साहित्यिक मिर्गी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
मिर्गी का दौरा बहुत खराब होता है। जब यह दौरा साहित्यिक रूप धारण कर लेता है तब इसकी भयानकता का अंदाज नहीं लगाया जा सकता।
श्रीमती मनचंदा प्रौढ़ावस्था पार कर चुकी हैं। किसी जमाने में इन्होंने किसी से प्रेम किया था। प्रेम करने वाले ने धोखा दे दिया था या वह खुद धोखा खाने के बाद कहीं चला गया था, कहा नहीं जा सकता। यहीं से इनकी मिर्गी शुरू हो गई। इन्होंने प्रेमी पर खीझ उतारने के लिए कई कहानियाँ लिखीं। जब कुछ गुस्सा ठंडा हुआ तो कई अतुकांत दिग्भ्रांत कविताएँ लिखीं। इनके मन की यह भड़ास कहीं छप पाती, तब तक इनके समझदार पिता ने इनका विवाह कर दिया। विवाह के कई महीने बाद तक ये उखड़ी-उखड़ी रहीं। बैल छाप पतिदेव प्रमोद ने इनको खुश करने के सारे उपाय करके देखे, लेकिन सफलता नहीं मिली। भले आदमी को लगा कि गृहस्थी बरबाद हो जाएगी। वह इसी चिन्ता में घुला जा रहा था कि एक दिन इनकी डायरी प्रमोद के हाथ लग गई। इनका बचकाना लेखन पढ़कर उदासी का कारण समझ में आ गया। चावल की आढ़त का काम था। वे जानते थे कि साधारण चावल को बासमती या हंसराज कहकर कैसे बेचा जाता है। बनावटी खुशबू मिलाकर वे बहुतों को बासमती और हंसराज खिला चुके थे।
मनचंदा को पास बुलाकर उन्होंने पासा फेंका-"आप इतनी बड़ी साहित्यकार हैं, हमसे यह सच क्यों छुपाया? आपकी कहानियाँ ज़िन्दगी का कच्चा चिट्ठा खोलती हैं और कविताएँ पढ़ने वाले को अपने साथ बहा ले जाती हैं। साहित्य की इतनी बड़ी धरोहर आपने बक्से में छुपाकर रखी थी। यह तो मेरा सौभाग्य है कि मेरे घर में लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती का भी निवास हो गया है। समाज की धरोहर को इस तरह छुपाकर नहीं रखा जाता।"
अपनी प्र। शंसा सुनकर मनचंदा को राहत मिली। उनकी निराशा आशा में बदलने लगी। खुशी के मारे मनचंदा उस रात को सो न सकीं। चार बजे भोर में जगकर लिखने बैठ गर्इं। प्रमोद के जागने तक लिखती रहीं।
"क्या हो रहा है भाई सुबह ही सुबह?" प्रमोद ने आँखें मलते हुए पूछा।
"उपन्यास शुरू किया है। इसमें एक ऐसी युवती की कथा है, जिसे निराशा से उबारकर उसका पति नए पथ की ओर अग्रसर करता है।"
प्रमोद का माथा ठनका। कल उसकी प्रशंसा ने ही यह कमाल कर दिखाया है। चलो किसी तरह रास्ते पर तो आई; अन्यथा रोज मुहर्रमी सूरत बनाए बैठी रहती थी। "वाह, भाई वाह! क्या कहने आपके!" प्रमोद प्रकट रूप में बोला।
मनचंदा मुस्कराकर रह गई।
प्रमोद ने सबसे पहला काम किया-मनचंदा कि डायरी 'हिडिम्बा प्रेस' वाले को दे दी। एक काव्य-संग्रह और एक कहानी-संग्रह छपना था। प्रेस वाला खाली बैठा मक्खियाँ मार रहा था। महीने भर का काम मिल गया। कहानी-संग्रह का नाम 'गंजे के नाखून' तथा काव्य-संग्रह का नाम 'बालू की दीवार' रखा गया। किताबें छपकर आ गईं। अब क्या किया जाए? बिक्री कैसे हो?
बिक्री का उपाय ढूँढ़ लिया गया। एक बोरी चावल के साथ दोनों किताबें मुफ्त। किताबों की लागत मूल्य बोरी में कम चावल तोलकर पूरा कर लिया गया था। नगर के दो पेजी मरणासन्न अखबार के संपादक को बुलाकर समीक्षा लिखवाई गई। विमोचन हुआ। समीक्षा पढ़ी गई। आगंतुकों को जलपान कराया गया। तत्पश्चात् गोष्ठी में कुछ कविताओं का पाठ हुआ। एक घंटे के कविता-पाठ को सबने खुशी-खुशी झेला। अगले दिन अखबार में रिपोर्टिंग छपी। उनमें सुप्तावस्था में विद्यमान तुकबंदियों का भी महत्त्व बढ़ गया। अब वे चावल वाले प्रमोद की जगह बालू की दीवार, गंजे के नाखून वाले के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
इसी बीच परेश बाबू का एक संपादित संकलन छपा, जिसमें राष्ट्रीय स्तर के स्थापित कथाकारों की रचनाएँ थीं। मनचंदा किसी गोष्ठी में इनसे एक बार मिली थीं। घर का पता मालूम करके इनके पास जा पहुँची और लगभग आरोप लगाते हुए बोलीं-"आपने अपने संकलन में मेरी कहानी नहीं छापी?"
"क्या आपने अपनी कोई कहानी इस संकलन में प्रकाशन हेतु दी थी?" परेश जी सिर खुजलाते हुए कुछ सोचकर बोले।
"नहीं दी थी।"
"तब कैसे छपती?"
"आप माँग तो सकते थे!" वह अधिकारपूर्वक बोलीं।
"कथाकारों की कथाएँ भी वापस करनी पड़ी हैं। रचना स्तरीय हो, यही मेरा मापदंड है।"
"हम क्यों न ऐसा करें कि दोनों मिलकर एक कथा-संकलन छपवाएँ। इस नगर के भी कुछ लोगों को शामिल करें।"
"सुझाव तो अच्छा है। यह काम आप अकेले भी कर सकती हैं।" परेश जी ने कहा।
"पिछले सप्ताह आप एक काव्य-गोष्ठी में आगरा गए थे। मुझे सूचित करते, तो मैं भी चलती।"
"मैं आपको कैसे सूचित करता? मैं उस कार्यक्रम का आयोजक नहीं था। मैं वैसे भी आपके लेखन से परिचित नहीं हूँ।"
"परिचय कर लीजिए।" कहकर 'बालू की दीवार' और 'गंजे के नाखून' की एक-एक प्रति परेश जी के सामने रखते हुए बोलीं-"इन दोनों पुस्तकों की समीक्षा लिख दीजिए। मैं किसी न किसी दैनिक में छपवा लूँगीं, वह इंतजाम मैंने कर लिया है।"
"समीक्षा अखबार वालों से ही करा लें, तो बेहतर रहेगा।"
"आजकल किसी का क्या ठिकाना। उल्टा-सीधा लिख दिया, तो मेरा कैरियर ही चौपट हो जाएगा।"
परेश किताबों के पन्ने पलटता रहा। थोड़ा रुककर बोला-"आप बुरा न मानें तो एक बात कह दूँ?"
"कहिए!" मनचंदा सँभलकर बैठ गई।
"इन पुस्तकों में कोई पृष्ठ ऐसा बता दीजिए जिसमें भाषा कि दस-पंद्रह गलतियाँ न हों। मेरी सलाह है कि आप पहले हिन्दी भाषा सीख लें, उसके बाद लिखें।"
"मैं समझ गई हूँ। आप लोगों का एक गुट है। आप किसी दूसरे लेखक को उसमें घुसने नहीं देते। मैं आपको एक नहीं दस संकलनों में छपवाकर दिखाऊँगी। मैं आपसे ज़्यादा लिख चुकी हूँ।" वह बौखलाई।
"जितना लिखो, सार्थक लिखो। निरर्थक लेखन साहित्य नहीं होता।" परेश ने कहा।
वह तमतमाकर उठ खड़ी हुईं। साहित्यिक मिर्गी का दौरा अपने पूरे यौवन पर था-"मैं आपको हर बड़ी पत्रिका में छपकर दिखाऊँगी।"
"मुझे खुशी ही होगी।"
"मैं सब समझती हूँ।" कहकर वह तेजी से बाहर निकल गईं।
घर जाकर उन्होंने प्रमोद को अपना दुख बताया। वे धैर्यपूर्वक बोले-"दम तोड़ती पत्रिकाओं की आजीवन सदस्य बन जाओ। कुछ लालची संपादकों को अपने घर में बुलाकर सम्मानित कर दो। फिर ऐसी ही पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजो। यह पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी है-दूसरे शहर के दो-चार संपादकों से मिलकर आओ। जो झाँसे में आ जाए, उससे काम निकालो। वह दस अच्छी रचनाओं के साथ में एक कमजोर रचना भी खपा देगा। हिम्मत मत हारो।"
मनचंदा को उपाय जँच गया। अब वह परेश को मजा चखाएँगी। जो संपादक अड़ियल होंगे, उनको काबू में करने के लिए अखबार के मालिकों का सहारा लूँगी। देखती हूँ-कौन ज़्यादा छपेगा?
बरसों बीत गए। फार्मूला सफल रहा। अब मनचंदा का लेखन जोरों पर है। प्रमोद का स्वास्थ्य खराब रहने लगा है। व्यस्तता पूरे समाज के लिए है, एक व्यक्ति के लिए नहीं। व्यक्ति की उपेक्षा कि जा सकती है। इस साहित्यिक मिर्गी के चलते यह उपेक्षा और बढ़ गई है।
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