साहब ? / अशोक भाटिया
Gadya Kosh से
अंकुर को उसका सम्बन्धी सुरेश स्टेशन से अपने बंगले में लेकर गया, तो दोनों नौकरों ने बड़े अदब से उसे सलाम मारा और बहुत सलीके से उसकी आवभगत की।
शाम को काम निबटाकर दोनों जा रहे थे।
रामदीन ने कहा, ”यार, यह भी साहब है क्या?”
शामदीन ने कहा, ”मुझे तो नहीं लगता...। न तो इसका पेट बढ़ा है, न इसके चेहरे पर चर्बी चढ़ी है। ”
रामदीन ने कहा, ’इसका तो चेहरा भी डरावना नहीं ..! अपने साहब का तो चेहरा देखते ही खून सूखने लगता है और सलाम मारना ही पड़ता है। ”
अगले दिन जब छोटे साहब उठे, तो रामदीन बिस्तर तह करने के लिए भीतर गया। उसने देखा, अंकुर अपना बिस्तर खुद ही था रहा था। ”
उसने आकर कहा, “वह तो बिस्तर भी खुद ही गोल कर रहा है...”
शामदीन बोला, ”अच्छा ! कामचोर भी नहीं, फिर तो वह साहब नहीं हो सकता!”
उस दिन से सलाम सिर्फ बड़े साहब को मिलने लगा।