साहित्यकार बटा आलोचक/ गिरिराजशरण अग्रवाल

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हमारे एक साहित्यकार मित्र हैं। उनकी विशेषता यह है कि वह मास्टर ऑफ़ ऑल हैं। यानी साहित्य की कोई भी विधा हो, वह हर समय, हर विधा में उचित-अनुचित, वैध-अवैध हर तरह का हस्तक्षेप करने को तैयार रहते हैं।

यह मास्टर ऑफ़ ऑल साहित्यकार हमारे लिए हमेशा एक अजूबा रहे हैं। उन्होंने साहित्यकारों को अनेक श्रेणियों में बाँट रखा है। मिसाल के तौर पर उनका कहना है कि साहित्यकारों का एक टाइप होता है 'हिज मास्टर वाइस' ! हिज मास्टर वाइस टाइप के साहित्यकार स्वयं नहीं लिखते बल्कि दूसरों के सुझाव या आलोचकों के मार्गदर्शन में अपनी लेखनी का प्रयोग करते हैं। वे चतुर भी होते हैं और दुनियादार भी। हमारे यह मास्टर ऑफ़ ऑल साहित्यकार साहित्यकारों की एक और श्रेणी बताते हैं, जिसे समाज में प्राय: हरफ़नमौला के नाम से पुकारा जाता है। यानी इस श्रेणी के साहित्यकार जीने की हर कला में दक्ष होते हैं, ये सर्कस की करतबबाजी से लेकर मंच की नाटकबाजी तक सभी कर लेते हैं। कलाकारी, चाटुकारी कुछ भी हो, समय पड़ने पर ये हर मैदान में अपना सिक्का जमा सकते हैं।

साहित्यकारों की एक और श्रेणी जो हमारे साहित्यकार मित्र हमें बताते हैं, वह उनके घरेलू शब्दों में हाथी दाँत मार्का साहित्यकारों की है। इस श्रेणी के साहित्यकार रचते कम हैं और जँचते ज़्यादा हैं। ये महापुरुष लिखाई तो कम करेंगे, लेकिन दिखाई अधिक देंगे। उनका कहना है कि समाज में सबसे ज़्यादा कामयाब श्रेणी यही है। क्योंकि दिखावे के बिना हमारी-आपकी तो क्या परमपिता की गाड़ी भी नहीं चल सकती। काम कम, दिखावा अधिक, यह सफल जीवन का ऐसा अचूक नुस्खा है, जिसे इस श्रेणी के साहित्यकारों ने गहराई तक समझा है और पूरी ईमानदारी से इस पर अमल कर रहे हैं।

वर्ष-भर में केवल एक कविता को जन्म दिया और फिर उसे रेडियो, टी.वी., ऑल इंडिया कविसम्मेलनों में तथा देश से बाहर आयोजित होनेवाली कविगोष्ठियों में, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस प्रकार घुमा-फिरा डाला, जैसे पूजा का प्रसाद बाँट रहे हों। यह कविता श्रोताओं का कल्याण करती हो या न करती हो, किंतु कवि महोदय और उनकी गृहस्थी का कल्याण अवश्य कर देती है।

एक और श्रेणी जो हमारे यह लेखक मित्र साहित्यकारों की बताते हैं, वह मुँह में राम और बगल में भारतीय दंड संहिता के हिसाब से कोई अवैध अस्त्र-शस्त्र रखने वालों की है। चूँकि साहित्यकार हैं, इसलिए छुरी-कटार, चाकू आदि तो वह रख नहीं सकते, इसलिए वह केवल शब्द ही रखते हैं, जिनका एक भाग उनके अधरों पर होता है और दूसरी पोटली उनकी बगल के बीच। अधरों के फूल अन्य साहित्यकारों के सामने बरसते हैं तो बगल की पोटली का विष उनके पीछे। यह श्रेणी वह है, जिसके हाथ का फ़ीता, जब अपने नापने को लिए प्रयोग होता है तो रबड़ की भाँति खिंचकर आकाश तक पहुँच जाता है और दूसरों को नापते समय बालिश्तभर रह जाता है। इसीलिए उन्हें अपना क़द हमेशा हिमालय जैसा दिखाई पड़ता है और हम-आप जैसे ऐरा-ग़ैरा साहित्यकार अद्धे-पौवे और बालिश्तिए नजर आते हैं।

श्रीमान अमुक हमें बताते हैं कि भारत में साहित्यकारों की इतनी अधिक श्रेणियाँ हैं कि जितनी भाषाएँ भी यहाँ नहीं हैं। हँसने-हँसानेवाले साहित्यकार, रोने-रुलानेवाले साहित्यकार, उत्तेजित करनेवाले साहित्यकार, पिघलाने ओर कठोरता पैदा करनेवाले साहित्यकार, नाचने और तालियाँ बजवानेवाले साहित्यकार, मजमा लगानेवाले साहित्यकार, एकांत में बैठकर मक्खियाँ मारनेवाले साहित्यकार, हर समय बसों, रेलगाडि़यों की सीटें घिसने वाले साहित्यकार, प्रकाशकों-संपादकों के ईद-गिर्द चक्कर लगानेवाले साहित्यकार, सारांश यह है कि लाठीटेक साहित्यकारों से लेकर अंगूठाटेक साहित्यकारों तक हजारों क़िस्में हैं इस प्रजाति की और मजे की बात यह है कि जब सचमुच मानवजाति हमारी बूढ़ी पृथ्वी से धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, तब साहित्यकारों की सभी प्रजातियाँ दिन दूनी, रात चौगुनी गति से फल-फूल रही हैं, हमारे इस साहित्यकार मित्र का विचार है कि जल्दी ही वह दिन आ सकता है, जब मानव-प्रजाति अपनी मानवीय विशेषताओं के साथ पूर्ण रूप से लुप्त हो जाए, पर साहित्यकारों की सभी श्रेणियाँ आपस में युद्ध लड़ने के लिए बाकी रह जाएँ।

सच पूछिए तो हम अपने साहित्यकार मित्र के इन विचारों से बिल्कुल सहमत नहीं हैं। उन्होंने साहित्यकारों की सम्मानित प्रजातियों का जो ब्योरा प्रस्तुत किया है, वह सच हो या न हो, लेकिन हमें किसी तरह सूट नहीं करता। हम तो यह मानकर चलते हैं कि इस गए-गुजरे युग में भी साहित्यकार वही हैं, जो जीवन को लोगों के लिए जीने-योग्य बनाए रखने की चेष्टा करते हैं। साहित्यकार न हो, कला न हो, नृत्य न हो तो ऐसे में आदमी पाषाण बनकर नहीं रह जाएगा क्या? पर हमारे मित्र इस बात से पूरी तरह सहमत होकर भी साहित्यकारों के बारे में अपने विचार बदलने के लिए तैयार नहीं हैं।

इससे बढक़र उनकी एक कठिनाई और है। वह कुछ साहित्यकारों को साहित्य-जगत् की नागरिकता देने के लिए ही तैयार नहीं। यों तो वह क़ानून अपने हाथ में लेना चाहते हैं, लेकिन अगर ले सकते तो सबसे पहले उन साहित्यकारों को साहित्यकार की दुनिया से निष्कासित करने के लिए क़दम उठाते, जो बहुत-कुछ लिखते हुए भी उनकी राय में साहित्यकार नहीं हैं।

सबसे पहले तो उनकी तोप का निशाना आलोचक कहे जाने वाले साहित्यकारों की ओर होता है। हमारे मित्र यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि आलोचकों को भी वही स्थान मिलना चाहिए, जो साहित्यकारों को प्राप्त है। उन्हें तो इस बात पर कड़ी आपत्ति है कि आलोचक साहित्य के शिखर पर ही नहीं, साहित्यकारों की खोपड़ी पर बैठा ठुमके लगा रहा है और कोई भी ऐसा दमखम वाला पैदा नहीं हो रहा है, जो उसे यह अन्याय करने से रोक सके. हमारे मित्र श्रीमान अमुक उच्चतम न्यायालय की एकसदस्य खंडपीठ की तरह अपना निर्णय सुनाते हैं कि आलोचक चाहे पद्य के हों या गद्य के, उन्हें साहित्यकारों की श्रेणी से निष्कासित कर दिया जाए. क्योंकि साहित्य-जगत् की यह वह प्रजाति है, जो स्वयं कुछ नहीं लिखती, बल्कि दूसरों के लिखे-लिखाए की चीरफाड़ कर अपनी धौंस जमाती है।

हम उनके निर्णय के विरुद्ध अपील दायर करते हुए कई बार यह तर्क दे चुके हैं कि रोगों का इलाज करनेवाला ही डॉक्टर नहीं कहलाता, बल्कि मुर्दाघर या पोस्टमार्टम हाउस में मुर्दों की चीरफाड़ करनेवाला भी डॉक्टर ही होता है।

हम यह मानते हैं कि हमारे तर्क में उनके निर्णय से अधिक दम है, लेकिन दुनिया में तो दम से ज़्यादा हठधर्मी काम आती है। पहले तो हमारे मित्र श्रीमान अमुक किसी साहित्यिक रचना को पोस्टमार्टम हाउस का शव ही मानने के लिए तैयार नहीं। उनका मानना है कि कोई भी साहित्यिक रचना एक जीवित इकाई है, निर्जीव लाश नहीं, जिसे मुर्दाघर ले जाने की आवश्यकता हो, फिर इस सम्बंध में वह अपना एक अनुभव यह भी प्रस्तुत करते हैं कि पोस्टमार्टम हाउस में शव की चीरफाड़ जो व्यक्ति करता है, वह डॉक्टर नहीं होता, मेहतर होता है जो शव के अलग-अलग अंगों को ऊपरी तौर पर देखकर यह रिपोर्ट बना देता है कि मृतक आत्महत्या करके मरा या उसकी हत्या की गई अथवा वह किसी घटना-दुर्घटना का शिकार हुआ?

हम श्रीमान अमुक से पूछते हैं कि बताइए महाराज, क्या आपकी राय में साहित्य का आलोचक भी डॉक्टर की भाँति किसी साहित्यिक रचना का पोस्टमार्टम स्वयं नहीं करता, अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से ही कराता है और रिपोर्ट स्वयं तैयार करके पाठकों के सम्मुख पेश कर देता है?

हमारी इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं था। वह आलोचक को साहित्यकार न मानते हुए हमसे पूछते हैं कि क्या कभी आपने बुखार नापनेवाला यंत्र थर्मामीटर देखा है? हम 'यस सर' की मुद्रा में धीरे से अपना सिर हिलाते हैं तो झट से वह हम पर दूसरा सवाल दाग देते हैं। पूछते हैं, 'क्यों भाई, क्या आप बता सकते हैं कि थर्मामीटर किस काम आता है?' हम उत्तर देते हैं, 'बुखार नापने के.'

श्रीमान अमुक ऊँची आवाज में 'बिल्कुल ठीक' कहकर हँसते हैं और पूछते हैं हम उनसे, 'क्यों श्रीमान जी, क्या आप साहित्य को बुखार और साहित्यकार को बुखार का रोगी मानते हैं?'

'बिल्कुल-बिल्कुल बिना झिझक के.' बिना लज्जित हुए उनका उत्तर होता है, 'साहित्य सचमुच ही एक प्रकार का ज्वर है और साहित्यकार उस ज्वर से पीडि़त एक ऐसा व्यक्ति, जो अपने बुखार की तपन से समाज के ठिठुरे-जमे रक्त को गरमाता रहता है। इस बुखार का तापमान क्या है? इसे नापने के लिए जो यंत्र प्रयोग किया जाता है, उसे साहित्य की भाषा में आलोचक कहा जाता है। समझे।'

'समझे' पर विशेष बल देकर वह हमसे फिर पूछते हैं, 'क्या आपकी राय में आलोचक और साहित्यकार एक ही चीज का नाम है? क्या आप थर्मामीटर को ज्वर का नाम देंगे, क्या रोगों का इलाज करनेवाले को पोस्टमार्टम करनेवाले डॉक्टर के समान दर्जा देंगे?'

हम कुछ बोले नहीं। 'हाँ' 'ना' कुछ भी नहीं। क्योंकि हम समालोचक से डरते हैं और उसके मूसलाकार डंडे से भयभीत होकर बहुत पहले साहित्य में उसका विशेष स्थान स्वीकार कर चुके हैं। एक ऐसा स्थान, जिस पर बैठकर आलोचक भाइयों को सभी श्रेणियों के साहित्यकार बोने दिखाई देते हैं।

हमने एक दिन बहुत प्यार से अपने साहित्यकार मित्र श्रीमान अमुक को समझाने का प्रयास किया कि भाई आप आलोचकों को पानी पी-पीकर कोसना और लाठी लेकर उनके पीछे पड़ना छोड़ दें, क्योंकि इसमें स्वयं आपके लिए ख़तरा छिपा है। आप तो उन्हें साहित्य-जगत् से निष्कासित कर नहीं पाएँगे, यदि किसी दिन उन्हें ताव आ गया तो वह आपकी साहित्यकारी के सारे परमिट जब्त करके आपको साहित्यनिकाला अवश्य दे देंगे। फिर आप कहीं के नहीं रहेंगे, न घर के न घाट के. हमने उन्हें यह भी समझाया कि जब ब्रह्मांड का सबसे बड़ा रचयिता परमपिता भी धर्म की सत्ता से धर्मगुरुओं को अपदस्थ नहीं कर सकता तो आप भला किस खेत की मूली हैं, जो आलोचकों को साहित्य के शिखर से नीचे उतार दें।

हम यह तो नहीं कह सकते कि श्रीमान अमुक हमारी बात से सहमत हुए या नहीं, पर हमने उनके द्वारा बताई गई साहित्यकारों की विभिन्न श्रेणियों एवं प्रजातियों को उनके साथ ही ख़ुद साहित्यकारों की अदालत में पेश करना उचित समझा है। वही आपको बताएँगे कि हाथी का महत्त्व अधिक है या उसे हाँकनेवाले महावत का या फिर उसके हाथ में चमकते हुए अंकुश का। या इन सबका महत्त्व एक समान है। कृपया यहाँ आप साहित्य को हाथी, महावत को आलोचक-समीक्षक तथा अंकुश को साहित्यिक रचनाओं की चीरफाड़ करनेवाला यंत्र समझने की भूल न करें। क्योंकि यदि आपने ऐसा किया तो हमारे साहित्यकार मित्र श्रीमान अमुक को हार्दिक एवं घातक पीड़ा होगी।