साहित्य और टेक्नॉलॉजी: रिश्तों की खोज / प्रताप सहगल

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साहित्य और टेक्नॉलॉजी के आपसी रिश्तों की खोज की प्रक्रिया में हम सरलीकरण करने के ख़तरों के शिकार हो सकते हैं। उस स्थिति में हम टेक्नॉलॉजी के आतंकित करने वाले रूप को देख सकते हैं, उससे आतंकित होकर पस्त भी हो सकते हैं। उस स्थिति में साहित्य और टेक्नॉलॉजी के आपसी रिश्तों की खोज करना मुश्किल भी हो सकता है और भ्रमपूर्ण भी।

टेक्नॉलॉजी की कल्पना एक बड़े और भयंकर राक्षस के रूप में करें तो आदमी उसके सामने कोई हस्ती नहीं रखता। लेकिन हम यह कल्पना क्यों न करें कि वह राक्षस चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसकी चाबी तो आदमी के ही हाथ में है। सिर्फ़ इतना ही नहीं कि आदमी उसे चलाता है, बल्कि उसका कार्यक्षेत्र भी निर्धारित करता है। इसलिए आदमी को लघु मानकर उसकी अस्मिता को चुनौती देना है।

साहित्य के प्रसार और प्रचार में टेक्नॉलॉजी की भूमिका क्या रही है और क्या है, इस प्रश्न के जवाब में विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं। दृश्य एवं श्रव्य माध्यम और संचार माध्यमों के अति विकसित रूप ने जहाँ साहित्य को देश की सीमाओं से एक़दम मुक्त कर दिया है, उस तक किसी भी पहुँच आसान हो गई है, वहीं दूसरी ओर वह लिखित शब्द की हत्या करने के लिए भी तैयार है।

सवाल यह है कि क्या वाकई टेक्नॉलॉजी ने अति विकसित देशों में शब्द की हत्या कर दी है और विकासशील देशों में यह प्रक्रिया अपनी चरम परिणति तक पहुँचने को है? बिना ब्यौरों के बावजूद यह सब जानते हैं कि टेक्नॉलॉजी के अति प्रसार के बाद अतिविकसित देशों में बाज भी 'बैस्ट सेलर्स' आ रहे हैं। लाखों की संख्या में भारी-भरकम उपन्यास या दूसरा साहित्य महीनों और दिनों में ही समाप्त हो जाता है? आखि़र क्यों?

मुझे इसके दो कारण लगते हैं, पहला तो यह कि टेक्नॉलॉजी अपने पूरे विकास के बाद आदमी की रोज़मर्रा कि ज़रूरतें बहुत ही कम समय में पूरी कर देती है। यानी दूसरे शब्दों में टेक्नॉलॉजी सिर्फ़ व्यस्त नहीं करती, व्यस्तता से जल्दी फुर्सत भी देती है। उन फुर्सत के क्षणों में या तो आदमी आडियो-वीडियो माध्यम को अपना साथी बनाएगा या फिर किताब को। किताब न पढ़ने के पीछे तर्क यह है कि पढ़ना आनंद नहीं, ज़हमत है और आदमी ज़हमत से बचना चाहता है, इसलिए वह आडियो-वीडियो माध्यमों का सहारा लेकर आराम से उस ज़हमत से बच भी सकता है और देख या सुनकर मज़े से वक़्त काट सकता है। इसलिए फुर्सत में ज़रूरी नहीं कि वह किताब पढे़? तो साहब यह भी क्या ज़रूरी है कि वह किताब नाही पढ़े। श्रव्य-दृश्य माध्यमों की प्रचुर उपलब्धि के कारण साहित्य की मृत्यु निश्चित है, यह सही नहीं लगता। पहली बात तो यह कि श्रव्य-दृश्य माध्यमों से हमारे सामने जो आता है, उसमें भी एक बड़ा हिस्सा साहित्यिक कृतियों पर आधारित होता है। तो क्या हम ऐसी सर्जनाओं को साहित्य का ही हिस्सा नहीं मान सकते। नहीं मान सकते तो क्यों? साहित्य और आदमी के बीच संप्रेषण के माध्यम बदल जाने का अर्थ साहित्य की मौत नहीं हो सकता।

दूसरा कारण भी इसी से जुड़ा हुआ है और थोड़ा सूक्ष्म भी। यह ठीक है कि अगर एक साहित्यिक कृति पढ़ने और उसी कृति पर आधारित कोई फ़िल्म या नाटक देखने में चुनाव करना हो तो संभवतः अधिकांशतः लोग फ़िल्म या नाटक का चुनाव करेंगे। लेकिन यह भी अक्सर देखा गया है कि किसी कृति पर आधारित फ़िल्म देखने से पूर्व व्यक्ति उसे पढ़ना भी चाहता है। क्यों? या फिर जो पढ़ लेता है, वह फ़िल्म नहीं भी देखता। क्यों? इन सवालों के माध्यम से ही हम अपने जवाब तक पहुँच सकते हैं।

फ़िल्म या नाटक के माध्यम से व्यक्ति किसी भी रचना को उसी रूप में देखता है, जिस रूप में उसे दिखाया जाता है, यानी वह मार्गदर्शक होता है और दर्शक की हैसियत से वह वही ग्रहण करता है, जो कुछ सीमाओं में बंधकर उस तक पहुँच रहा है। रचना का आयाम निश्चित होता है। फ़िल्म का एक-एक फ्रेम तय होता है। पाठक (दर्शक / सहृदय) और रचना के बीच में फ़िल्म या नाटक एक एजेंट का काम करता है। इस प्रक्रिया में रचना में कुछ जुड़ने या फिर पूरी तरह से खंडित होने की सभी संभावनाएँ मौजूद हैं। अब पाठक को लें। वह रचना उठाता है, खोलता और पढ़ना शुरू कर देता है। इस प्रक्रिया में उसके और लेखक के बीच में मात्र शब्द हैं। यहाँ एजेंट शब्द है, फ़िल्मकार या कोई और नहीं यानी एक तरह से लेखक और पाठक के बीच सीधा रिश्ता होता है। इस सीधे रिश्ते से पाठक को लाभ यह है कि वह पढ़ने की प्रक्रिया में अपनी दुनिया ख़ुद रचने के लिए आज़ाद होता है। यह उसका अपनी दुनिया रच लेना उसकी कल्पनाशीलता है, बल्कि सर्जनात्मकता है और सर्जन के सुख से कोई इंकार नहीं कर सकता। अब उसके आयाम निश्चित नहीं होते, बल्कि अपनी सृजनशीलता से वह कई आयाम जोड़ता है। वह मात्र पाठक नहीं होता, सर्जक भी होता है। तब वह आम भी नहीं होता, विशिष्ट हो जाता है। उसकी भी अपनी पहचान होती है। सर्जक होने की अदम्य आकांक्षा हर आदमी में मौजूद है और यही उसे लिखित शब्द की ओर आकर्षित करती है। वह शब्द के प्रति हमेशा आकर्षित रहेगा। ताकि वह सर्जक बना रह सके। इसलिए 'शब्द' की हत्या करने की क्षमता टेक्नॉलॉजी के पास है, यह मैं न हीं मानता। बल्कि टेक्नॉलॉजी ने तो 'शब्द' के प्रचार एवं प्रसार को संभव बनाया है। असल में साहित्य और टेक्नॉलॉजी के इसी रिश्ते को रेखांकित करने की ज़रूरत है न कि उसके उस हत्यारे रूप को, जो सिर्फ़ हमारी कल्पना का एक विध्वंसक रूप हो सकता है।