साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया / अज्ञेय
यदि मैं यह मानता होता कि साहित्य का-और यहाँ साहित्य से मेरा आशय रचना अथवा कृति साहित्य का ही है-सामाजिक परिवर्तन में कोई योग नहीं होता, अथवा साहित्यकार का समाज के प्रति कोई ऐसा उत्तरदायित्व नहीं है जिसमें यह भी निहित हो कि समाज को बदलने का कुछ यत्न भी उससे अपेक्षित है, तो शिविर में विचार के लिए इस विषय का प्र्रस्ताव मैंने न किया होता। इतना तो स्वयंसिद्ध जान पड़ सकता है, लेकिन इससे आगे यह भी कहूँ कि उस दशा में मैंने अपने साहित्यिक कर्म के बारे में भी नए सिरे से विचार किया होता क्योंकि आज अपने को साहित्यकार का नाम देकर मैं जिस तरह के गौरव का अनुभव करता हूँ उसका कोई आधार न रहा होता। तब साहित्य कर्म भी दूसरे पेशेवर कर्मों अथवा व्यवसायों की तरह आजीविका का एक साधन मात्र होता और ऐसा सोचने का कोई आधार न रहता कि साहित्यकार होने के नाते अपने समाज के साथ मेरा एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध है-समाज से मेरा आशय चाहे हिन्दीभाषी समाज हो जो मेरा पहला पाठक होगा, चाहे भारतीय समाज जिसके दिक्काल संचित अनुभव को मैं वाणी दे रहा हूँगा, चाहे मानव समाज हो जो शब्द मात्र में अभिव्यक्त होनेवाले मूल्यों की अन्तिम कसौटी है-बल्कि जो उनका स्रोत भी है।
विशेष पद का यह दावा या गौरव-बोध का यह स्वीकार किसी आभिजात्य का दावा नहीं है। यह केवल रचना-कर्म के स्वभाव की पहचान है। सभी लेखन साहित्य नहीं होता और सभी साहित्य रचना भी नहीं होता। जब किसी साहित्यिक कृति को हम रचना का पद देते हैं, तब विहित अथवा निहित रूप में हमने उसमें कुछ गुणों की सत्ता मान ली होती है। इसी से वह विशिष्ट होती है और इसी से उस सत्ता को प्रतिष्ठापित करनेवाला होने के नाते साहित्यकार विशिष्ट हो जाता है।
सर्जक के नाते विशिष्ट होकर भी साहित्यकार ऐसा नहीं है कि साधारण नागरिक नहीं रहता अथवा नागरिक कर्मों से और नागरिक जीवन के उत्तरदायित्वों से मुक्ति पा जाता है। उन दायित्वों को यहाँ गिनाना आवश्यक नहीं है, न इस साधारण स्थापना के बाद साहित्यकार के साधारण नागरिक कर्तव्यों का प्रश्न फिर से उठाने की कोई आवश्यकता होगी। इतना ही काफ़ी है कि नागरिक पर कुछ चीज़ों को बनाए रखने की भी जिम्मेदारी होती है क्योंकि व्यवस्था में एक प्रकार के स्थायित्व के बिना सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी सम्भव नहीं रहता; दूसरी ओर चीज़ों के लगातार परीक्षण और उनको बदलने के आयोजन की भी जिम्मेदारी नागरिकता का एक अंग है क्योंकि लगातार और नियोजित ढंग से बदलाव लाते रहते बिना व्यवस्था भी व्यवस्था नहीं बनी रह सकती, निरी जकड़बन्दी बन जाती है जिसे तोडऩा ही स्वस्थ जीवन का एकमात्र उपाय रह जाता है। साहित्यकार के जिन वृहत्तर अथवा गम्भीरतर उत्तरदायित्वों की ओर मैं संकेत करनाचाहता हूँ उनका सम्बन्ध केवल व्यवस्था के स्थायित्व और व्यवस्थित परिवर्तन के नियोजन से नहीं है, बल्कि उन आधारभूत मूल्यों से है जिनसे इसका निर्णय होता है कि वांछित दिशाएँ कौन-सी हैं, और जहाँ वांछित परिणामों और हितों की टकराहट दीखती है, वहाँ पर अभिमूल्यों का उच्चावच क्रम कैसे निर्धारित होता है।
इससे यह न समझा जाए कि मैं साहित्यकार के लिए समाज के नियन्ता का या मूल्यों के किसी चरम निर्णायक का पद आरक्षित करके उसे समाज से अलग करना चाह रहा हूँ या समाज से ऊँचे पद पर बिठाना चाह रहा हूँ। लेकिन सर्जक कर्म के दृष्टि से जो अनिवार्य सम्बन्ध है उससे इनकार नहीं किया जा सकता। कुछ अधिक देख पाना, कुछ अधिक दूर तक देख पाना, कुछ अधिक गहराई तक या गहराई से देख लेना, कुछ समय से पहले देख लो, जो स्पष्ट दीख रहा है उससे भिन्न या उसके प्रतिकूल भी कुछ देखना अथवा भाँप लेना, गति की जो दिशा स्पष्ट है अथवा स्वीकृत है उससे भिन्न दिशा में होने वाली गति को देख लेना या उसके प्रतिकूल दिशा का संकेत दे देना-ये सभी उस दृष्टि का अंग हैं जिसका श्रेय हम सर्जक को देते हैं, जिसकी अपेक्षा उससे रखते हैं और जिसके आधार पर ही इसका निर्णय करते हैं कि उसकी कृति कहाँ तक सर्जना है, रचना है। सर्जक साहित्यकार को, कवि को हम कालजित्, त्रिकालदर्शी, अनागतदर्शी, मनीषी, परिभू, स्वयम्भू आदि कहते हैं तो इसीलिए। यह बात अलग है कि आज जिन कृतियों को हम साहित्य के नाम से पढ़ते हैं उनमें इनी-गिनी ही इस कोटि में आती हैं; जिन्हें हम साहित्यस्रष्टा और कवि कहते हैं उनमें भी विरला ही इस कसौटी पर खरा उतरेगा जिसकी ओर संकेत किया गया है। ऐसा कवि हमें आसपास नहीं दीखता, लेकिन ऐसा कवि होता है-हमारा यह विश्वास नहीं डिगता। साधु, महात्मा, योगी भी हमें आस-पास नहीं दीखते, लेकिन योगी होता है-यह आस्था हमारी नहीं टूटती। आप कहें कि इन आस्थाओं का तथ्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है, केवल मानवीय आकांक्षा से है, तो उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि यह आकांक्षा भी मनोजगत में प्रतिष्ठित एक मूल्य अथवा एक आदर्श की और संकेत करती है। ऐसे ही आधारभूत मूल्य तो वे हैं जिन्हें सर्जक-साहित्यकार की अन्तर्दृष्टि समय-समय पर या बार-बार देख लेती है, दिखा देती है; उसके आलोक में सारा परिदृश्य बदल जाता है और सारी व्यवस्थाएँ, सारे समाज, सारी बिरादरियाँ अपनी कर्म-प्रवृत्तियों को फिर से देखने को बाध्य हो जाती हैं। अपने संवेदनों पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती हैं।
लेकिन अगर मैं मानता भी हूँ कि समाज को बदलने में साहित्य का योग होता है, कि उसमें साहित्यकार की भी कुछ जिम्मेदारी होती है, तो भी आज साहित्यिक रचना और सामाजिक परिवर्तन में जैसा सीधा समीकरण बनाया जा रहा है उसे मैं बिलकुल स्वीकार नहीं करता। मैं समझता हूँ कि पिछले लगभग पचास वर्षों से इस तरह का सीधा सम्बन्ध बनाने और सिद्ध करने का जो एक प्रयत्न होता रहा है उसने साहित्य का बहुत अहित किया है। आलोचना को, जिसका लोचन से सम्बन्ध ही स्पष्ट करता है कि उसे स्वच्छ प्रकाश की अनिवार्य आवश्यकता है, उसने एक धुँधलके में भटका दिया है। रचना की दृष्टि को एक रंगीन चश्मा पहनाकर उसने एकांगी और असमर्थ बना दिया है। उसके राजनीतिक और आर्थिक आग्रह सतह को और केवल सतह को महत्त्व देकर वहीं दीखनेवाले तनाव और संघर्ष को वास्तविक मानना और मनवाना चाहते हैं, और गहराई में काम करने वाली शक्तियों को दखने से साहित्यकार और पाठक को विरत करना चाहते हैं। प्रगति का अर्थ केवल आर्थिक विकास बल्कि आर्थिक विकास की एक दिशा रह गया है, यहाँ तक कि संस्कृति की अथवा सांस्कृतिक मूल्यों की चर्चा को निरी विलासिता मान लिया गया है।
ऐसा चिन्तन साहित्य और साहित्यकार को न केवल सीधे-सीधे सामाजिक परिवर्तन से जोड़ता है बल्कि उसे अपना अधिकार समझता है कि साहित्यकार को बताये कि कौन-सा सामाजिक परिवर्तन सही और वांछनीय है। और इसके लिए वह योजना बनाकर साहित्यकार को देना चाहता है-जिस योजना का साहित्कार की अपनी दृष्टि या अपने विवेक से आत्यन्तिक सम्बन्ध होना वह आवश्यक नहीं मानता।
मैंने आरम्भ में कहा कि अगर मैं मानता होता कि साहित्य और साहित्यकार का कोई योग सामाजिक परिवर्तन में नहीं है तो मैंने न केवल शिविर के लिए एक विषय का प्रस्ताव न किया होता बल्कि स्वयं अपने साहित्यकारत्व के बारे में फिर से विचार किया होता। अब मैं यह कहूँ कि अगर मैं मानता हूँ कि रचना और सामाजिक परिवर्तन में वैसा सीधा सम्बन्ध है, या होता है या हो सकता है, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया, कि अगर योजना बनाकर साहित्य लिखना (बल्कि लिखवाना, क्योंकि योजना बनानेवाले और परिवर्तन की दिशा निर्धारित करनेवाले तो दूसरे होंगे) योजना बनाकर साहित्य लिखना ही वास्तविक और सही साहित्यिक कर्म है तो मैंने साहित्य-रचना बहुत पहले छोड़ दी होती और किसी दूसरे काम में अपने को लगाया होता।
लेकिन अगर सामाजिक परिवर्तन के साथ रचना का ऐसा सीधा सम्बन्ध नहीं है, फिर भी मैं मानता हूँ कि समाज को बदलने में साहित्य का भी योग है और साहित्यकार का भी उत्तरदायित्व है, तो इस विरोधाभास का निरसन कैसे होता है? मैं भी समझता हूँ कि इस प्रश्न के उत्तर का कुछ संकेत मैंने अपने निरूपण में दे दिया है। लेकिन संकेत ही दिया है। शायद कुछ बातों को अधिक विस्तार से निरूपित करना उपयोगी होगा।
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साहित्यिक कर्म रचना-कर्म है यह मानने में तो किसी को कठिनाई नहीं होगी। कम-से-कम यह सोचने के लिए तो कोई नहीं रुकेगा कि वह रचना-कर्म है कि नहीं, मान लेगा कि सोचने का काम पहले हो चुका है और सिद्धान्त सामने है। लेकिन क्या साहित्यिक कर्म सांस्कृतिक कर्म भी है? यह सवाल पूछने पर साहित्यकार और आलोचक और सिद्धान्तों के प्रतिपादक लोगचौकन्ने होते हैं। न केवल इस रूप में प्रश्न प्राय: रखा नहीं जाता, वरन् जिससे पूछा जाता है उसे यह सन्देह होता है कि कहीं इसमें कोई पेच तो नहीं है, ‘हाँ’ कह देने पर कहीं मैंने अनजाने अपने को ऐसा बाँध तो नहीं लिया होगा कि आगे तर्क में मेरा पक्ष गिर जाए? इसलिए इस सवाल का जवाब कई खंडों या सीढिय़ों में तैयार करना पड़ता है। दोनों कल्पना का सहारा लेते हैं, और कल्पना सर्जन का आधार है। दोनों समाज से जुड़े हैं, दोनों का स्वरूप समाज पर निर्भर करता है और दोनों समाज को अभिव्यक्ति देते हैं-समाज के इतिहास को भी, उसकी वर्तमान स्थिति को भी और उसकी आकांक्षा को भी। ऐसा है तो दोनों लगातार उसके द्वारा बदले भी जाते हैं और स्वयं उसमें बदलाव लाने का भी आधार बनते हैं। प्राचीन इतिहास और वर्तमान वास्तविकता की अभिव्यक्ति होने के कारण दोनों में एक अनिवार्य गम्भीरता भी होती है, लेकिन दोनों में कल्पना का महत्त्वपूर्ण योग होने के कारण उनमें एक लीला अथवा क्रीड़ा-भाव भी बना रहता है। बल्कि दोनों की सर्जक सत्ता अनिवार्यतया लीला-भाव से भी जुड़ी हुई है। जिन संस्कृतियों में लीला-भाव नहीं रहता वे उस हद तक बन्ध्य और स्थितिशील हो जाती हैं, भले ही गम्भीरता उनमें बनी रहे। बल्कि उनकी यह गम्भीरता भी परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है। और जिन साहित्यों में लीला-भाव नहीं रहता वे भी स्थितिशील हो जाते हैं और उनकी गम्भीरता भी रीति और परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है, प्रयोग से कतराती है। फिर उनमें भी गम्भीरता भले ही बनी रहे और वह वास्तविकता को देखने के, जिम्मेदार होने के दावे में भले ही परिणत हो जाए। विमर्श की इतनी सारी सीढिय़ाँ चढक़र-या अनिच्छा को ध्यान में रखते हुए कहें कि उतरकर-लोग मान लेते हैं कि ‘हाँ, साहित्यिक कर्म भी सांस्कृतिक कर्म है, साहित्य रचना भी एक तरह से संस्कृति की रचना है और साहित्य के सांस्कृतिक परिवेश की उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन-’
यह ‘लेकिन’ यथार्थ स्थिति का एक विचारणीय तथ्य है। इस ‘लेकिन’ के बाद कोई तर्क प्रस्तुत किए जाएँ या न किए जाएँ, इतना तो इससे स्पष्ट हो ही जाता है कि मन में कहीं एक गाँठ है। इस बात को स्वीकार करने में अनिच्छा की एक बाधा है कि साहित्य से संस्कृति बनती है जैसे कि संस्कृति से साहित्य बनता है। संस्कृति, समाज, साहित्य और ऐसी अन्य अवधारणाओं में परस्परता और अन्योन्याश्रय का गहरा सम्बन्ध है। इनमें से किन्हीं भी दो को उठाकर उनके सम्बन्धों का विचार हो सकता है और वह विचार उपयोगी भी हो सकता है, लेकिन तभी जब इस बात को कभी न भुलाया जाए कि ऐसी किसी भी जोड़ी का एक व्यापकतर सन्दर्भ है और केवल विचार ही नहीं, ये संज्ञाएँ भी उस सन्दर्भ से जुड़ी रहती ही अर्थवान है। साथ ही यह भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि किन्ही भी दो संज्ञाओं को चुनकर विचार करते समय हम प्रत्येक पर अपने पूर्वग्रहों का आरोप कर देते हैं। यह नहीं कि दूसरी सब मान्यताओं का हम एकान्त रूप से खंडन कर देते हों; इतना ही कि हमारी दृष्टि कुछ पहलुओं पर केन्द्रित हो जाती है जिसके कारण परिदृश्य बदल जाता है। उदाहरण के लिए, संस्कृति की चर्चा में कहीं यह अलक्ष्य या अघोषित पूर्वग्रह हो सकता है कि वह परम्परा का, सामूहिक अनुभव के नित्य पक्ष का भंडार होती है। यह बात गलत नहीं है, लेकिन जिसका आग्रह इसी पक्ष पर होगा वह संस्कृति को केवल एक आस्था के रूप में नहीं, एक स्थितिशील आस्था के रूप में देखता हुआ चलेगा। अब संस्कृति को स्थायित्व देती है, यह असन्दिग्ध है, लेकिन फिर भी संस्कृति न निरी स्थिति है, न निरी स्थितिशीलता है। वह एक गत्यात्मक प्रक्रिया भी है। इसी तरह वह अन्तर्दृष्टि भी है, ऐसी अन्तर्दृष्टि जो सत्यों को-धु्रव सत्यों को भी और नए सत्यों को भी-आलोकित कर जाती है, हमें उनमें आस्था भी दे देती है। लेकिन इसके साथ ही संस्कृति लीला भी है, निरा खिलवाड़ भी है, अटकल भी है, साहस-कर्म भी है। अनुमान और रूपकमयी भाषा में वह स्वप्न-महल भी खड़े करती है, जिन्हें वह एक साथ ही सच मानने को और छूकर ढहा देने को सदैव प्रस्तुत भी है। बिना इसके संस्कृति जी नहीं सकती, पनप नहीं सकती। हम कहें कि पुराण और परम्परा के नाम पर जिन बहुत-सी चीज़ों का संचय और परिग्रह हम किये रहते हैं, उसमें से बहुत-सी इसी तरह की हैं-साहसपूर्ण कल्पना की ऐसी सृष्टि जिसे हम शब्दश: सत्य नहीं मानते क्योंकि हम बराबर जानते हैं कि वह हमारी सृष्टि है, हमारी कल्पना-सृष्टि है, हममें से उपजी होने के कारण शून्य में से नहीं उपजी है जैसे कि हम भी शून्य में से नहीं उपजे हैं। इतना ही नहीं, वह हमारे सामूहिक और समाजिक स्वास्थ्य का एक आधार है, हमारी अस्मिता की पहचान का एक अंग है। उसे हम एकान्त मिथ्या तभी मान सकते हैं जब अपने को भी एकान्त मिथ्या मान लें।
पूर्वाग्रहों के व्यापक प्रभाव की इतने विस्तार से चर्चा का कारण है; जैसे कि संस्कृति की चर्चा का भी कारण है। संस्कृति के बारे में जो कुछ कहा गया है सब साहित्य पर भी पूरी तरह लागू है। साहित्य भी यथार्थ और कल्पना की सीमा-रेखा पर साहसपूर्वक बढ़ता है और उसी सन्धि-भूमि पर उसका सर्जकत्व क्रियाशील होता है। साहित्य भी अस्मिता की पहचान कराता है-सामूहिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और आस्तित्विक अस्मित की। साहित्य भी स्थितिबोध जगाता है, जड़ों की पहचान कराता है, उनके द्वारा अपनी मिट्टी से रस खींचने की प्रेरणा देता है, प्रक्रिया सिखाता है, दक्षता बढ़ाता है। साहित्य भी बदलाव की पहचान कराता है, बदलाव की सम्भावनाएँ उजागर करता है, बदलने की प्रेरणा देता है। साहित्य भी सपने देखता है, कल्पना के महल खड़े करता है (और गिराता है), अटकल लगाता है, भूल करता है, भूल करने का साहस करता है और भूल को काटकर अलग कर देने का निर्ममत्व भी रखता है।
संस्कृति के विचार की तरह साहित्य के विचार में भी हम उसे किसी दूसरी एक संज्ञा के साथ जोड़ ले सकते हैं। और वैसा विचार, ज़रूरी नहीं है कि सिर्फ इसलिए अर्थहीन हो जाए कि उसमें भी पूर्वाग्रह काम कर रहे होंगे। मंशा यही है कि हम पूर्वाग्रह की सम्भावना और व्याप्ति को पहचानते रहें और इस बात को भी न भूलें कि विचार के लिए जो भी जोड़ा हमने चुना है वह विचार की सुविधा के लिए ही चुना है। इसलिए नहीं कि व्यापकतर सन्दर्भ से इन दो संज्ञाओं को किसी तरह भी अलग किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें कि कोई भी जोड़ा चुनना अपने-आपमें एक पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति है। साहित्य और सामाजिक परिवर्तन भी इसी तरह का एक जोड़ा है-यहाँ तक कि साहित्य और साहित्यकार भी एक जोड़ा है जो पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं होता और जो सन्दर्भ से कटकर अर्थहीन हो जाएगा।
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संस्कृतियाँ लगातार बदलती हैं। समाज लगातार बदलते हैं। साहित्य लगातार बदलता है।
आप लक्ष्य करेंगे कि इन तीनों वाक्यों का ढाँचा एक-सा है, लेकिन तीसरे से हम बहुवचन से एकवचन पर आ गये हैं। थोड़ा रुककर सोचिए कि अगर इस बात को हम आँखों-ओट हो जाने देते हैं तो अनजाने कितना बड़ा पूर्वाग्रह हमने निगल लिया है।
दोनों उक्तियों को अलग-अलग एकवचन और बहुवचन में रखकर देखिए। संस्कृति बदलती है, समाज बदलता है, साहित्य बदलता है। ऐसा कहने में हम समग्र मानव जाति, समग्र मानव समाज की बात सोच रहे होते हैं और साहित्य की भी अमूत्र्त सैद्धान्तिक अवधारणा कर रहे होते हैं। लेकिन जब हम कहते हैं कि संस्कृतियाँ बदलती हैं, समाज बदलते हैं, तब हम एक दूसरी कोटि की सच्चाई की बात कर रहे होते हैं; संस्कृति और समाज की एक दूसरी परिभाषा लेकर चल रहे होते हैं। इस स्थूलतर मूत्र्त सन्दर्भ में हमें साहित्य की नहीं, साहित्यों की बात करनी चाहिए और बहुवचन में ही कहना चाहिए कि साहित्य बदलते हैं।
मानव संस्कृति की बात करते हुए हम आरम्भ यहाँ से भी कर सकते हैं कि मानव पहला आत्मचेतन प्राणी है-ऐसा प्राणी जो पूछ सकता है मैं कौन हूँ, मैं कहाँ जा रहा हूँ-ऐसा प्राणी जो अपनी मृत्यु की पूर्व-कल्पना कर सकता है और इसलिए अमरत्व को सन्तानता की भावना के साथ जोड़ सकता है-जो इस प्रकार इतिहास का स्रष्टा बन जाता है, जैविक स्तर पर अपने विकास को प्रभावित करने का सामथ्र्य पा लेता है, संस्कृति का उद्भव-स्रोत बन जाता है। स्पष्ट है कि ऐसा मानव प्राणी न केवल संस्कृति को बदलने में समर्थ है बल्कि लगातार उसे बदलता चलता है। परिवर्तन की कामना, योग्यता और उसका संकल्प उसकी आत्म-चेतना का सहज विस्तार है।
स्पष्ट है कि मानव संस्कृति के बारे में जो कुछ कहा गया है वह सब मानव समाज के बारे में भी कहा जा सकता है।
यह भी स्पष्ट होना चाहिए, पर प्राय: उतने स्पष्ट रूप में हमारे सामने नहीं रहता, कि मानव समाज और मानव संस्कृति की बात करते हुए कहीं भी हम संस्कृति और समाज की उस दूसरी अवधारणा का खंडन नहीं कर रहे होते हैं जो देश-काल से बँधी होती है। भारतीय संस्कृति, यूनानी संस्कृति, मध्यकालीन संस्कृति, आधुनिक संस्कृति इत्यादि अवधारणाएँ कहीं भी उस व्यापकतर परिकल्पना में आड़े नहीं आतीं। दो प्रकार की अवधारणाओं को हम अलग-अलग स्तरों पर रख लेते हैं-या ज्यादा सही ढंग से यों कहें कि एक बड़े वृत्त के भीतर अनेक छोटे वृत्तों का अस्तित्व मानते हुए चलते हैं।
यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि परिवर्तन और उसकी गत्यात्मकता और परिवर्तन के संकल्प की बात करते हुए भी हम बदलाव के दो आयामों की बात सोच रहे होते हैं-एक सीमित देश-काल द्वारा मर्यादित और दूसरा जैविक विकास और प्राणि-समाज का वृहत्तर सन्दर्भ लिये हुए।
साहित्य की चर्चा करते हुए जैसे हम बहुवचन से एकवचन पर आ गये थे और इसकी ओर ध्यान दिलाना आवश्यक हुआ था, वैसे ही यहाँ भी एक झिझक उठती है जिसे सामने ले आना चाहिए। साहित्य के साथ विशेषण के रूप में मानव जोड़ते हुए, ‘मानव साहित्य’ की बात करते हुए जबान अटक जाती है। क्यों? यह पूछने पर अटपटा-सा उत्तर आएगा कि क्या मानवेतर साहित्य भी होता है जो हम मानव साहित्य की बात करें? ऐसा उत्तर देने के बाद स्वाभाविक है कि स्वयं हमारे सामने यह प्रश्न भी उठ आये कि क्या मानवेतर संस्कृति भी होती है जो हम मानव संस्कृति की बात करें? इसी प्रकार यह प्रश्न भी गूँज जाता है कि क्या मानवेतर समाज भी होते हैं कि हम मानव समाज की चर्चा करें?
ये प्रश्न अर्थहीन नहीं होते और नृतत्त्व-विज्ञान आरम्भ से ही इन्हीं प्रश्नों से उलझता है। हम क्रमश: पहचानने लगते हैं कि विकास के क्रम में सामाजिकता की भावना उच्चतर प्राणियों में आयी है। मृगों की और बन्दरों की अनेक प्रजातियों में सामूहिक आचरण और परस्पर सहयोग की कुछ मर्यादाएँ हम पहचानने लगते हैं और उन्हें सामाजिकता का मूल मानकर क्रमश: आदिम वन-जातियों, कबीलों और जन-जातियों की सामाजिकता के साथ जोडऩे लगते हैं। फिर इस सामाजिकता को संस्कृति की परिभाषा के साथ जोडक़र हम अपनी तर्क-परम्परा का उलटे क्रम से विस्तार करते हैं। कम-से-कम कुछ दूर तक तो उसका निर्वाह हो जाता है और उसें निरर्थकता की झलक हमें नहीं मिलती। फिर भी उससे आगे हम उसे नहीं ले जाते; सादृश्य के धुँधलके के छोर पर उसे छोड़ देते हैं जहाँ अनजाने ही यह माने रहना सम्भव हो कि वैसी ही समानताएँ वहाँ भी काम कर रही होंगी।
लेकिन यहाँ भी साहित्य पर इस तर्क-परम्परा का आरोप हम सम्भव नहीं पाते, सादृश्य-मूलक तर्क का भी नहीं। जन-जातियों, कबीलों और आदिम वन-जातियों के नृत्यों और गीतों को निश्चय ही हम साहित्य की परिधि में ले आते हैं और साहित्य के आदि स्रोत को प्राचीनतम सामूहिक अनुष्ठान के साथ जोड़ लेते हैं। उन अनुष्ठानों के साथ जुड़े हुए गीत कैसे रहे होंगे यह हम नहीं जानते, न जान सकते हैं; इसलिए यह स्पष्ट है कि यहाँ भी हम ज्ञान के आधार पर नहीं, सादृश्य के तर्क के आधार पर ही बढ़ते हैं। लेकिन उसे आगे-अथवा पीछे, प्राचीनतर काल में-सादृश्य के तर्क के सहारे भी हम जाने को तैयार नहीं हैं, यद्यपि संस्कृति और सामाजिकता की जड़ें खोजते हुए हम मानव-पूर्व प्राणियों के समाज, समूह, यूथ अथवा झुंड तक जाने में विशेष कठिनाई नहीं देखते।
साहित्य के मामले में यह झिझक क्यों?
उसका एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण है। यही कारण है कि मानव संस्कृति और मानव समाज की बात करते हुए भी हम मानव साहित्य की बात नहीं कर पाते; और वही कारण है कि जिस प्रकार हम सामाजिकता की चर्चा को सादृश्य के सहारे मानव-पूर्ण प्राणियों के संसार में ले जाते हैं, वैसे साहित्य को नहीं ले जाते, ले जाने का प्रयत्न करने को भी तैयार नहीं होते।
और वह कारण यही है कि वैसे प्रयत्न हम कर ही नहीं सकते क्योंकि साहित्य की ही नहीं, मानव की ही हमारी परिभाषा उसे असम्भव बना देती है। वह कारण यह है कि साहित्य भाषा की अपेक्षा रखता है, ‘साहित्यिक’ शब्द की अपेक्षा रखता है। किसी-न-किसी प्रकार का सम्प्रेषण तो मानवेतर अथवा मानव-पूर्व प्राणियों में भी होता है और सम्प्रेषण ही सामाजिकता की नींव है; लेकिन अर्थवान् शब्द और रूपकार्थ की अवधारणा मनुष्य की सृष्टि है और यही सर्जकत्व उसे अन्य सभी प्राणियों से ऐसे आत्यन्तिक रूप से अलग कर देता है कि साहित्य के विचार का वैसा विस्तार हमारे लिए असम्भव हो जाता है जैसा हम संस्कृति अथवा सामाजिकता का कर सकते हैं।
इसीलिए साहित्य के साथ विशेषण के रूप में मानव नहीं लगता-क्योंकि दूसरा कोई साहित्य न केवल होता नहीं बल्कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। साहित्य की बात हम एकवचन में भी कर सकते हैं और बहुवचन में भी; जब एकवचन में भी कर रहे होंगे तब भी उसका सन्दर्भ मानवीय ही होगा, लेकिन उस विशेषण की कोई गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि वह परिभाषा में ही निहित है। और जब बहुवचन में करेंगे तो देश-काल में बँधे समाजों और संस्कृतियों के साथ जोडक़र कर रहे होंगे।
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बदलाव की प्रक्रिया और संकल्प, उसके प्रयत्न के दो स्तरों अथवा आयामों की चर्चा हम कर चुके हैं। साहित्य में भी निश्चय ही दो स्तरों की बात हो सकती है, लेकिन साहित्य को बदलाव के साथ जोड़ते हुए हम एक और बात कर रहे होते हैं जिसकी ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। संस्कृति अथवा समाज में बदलाव अथवा उसके संकल्प की बात करते समय हमारे सोच की परिधि यही रहती है कि संस्कृति कैसे संस्कृति को बदलती या बदल सकती है; समाज कैसे समाज को बदलता या बदल सकता है। नि:सन्देह यह हम जानते हैं कि समाज अथवा संस्कृति के बदलाव से संस्कृति अथवा समाज में भी बदलाव आया है, अर्थात एक के परिवर्तन अनिवार्यतया दूसरे को प्रभावित करते हैं। लेकिन क्योंकि हम जानते और मानते हैं कि एक का परिवर्तन दूसरे में परिवर्तन लाएगा ही, इसीलिए हम समाज अथवा संस्कृति को दूसरे को बदलने का उपकरण बनाकर बदलाव नहीं करते; दोनों के अपने को ही बदलने का विचार करते हैं। समाज भी अपने को बदलता है या बदलना चाहता है; संस्कृति भी अपने को बदलती है या बदलना चाहती है। अपने को बदलकर ही दूसरे को बदला जा सकेगा; दूसरे को बदलने के लिए अपने को ही बदलना होगा।
लेकिन साहित्य भी क्या अपने को बदलता है या बदलना चाहता है? उसके संकल्प में भी जब परिवर्तन की बात होती है तब क्या अपने को बदलने की बात होती है? विचार-गोष्ठियों के लिए हम विषय रखते हैं ‘संस्कृति और परिवर्तन की प्रक्रिया’ अथवा ‘समाज और परिवर्तन की प्रक्रिया’ और जानते हैं कि पहले में सांस्कृतिक परिवर्तन की बात होगी, दूसरे में सामाजिक परिवर्तन की। लेकिन साहित्य के साथ हम न केवल ऐसा नहीं मानकर चलते, बल्कि यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि विचार होगा तो ‘साहित्य और सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया’ अथवा ‘साहित्य और समाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया’ का विचार होगा। ‘साहित्य और सहित्यिक परिवर्तन की प्रक्रिया’-यह भी गोष्ठी में विचार का विषय हो सकता है, यह सम्भावना भी हम नहीं करते।
असल में हम अर्थवान शब्द और रूपकार्थ की रचना की बात तो मान लेते हैं, लेकिन इस बात की उपेक्षा कर जाते हैं कि अर्थवान शब्द न केवल साहित्य के साथ जुड़ा हुआ है बल्कि मानव की परिभाषा के साथ भी आत्यन्तिक रूप से जुड़ा हुआ है। अर्थवान शब्द और रूपकार्थ की सृष्टि कर सकना-मैंने अन्यत्र मनुष्य को पहला प्रतीक-स्रष्टा प्राणी कहा है-मनुष्य को अपूर्वानुमेय भी बना देता है। प्रतीक-स्रष्टा होने के नाते मनुष्य पहला स्वाधीन प्राणी है, उसकी सम्भावनाएँ पूर्वानुमान से परे चली जाती हैं।
अर्थवान शब्द और रूपकार्थ के साथ जुड़ा होने के नाते साहित्य भी इस विशेष अर्थ में पूर्वानुमेय है। हम चाहें तो कह सकते हैं कि वह विश्ेाष अर्थ में स्वाधीन अथवा स्वायत्त है, जिस अर्थ में संस्कृति स्वाधीन नहीं होती, न समाज ही स्वाधीन होता है-अपनी जीवन्त और गतिशील आस्थाओं में भी हीं।
अर्थवान शब्द अर्थ की सृष्टि तो करता है लेकिन अर्थ की सीमा नहीं बाँधता। रूपकार्थ की सृष्टि अर्थ-सृष्टियों का एक द्वार खोलती है जिसके आगे सीमाहीन सम्भावनाएँ गूँज रही होती हैं। इसीलिए सच्चे रचनात्मक साहित्य का, सच्चे साहित्य सर्जन का, एक कालातीत आयाम होता है। उसमें हमें लगातार नए अर्थ मिलते रहते हैं। अब अगर यह बात ठीक है-और इसकी एक उपपत्ति यह भी है कि हम किसी एक समय में अन्तिम रूप से यह नहीं कह सकते कि अमुक एक काव्यकृति का यही और इतना ही अर्थ है कि भविष्यत् युगों में उसमें नया अर्थ नहीं पाया जा सकेगा-तो हम कैसे दावे के साथ कह सकते हैं कि अमुक साहित्य रचना अमुक प्रभाव उत्पन्न करेगी और केवल अमुक प्रकार की ही प्रेरणा दे सकेगी? कालजित साहित्य मानव को (और क्या इस शब्द को यह विस्तार भी देने की जरूरत है कि मानव समाज को और मानव संस्कृति को?) निश्चय ही प्रभावित कर सकता है और करता है, लेकिन ये प्रभाव पूर्वानुमेय नहीं हो सकते और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि साहित्य से कोई भी एक विशेष और सीमित प्रभाव पैदा करने का काम लिया जा सकता है-कोई विशेष सामाजिक परिवर्तन लाने का काम लिया जा सकता है। यह तो बिलकुल सम्भव है कि जो विशेष समाजिक परिवर्तन हमें वांछित जान पड़ता हो उसकी दिशा में भी साहित्य का प्रभाव क्रियाशील हो, लेकिन यह सीमा बाँध देना सम्भव नहीं होगा कि किसी भी महान, साहित्यिक रचना का प्रभाव केवल उतना और केवल उसी दिशा में होगा; क्योंकि यह उसे सम्पूर्णतया पूर्वानुमेय मानकर चलना होगा और हम साहित्य अर्थात् रचनात्मक अर्थवान् शब्द और मानव अर्थात् प्रतीक-स्रष्टा प्राणी की परिभाषा मं ही इस सीमा को नकार चुके हैं। साहित्य जो परितर्वन लाता है-या साहित्य से जो परिवर्तन आते हैं और लगातार आते रह सकते हैं-उनका क्षेत्र मानव का पूरा संवेदन है, पूर्वानुमान से परे जानेवाली उसकी सर्जक कल्पना है। हमने कहा कि ऐसा तो हो सकता है कि साहित्य के प्रभावों में से एक प्रभाव वह भी हो जो कि उस समय हमारा वांछित है, या जो हमारे वांछित सामाजिक परिवर्तन को प्रेरणा देगा। लेकिन ऐसा कोई एक परितर्वन लाने के लिए साहित्य के व्यापक तथा देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करनेवाले सामथ्र्य को अनदेखा करके उससे एक तदर्थ उपकरण अथवा अस्त्र का काम लेना-बात को स्पष्ट करने के लिए एक अतिरंजित बिम्ब का सहारा लूँ-वैसा ही होगा जैसे एक खरगोश को मारने के लिए अणुबम का उपयोग।
यों तो समाज भी एक स्थूल संरचना भी है और एक अमूर्त भाव-संरचना भी, लेकिन जब हम समाज को बदलने की बात सोच रहे होते हैं तो उसकी स्थूल संरचना ही हमारे सामने होती है और सम्बन्धों को बदलने की बात करते हुए हम उसकी संरचना के अन्त:सम्बन्धों को बदलने की बात कर रहे होते हैं। यही बात बहुत थोड़े परितर्वन के साथ संस्कृति के बारे में भी कही जा सकती है। उसमें भावना और उसके संस्कारों का महत्त्व कुछ अधिक है, लेकिन बदलने की बात करते समय वहाँ भी हम मुख्यतया आचार-व्यवहार, व्यवस्था को बदलने की बात ही सोच रहे होते हैं। लेकिन साहित्य की बात इनसे बिलकुल अलग है। वहाँ पर अगर हम संरचना की ही बात करना चाहें तो वह तन्त्र अथवा तकनीकी कौशल की बात हो जाती है। इसमें परिवर्तन लगातार अनिवार्य रूप से होता ही रहता है। और अगर हम किसी दूसरे बदलाव की बात सोचना चाहें तो वह अनिवार्यतया संस्कृति और समाज के बदलाव के साथ जुड़ जाती है, मूल्य दृष्टि के साथ जुड़ जाती है, संवेदन के साथ जुड़ जाती है-अपूर्वानुमेय के समूचे क्षेत्र के साथ जुड़ जाती है। प्रकारान्तर से हम यह बात पहले भी कह आये कि समाज और संस्कृति के बदलाव की बात सोचते समय हमारे सामने यह प्रश्न होता है कि ये सत्ताएँ अथवा व्यवस्थाएँ कैसे अपने को बदल सकती हैं; साहित्य की चर्चा में प्रश्न यह बन जाता है कि साहित्य अपने को नहीं, समाज अथवा संस्कृति को कैसे बदले।
अब तक मैंने जो कुछ कहा है उसमें बराबर यह प्रतिज्ञा निहित रही है कि साहित्य से भी बदलाव आता है, लेकिन साथ ही यह प्रश्न बराबर बना रहा है कि वह बदलाव किस क्षेत्र में आता है, कहाँ तक नियोजित हो सकता है और कहाँ पूर्वानुमेय से परे चला जाता है। अब इतने विवेचन के बाद मैं सिद्धान्त अथवा स्थापना के रूप में यह बात कह सकता हूँ कि सर्जनात्मक साहित्य के द्वारा आनेवाले परिवर्तन संवेदन के परितर्वन होते हैं; व्यवस्था के नहीं, व्यवस्थाओं में अन्तर्निहित मूल्यदृष्टि के भी नहीं, बल्कि मूल्यदृष्टि की भी आधार-भित्ति के परिवर्तन। यह आधार-भित्ति मानव की सजर्नात्मक प्रतिभा है, इसलिए वह बराबर पूर्वानमुमेयता की सीमा में परे जाती रहती है। साहित्य समाज को और संस्कृति को बदलता है तो इसलिए कि वह नए और अपूर्व-कल्पित जीवन का उन्मेष और आविष्कार भी है। यह नहीं कि वह यथार्थ को या वास्तविकता को कहीं नकारता या अनदेखा करता है; यही कि सर्जना कर्म के दौरान ये बदल गये होते हैं।
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आधुनिक हिन्दी साहित्य की परम्परा अथवा उसका परिदृश्य उतना लम्बा नहीं है कि कुछ बातों की परीक्षा हम उसी की सीमा के भीतर रहते हुए कर सकें। लेकिन यह बिलकुल ज़रूरी भी नहीं है-उचित भी नहीं है-कि हम अपने को उसी सीमा से बाँध कर रखें। पूरे हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में भी कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं और कुछ सवाल अपना सही सन्दर्भ पा जाते है। भक्त साहित्य और सन्त साहित्य को ही लीजिए। उन्हें ये नाम ही दिये गए तो इसीलिए कि इनमें आस्था का स्वर प्रबल रहा, इनका सनातन मूल्यों का आग्रह रहा। सनातन मूल्यों का आग्रह, भगवन्निष्ठा, आस्था और भक्ति- कहा जा सकता है कि ये सभी स्थितिशील आग्रह हैं समाज को बदलने से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि बदलते हुए समाज के बीच इन्हीं तत्त्वों पर बल देना इन्हें अभीष्ट है जो बदलते नहीं। तब फिर सन्तों और भक्तों के साहित्य ने कैसे अपने युग में और अपने समाज में एक क्रान्तिकारी भूमिका निबाही? और अगर हम कहें कि ऐसा इसलिए हुआ कि वे शोषित और उत्पीडि़त की भावनाओं और उसकी मूल्यदृष्टि के साथ जुड़े, तो क्या हम यह कह रहे हैं कि शोषित और उत्पीडि़त की मूल्यदृष्टि, उसकी आस्था और उसकी भगवन्निष्ठा, उसके सारे आग्रह स्थितिशीलता के आग्रह हैं? नि:सन्देह स्थित इतनी सरल नहीं है और ऐसा कोई सीधा समीकरण नहीं बन सकता। सन्तों और भक्तों के क्रान्तिकारी प्रभाव को समझने के लिए हमें स्थूल परिस्थितियों का और भावना जगत् का विचार अलग-अलग भी करना होगा और फिर भावना जगत की अन्त-प्रेरणाओं का विश्लेषण भी अलग से करना होगा। नि:सन्देह ये भावना फिर आकर सामाजिक परिस्थितियों से भी जुड़ेंगी, लेकिन अगर सही विश्लेषण हुआ होगा ते स्थितिशीलता की परिभाषा भी बदल चुकी होगी और साहित्य के प्रभाव का वह पक्ष भी पहचान लिया गया होगा जो पूर्वानुमेय नहीं होता।
भक्तों अथवा सन्तों की रचनाओं का सामूहिक रूप से विचार न करके अलग-अलग विचार करें तो बात और स्पष्ट हो जाती है। बल्कि एक अकेले कवि कबीर का ही विचार किया जाए तो परिवर्तन की समस्या पर प्रकाश डालने के लिए काफ़ी है।
यह तो एक सर्वमान्य बात का दोहराना ही होगा कि कबीर अपने को न सन्त मानते थे और न कवि। इससे आगे यह भी कहा जा सकता है-यद्यपि हो सकता है यह बात वैसी सर्वसम्मत न हो-कि कबीर अपने को क्रान्तिकारी या समाज-सुधारक के रूप में नहीं देखते थे, यद्यपि सन्त का आग्रह उनका बराबर रहा। मोटे तौर पर यह बात सभी सन्त और भक्त कवियों के बारे में कही जा सकती है कि वे अपने को कवि न समझते हुए केवल साधक ही मानते थे, लेकिन कबीर के बारे में यह अपेक्षया अधिक सच है। साधक होने के नाते और सत्याग्रही होने के नाते उनकी उक्तियों का ऐसा भी प्रभाव भले ही रहा हो जो समाज को बदलनेवाला हो और भले ही उन्हें इस बात का बोध भी रहा हो कि उनकी उक्तियाँ जगह-जगह समाज को चुनौती दे रही हैं, यह कहा जा सकता है कि ऐसा उनका लक्ष्य नहीं था बल्कि यह उनके जीवन और उनकी साखियों के आनुषंगिक परिणाम ही थे।
लेकिन हमारे लिए जो बात और भी अधिक महत्त्व की है वह यह कि सत्रहवीं शती से लेकर बीसवीं शती तक कबीर की उक्तियों-उनकी साखियों, रमैनियों, शब्दों और पदों को साहित्य ही नहीं माना गया था, अर्थात् हमारे सन्दर्भ के चौखटे में आनेवाला कृति-साहितय अथवा सर्जनात्मक साहित्य। यह सुरक्षित भी रहा था तो लोक-साधारण की वाणी में, जहाँ वह एक सहज-शास्त्र-निर्देश का काम करता था, अथवा कबीरपन्थी का भगताही परम्परा में जहाँ वह उसी प्रकार साम्प्रदायिक धर्मोपदेश का काम करता था-और यह कोई नहीं कह सकता कि ये सम्प्रदाय क्रान्तिकारी सम्प्रदाय थे अथवा समाज को बदलने की भावना से प्रेरित थे।
यह कहना भी अनुचित न होगा कि हिन्दी-भाषी समाज में कबीर की रचनाओं को सर्जनात्मक साहित्य की कोटि में रखकर उसका विचार करने की कल्पना ही बीसवीं शती के तीसरे दशक से पहले नहीं की गयी थी, बल्कि उसके बाद भी कम-से-कम एक दशक तक विश्वविद्यालयी क्षेत्रों में कबीर को साहित्य के उच्चतर अध्ययन का विषय बनाने के प्रति प्रबल विरोध का भी भाव था। कबीर की सामाजिक प्रतिष्ठा में कहाँ तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा किये गये कल्पनाशील अनुवादों का अथवा क्षितिमोहन सेन जैसे आचार्यों द्वारा किये गये अध्ययन का योगदान था, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर का कवि अथवा साहित्यस्रष्टा के रूप में विचार वर्तमान शती की दूसरी चौथाई से ही आरम्भ हुआ।
कबीर की रचनाएँ विचारों में हेतुवाद का और सामाजिक आचरण में पाखंड का जोरदार खंडन करती हैं । तार्किक हेतुवाद का खंडन सनातन मूल्यों और आस्थाओं पर बल देता है। अत: उसे किसी प्रकार की भी क्रान्तिकारिता मानने के लिए क्रान्ति की परिभाषा को इतनी दूर तक खींचना होगा कि फिर उसमें पुराणपन्थी प्रवृत्तियाँ भी सम्मिलित हो जाएँगी (और यहाँ यह तो नहीं ही भूलना चाहिए कि साधु कबीर नारदीय भक्ति का अनुमोदन करते हैं; अगर नारदीय भक्ति क्रान्तिकारी है तो स्पष्ट है कि हमारी क्रान्ति की कल्पना आमूल बदल गयी है)। तो कबीर की क्रान्तिकारिता की चर्चा सामाजिक आचरण में पाखंड के विरोध को लेकर ही हो सकती है। यह विरोध पैना था, प्रबल था, प्रभावशाली भी हुआ, लेकिन इस गुण के बावजूद तीन सौ वर्षों तक कबीर को साहित्यकार अथवा कवि की कोटि में नहीं रखा जाता रहा। क्योंकि यह गुण काव्य गुण माना ही नहीं जाता था, यह कर्म कवि-कर्म में शामिल नहीं किया जाता था। अब हम यह तो मान सकते हैं कि तीन सौ वर्ष तक साहित्य की परख करनेवाला समाज अँधेरे में था या गलती पर था, लेकिन यह मान लेने पर भी यह सवाल तो ज्यों-का-त्यों बना रहता है कि क्या साहित्यकार चेतन अथवा नियोजित रूप से समाज को बदलने का अभियान अपने कृति-साहित्य के द्वारा चला सकता है? और इसे जुड़ा हुआ दूसरा प्रश्न भी ज्यों-का-त्यों बना रहता है कि अगर साहित्यकार नियोजित ढंग से ऐसा करता भी है तो कालान्तर में होनेवाले प्रभाव वही होते हैं जो उसने लक्ष्य के रूप में अपने सामने रखे थे? यदि प्रभाव उनसे भिन्न होते हैं और कवि के युग में न होकर किसी दूसरे युग में होते हैं जबकि युगीन परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि ऐसे विचार क्रियाशील हो उठते हैं जिन्हें हम एक अरसा पुरानी रचनाओं के साथ जोड़ते हैं, यद्यपि बीच के लम्बे अन्तराल में उन रचनाओं से उन विचारों का सम्बन्ध हमें नहीं दीखता था, अगर विचारों की क्रियाशीलता का सम्बन्ध उनसे प्रभावित होनेवाले समाज के संवेदन से ही अधिक है, अगर कोई समाज अपने युगीन संवेदन के कारण किन्हीं रचनाओं में कोई अर्थ पाने लगता है जो उससे पहले की कई पीढिय़ों के समाजों को उसमें नहीं मिला था-तो इसका श्रेय क्या हम कवि की नियोजना को दे सकते हैं? रचना से तो उसका सम्बन्ध निर्विवाद है ही, लेकिन रचना से जो अर्थ नए युग में हम पा सकते हैं वह अर्थ उसे हम दे रहे हैं : उसे वह अर्थ देने का सामथ्र्य हमारे युगीन संवेदन और हमारे समूचे संस्कार का परिणाम है। वह अर्थ हम उस रचना से पा रहे हैं, इससे रचना की वह अर्थ देने की क्षमता और शक्तितो प्रमाणित होती है, लेकिन यह तो सिद्ध नहीं होता कि वह रचनाकार की नियोजनाओं का परिणाम था।
कबीर तो एक उदाहरण है। साहित्य-देशी और विदेशी, हिन्दी और हिन्दीतर साहित्य-ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसे हम कालजित् साहित्य कहते हैं वह कई बार भुला ही दिया जाता है, फिर नए रूप में अवतरित होता है। उसका अर्थ बदल चुका होता है। और यह नया अर्थ भी अन्तिम नहीं होता। यह सम्भावना बनी रहती है कि फिर किसी परवर्ती युग में उसमें किसी नए अर्थ का उन्मेष होगा। इस प्रक्रिया में ग्रहीता वर्ग का योगदान भी असन्दिग्ध है, रचना की क्षमता भी असन्दिग्ध है। जो चीज़ सन्दिग्ध है वह है कवि की सचेत नियोजना। साहित्य के कारण परिवर्तन आते हैं, संवेदन की गहराई बढ़ती है और उसे नया संस्कार मिलता है, लेकिन यह शक्ति साहित्य की है और यह प्रमाण विचार की देश-काल मुक्त स्वायत्ता का है। इसका श्रेय कवि की नियेाजना को नहीं दिया जा सकता, कवि का अनुशासन करना चाहनेवाले काव्यशास्त्री अथवा आलोचक को तो और भी नहीं। कवियों के बारे में ऐसे चुटकुले सुनने को मिलते हैं कि अपनी रचना का अर्थ वे स्वयं नहीं जानते, लेकिन यह बात है बिलकुल सच। कुछ ही अर्थ कवि जानते हैं या जान सकते हैं; इनसे अधिक कुछ और अर्थों का तीव्र क्षणस्थायी बोध उन्हें उस आविष्ट अवस्था में ही हो सकता है जो सर्जन प्रक्रिया की चरमावस्था होती है। ब्राउनिंग ने अपनी एक अत्यन्त दुरूह रचना का अर्थ पूछे जाने पर उत्तर दिया था, ‘‘जब मैंने वह लिखी थी तब उसका अर्थ जाननेवाले दो थे-मैं और ईश्वर; अब केवल ईश्वर ही जानता है और वही समय-समय पर खंडार्थ विभिन्न युगों अथवा समाजों पर प्रकट कर दिया करता है।’’ उस युग अथवा उस समाज के काव्य-रसिक अपनी निष्ठा और साधना के बल पर उससे आगे कुछ और अर्थ का भी आविष्कार कर ले सकते हैं। उनका इतिहासकार उनका ब्यौरा दूसरे युगों और समाजों के लिए भी छोड़ जा सकता है। स्रष्टा को जब कवि कहा गया (और उसे कवि कहने में रूपकार्थ, सृष्टि की उसी प्रतिभा से काम लिया गया था जो मनुष्य को मानव पद देती है; तभी तो हम एक साथ ही स्रष्टा को ‘कवि’ भी कहते हैं और फिर ‘नेति-नेति’ भी कहते हैं और इन दोनों बातों में हमें न केवल विरोध नहीं दीखता बल्कि अर्थगर्भता का विस्तार दीखता है), और फिर कवि को मनीषी के साथ-साथ परिभू और स्वयम्भू भी कह दिया गया, तो यही पहचानकर कि अर्थवान शब्द की सम्भावनाएँ अनन्त हैं। रूपकार्थों की सिद्धि सादृश्यों के आधार पर अर्थ-सृष्टि के जो द्वार खोल देती है उनसे आगे सादृश्यों की पहचान की ही नहीं रचना की भी अनन्त सम्भावनाएँ खुल जाती हैं। हाँ, उन्हें पहचानने के लिए दृष्टि चाहिए और सर्जन के लिए प्रतिभा तो चाहिए ही। जहाँ और जिस स्तर पर हम लेखन का उपयोग समाज में परिवर्तन लाने के लिए करते हैं-और नि:सन्देह लेखन का उपयेाग तो सचेष्ट और नियोजित रूप से समाज में निश्चित और अभीप्सित परिवर्तन लाने के लिए, उसे किसी विशेष दिशा में प्रेरित करने या किसी दूसरी दिशा से विमुख करने के लिए, किया ही जा सकता है-वह स्तर सर्जन का नहीं है। कविता की अपेक्षा उपन्यास कुछ अधिक उपयोज्य पाया जाता है; इस बात को यों भी कह सकते हैं कि कविता की अपेक्षा उपन्यास एक अधिक ‘सामाजिक’ विधा है। और उपन्यास की अपेक्षा नाटक के बारे में यह बात और भी अधिक सच होती है- जिसे फिर यों भी कहा जा सकता है कि नाटक उपन्यास की अपेक्षा कहीं अधिक ‘सामाजिक’ विधा है। बल्कि नाटक का वाचिक अंग अथवा ‘साहित्य’ तो उसका केवल एक अंग है; नाटक का विचार जब हम एक समग्र प्रस्तुति के रूप में करते हैं तो वह एक सामाजिक विधा ही नहीं एक सामूहिक अथवा सहयोगी रचना हो जाता है। इस विशेषता के कारण साहित्य विधाओं में नाट्य विधा निश्चय ही सबसे अधिक उपयोज्य विधा हो जाती है और पूर्वनियोजित सामाजिक प्रभावों के लिए उसका ही उपयोग सबसे अधिक हुआ भी है। यों यहाँ भी हमें यह पहचानना चाहिए कि इस स्थिति में भी मंचित नाटक के भी कुछ बुरे प्रभाव नियोजना की सीमा में बँधे रहते हैं और अच्छे नाटक हमेशा नियोजना से परे कुछ ऐसे प्रभाव भी रखते हैं जो अपूर्वानुमेय होते हैं। ऐसा भी हुआ है कि नाटककार ने जिस उद्देश्य से नाटक लिखा है उससे ठीक उलटा प्रभाव डालकर नाटक स्वयं अपने रचनाकार को भौचक्का करके छोड़ गया है। अपनी बात स्थापित करने के लिए और कुछ चिढ़ाने के भाव से यह भी कह दिया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में नाटक में सर्जना उतनी ही थी जितना कि अतर्कित प्रभाव पड़ा; बाकी नियोजित लेखन था!
नियोजित प्रभाव की अर्हता के सन्दर्भ में अधिक-से-अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि सब साहित्य क्योंकि सर्जना के स्तर तक नहीं पहुँचाता, इसलिए जो उससे कमतर होता है उसे उपयोज्य बनाना चाहिए। या यह भी कहा जा सकता है कि जिन साहित्यकारों में उतनी सर्जनात्मक प्रतिभा नहीं है-और यह तो मानना ही होगा कि वैसी प्रतिभावाले साहित्यकार किसी भी युग, किसी भी समय में इने-गिने ही होते हैं, बल्कि जो होते भी हैं उनकी भी सर्जनात्मक प्रतिभा का स्तर हमेशा एक-सा नहीं रहता-ऐसे साहित्यकार अपनी योग्यता और दीक्षा का उपयोग ऐसा साहित्य लिखने में कर सकते हैं जो समाज को बदलने का लक्ष्य रखता हो। यह तो मान लेना होगा कि ऐसा लेखन कालजित् तो क्या, दीर्घजीवी भी नहीं होगा। लेकिन यह तो तभी मान लिया जाता है जब ऐसे साहित्य के लेखक को सर्जक से उन्नीस मान लिया जाता है।
कुछ साहित्य समाज को बदलने के काम आ सकता है, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य समाज को बदलता नहीं, उसे मुक्त करता है फिर भी उस मुक्ति में समाज के लिए-और हाँ, संस्कृति के लिए, मानव मात्र के लिए-बदलाव के सब रास्ते खुल जाते हैं