साहित्य-बोध: आधुनिकता के तत्व / अज्ञेय

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शीर्षक में यह स्वीकार कर लिया गया है कि लेख का विषय 'साहित्य-बोध' है; पर वास्तव में इस अर्थ में इसका प्रयोग चिंत्य है। यह मान भी लें कि लोक-व्यवहार बहुत से शब्दों को ऐसा विशेष अर्थ दे देता है जो यों उनसे सिद्ध न होता, तो भी अभी तक ऐसा जान पड़ता है कि समकालीन संदर्भ में 'साहित्य-बोध' की अपेक्षा 'संवेदना-बोध' ही अधिक सारमय संज्ञा है। इसलिए शीर्षक में प्रचलन के नाम पर साहित्य-बोध का उल्लेख कर के लेख में वास्तव में आधुनिक संवेदना की ही चर्चा की जाएगी।

क्या संवेदना के साथ 'नई' या 'पुरानी' ऐसा कोई विशेषण लगाना उचित है? क्या संवेदना ऐसे बदलती है? क्या मानव मात्र एक नहीं है और इसलिए क्या उसकी संवेदना भी एक नहीं है? क्या यह एकता देश और काल दोनों के आयाम में एक-सी अखंडित नहीं रहती?

नि:संदेह मानव एक है। किंतु जब हम विकासशील जीव-तत्व की बात करते हैं तब परिवर्तन के सिद्धांत को भी मान लेते हैं। चेतना स्वयं विकासशील है। संवेदना वह यंत्र है जिसके सहारे जीव-व्यष्टि अपने से इतर सब कुछ से संबंध जोड़ती है - वह संबंध एक साथ ही एकता का भी है और भिन्नता का भी, क्योंकि उसके सहारे जहाँ जीव-व्यष्टि अपने से इतर जगत को पहचानती है वहाँ उससे अपने को अलग भी करती है।

मानव प्राणी की संवेदना केवल दूसरे जीवों से और जड़ परिस्थिति से प्रतिक्रिया करती है, बल्कि अपनी प्रतिक्रियाओं का मूल्यांकन भी करती है। जीव अपने को परिस्थिति के अनुकूल बनाता है, मनुष्य परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाने का चेतन और अवचेतन प्रयत्न करता है। ज्यों-ज्यों उसकी संवेदना विस्तार करती है, अर्थात ज्यों-ज्यों जगत से उसके संबंध नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश करते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका विवेक विकसित होता जाता है और निरी संवेदना के साथ एक अनिवार्य नैतिक बोध भी जुड़ जाता है। अच्छा और बुरा, ऊँचा और नीचा, मंगलमय और अमंगल, समाज-हितकारी और असामाजिक, ऐसी अनेक कोटियों के विचार उसके कम्र को ही नहीं, उसकी संवेदना को भी नियंत्रित करने लगते हैं क्योंकि वह अपनी भावनाओं को भी बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने लगता है।

मानव और मानवेतर के संबंध के विकास का अर्थ से आज तक अध्ययन करना यहाँ अनावश्यक है। यहाँ इतना ही कहना यथेष्ट होगा कि विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ मानव का मूल्य बढ़ गया है और मानवेत्तर का मूल्य घटता गया है। विज्ञान ने नैतिकता को ईश्वरपरक न मानकर मानव-सापेक्ष मान लिया है, मानव की उसकी परिकल्पना चाहे कितनी भी विस्तीर्ण है। ईश्वर के दरबार में सब प्राणी समान हो सकते थे; मनुष्य के दरबार में स्वभावत: वैसा नहीं हो सकता क्योंकि वह मनुष्य का दरबार है। इस प्रकार संसार का मानदंड मनुष्य को मानते ही हमारी नैतिकता के आधार में बहुत से अवश्यंभावी परिवर्तन होने लगते हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी संवेदना का रूप बदल जाता है।

यह नहीं कि संवेदना नैतिक बोध का पर्याय है। किंतु पाप-पुण्य की भावना बदलते ही हमें सुख या पीड़ा देने वाली परिस्थितियों का रूप भी बदल जाता है, हमें चिंतित करनेवाले या उत्साह देने वाले तत्व भी दूसरे हो जाते हैं। पुराने आदर्श हास्यास्पद या दुर्बोध हो जाते हैं; जो बातें एक समय नगण्य थीं वे जीवनादर्श की सामर्थ्य ग्रहण कर लेती हैं। एक समय था जब कि चींटी या खटमल के लिए अपने प्राणों को जोखिम में डालने वाला पुण्यात्मा होता था, एक समय है कि कौवों और बंदरों को रोटी खिलाने वाला समाजद्रोही गिना जाता है क्योंकि मानव के लिए रोटी की कमी है। एक समय था जब कि धर्म के लिए जान गँवाने वाला सर्वोच्च सम्मान पाता था, एक समय है कि थोड़े-थोड़े समय के लिए दो-तीन बार धर्म-परिवर्तन कर लेना भी अनुचित नहीं समझा जाता बल्कि कुछ परिस्थितियों में अनुमोदित भी होता है।

वास्तव में जहाँ तक साहित्य या किसी भी कला का प्रश्न है संवेदना से हमारा अभिप्राय निरी ऐंद्रिय चेतना बिलकुल भिन्न कुछ होता है। गर्म और ठंडा, उजाला और अँधेरा, सादा और रंगीन, खट्टा और मीठा, नर्म और कठोर, कर्कश और मधुर, यह सब भी इंद्रिय-संवेद्य है। और संवेदना का यह स्तर नैतिकता से परे है। यह कह लीजिए कि यह उस का जैविक स्तर है, मानवीय स्तर नहीं। इस कोटि की संवेदना जीव मात्र में होती है और मानव में भी उसके जीव होने के नाते ही। किंतु जो संवेदना उसके नैतिक बोध के साथ गुँथी हुई है वह दूसरे स्तर की है। वह अनन्य रूप से मानव की है और उसी के कारण जीवों में मानव अद्वितीय है। इसी बात को हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं : संवेदना का संबंध जैविक परिस्थिति से नहीं, सांस्कृतिक परिस्थिति से है। जिस संवेदना की बात हम कर रहे हैं, जिसे 'साहित्य-बोध' का या और व्यापक स्तर पर कला-बोध का नाम दिया गया है, वह वास्तव में सांस्कृतिक बोध ही है और इसलिए संस्कृति के साथ-साथ बदलता भी रहता है।

[दो]

प्रत्येक संस्कृति के मूल में एक जीवन-दर्शन होता है। इसीलिए प्रत्येक कला के मूल में भी एक जीवन-दर्शन होता है। आवश्यक नहीं कि उसके प्रति कला सचेत भी हो; वह अंशत: या संपूर्णतया अवचेतन भी हो सकता है। पर उसका होना अनिवार्य है। कलाकार का विवेक उसी पर आश्रित है, उसी से उसके मूल्य या प्रतिमान नि:सृत होते हैं। कलाकार या साहित्यकार की शिक्षा अथवा संस्कार के कारण यह जीवन-दर्शन कम या अधिक चेतन हो सकता है। उसी के साथ-साथ उस दर्शन की उस कलाकार द्वारा की गई व्याख्या भी उतनी ही कम या अधिक विश्वास्य होती है।

जैसे-जैसे जीवन-दर्शन बदलता है वैसे ही संवेदना भी बदलती जाती है।

ऊपर जीव के प्रति सम्मान के बदलते रूप का संकेत किया गया है। मानव का जीवन किसी आत्यंतिक स्तर पर पशु के जीवन से अधिक मूल्यवान है यह सिद्ध करना कठिन है। किंतु फिर भी मानव का वध हत्या है; इसके लिए प्राणदंड की व्यवस्था है। जीव के वध के लिए केवल कुछ परिस्थितियों में दंड की व्यवस्था है जब कि वह वध के लिए नहीं बल्कि उससे संबद्ध अनावश्यक क्रूरता के लिए दिया जाता है। और हम स्वीकार करते हैं कि यह व्यवस्था-भेद उचित और नैतिक और न्याय-संगत और धर्म-सम्मत है। एक दूसरे स्तर पर जीव-दया के आदर्श में हम एक नए प्रकार का अंतर-विरोध देखते हैं : एक ओर करुणा अर्थात पर दुख कातरता का आदर्श है तो दूसरी ओर दु:ख को माया मान कर एक सामाजिक दृष्टि से निष्करुण भाव का प्रदर्शन भी जिसके कारण सभी पश्चिमी लोग सभी पूर्वीय लोगों को हृदयहीन मानते हैं।

नैतिकता की भावना बदलने का पहला कारण हुआ है धर्म-भावना का अथवा ईश्वर की परिकल्पना का रूप-परिवर्तन। जिसके कारण सृष्टि का, या कम-से-कम मानव के उससे संबंध का, केंद्र ईश्वर न रह कर स्वयं मनुष्य हो गया है। इस परिवर्तन को धर्मवान मनुष्य ने भी स्वीकार कर लिया है, चंडीदास की प्रसिद्ध उक्ति इसका एक उदाहरण है।

परिवर्तन का दूसरा कारण है प्रकृति की नई परिकल्पना। विज्ञान की पहली प्रगति ने मनुष्य को यह विश्वास दिया कि बुद्धि सब प्रश्नों का उत्तर दे सकती है। नि:संदेह ऐसा अखंड विश्वास विज्ञान की भी आधुनिक परिस्थिति में नहीं पाया जाता, किंतु अनुसंधान और परीक्षण की परंपरा अब भी विज्ञान की मुख्य पद्धति है। फिर भौतिक और जैविक विज्ञान की प्रगति की जो दो उपलब्धियाँ थीं उन्होंने विकास की क्रिया को कुछ ऐसा यांत्रिक रूप दे दिया कि वैज्ञानिक चिंतन भी एक प्रकार का यांत्रिक चिंतन हो गया। जड़ से चेतन की उत्पत्ति, और प्राथमिक जीवकोष से क्रमश: जटिलतर भीतरी रचना वाले जीवों की रचना की लंबी श्रृंखला के अंत में मानव जीवन का विकास : ये विज्ञान की मुख्य उपलब्धियाँ रहीं जिन्होंने परवर्ती मनोविज्ञान को भी एक यांत्रिक ढाँचा दे दिया। अगर मन भी एक यंत्र है, और बाहरी प्रभावों को नियंत्रित करके उसकी सभी क्रियाओं को अनुशासित और निर्दिष्ट किया जा सकता है, तो नैतिक बोध भी केवल एक यंत्रशासित कल्पना है। कोई मूल्य आत्यंतिक अथवा स्वयंसिद्ध मूल्य नहीं है; जैसे किसी मशीन को संचालित करने वाले कंट्रोल की अलग-अलग सुइयाँ या बटन अमुक एक स्थिति में रख देने से उस यंत्र का काम अमुक स्तर पर संपूर्ण रूप से निर्दिष्ट हो जाता है, उसी तरह मन के भी अलग-अलग कंट्रोल निश्चित करके उसकी सभी क्रियाओं, उसके मूल्य-बोध और नैतिक-बोध आदि को नियंत्रित किया जा सकता है; और यह नियंत्रण गुण और मात्रा दोनों पर एक-सा लागू हो सकता है।

नैतिकता सापेक्ष है, इस परिणाम तक पहुँचने के दूसरे कारण भी हुए। सापेक्षवाद के सिद्धांत ने देश-काल के ही नहीं, पदार्थ मात्र को एक संशयास्पद रूप दे दिया। पदार्थ के छोटे-से-छोटे अविभाज्य अंश को अणु मान कर इस परिभाषा पर अपना सारा शोध-कार्य आधारित करने वाला भौतिक विज्ञान जब उस बिंदु पर पहुँचा जहाँ यह भी संदिग्ध हो गया कि अणु अनिवार्यतया पदार्थ ही है और यह संभावना सामने आयी कि पदार्थ और शक्ति दोनों अनवरत एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं और एक ही तत्व कभी स्थूल रूप में अणु हो जाता है और कभी सूक्ष्म रूप लेकर विशुद्ध वैद्युतिक आवेश अथवा शक्ति हो जाता है, तब वैज्ञानिक का यांत्रिक चिंतन भी संदिग्ध हो गया और एक नए प्रकार के अनिश्चय ने जन्म लिया। स्फट (क्रिस्टल) की रचना के अनुसंधान ने पदार्थ की असारता को और भी स्पष्ट किया। स्फट की आंतरिक रचना की परीक्षा ने जहाँ इस बात को क्रमश: और स्पष्ट किया कि उसके भीतर अनेक स्तर और 'चेहरे' होते हैं, वहाँ इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया कि वे चेहरे, स्तर, कटाव और कोण होते किस 'पदार्थ' के हैं। अर्थात स्फट के शोध ने रचना या गठन का और गति का प्रमाण तो दिया, किंतु इसका कोई संकेत नहीं दिया कि वह रचना या गति किस तत्व की है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उसे यह संकेत मिला कि तत्व कुछ है ही नहीं, रचना ही रचना है और गति ही गति है।

वास्तव के शोध ने इस प्रकार जिस नई अवास्तविकता को जन्म दिया, उसमें संवेदना के प्रकार का बदल जाना स्वाभाविक ही है।

[तीन]

पदार्थ मात्र की हमारी कल्पना में परिवर्तन तक जाना कदाचित अनावश्यक है, यद्यपि जीवन-दर्शन का यह एक आवश्यक तत्व है क्योंकि मम और ममेतर का परस्पर संबंध जीव और जीवेतर के संबंध के व्यापकतर क्षेत्र का एक छोटा-सा हिस्सा-भर है। फिर भी यदि हम उतनी गहराई तक न जाकर अपने को प्राणि-समाज तक ही नहीं बल्कि उसके एक अंग मानव-समाज तक ही सीमित रखें, तब भी हम देख सकते हैं कि समाज-विज्ञान और अर्थ-विज्ञान की प्रगति ने कैसे सृष्टि में मनुष्य के स्थान को क्रमश: बदल दिया है।

मनुष्य जाति का वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपिएंस' (ज्ञान-संपन्न प्राणी) ही इस बात को स्पष्ट कर देता है कि विज्ञान ने मनुष्य को उसके विवेक के कारण दूसरे जीवों से विशिष्ट माना है। भारतीय परंपरा 'धर्मो हि तेषामधिको विशेष:' मानती आयी थी; किंतु विज्ञान ने जहाँ मनुष्य की बुद्धि को आत्यांतिक माना वहाँ धर्म को सापेक्ष मान लिया -क्योंकि विवेक या नैतिक भावना परिस्थिति-जन्य और प्रभावों के अनुशासन द्वारा परिवर्तनीय मान ली गई। इस प्रकार इतर जीवों से मनुष्य को विशिष्ट करने वाली बुद्धि ने मनुष्य की बुद्धि के लिए एक नया संकट उत्पन्न किया; विशिष्ट करने वाली बुद्धि ही यह बताने लगी कि मानव किसी तरह भी पशु से भिन्न नहीं है। कहा जा सकता है कि पशु से मनुष्य को पृथक करने वाला विज्ञान मनुष्य को पशु बनाने लगा - यंत्र से मनुष्य को अलग करने वाला विज्ञान मनुष्य को यंत्र बनाता गया; और नैतिक बोध को निरूपित करने वाला विज्ञान - नैतिकता को संदिग्ध करता गया।

यह इस प्रगति का परिणाम है कि आज मानव की स्थिति को इस प्रकार निरूपित किया जाता है कि वह 'एक नीतिविहीन अथवा अतिनैतिक (क्योंकि यांत्रिक) समाज में रहने वाला नैतिक जीव' है। वास्तव में आज के सामाजिक रोग इसी अंतर्विरोध के परिणाम हैं। यदि आधुनिक मानव व्यक्ति भी आधुनिक यंत्र भाँति नैतिकताविहीन या अतिनैतिक होता तो भी उसकी चेतन में गुत्थियाँ न पड़तीं, और यदि समाज नैतिक होता तो भी यह परिस्थिति न आती।

आधुनिक मनोवैज्ञानिक उपचारों का भी आधार यही है। वे नैतिकता के किसी प्रश्न का हल नहीं बताते; न समाज को परिवर्तित करने के संबंध में कोई संकेत देते हैं। वे केवल अनैतिक समाज में रहने के तनाव को दूर कर देते हैं - यह संभव बना देते हैं कि नैतिकता-संपन्न व्यक्ति बिना अनावश्यक क्लेश के उस अनैतिक समाज में रह सके। मनोविज्ञान की परिभाषाओं के अनुसार मानव समाज को बदलने या सुधारने की, समाज-कल्याण की कोई भी चेष्टा ऐसा मन या व्यक्तित्व नहीं कर सकता जिसे स्वस्थ या साधारण (नॉर्मल) कहा जा सके, समाज को आगे ले जाने वाले व्यक्ति का अस्वस्थ और असंतुलित होना उन परिभाषाओं के अनुसार अनिवार्य है - इससे मनौवैज्ञानिकों को कोई चिंता या उलझन नहीं होती। उन्हें यह नहीं दीखता कि यदि ऐसा है तो कहीं उनका मनोविज्ञान अधूरा है या उन का 'ऐप्रोच' गलत है।

साहित्यकार को, साहित्यिक कृतिकार को, शायद यह सब थोड़ा-थोड़ा दीखता है, भले ही धुँधला और स्पष्ट दीखता हो।

[चार]

जिसे यहाँ आधुनिक संवेदना कहा गया है, और जिसको ही लेख के शीर्षक में आधुनिक साहित्य-बोध की संज्ञा दी गई है, उसकी पृष्ठिका में कहीं यह सब कुछ है। ऐसा नहीं है कि ये सब विचार और तर्क-वितर्क सभी आधुनिक लेखकों के चेतन में हों, या कि सब में समान रूप से हों। बल्कि यह भी नहीं कहा जा सकता कि सब में ये विचार हैं ही। किंतु इतना अवश्य है कि आज का लेखक अपेक्षया अधिक चेतन है और इसलिए परिस्थिति के प्रभावों को अधिक तेजी से और अधिक मात्रा में ग्रहण करता है।

कहा जा सकता है कि इस ढंग की परिस्थिति-चेतना कृतिकार के लिए हितकर नहीं है। एक प्रकार से आत्मचेतन (सेल्फ-कान्शस) होना आधुनिक साहित्यकार का अभिशाप है। अभिशाप नहीं तो दंड तो है ही! उसकी लाचारी ही है कि वह अपनी संवेदना और प्रतिभा से होने वाली उपलब्धि-भर पाठक, श्रोता अथवा ग्राहक के सामने रख कर सन्तोष कर लेना चाहिये तो भी नहीं कर सकता; वह बाध्य होता है कि इससे आगे वह यह भी स्वयं समझाए कि आधुनिक संवेदना क्या है और क्यों है - वह आधुनिक क्यों है और संवेदना भी क्यों है!

[पाँच]

जीवन की प्रक्रिया का यह बढ़ता हुआ ज्ञान, जीवन-यंत्र की यांत्रिक गति का यह बढ़ता हुआ परिचय अपने-आप में एक समस्या है। जितना ही अधिक हमारा जीवन सतह पर आता जाता है उतना ही सतह बढ़ती जाती है; अर्थात उसके अनुपात में आभ्यंतर जीवन उतना ही छोटा होता जाता है। जितना ही अधिक इस सतह पर जीते हैं, उतना ही छोटा होता जाता है। जितना ही अधिक हम सतह पर जीते हैं, उतना ही सतह पर भीड़ भी होती जाती है, स्वयं सतहों की भीड़ होती जाती है। जीवन-स्फटिक रचना ही रचना है, गति ही गति है; तत्व कुछ है या नहीं, हम नहीं जानते!

हम बार-बार गहरे उतरे

कितना गहरे! पर

जब-जब जो कुछ भी लाए

उससे बस

और सतह-पर भीड़ बढ़ गई।

सतहें-सतहें-

सब फेंक रही हैं लौट-लौट

वह कौंध

जिसे हम भर न रख सके

प्याले में।

छिछली, उथली, घनी चौंध से अंध

घूमते हैं हम

अपने रचे हुए

मायावी उजियाले में।

आधुनिक साहित्यकार के लिए इस परिस्थिति को अनदेखा करना असंभव है लेकिन देख कर स्वीकार कर लेना भी असंभव है। जितना ही वह दीखती है उतना ही उसे भेद कर भीतर गहराई में पैठना और आवश्यक हो जाता है।

इस प्रकार संवेदना में द्विभाजन हो जाता है। एक तो संवेदना नई, उस पर इस प्रकार द्विभाजित, यह बात आधुनिक साहित्यकार की समस्या को और अपने पाठक से उसकी दूरी को एक नया आयाम दे देती है

द्विभाजन को दूर करना, सतह और गहराई के विरोध को हल करना यह साहित्यकार की भीतरी समस्या है - गहराई की समस्या है। अपने इस प्रयत्न को अपने सामने रखना, चेतन रखना, यह उसकी बाहरी समस्या है - सतह की समस्या है। किंतु भीतरी और बाहरी का यह भेद उसके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण और उसकी दृष्टि से आत्यांतिक होकर भी पाठक के साथ उसके संबंध को अंतिम रूप से निरूपित नहीं करता है। क्योंकि प्रयत्न करने और प्रयत्न को सामने रखने के अलावा पाठक के संदर्भ में एक और उत्तरदायित्व भी उसका है - कि वह अपने प्रयत्न को ही अपने सामने रखे बल्कि उस खंडित यथार्थ को भी सामने रखे जिसके कारण वह प्रयत्न है और जो पाठक के और उस के बीच संबंध का आधार है।

[छ:]

इस संदर्भ में हिंदी के बारे में क्या कहा जा सकता है? हिंदी और हिंदी मात्र का लेखक होते हुए उसके बारे में कुछ कहने में संकोच करना स्वाभाविक है। एक तो कृतिकार का समकालीन साहित्य के बारे में कुछ भी कहना जोखिम का काम होता है जब तक कि पाठक इतना सतर्क और उदार न हो कि कृतिकार और समीक्षक की बातों का मूल्यांकन करने की अलग-अलग कसौटियाँ रख सके और यह समझ सके कि यह अलगाव पाखंड नहीं बल्कि दृष्टि है। दूसरे, यह व्यक्ति-विशेष न तो अपने को हिंदी की ओर से व्यापक रूप से कुछ कहने का अधिकारी मानता है, न साधारणतया दूसरों ने ही कभी उसमें इसकी पात्रता देखी है! अपने विचारों में वह अकेला तो कदाचित नहीं है, पर बहुत ही अल्प-मत का है; और उस अल्प-मत का भी अधिभाग कदाचित हिंदीतर भारतीय भाषाओं में पाया जाएगा यह संभावना उसके सम्मुख रहती है।

हिंदी के विषय में यहाँ जो कुछ कहा गया है वह इस मर्यादा के साथ ही ग्रहण किया जाना चाहिए और मान्य अथवा अमान्य ठहराया जाना चाहिए।

हिंदी की दृष्टि भारत की दूसरी भाषाओं की अपेक्षा अधिक व्यापक, अधिक 'भारतीय' दृष्टि रही है। इसके ऐतिहासिक कारण रहे हैं। किंतु आज वह दृष्टि अधिक वैज्ञानिक भी है ऐसा नहीं कहा जा सकता। यों कह लीजिए कि ऐसा नहीं जान पड़ता कि आधुनिक विज्ञान की प्रगति का प्रभाव उस पर अधिक पड़ा है या उसमें अधिक लक्षित होता है। हिंदी का पाठक अभी तक केवल हिंदी का या मुख्यतया हिंदी का है। हिंदी का आलोचक भी केवल हिंदी का, या अधिक-से-अधिक संस्कृत के परिवेश को लेकर हिंदी का आलोचक है। ऐसा मानने का कारण है कि हिंदी का लेखक इन दोनों की अपेक्षा कुछ अधिक खुला है। यह भी दीखता है कि कुछ दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखक हिंदी लेखक की अपेक्षा अधिक खुले हैं। अपवाद प्रत्येक वर्ग में और प्रत्येक भाषा में होंगे; किंतु यहाँ न अपवादों की बात की जा रही है, न कोई निरपवाद स्थापना की जा रही है। गुण-दोष, अच्छाई-बुराई की बात भी यह नहीं है, केवल वैज्ञानिक प्रगति के प्रभावों के प्रति खुलेपन की बात है और विनयपूर्वक यह स्वीकार करना चाहिए कि विज्ञान की उपलब्धियों को ग्रहण करने, उनका चिंतन और मनन करने के प्रति हिंदी का लेखक उतना सजग नहीं है जितना वह हो सकता है; और हिंदी का पाठक या समीक्षक तो उतना भी सजग नहीं जितना कि लेखक है।

[सात]

आधुनिक साहित्यकार की संवेदना का कुछ-कुछ निरूपण इन बातों से हो गया होगा। आधुनिकता जो परिवर्तन लायी है, और उनके कारण संप्रेषण की जो समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं, उनका कुछ अनुमान भी इनसे हो गया होगा। आधुनिक लेखक का और आधुनिक पाठक के बीच जो समस्या है, या दूसरे शब्दों में साहित्यकार की समस्या लेखक और पाठक के संबंध के क्षेत्र में जो रूप लेती है, उसके बारे में कुछ शब्द और कहे जा सकते हैं।

मूल्यों की परिवर्तशीलता अथवा शाश्वत मूल्यों के मतवाद और विवाद यहाँ प्रासंगिक नहीं हैं। यह नहीं कहा जा रहा है कि शाश्वत मूल्य कुछ नहीं हैं, न ही यह कहा जा रहा है कि मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रेषणीयता अब भी बुनियादी साहित्यिक मूल्य है और संप्रेषण साहित्यकार का बुनियादी काम, किंतु बदलती हुई परिस्थितियों में प्रेष्य वस्तु और प्रेषण के साधन दोनों बदल गए हैं। यह लेखक को जानना है, पाठक को समझना है और आलोचक को मानना है - और सभी को यह यत्न करना है कि जहाँ वे दूसरे पक्ष से यह माँग करें कि उनका काम कम कठिन बनाया जाए वहाँ स्वयं भी अपनी क्षमता बढ़ाने की ओर दत्त-चित्त हों।

संस्कृति के संबंध में जो भ्रांत धारणाएँ फैली हुई हैं वे समस्या को और उलझाती हैं। हमारे अनेक पूर्वग्रह कुछ बुनियादी असत्यों पर आधारित हैं। जब तक सत्य का शोध न किया जाए तब तक इन पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाना कठिन है। जो लोग भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं वे प्राय: भूल जाते हैं कि अन्य सभी संस्कृतियों की भाँति भारतीय संस्कृति भी एक मिश्र अथवा सामासिक संस्कृति है - कि संस्कृति मात्र समन्वित होती है क्योंकि एक समन्वित दृष्टि ही उसकी एकता का आधार होती है। दोनों में अभिन्न संबंध होने पर भी 'परंपरा' केवल इतिहास अथवा घटना-क्रम नहीं है; वह घटना-क्रम से मिलने वाला जातिगत अनुभव है - अनुभव ही नहीं बल्कि उस अनुभव का ऐसा जीवित स्पंदन जो जाति को अभिप्रेरित करता है। हम भारतीय साहित्य के संदर्भ में पश्चिम के प्रभाव की चर्चा करते हैं अथवा दूसरे एशियाई देशों पर भारत के प्रभाव की बात करते हैं; लेकिन यह भूल जाते हैं कि प्रभावित होने या प्रभाव ग्रहण करने की भी एक प्रतिभा होती है और कुछ अवदानों का श्रेय दाता को नहीं, प्राप्ता को मिलना चाहिए। जो सांस्कृतिक दाय दूसरों को हमसे मिला, किंतु उसके बाद दूसरों के जातिगत अनुभवों में जीवित रहा और हममें खो गया, उसका श्रेय लेने का हमें क्या अधिकार है? या उन्हें क्यों उसे परदेशीय मानना चाहिए? वह मूलत: भारतीय होकर भी जब उनकी परंपरा का अंग हो गया है तब उनका है, हमारे इतिहास का होकर भी जब हमारी परंपरा से च्युत हो गया है और हममें क्रियमाण नहीं है, तब हमारा नहीं है। पश्चिम के रोमांटिक आंदोलनों में हमारा बड़ा प्रभाव रहा, किंतु वह प्रभाव वहाँ क्यों और कैसे प्रकट हुआ इसका उत्तर वहीं के जातीय जीवन और अनुभव से मिलेगा। वह पूर्व से आया हो कर भी हमारा दान नहीं, उनका उपार्जन था। इसीलिए हमने जब फिर उस प्रभाव को ग्रहण किया तब यह भाव हममें नहीं था कि यह अपनी ही खोई या बहुत दिनों की भूली वस्तु हमें मिल गई। और आलोचक वर्ग तो आज भी आग्रहशील है कि हमने पश्चिम का अनुकरण किया! दूसरी ओर छायावाद में पश्चिम का प्रभाव जिस रूप में प्रकट हुआ उसका उत्स पश्चिम से हो कर भी पश्चिम को अधिकार नहीं है कि वह उस पर गर्व करे, वह हमारी उपलब्धि है।

संस्कृति की भाँति ही हमारी भाषा भी मिश्र भाषा है। इसका परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग प्रकार की भाषा बोली जाती है और साहित्य-समीक्षा के क्षेत्रों में भी कई परिभाषाएँ हो गई हैं जो अपने-अपने व्यवहार करने वालों में परस्पर संवेद्य नहीं होती हैं। आचार्य-वर्ग में ऐसा कहने वाले अनेक हैं कि 'आज की आलोचना दुर्बोध अथवा अबोध्य है।' किंतु क्या आज के पाठक के लिए शास्त्रीय आलोचना कम दुर्बोध अथवा अबोध्य है? इतना ही नहीं, क्या वह अपर्याप्त, और बहुत कुछ अप्रासंगिक अथवा अनुपयोगी भी नहीं हो गई है?

हमारा उद्देश्य किसी को ललकारने, चुनौती देने, या किसी पर आरोप करने या अभियोग लगाने का नहीं है। वादी या पक्षधर या किसी पक्षधर का पैरोकार होना हमें अभीष्ट नहीं-या अधिक-से-अधिक साहित्य-कर्मी मात्र का पैरोकार होना अभीष्ट है और इस संज्ञा की परिधि के भीतर लेखक, पाठक और आलोचक तीनों को ग्रहण कर लिया गया है। आधुनिक संवेदना का प्रश्न तीनों के लिए समान रूप से महत्त्व रखता है क्योंकि तीनों का अपना-अपना प्रश्न है। आधुनिकता की, आधुनिक जीवन की चुनौती सबके लिए एक-सी है और उसका सामना वे सहकर्मी होकर ही कर सकते हैं।