राय: मात खा जाने वाले चरित्र दिए गए हैं परंतु पंजाबी भाषा में बनने वाली फिल्मों में वे नायक की भूमिकाएं अभिनीत करते हैं और सुपरस्टार की हैसियत रखते हैं। तिगमांशू धूलिया की इन फिल्मों से गुरुदत्त की 'साहब, बीवी और गुलाम' की याद आना स्वाभाविक है। बिमल मित्र के वृहत उपन्यास से प्रेरित फिल्म में गुरुदत्त ने केवल उस पत्नी की त्रासदी पर ही ध्यान केंद्रित किया, जो अपने सामंतवादी पति को गलत आदतों से बचाने के लिए शराबनोशी करती है। पति तो सन्मार्ग पर आ जाता है परंतु 'बीवी' आदतन शराब पीती है। उसके दुख बहुआयामी हैं। वह नि:संतान है और अय्याशी में अधिक समय बिताने वाला पति पिता होने की क्षमता भी खो चुका है।

अय्याशी में आकंठ आलिप्त जमींदार एक दलाल के बहकावे में आकर कोयले की खानें खरीदते हैं परंतु उन खदानों से कोयला तो नहीं निकलता परंतु उनका दीवाला निकल जाता है। यथार्थ जीवन में एक बड़े कोयला घोटाले के कारण वह व्यवसाय ही समाप्त हो गया है, जिसके कारण पावर प्लांट लगाने में लोगों का धन फंस गया है। ऊर्जा उत्पादन में भारी कमी आ गई है। कोयला खनन का काम पुन: आरम्भ किए जाने से ही ऊर्जा का उत्पादन हो सकेगा। ठप पड़े उद्योगों में कोयला खनन भी शामिल है।

गुरुदत्त की फिल्म के प्रारंभ में गंवई गांव का व्यक्ति जमींदार के महल के सेवकों के रहने वाली जगह में रहता है। फिल्म के अंत में एक ओवरसीयर की निगरानी में उसी महल का मलबा उठाया जा रहा है। यह ओवरसीयर वही प्रश्रय पाने वाला व्यक्ति है, जिसने शिक्षा पाकर यह पद प्राप्त किया है। एक आम सड़क बनाने के लिए मलबा हटाया जा रहा है। कोठी का मलबा ढह गए सामंतवाद का प्रतीक है और आम रास्ता बनाया जाना गणतंत्र का प्रतीक है। आज़ादी के बाद अमीरों से भांति-भांति के कर लेकर शिक्षा का प्रसार किया गया। इस आशा के साथ कि शिक्षित लोग देश को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाएंगे और समानता पर आधारित संविधान को मजबूत बनाएंगे। शिक्षित लोगों ने अपनी डिग्रियों का इस्तेमाल डेगर यानी 'खंजर' की तरह किया। पढ़े-लिखे लोग ही फाइलों के साथ खेलकर रिश्वत लेते हैं। अनपढ़ इस खेल के बाहर ही रहे परंतु भीतर जाने को लालायित जरूर रहे। भ्रष्टाचार से वे ही बचे रहे जो इसके दायरे में नहीं आ पाए। असमर्थता को ईमानदारी का मुखौटा कहा गया।

इस फिल्म के जमींदार अपने भरोसे के लोगों से डाके डलवाते हैं। अपनी साख से उन्हें बचा लेने का भरोसा दिलाते हैं। सामंतवादी दौर में डाका डालना कानूनी रूप से जायज था। उस समय डाके को कर या लगान कहा जाता था। यह भी गौरतलब है कि आज़ादी के बाद कई सामंतवादी लोगों ने चुनाव लड़े और भारी बहुमत से जीते, क्योंकि हजारों वर्षों से अवाम के अवचेतन में यह ठूंसा गया था कि राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। सिंहासन पर उसका जन्मना अधिकार है। हमारे पौराणिक आख्यानों और उनके गलत-सलत अनुवादों ने कहर ढाया है। सक्षम का कोई दोष नहीं होता ऐसा कुछ भी कहा गया है। तुकबंद लोग धार्मिक आख्यान से प्रेरित काव्य लिखकर अजर-अमर हो गए।

गुरुदत्त की 'साहब, बीबी और गुलाम' और तिगमांशु धूलिया की फिल्मों में एक निरंतरता है कि दोनों ही समाज की दुखती रग पर उंगली रखती है। अब 'साहब' गैंगस्टर हो गए हैं और बीवी जकड़ी हुई है। गुरुदत्त का गुलाम घटनाक्रम का पर्यवेक्षक रहते हुए घटनाक्रम का हिस्सा हो जाता है क्योंकि 'बीवी' के प्रति उसके मन में असीम आदर है। तिगमांशू धूलिया का गुलाम बीवी की जुल्फों में लगे फूल की तरह है। क्या अब 'गुलाम' भी अय्याश हो गया है? वह हमारे मध्यम वर्ग की तरह है जो अनावश्यक चीजें खरीदने का आदी हो चुका है। वह नशे में गाफिल है। यह नशा एल.एस.डी. से अधिक घातक है, क्योंकि आत्मा तक को नशेड़ी बना देता है। गुरुदत्त और धूलिया की फिल्में सेल्युलाइड पर लिखा भारत का इतिहास है। इसका कालखंड 1833 से 2018 तक फैला हुआ है।

इंग्लैंड की संसद में भारी बहस के बाद तय हुआ कि अंग्रेजी भाषा भारत में पढ़ाई जाएगी। इस तरह अंग्रेजों ने भारत का एक और विभाजन किया अंग्रेजी बोलने वाला श्रेष्ठि वर्ग और मातृभाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने वाला अवाम। अंग्रेजी एक तरह से भारत में 'साहब' का दर्जा रखती है।