साहित्य आैर सिनेमा में अपरिभाषित अश्लीलता / जयप्रकाश चौकसे

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साहित्य आैर सिनेमा में अपरिभाषित अश्लीलता
प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2014


विगत सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने आमिर खान के "पीके' के पोस्टर पर दायर एक याचिका को निरस्त करते हुए टिप्पणी की थी जिसका आशय था कि आपको यह आपत्तिजनक लगे तो आप फिल्म नहीं देखें परंतु इस प्रकरण में धर्म को जोड़ना उचित नहीं है। फिल्में मुफ्त नहीं दिखाई जाती, अत: यह टिकट खरीदने वाले की इच्छा है कि वह क्या देखे आैर क्या नहीं देखे। आम जनता के सहयोग से जीती सरकारों को भी यह अधिकार नहीं कि व्यक्ति क्या देखे, क्या पढ़े या क्या सोचे। हाल ही में एक सिविल सूट फिर इसके खिलाफ दायर किया गया है। संभवत: इसकी सुनवाई प्रारंभ हो चुकी है। इस याचिका में इसे अश्लील आरोपित किया गया है। अभी तक भारत में अश्लीलता का आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ है आैर कोई दंडित भी नहीं किया गया है। इस तरह का पहला प्रचारित मुकदमा राजा रवि वर्मा की पेंटिंग की खिलाफ हुकूमते बरतानिया के राज में दायर हुआ था आैर निरस्त हुआ है। यह मुमकिन है कि राजा रवि वर्मा के जीवन में प्रेरित केतन मेहता की अब तक अप्रदर्शित 'रंगरसिया' में मुकदमे का प्रकरण भी शामिल हो। राजा रवि वर्मा से लेकर राजकपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' पर चलाया मुकदमा भी खारिज हुआ है।

इतना ही नहीं पुस्तकों पर अश्लीलता के आरोप भी पूरी दुनिया की अदालतों में खारिज हुए हैं आैर विभाजन पूर्व लाहौर की अदालत में भी इस्मत चुगताई की 'लिहाफ' के खिलाफ दायर मुकदमे में उस कहानी को अश्लील नहीं माना गया। अमेरिका में जेम्स जॉयस की 'यूलिसिस' के खिलाफ दायर मुकदमे का फैसला जस्टिस वूल्जे ने दिया था जिसे प्राय: इस तरह के मुकदमे आैर फैसलों में निर्णायक फैसला माना गया है। जस्टिस वूल्जे के फैसले का सार यह था कि हर रचना को उसकी समग्रता में आंका जाना चाहिए, ना कि केवल कोई पृष्ठ या किसी पंक्ति के आधार पर उसे अश्लील ठहराया जाना चाहिए। जस्टिस वूल्जे ने जजों को यह सलाह भी दी थी कि रचना को दो बार पढ़ा जाना चाहिए जिसमें एक बार लेखक के नजरिए को भी पूरा महत्व दिया जाना चाहिए।

भारतीय पीनल कोड में सेक्शन 292, 293, आैर 294 का संबंध कला आैर साहित्य में अश्लीलता से जुड़ा है आैर रतनलाल के 29वें संस्करण में इसकी व्याख्या है। यह गौरतलब है कि 'अश्लीलता' शब्द की व्याख्या आइपीसी में नहीं की गई है। उसमें वेबस्टर तीन पेज 1557 पर दी गई व्याख्या का हवाला दिया गया है। कला आैर साहित्य की कोई भी कृति को उस समय तक अश्लील नहीं माना जा सकता जब तक यह सिद्ध हो कि पढ़ने वाले आैर देखने वाले के दिमाग में यह कोई विकृत प्रभाव डाल रही है। इस संदर्भ में यह संकेत भी है कि निर्वस्त्र आकृति का क्या प्रभाव पर सकता है। पूरी तरह निर्वस्त्र आकृति भी अश्लील हो ये जरुरी नहीं है। कैबरे संबंधित मामलों में भी टिकिट खरीदकर देखने वाला ही उसके विकृत प्रभाव के आधार पर शिकायत दर्ज कर सकता है आैर मस्तिष्क पर पढ़े विकृत प्रभाव का आकलन असंभव है।

ताजा शिकायत करने वाले ने यह माना है कि आमिर खान एक जवाबदार व्यक्ति हैं। उनका टीवी पर प्रस्तुत 'सत्यमेव जयते' का गहरा सामाजिक महत्व है। इन तमाम तथ्यों के बाद भी मुकदमे संभवत: लोकप्रियता पाने के लिए किए जाते हैं। भारत में सेंसर द्वारा प्रमाणित फिल्मों के खिलाफ भी मुकदमेबाजी होती है आैर शिखर न्यायालय ने इस प्रवृति की आलोचना की है। क्या यह महज इत्तेफाक है कि सेंसर में भ्रष्टाचार का प्रकरण भी सामने आया है आैर गोवा में बिकिनी पर भी आपत्ति इसी समय उठाई गई है। दरअसल सारे सांस्कृतिक मामलों से सरकारों को दूर रहना चाहिए आैर सारा प्रयास देश की गरीबी मिटाने में किया जाना चाहिए क्योंकि इस देश में अनगिनत लोग धनाभाव के कारण पूरे शरीर पर वस्त्र नहीं डाल पाते। संभवत: गरीबी ही असल अश्लीलता है जिसके खिलाफ सरकारों आैर आम जनता को भरपूर संघर्ष करना चाहिए। गरीबी आैर भुखमरी जाने किन अदालतों के अनंत काल से लंबित प्रकरण हैं?