साहित्य में आँखों का प्रयोग / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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नीली आँखें कहती हैं – मुझे प्यार करो, नहीं तो मर जाऊँगी। काली आँखें कहती हैं – मुझे प्यार करो, नहीं तो मार दूँगी। यह एक स्पेनिश कहावत है। अक्सर हमें कहावतों में बुनियादी रंग नज़र आता है। कहावतें हमारी सोच की उपज होती हैं। मैं इसे साहित्य और समाज से परे नहीं मानता, बल्कि इनके बीच का मानता हूँ। ऐसे में बात जब आँख की हो या आँख के सम्बंध में कुछ कहने की हो तो हमारे साहित्यकार और रसिक जन कैसे पीछे रह सकते हैं। तमाम भाषाओं में आँख और आँख की खूबसूरती को बयान करने की कोशिश की गई है। पर कहते हैं न कि जो बात कह दी जाए या बयान हो सके वो झूठी हो जाती है क्योंकि सच हमेशा अनकहा, अनछुआ, अनगढ़ और कुदरती रूप में होता है । फिर भी साहित्य में ‘आँख’ को लेकर क्या कुछ नहीं लिखा गया है।

जर्मन लेखक और कवि राइनर मारिया रिल्के की एक कविता है जिसका अनुवाद रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने किया है। कविता कुछ इस प्रकार है – “काढ़ लो दोनों नयन मेरे, तुम्हारी ओर अपलक देखना तब भी न छोड़ूँगा”। यहाँ प्रेम अपनी पराकाष्ठा की हद को छू लेता है। आँख न होने के बावजूद भी लगातार देखे जाने की बात वही इंसान कर सकता है, जिसकी अंतर्दृष्टि खुल चुकी हो। जो मात्र बाहरी आँख के भरोसे ज़िंदा न हो। सच तो यह है कि प्रेम ही एकमात्र आँख है इस दुनिया में। अब मैं उर्दू के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ की लिखी एक नज़्म का ज़िक़्र करना चाहूँगा। इस नज़्म में अपने जिसमें वो महबूब की खूबसूरती के पुल बाँधते हुए फ़ैज़ कहते हैं “तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है”। हालाँकि यह नज़्म रुमान और इंक़लाब के दर्मियान बनते-बदलते रिश्ते के मंज़र को अपने नग्न रूप में पेश करती है मगर ये एक अशआर आज तक दुनिया में प्यार करने वालों की ज़ुबान पर रेंगता है। ये बात और है कि कुछ चाहने वाले अपने महबूब को न चाहते हुए भी ये पंक्ति समर्पित कर देते हैं। ‘आँख’ लफ़्ज़ का इस्तेमाल अलग-अलग रचनाकारों ने अपनी सोच की गहराई के अनुसार मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में किया है।

बात अगर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ‘ग़ालिब’ की हो तो मैं आपको पहले ही बताता चलूँ कि ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘ग़ालिब’ ऊँचे दर्ज़े के शायर थे। मैं ये बात कहने की ज़रूरत भी महसूस नहीं करता कि ‘ग़ालिब’ की शायरी में अनायास ही ‘फिलॉसफी’ का पुट हो जाता है। जब ग़ालिब कहते हैं - “रगों में दौड़ते रहने के हम नहीं क़ायल, जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है”। अब यहाँ लहू का आँख से टपकना एक अजीब-सी बात मालूम पड़ती है जो इस बात का भी सबूत है कि ग़ालिब के दामन-ओ-दर्द किस क़दर गीले थे। किस क़दर तकलीफ़ के तकिए पर सर रख कर उम्र भर सोते रहे गालिब और सोच किस आँच पर पकती रही। ग़ालिब का ही एक शेर है – “आँख की तस्वीर सरनामे पे खींची है कि ता, तुझ पे खुल जाए कि उसको हसरत-ए-दीदार है”। इस शेर में कहा गया है कि लिफ़ाफ़े पर आँख तस्वीर बनाई है ताकि यह पता चले कि तुम्हें देखना चाहते हैं।

अपनी शायरी में सियासत की स्याही सहित मुहब्बत की सादगी समोने वाले अहमद ‘फ़राज़’ कहते हैं – “सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं, सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं”। यहाँ ‘आँख भर के देखना’ मुहावरा का इस्तेमाल बड़ी खूबसूरती से किया गया है। महबूब को देखने की आरज़ू में फ़राज़ उसके शहर में कुछ दिन ठहरना चाहते हैं। बहुत ही साधारण ढंग से कही गई बात अपने में एक गहरा रहस्य छुपाए हुए है। फ़राज़ का ही एक शेर है – “तू भी दिल को इक लहू की बूँद समझा है ‘फ़राज़’, आँख गर होती तो क़तरे में समंदर देखता”। मुझे नहीं लगता कि कहने की ज़रूरत है कि क़तरे में समंदर देखने के लिए जिस मासूम आँख की आवश्यकता पड़ती है वो सब के पास नहीं होती। दरअसल किसी भी चीज़ या बात को कई ‘डायमेंशन्स’ से देखा जा सकता है। जिस तरह बीज में दरख़्त की सम्भावना छुपी होती है और उसी बीज में फल, फूल, खुशबू आदि सबकुछ मौजूद होता है। उसी तरह क़तरे में समंदर देखने के लिए हमें आध्यात्मिक दृष्टि की आवश्यकता होगी। कुछ लोगों का ऐसा मानना है यह दृष्टि, यह नज़रिया हमें हासिल करना होता है। मैं बता दूँ कि यह दृष्टि हमें प्राप्त ही है। हमारे पास यह आँख मौजूद ही है। कुदरत ने हमें इतना सम्पन्न बनाया है कि हममें सबकुछ मौजूद है। बस एक दफ़ा अपनी ही ओर देखने मात्र की आवश्यकता है। अगर हम अपनी रूह की मानंद झाँक कर पलट कर देखें तो पता चलता है कि हम खुद इस दृष्टि के मालिक हैं। बस बेहोशी की धूल हमारी आँख पर बिखरी हुई है। उस धूल के हटते ही सबकुछ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगता है।

साहित्य में आँख की उपमा कई चीज़ों से दी गई है। कभी आँखों से पीने-पीलाने की बात की जाती है तो कभी आँखों को प्याला और मयक़दा क़रार दिया जाता है। मोहम्मद अल्लामा ‘इक़बाल’ समझना चाहते हैं – “कोई समझाए क्या रंग है मयखाने का, आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का"। इस मिसरे में दिलों में दौड़ती हुई मस्ती का सबब पैमाने को ठहराया जा रहा है मगर इस बात से शायर वाक़िफ़ है कि यह सबकुछ साक़ी की आँख की बदौलत हो रहा है। आँखों में कई ख़ुशनुमा मंज़र उलझ कर रह जाते हैं। पुरानी याद या फिर कोई मिलने-बिछुड़ने का मंज़र आँख के साथ इस तरह चस्पां हो जाता है कि उसके बीच शब्दों की दीवार खड़ी करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन-सा मालूम होता है। कुछ इसी तरह के एहसास को महसूसती हैं श्रद्धा जैन फिर लिखती हैं – “कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं, कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी”। अक्सर जब किसी रूह पर प्यार की मेहर बरसती है तो एक लम्हा ऐसा आता है जब आँख जो कुछ देखती है होंठ बयान करने में सक्षम नहीं होता। जब होंठ कुछ कहना चाहते हैं तो शब्द की कमी पड़ जाती है। श्रद्धा जैन के ही शब्दों में - ‘‘आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं, महव-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जायेगी”।

आँख से आँसू का मरासिम किसी से छुपा नहीं है। गुलज़ार बहुत ही बारीक़ लहज़े और साधारण शब्दों में कहते हैं – “शाम से आँख में नमी-सी है, आज फिर आप की कमी-सी है”। आँख और आँसू के दर्मियान अनकहे और दिलकश रिश्ते को पेश करते हुए एक नज़्म जो ज़िंदगी के एक ठंडे पड़ाव पर किसी खूबसूरत लम्हे में मैंने एक नज़्म लिखी थी-

तुम्हारी स्याह-सी आँखों में
सफ़ेद नूर का सूखा हुआ टुकड़ा
जैसे ‘नून’ के दामन में हल्का-सा नुक़्ता
और जब खुलती हैं पलकें
उस चिपके हुए धब्बे की जानिब
नज़र ज़ख़्मी हो जाती है बारहा मेरी
तुम रोने से बचती हो मेरे सामने अकसर
मगर अश्क़ की खुशबू पहचानता हूँ मैं
तुमसे कहीं ज़्यादा तुमको जानता हूँ मैं
कुछ और तो नहीं बस एक बात का हक़ है
उदास आँखों में पानी अजीब लगता है।

वैसे तो आँखों से फूल झरना, आँख का खुलना जैसे फूलों का खिलना, पलकों का आँखों में आँसू जैसे मोती का जड़ा होना आदि कई बातें कही गई हैं। धीरे-धीरे वक़्त के साथ हालात में भी तब्दीली आई है। ज़ाहिर है कि आँख की तुलना भी अन्य शब्दों, अन्य चीज़ों से दी जाने लगी। मधुरिमा सिंह लिखती हैं – “धुआँ-धुआँ है शहर आग-आग आँखें हैं, वो एक शख़्स तो हँसता दिखाई देता है”।

हिंदी फ़िल्मों में भी आँखों पर जमकर लिखा गया है। आँखों पर कुछ मशहूर पंक्तियां – ‘आँखों ही आँखों में इशारा हो गया...’, ‘सुरमई अँखियों में...’, ‘आँखों के रस्ते दिल में उतर के...’, ‘अंखियों के झरोखों से...’ वग़ैरह। हिंदी फिल्मों के एक मशहूर गीतकार जाँ निसार अख़्तर का एक शेर है – “मैं सो भी जाऊँ तो क्या मेरी बंद आँखों में, तमाम रात कोई झांकता लगे है मुझे”। इस शेर में बंद आँखों में झांकना एक ऐसा ख़्वाब है जो कभी मुक़्क़मल नहीं हो सकता। अपने प्रसिद्ध नाटक ‘ऑथेलो’ में भी शेक्सपियर ने लिखा है कि ‘हरी आँख वाले से होशियार रहें’। इसी तरह से इंसान की सोच की सतह पर न जाने कितने रंगों में आँख उतरती है और साहित्य का कोना-कोना रौशन रहता है। कहने के लिए तो आँख महज कुछ रासायनिक तत्वों का योग है मगर वो जो एहसास है, वो कुदरत की देन है ताकि हम सभी प्रेम को उपलब्ध हो सकें परमात्मा में विलीन हो सकें।