साहित्य की मुक्ति का कछुआ धर्म? / नामवर सिंह
फ्रांस में एक और क्रांति हुई जिसका धमाका विद्या के क्षेत्र तक ही सीमित है। इसे 'भाषावैज्ञानिक क्रांति' कहते हैं। यह घटना बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध की है। इसके मूल प्रेरणा स्त्रोत हैं - फर्दिनांद दि सोस्यूर, जो 1916 में गुमनाम ही दुनिया से चल बसे। उनकी मृत्यु के कई दशक बाद शिष्यों ने अपने 'नोट्स' के आधार पर उनके व्याख्यान प्रकाशित किए तो यूरोप और अमेरिका में तहलका मच गया। पश्चिम के विद्वानों के सामने जैसे एक सर्वथा नया भाषालोक प्रकट हुआ। भाषा और लोक के बीच एक नए संबंध का प्रत्यभिज्ञान। बीज विचार इतना ही है कि भाषा और संसार के बीच किसी प्रकार की अनुरूपता का संबंध नहीं है, बल्कि यह संबंध एक प्रकार की रूढ़ि मात्र है। संस्कृत व्याकरण के जानकारों के लिए यह कोई नई बात नहीं है। सोस्यूर स्वयं भी संस्कृत के पंडित थे, किंतु इस विचार-बीज में कितना बड़ा विस्फोटक छिपा है, इसका अंदाजा उन्हें न था। उत्तरशती की यूरोपीय मनीषा के संमुख शब्द और संसार के संबंध इतने शिथिल हो गए कि शब्दों से रचे हुए सभी शास्त्र गल्प (फिक्शन) की हैसियत पर आ पहुँचे, कहानी-उपन्यास तो पहले ही से गल्प कहलाते हैं, अब कविता भी गल्प कही जाने लगी और इसके बाद प्रतीत हुआ कि इतिहास भी गल्प ही है और दर्शन भी गल्प का एक प्रकार। यहाँ तक कि समाजविज्ञानों के सिद्धांत भी अपनी संरचना में इस गल्प के दायरे से बाहर नहीं है। गरज यह कि तथ्यात्मकता के दावेदार सभी शास्त्रों और विद्वानों की तथ्यनिष्ठा के सामने प्रश्नचिह्न लग गया और इस प्रकार वे सब गल्पधर्मी होने के कारण साहित्य के घेरे में आ गए।
बोलबाला अब हर जगह 'टेक्स्ट' और 'राइटिंग' का है। जॉक देरिदा ने साबित कर दिखाया कि दर्शन चिंतन की कोई पद्धतिनहीं, बल्कि 'लेखन' का ही एक रूप है। फ्रेडरिक जेमिसन ने 'अधि-इतिहास' (मेटाहिस्टरी) नामक युगान्तकारी ग्रंथ से यह तथ्य उद्घाटित किया कि इतिहास-लेखन भी अलंकार-शास्त्र की उन्हीं विधियों से अनुशासित होता है जो साहित्यिक आख्यानों में पहले से स्वीकृत हैं। फलश्रुति यह कि हर तरह का लेखन, चाहे वह जिस शास्त्र का हो, साहित्य-विद्या की विश्लेषण विधि के अधीन है। इसलिए अपने यहाँ जो लेखक फिलहाल साहित्य के 'उपनिवेश' बन जाने पर शोकाकुल हैं, चाहें तो गर्व कर सकते हैं कि साहित्यशास्त्र ने अन्य सभी शास्त्रों को अपना 'उपनिवेश' बना लिया है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में 'सिद्धांत' (थियरी) का मतलब ही है साहित्यिक सिद्धांत। वर्चस्व सर्वत्र साहित्य का है और आधिपत्य साहित्यशास्त्र का। अमीर खुसरो के शब्दों में हम भी आज उनसे यह कहने का साहस कर सकते हैं :
मुल्के दिल कर दी खराबल तीरे नाज।
व दरीं वीराना सुल्तानी हनोज।।
[दिल के मुल्क को तूने अपने नाज के तीर से उखाड़ दिया और अब तू इस वीराने में सुल्तान बना बैठा है।]
विडंबना तो यह है कि साहित्य को यह सुल्तानी अन्य शास्त्रों ने सौंपी है या कि कबूल की है। देरिदा साहित्य के समालोचक नहीं हैं। वे दर्शन से आए हैं। और साहित्य के सामने सिर झुकानेवाले वे अकेले गैर-साहित्यिक चिंतक नहीं है। देरिदा के प्रेरणास्त्रोत हाइडेगर पहले ही कवि होल्डरलिन का ऋण स्वीकार कर चुके हैं। और अब तो प्रत्येक ज्ञान शाखा में देरिदा के शिष्य तैयार हो गए हैं। तय करना मुश्किल है कि इन्हें किस अनुशासन के वर्ग में रखा जाए क्योंकि ये पुरानी चाल के किसी अनुशासन की सीमा में नहीं अँटते। दरअसल इनका क्षेत्र वही 'थियरी' है - साहित्यिक सिद्धांत का संक्षिप्त रूप।
साहित्य की यह पदोन्नति अचानक एक दिन में नही हुई। शुरुआत, निसंदेह, साहित्य की स्वायत्तता की माँग से ही हुई। लेकिन पहले सौंदर्यशास्त्र / कलाशास्त्र को अलग किया गया- एक-एक कर धर्म से, दर्शन से, राजनीति से नीतिशास्त्र से। फिर स्वयं साहित्यशास्त्र / कलाशास्त्र के शिकंजे से मुक्त करने की जरूरत महसूस हुई। ज्ञान की शाखाओं के बीच साफ-साफ हदबंदी के सबसे बड़े माहिर कांट थे। उन्होंने अपनी 'शुद्ध बुद्धिमीमांसा' से सौंदर्यशास्त्र को 18वीं शती में ही स्वायत्त कर दिया। इस प्रक्रिया को अंतिम परिणति तक पहुँचाया मार्क्सवादी लुकाच ने बीसवीं शर्ती के उत्तरार्द्ध में। 'सौंदर्यशास्त्र की विशिष्टता' नामक विशाल ग्रंथ इस अथक चिंतक की दीर्घ साधना की अंतिम पूर्ण कृति है। किंतु इस बीच यह अनुभव किया गया कि सौंदर्यशास्त्र भी वस्तुत: एक 'विचारधारा' ही है, कोई निरपेक्ष शास्त्र नहीं, इसलिए साहित्यशास्त्र को इस खतरनाक विचारधारा-सौंदर्यशास्त्रीय विचारधारा - से मुक्त करना आवश्यक हो गया। यह मुक्तियज्ञ संपन्न किया अमेरिका में येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पाल डि मान ने। बीसवीं शती के अंतिम दशकों में 'वापस अलंकारशास्त्र को' (रिटर्न टु रेटरिक) साहित्यशास्त्र की इस मुक्त्िा का ऐतिहासिक घोषणा पत्र है। इस प्रयास में एक युवा मार्क्सवादी आलोचक टेरी ईगल्टन ने भी कंधा दिया 'सौंदर्यशास्त्र की विचारधारा' नामक पुस्तक लिखकर। इस प्रकार साहित्यशास्त्र, कम से कम सिद्धांत के स्तर पर, अब पूर्णत: मुक्त है। इस मुक्तिप्रयास में मार्क्सवादी और गैरमार्क्सवादी सभी शामिल हैं। फलत: अब साहित्य की स्वायत्तता सर्वस्वीकृत है। अब साहित्य का 'स्वराज' ही नहीं 'पूर्ण स्वराज' है। 'परम स्वतंत्र न सिर पर कोई'। मम्मट के शब्दों में 'अनन्यपरतंत्र' ही नहीं, 'नियतिकृत-नियमरहित' भी। भारत ने साहित्य की जिस स्वायत्तता की घोषणा ग्यारहवीं शती में ही कर दी थी उसे प्राप्त करने के लिए यूरोप को इतना लंबा संघर्ष करना पड़ा।
किंतु हर मुक्त्िा की तरह साहित्य की यह मुक्ति भी विडंबनापूर्ण सिद्ध हुई। जिस स्वायत्तता के लिए मुक्ति संघर्ष हुआ, वही स्वायत्तता मुक्ति मिलने पर गायब हो गई। सिद्धांत के इस नए जनतंत्र में घोषणा हुई कि सभी शब्द-निर्मित विद्याओं का सिर्फ एक नाम है - लेखन (राइटिंग)। जैसे और 'टेक्स्ट' वैसे साहित्य। 'साहित्य' जैसे किसी विशेषाधिकार-संपन्न लेखन का अभिधान वर्जित। जब सभी शास्त्र 'वाग्विकल्प' हैं और सभी 'वाग्विकल्प लेखन' मात्रतो साहित्यिक लेखन में ही कौन सा सुरखाब का पर लगा है कि उसे विशेष दर्जा दिया जाय। विचार करने पर यह सत्य प्रकट हुआ कि कोई लेखन अपने कर्म से साहित्य कहलाता है, किसी आंतरिक गुण के कारण नहीं। साहित्य की 'साहित्यिकता' के निरूपण के लिए रूसी रूपवादियों ने कितनी कवायद की थी; इस नई 'भाषावैज्ञानिक क्रांति' ने एक पल में सारे किए-धरे पर पानी फेर दिया। साहित्य 'लेखन' भर होकर रह गया।
एक तरह से देखें तो यह घटना भी कोई आज की नहीं। बकौल ज्याँ पाल सार्त्र, पहला कवि मालर्मे है जिसने सवाल उठाया था कि क्या साहित्य जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व है। यह कवि है जिसने कहा था कि कोई वास्तविकता बची नही है, वह लेखन में लुप्त हो चुकी है। इस प्रकार जहाँ देखिए वहीं लेखन। लेखन ही लेखन। यत्र-तत्र सर्वत्र। लेखन के अलावा और कुछ नहीं। कोई वास्तविकता नहीं। जॉक देरिदा के शब्दों में 'टेक्स्ट के परे कुछ भी नहीं', अन्यत्र भी नहीं। वैसे, मार्क्सवादी चिंतक वाल्टर बेंजामिन साहित्य का सारा 'प्रभामंडल' पहले ही छीन चुके थे। बेचारे बेंजामिन भला ऐसी हिमाकत क्यों करते। वे तो साहित्य के प्रेमी और कला-मर्मज्ञ थे। प्रभामंडल (ऑरा) छीना 'मशीनी उत्पादन' के युग ने। एक कलाकृति की लाखों-करोड़ों प्रतिलिपियाँ तैयार करके मशीन ने कलाकृति की दुर्लभ अद्वितीयता ही समाप्त कर दी। बेंजामिन ने तो इस कड़वे सच की ओर ध्यान भर खींचा था।उन्हें क्या पता था कि यह प्रभामंडल आगे चलकर इस हद तक मिट जाएगा और साहित्य लेखन मात्र कहलाएगा। साहित्य की मुक्ति का यह पहला 'शापमय वर' है।
साहित्य की मुक्ति का दूसरा शापमय वर यह है कि अब साहित्य का शास्त्र स्वयं साहित्य से मुक्त होकर अपनी स्वायत्तता घोषित करने लगा है। साहित्यशास्त्र का काम अब यह बताना नहीं रहा कि क्या साहित्य है और क्या साहित्य नहीं है। जब 'साहित्य' जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं तो फिर इसकी तलाश में वक्त बर्बाद कौन करे। जब यहाँ-वहाँ सब कहीं 'टेक्स्ट', 'लेखन' है तो एक ही काम बचा रहता है - मीमांसा या व्याख्या का। इन नए मीमांसकों की बोली में 'रीडिंग'। 'साहित्यिक आलोचना' तो क्या 'आलोचना' मात्र जैसे शब्द का चलन उठ चला है। जरूरी नहीं कि व्याख्या का संबंध प्रस्तुत पाठ से हो ही। पाठ स्वायत्त है तो व्याख्या स्वायत्त क्यों न हो? पाठ केवल मुद्रित शब्द तो नहीं। शब्दों की बीच की खाली जगह भी तो पाठ का ही अंग है। जो कहा नहीं गया, वह कहीं ज्यादा अर्थगर्भी है। निर्णायक व्याख्याकार है - केवल व्याख्याकार; सर्वोच्च न्यायालय यहाँ कोई नहीं। किसी सर्वस्वीकृत विधि - विधान के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। गरज कि मनमानी व्याख्या की पूरी छूट है। और व्याख्या भी क्या? शब्द पर शब्द का जाल और इस जाल का सिलसिला भी ऐसा कि कहीं खत्म होने का नाम न लें। मूल पाठ तो छूट गया। बहस उन शब्दों को लेकर हो रही है जिनसे बहस की जा रही है। पढ़कर संस्कृत के पुराने नव्य-नैयायिकों की 'अवच्छेकावच्छिन्न' वाली बहस याद आती है। इस प्रकार साहित्यशास्त्र भी पूरी तरह मुक्त है। मूल पाठ भी खुला हुआ ओर व्याख्या भी कहीं ज्यादा खुली हुई। नजारा ऐसा कि गालिब का यह शेर बेसाख्ता याद आता है :
वा कर दिए हैं शौक ने बंद-ए-नकाब-ए हुस्न।
गैर-अज निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा।।
[मेरे शौक ने हुस्न के नकाब के सारे बंद खोल दिये हैं, अब अपनी निगाह के अलावा और कोई बाधा नहीं है।]
साहित्य पर भी कोई पाबंदी नहीं है और न कोई बाधा ही है, सिवा साहित्य की अपनी दृष्टि के।
बौद्धदर्शन की पुरानी शब्दावली में दिट्ठि। आधुनिक पाश्चात्य चिंतन की शब्दावली में 'आइडियोलाजी' यानी विचारधारा। इस विचारधारा को एक नाम देने की भी कोशिश हुई है - 'पोस्ट-माडर्निज्म', जिसे हिंदी में गलत या सही 'उत्तर-आधुनिकता' कहा जा रहा है।
यह उत्तर-आधुनिकता ही पश्चिम के चिंतन की दुनिया में उत्तरशती की सबसे नई क्रांति है। इस क्रांति की एक हल्की सी धमक हिंदी में भी सुनाई पड़ रही है। 'साहित्य का स्वराज' उसी क्रांति के नारे का भारतीय संस्करण है। साहित्य ने इस स्वराज में एक 'स्वराज' शबद को छोड़कर सारी शब्दावली पश्चिमी 'उत्तरआधुनिकतावाद' की है। साहित्य का यह कैसा 'स्वराज' है जो हर चीज से मुक्ति चाहता है - सिवा 'पश्चिम' के। फिर भी ये नए सुराजी कहते हैं कि जमाना 'उत्तर-उपनिवेशवाद' का है। कहने की जरूरत नहीं कि यह पद भी उसी पश्चिम का है। गरज कि 'जितने चिराग हैं तेरी महफिल से आए हैं। इसके बाद यह बात तो सख्त हो जाएगी कि 'सब कत्ल होके तेरे मुकाबिल से आए हैं'।
'क्रांति का निर्यात नहीं हो सकता' यह बात जैसे अब गलत साबित हो रही हे। बात गलत थी तो समाजवादी क्रांति के संदर्भ में। उत्तर-आधुनिकतवादी क्रांति और चीज है। इस क्रांति के निर्यात का दोष अमेरिका को कोई क्यों दे? हिंदी के कुछ उत्साही लेखक खुशी-खुशी इस क्रांति का आयात कर रहे हैं। यह हिंदी साहित्य के पिछड़ेपन को दूर करने का साहसिक प्रयास है। दिक्कत यह है कि पश्चिमी नजर में जो साहित्य अभी पूरी तरह 'आधुनिक' ही नहीं हुआ वह इतनी जल्दी छलाँग लगाकर 'उत्तर-आधुनिक' क्योंकर होने लगा। फिर एक दिक्कत यह भी है कि उत्तर-आधुनिकता से ऊबकर, जैसा कि अक्सर हुआ है, पश्चिम कुछ और करने लगा तो हमारे नित-नवीनताप्रेमियों के इस 'स्वराज' का क्या होगा?
उत्तर-आधुनिकतावाद तो इतिहास को भी नहीं मानता। लेकिन हम देखते है कि हमारा इतिहास हर कदम पर हमारा पैर पकड़े है। पैर तो झटका जा सकता है लेकिन उस इतिहास को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आगे बढ़ने से पहले पीछे मुड़कर देखना ही पड़ेगा। पीछे ही नहीं, अगल-बगल भी।
उत्तर-आधुनिकतावाद जिस भाषा-वैज्ञानिक क्रांति की उपज है, बहुत-कुछ वैसी ही क्रांति अपने यहाँ भी एक बार हो चुकी है-शताब्दियों पहले बौद्ध दर्शन के उदय के समय। यह वाक्य धर्मकीर्ति का है - ननु नार्थं शब्दा: स्पृश्यंति। शब्द अर्थ का स्पर्श तक नहीं करते। तात्पर्य यह कि किसी शब्द से वास्तविक पदार्थ का नहीं, बल्कि उस पदार्थ के भाव का बोध होता है। शब्द और अर्थ के बीच का संबंध काम चलाऊ है, इसी समझ के साथ शब्दों के सहारे दुनिया का सारा कारोबार चलता है। बौद्ध दार्शनिकों की यह स्थाप उस जमाने के लिए भी कम विस्फोटक न थी। आज भी पश्चिम के अनेक विद्वान ज़ाक देरिदा के 'डिफरेंस' में बौद्ध 'अपोहवाद' की छाया देख रहे हैं। इस क्रांतिकारी भाषा-दर्शन ने भारतीय साहित्य को कितना मुक्त किया, यह तो हम नहीं जानते, किंतु इतना निश्चित है कि विशाल संस्कृत-साहित्यशास्त्र के अंतर्गत कहने के लिए भी कोई बौद्ध साहित्यशास्त्र नहीं बचा है।
इसके बावजूद संस्कृत के साहित्यशास्त्रियों को साहित्य-विद्या की स्वायत्तता स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं हुई। विस्तार में न जाकर यदि यायावरीय राजशेखर को ही देखें तो उन्होंने साहित्य विद्या को आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और अर्थशास्त्र (दंडनीति) नामक चारों विद्याओं का निष्यंद (सार) मानते हुए भी उसे पाँचवीं विद्या का स्वतंत्र स्थान दिया। आनंदवर्धन ने तो यहाँ तक कहा कि इस संसार के लिए भले ही कोई और प्रजापति हो, काव्य के अपार संसार का प्रजापति तो एक कवि ही है और वहाँ किसी दूसरेका दखल नहीं, बल्कि एक उसी का शासन चलता है - उसे जैसा रुचता है, विश्व को उसी रूप में बदल लेता है; यथास्मै रोचते विश्वं तथा विपरिवर्तते। यह साहित्य की स्वतंत्रता नहीं तो और क्या है? साहित्य-सृजन की भी और साहित्यशास्त्र की भी। इस स्वतंत्र दृष्टि के बावजूद साहित्यशास्त्र के युग में संस्कृत साहित्य के अंतर्गत 'महाभारत' जैसा कोई काव्य न लिखा जा सका जो आत्मविश्वास के साथ यह कह सके : यदिहास्ति तद्न्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्। (जो यहाँ है वही अन्यत्र है, जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं है।)
क्या इसलिए कि इस स्वतंत्र साहित्यशास्त्र की भी एक 'दृष्टि' थी और वह 'दृष्टि' उस स्वतंत्रता की एक सीमा थी? क्या इस 'दृष्टि' से भी अनवरत मुक्त होने का प्रयास आवश्यक नहीं? साहित्य-दृष्टि से साहित्य मुक्ति। साहित्य की यह मुक्ति भी साहित्य के अंदर साहित्य के द्वारा ही उचित है। उचित और संभव भी। पश्चिम की उक्ति नहीं, गीता है, गीता है। - (निराला) 'उद्धरेदात्मानम्' - अपना उद्धार आप ही। आत्मा ही बंधु है, सहायक है। लेकिन इसके साथ ही शत्रु भी आत्मा ही है - 'आत्मैवरिपुरात्मन:'। साहित्य का शत्रु भी साहित्य ही है। जाहिर है कि इस स्थिति में साहित्य की मुक्ति साहित्य का प्रयास 'क्षुरस्य धारा' है।
क्या इसीलिए हमारे प्राचीन भक्त कवियों ने मुक्ति को छोड़कर भक्ति का पथ अपनाया था? तुलसीदासजी ने आखिर क्यों लिखा :
अस विचारि हरि भगत सयाने।
मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
मुक्त्िा नहीं, जनम-जनम रघुपति भगति। पुनर्जन्म से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पाने से बेहतर है भगवान के लिए प्रेम और उस प्रेम के लिए इसी संसार में बार-बार जन्म। खुशी-खुशी बंधन स्वीकार करने की यह अनूठी प्रतिबद्धता। भारतीय भाषाओं का भक्ति-साहित्य इसी बंधन को स्वीकार कर मुक्त हुआ था। इसी रास्ते चलकर भाषा-काव्य का ऐसा सर्जनात्मक उन्मोचन हुआ कि उसके सामने कालिदास के बाद सारा संस्कृत काव्य फीका लगता है। धुन न साहित्य को मुक्त करने की, न मनुष्य को। सफाई की ऐसी सनक भी नहीं कि कविता के घर से गर्द-गुबार के साथ-साथ घर के प्राणी भी बाहर फेंक दिए जाएँ। मुक्ति के भी अपने-अपने खतरे हैं और हमारे भक्त कवि उन खतरों से वाकिफ थे। आज यदि हममें से कुछ लोग इन खतरों से अनजान हैं तो इसलिए कि उनके लेखे इतिहास का अस्तित्व नहीं। वे उत्तर-इतिहास युग के अधिवासी हैं। उस देश के वासी जहाँ 'इतिहास का अंत' हो चुका है।
वैसे भक्तिकाल में यदा-कदा दिलचस्पी उत्तर-आधुनिकतावादियों की भी देखी जाती है। पश्चिम के ईसाई संतों में ज्यादा, भारतीय भक्त कवियों में कुछ कम। आकर्षण का कारण वह नहीं, जो जनसाधारण में है। असाधारण जनों को तलाश भी असाधारण की ही रहती है। वह असाधारण तत्त्व है रहस्यभावना। इस नए रहस्यवाद का एक रूप है शब्द-रहस्य। अनहद आदि। आकस्मिक नहीं कि हिंदी के कुछ उत्तर-आधुनिकतावादी कवियों की ढेर सारी कविताओं का विषय 'शब्द' है - शब्द का रहस्य। जैसे अशोक वाजपेयी के नवीनतम कविता संग्रह 'कहीं नहीं वहीं' की एक कविता :
सबसे सुंदर और भयानक बात यही थी
कि शब्द का अर्थ शब्द ही थे।
या कि हैं।
कितने बड़े रहस्य का साक्षात्कार किया है कवि ने। यह बात सबसे 'सुंदर' और 'भयानक' हो न हो, निरर्थक निश्चित है। अपने कथन के सर्वथा अनुरूप। नि:संदेह इन शब्दों का अर्थ शब्द ही हैं। आभास किसी गूढ़ बात का जरूर होता है, पर वह भी छद्म-रहस्यवाद ही है। इसे 'उलटबाँसी' कहना भी कबीर का अपमान है।
अब साहित्य की मुक्त्िा यात्रा का एक ही चरण और शेष है और वह संभवत: अंतिम चरण है - शब्द से मुक्ति। विडंबना यह है कि शब्द-मुक्ति का लेखन भी शब्दों में ही होने के लिए अभिशप्त है। और शब्द है कि हर शब्द पर कोई-न-कोई छाप लगी है। छाप मिटाने की लाख कोशिश करें, निशान (देरिदा का 'ट्रेस') कुछ-न-कुछ बने ही रहते हैं। 'स्वायत्तता' और 'सवराज' पर राजनीति की छाप है तो 'मुक्ति' पर धर्म की। राजनीतिक शब्द छोड़ें तो धार्मिक शब्द। आकस्मिक नहीं कि उत्तर-आधुनिकतावादी शब्दावली में धर्म-छाप शब्द काफी हैं।
अंतत: साहित्य की यह मुक्तियात्रा प्रत्यावर्तन है या पलायनᣛ? अपनी पहले ही खोह में वापसी या अपने आप से निरंतर भागते जाना? पं.चंद्रधर शर्मा गुलेरी का 'कछुआ-धर्म', आत्मरक्षा में अपने ही अंदर सिकुड़ते जाने की दयनीय कोशिश। प्रसंगवश, अश्वघोष की वह फड़कती उपमा, प्रसंग, बुद्धि का तपोवन-प्रवेश :
देशादनार्यैरभिभूयमानान्महर्षयो धर्ममिवापयांतम्।
अनार्य लोग देश पर चढ़ाई कर रहे हैं। धर्म भागा जा रहा है। महर्षि भी पीछे-पीछे चले जा रहे हैं। यह कर लेंगे कि दक्षिण के अप्रकाश देश कोई अत्रि या अगस्त्य यज्ञों और वेदों के योग्य बना लें - तब तक ही जब तक कि दूसरे कोई राक्षस या अनार्य उसे भी रहने के अयोग्य कर दें-पर यह नहीं कि डटकर सामने खड़े हो जावें और अनार्यों की बाढ़ को रोकें।
ये शब्द है एक सनातनी संस्कृत पंडित जिन्हें हिंदी जगत 'उसने कहा था' जैसी अमर कहानी के यशस्वी लेखक के रूप में जानता है। ये शब्द हैं बीसवीं शती के आरंभ की उस तेजस्वी भारतीय मनीषा के जो पश्चिम की आक्रांता संस्कृति के संमुख डटकर खड़े होने और उसकी बाढ़ को रोकने के लिए सन्नद्ध थी। जाना-पहचाना एकमात्र क्षेत्र। वे उस अतीत की ओर भाग रहे थे। आज के उत्तर-आधुनिकतावादी इतिहास-वंचित हैं कि इतिहास-मुक्त, भागने के लिए इनके सामने एक ही दिशा है-पश्चिम। कुछ सुनी-सुनाई, कुछ जानी-पहचानी। शायद इसीलिए आकर्षक। इनके तपोवन यही हैं।
साहित्य की मुक्ति के नाम पर क्या हम जगत को तपोवन बनाना चाहते हैं? तपोवन न जगत बन सकता है, न साहित्य। इलियट का 'पवित्र वन' (द सेक्रेड वुड) भी नहीं। पवित्रता की प्यास अंतत: हमें कहाँ ले जाएगी? पहले एक तपोवन, फिर दूसरा तपोवन। तपोवनों का यह सिलसिला कहाँ खत्म होगाᣛ? इस मुक्ति का अंत कहाँ होगाᣛ? अंतत: क्या बचेगा?
एक जवाब है कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता का प्रस्तुत अंश; कविता 'पूर्वग्रह' के शतांक में प्रकाशित है :
जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और कुछ भी नहीं में
सब कुछ होना बचा रहेगा।