साहित्य शिक्षा जीवन-मूल्यों के पोषण हेतु अपरिहार्य / कविता भट्ट
(डॉ. कविता भट्ट द्वारा डॉ. विकास दबे, निदेशक, साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश, का साक्षात्कार)
प्रश्न- आप राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं; आपसे मेरा प्रश्न यह है कि देश की सबसे बड़ी बालपत्रिका ‘देवपुत्र‘ के सम्पादक के रूप में कार्य करते हुए आपने इस विचारधारा के बीज को बालमन में रोपित करने के आपने प्रयास किए। आप इन प्रयासों में कितने सफल रहे?
उत्तर- बहुत अच्छा प्रश्न है। जीवन भर की मेरी सबसे बड़ी पूँजी है कि मैंने संतोष प्राप्त किया है कि मैं मूलतः राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से जुड़ा रहा। उस नाते मुझे अध्यापन का क्षेत्र भी संघ की विचारधारा से अनुप्राणित अर्थात् विद्याभारती का क्षेत्र ही प्राप्त हुआ। अध्यापन के अन्तर्गत बच्चों के बीच रहते हुए मैंने बहुत शीघ्र प्राचार्य के रूप में दायित्त्व को ग्रहण किया और प्राचार्य रहते हुए मेरा पदार्पण इसी विचार से पत्रकारिता में हुआ। संघ के प्रयास से बच्चों की एक पत्रिका का प्रकाशन बड़े लम्बे समय से हो रहा था, जिसका नाम देवपुत्र है। जब मुझे यह प्रस्ताव प्राप्त हुआ कि मैं उसके सम्पादकीय कार्य से जुड़ूँ, तो मैं जुड़ गया और 1992 से लेकर अब तक मैं उसका सम्पादक हूँ। साहित्य अकादमी के निदेशक के साथ ही अभी यह कार्य भी मैं देख रहा हूँ। मैंने सम्पादक रहते हुए बच्चों के मन को टटोलने का प्रयास किया, क्योंकि अध्यापन करने वाले ऐसा अच्छे से कर पाते हैं। इसी आधार पर जब हमने इस पत्रिका का सम्पादन करना प्रारम्भ किया, तो मुझे बहुत अच्छे से याद है कि 15 से 20 हजार उस पत्रिका का प्रसारण था ही; किन्तु उस यात्रा को प्रारम्भ करने के बाद हम समाज के बीच जाते ही रहे। तकनीक का संचार भी बढ़ा, किन्तु मौखिक प्रचार के आधार पर ही बिना किसी तकनीक अवलम्ब के इस पत्रिका का प्रसार प्रतिमाह पौने चार लाख तक हमने अपने प्रयासों से ही पहुँचाया। मुझे लगता है कि इससे बड़ी उपलब्धि कुछ हो नहीं सकती। साथ ही यह संतोष हमें है कि इस माध्यम से देश को एक ऐसी पीढ़ी हम सौंप रहे हैं, जो कि आदर्श नागरिक है। राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना से जुड़े हुए बच्चे हमने देश को सौंपे। हमारी पत्रिका की सामग्री की स्वीकार्यता ऐसी थी कि यदि अभिभावक के हाथ में वह पत्रिका पहुँचती थी, तो अभिभावक स्वयं अपने बच्चों को उस पत्रिका से दूर नहीं होने देते थे। अर्थात् हमारे कोई भी वार्षिक ग्राहक जो भी बनते थे, तो दोबारा उनको सदस्यता के लिए कहना नहीं पड़ता था। अभिभावक व बच्चे दोनों ही चाहते थे कि यह पत्रिका निरन्तर हमको प्राप्त होती रहे। इसका सारा श्रेय संघ की विचारधारा को जाता है। इसी को श्रेय जाता है कि मैं लगभग 26 वर्ष अध्यापन के क्षेत्र में तो रहा ही, साथ ही एक -डेढ़ वर्ष से चूँकि अकादमी का कार्य देखने लगा हूँ और सम्भवतः यह कार्यकाल तीन वर्ष का होगा, तो यह पूर्ण करने के बाद पुनः बच्चों की उसी दुनिया में जाने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
प्रश्न- यह बहुत बड़ी उपलब्धि है और निश्चित रूप से आपने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की है , जो राष्ट्रवादी विचारधारा को लेकर आगे बढ़ रही है। निश्चित रूप से यह पीढ़ी आपके द्वारा उनके मन में रोपी गई भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विचारधारा को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करेगी। मेरा अगला प्रश्न यह है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति, जो हमारे देश की पहचान है, इसके संवाहक के रूप में बालसाहित्य कैसे सहयोगी हो सकता है?
उत्तर- भारतीय संस्कृति में यह शक्ति है कि यह संस्कृति ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की विचारधारा को लेकर आगे बढ़ती है; इसलिए इस संस्कृति को समझने वाला व्यक्ति, किसी को हानि पहुँचाने का विचार अपने मन में नहीं ला सकता। यह संस्कृति वसुधैव कुटुंबकं की संस्कृति है; इसलिए आप देखेंगे कि प्रत्येक धर्म के सम्मान का जो भाव हमारी संस्कृति में है; वह अन्य संस्कृतियों में है ही नहीं। अपितु वे इसका कितना भी दम्भ भरें; किन्तु उनमें सर्वग्राह्यता और सभी धर्मों को सम्मान देने का भाव है ही नहीं। इसीलिए संस्कारों की श्रेष्ठ साधन हमारी भारतीय संस्कृति ही है; यह सभी को समभाव से देखते हुए सभी को साथ लेकर चलने की बात करती है। जिन्होंने भारतीय संस्कृति को आत्मसात् करके इसे लोगों के सामने रख दिया, वे महान हैं। महापुरुषों का जीवन चरित्र जब हमने बच्चों के सामने रखना प्रारम्भ किया, तो चूँकि वह बालमन पर गहन प्रभाव डालता है, इसलिए हमने महापुरुषों के प्रसंग साहित्य के माध्यम से बच्चों तक पहुँचाए। ऐसा आवश्यक नहीं कि ये महापुरुष पौराणिक या वैदिक काल के ही हों। वस्तुतः महापुरुष सार्वकालिक होते हैं। हमारे ध्यान में आता है कि बहुत से ऐसे प्रसंग हैं; जैसे राजा दिलीप का प्रसंग है कि वे शेर से कहते हैं कि मुझे खा लो; लेकिन गाय को छोड़ दो। इसी प्रकार यदि बच्चों को साहस सिखाना है, तो उनको समझाने के लिए आपके पास झाँसी की रानी हैं; महाराणा प्रताप हैं, छत्रपति शिवाजी इत्यादि हैं। भारत में भी विदेश की परम्परा से आई हुई विचारधारा भी हावी होती रही। वे कई बार यह फैलाने लगे कि धर्म पर चलना दकियानूसी विचार होता है। उन्होंने यह समझाना प्रारम्भ कर दिया कि धर्म तो अफीम की गोली है। जबकि सच यह है कि बच्चों को यदि जीवनमूल्य सिखाने हैं, तो ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक सभी प्रकार के आख्यानों से बच्चों को सिखाया जा सकता है। यह न तो किसी राजनीतिक विचारधारा का सम्पोषक है, न ही किसी दल की राजनीति से प्रेरित है। चाहे वे पं. जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी से जुड़ी बातें हों या फिर डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का जीवन हो; किसी के भी जीवन के जो प्रेरक प्रसंग हों, वे हमें बच्चों को सुनाने चाहिए। इसको राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। बच्चों को प्रेम, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सभी जीवनमूल्य श्रेष्ठ साहित्य के माध्यम से सिखाए जा सकते हैं। आप तो स्वयं योग की बहुत बड़ी ज्ञाता हैं; इसलिए आप भी इस बात को मानती होंगी कि बच्चों को जीवन मूल्यों की शिक्षा योग और भारतीय दर्शन के माध्यम से दी जा सकती है। भारतीय दर्शन के अनुसार मानव जीवन का उदात्ततम उद्देश्य मोक्ष है और नैतिक जीवन मूल्यों को सिखाए बिना हम मोक्ष की बात भी नहीं कर सकते। यह बाल साहित्य के माध्यम से ही होता है।
प्रश्न- आपने जब से मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक के दायित्त्व को सँभाला, तो आप अकादमी की कार्य संस्कृति में अभूतपूर्व नवाचारों को समर्पित निदेशक के रूप में लोकप्रिय होते रहे हैं; यह जानकारी सोशल मीडिया, दूरदर्शन के विभिन्न चैनल्स तथा अन्य माध्यमों से निरन्तर हमें प्राप्त होती रही है। हम आपसे ही जानना चाहेंगे कि साहित्य अकादमी के निदेशक बनने के बाद आप नवाचारों के माध्यम से इसकी कार्यसंस्कृति में कैसे परिवर्तन लाए?
उत्तर- पहली बात- साक्षात्कार पत्रिका अखिल भारतीय स्तर की पत्रिका है। अखिल भारतीय स्तर के रचनाकारों की तुलना में मध्य प्रदेश के स्थानीय रचनाकार प्रतिस्पर्धा में थोड़ा पीछे रह जाते थे, तो उनको यथोचित स्थान नहीं मिल पाता था; हमने किया यह कि मध्य प्रदेश के रचनाकारों को पर्याप्त स्थान देना प्रारम्भ किया। अब 80 से 90 प्रतिशत रचनाएँ मध्य प्रदेश के रचनाकारों की ही होती हैं। दूसरी बात, सम्मान पुरस्कारों में भी मध्य प्रदेश के साहित्यकारों को यथोचित स्थान नहीं मिल पाता था। सूचनाओं का प्रसार यथोचित ढंग से नहीं हो पाता है। अब इस प्रकार की सूचना प्रत्येक गाँव-गाँव, नगर-नगर पहुँचती है। सौभाग्य से अब सोशल मीडिया का भी इसमें सहयोग मिलता है। स्वयं मैं वर्षों से सोशल मीडिया पर पिछले कई वर्षों से सक्रिय हूँ। अब सम्मान और पुरस्कार तथा अकादमी की अन्य सभी गतिविधियों की सूचनाओं का आदान-प्रदान व प्रसार बढ-चढ़कर हो रहा है; जिसका लाभ सभी साहित्यकारों को मिल रहा है। तीसरी बात, यह है कि पहले अकादमी में प्रथम कृति अनुदान योजना में आयु का बंधन था; 40 वर्ष से कम आयु के 40 लेखकों को यह अनुदान दिये जाने का प्रावधान था: किन्तु अधिकतर लेखन लोगों का 40 के बाद का ही प्राप्त होता था। अनुदान हेतु राशि रहती थी; किन्तु नियम में बँधे होने के कारण अकादमी यह दे ही नहीं पाती थी। हमने अवस्था का बंधन समाप्त किया। जब यह किया, तो यह अनुदान 103 वर्ष के एक ऐसे व्यक्ति को अकादमी द्वारा दिया गया, जो लम्बे समय से साहित्य साधक थे; किन्तु अपनी पुस्तक को पूरे जीवन में प्रकाशित नहीं करवा सके। उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई और कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। आप सोचिए कि उन्हें और हमें कितना संतोष हुआ होगा।
अगली बात यह है कि पहले किसी भी साहित्यकार का साक्षात्कार दूसरा कोई साहित्यकार लेता था। मुझे याद है कि स्वयं माखन लाल चतुर्वेदी ने एक बार कहा था कि साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक स्वयं को बहुत वरिष्ठ मानते हैं और किसी रचनाकार का साक्षात्कार लेने में हीनता अनुभव करते हैं और किसी अन्य रचनाकार से यह कार्य करवाते हैं। जबकि यह उचित नहीं है। यदि सम्पादक स्वयं को साहित्यकारों के साथ हिल-मिलकर रहना और स्वयं उनका साक्षात्कार लें, तो यह अधिक स्वस्थ परम्परा होगी। उनकी यह बात मेरे मन में घर कर गई। मैंने उनकी इस बात का परिपालन करते हुए अकादमी में पद ग्रहण करते ही यह स्वस्थ परम्परा प्रारम्भ की और मेरे कार्यकाल में पत्रिका के पहले अंक से ही सम्पादक के रूप में साहित्यकारों के साक्षात्कार स्वयं लेने प्रारम्भ किए। इसका लोगों ने बहुत स्वागत किया। इसके अतिरिक्त स्थानीय साहित्यकारों को साक्षात्कार पत्रिका में अधिक स्थान नहीं मिल पाता था। अब जो सूचनाएँ निकलती हैं वह गाँव-कस्बे-नगर सभी जगह पहुँचती हैं किसका लाभ सभी साहित्यकारों को मिल रहा है।
इसमें एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पहले पाठक मंच का केन्द्र जिले में एक ही स्थान पर ही होता था और केवल 45-50 जिलों में ही ये पाठक मंच थे। पाठक मंच का संयोजक होना और अकादमी का प्रतिनिधि होना साहित्यकारों के लिए सम्मान का सूचक था; लेकिन यह केवल जिलों तक सीमित था। हमने सोचा कि इसे केवल जिलों तक सीमित क्यों रखा जाए। हमने प्रयास किया और हम इसे तहसील स्तर तक ले गए। हमारी इस पहल के बाद हमारे पाठक मंचों की संख्या लगभग 167 है। मैं आपको यह आश्वस्ति देता हूँ कि अगले एक वर्ष में यह संख्या 300 के पार होगी, ऐसा विश्वास दिलाता हूँ। इन पाठक मंचों को प्रतिमाह हम दो पुस्तके भेजते हैं; पाठक उनको पढ़ते हैं और गोष्ठी करके उनकी समीक्षा करते हैं। पाठक मंच के संयोजक समीक्षा को साररूप में अकादमी में भेजते हैं। इस प्रकार हम अच्छी पुस्तकों को प्रत्येक पाठक तक पहुँचाने में सक्षम रहे। इसकी बहुत प्रशंसा हो रही है। युवा साहित्यकार केन्द्र का प्रस्ताव सरकार को भेजा है; इसके अन्तर्गत पाठक मंच के ही समान प्रत्येक जिले में एक युवा साहित्यकार केन्द्र बनेगा। यह प्रस्ताव सरकार द्वारा स्वीकृत हो गया है। इसमें परम्परागत साहित्य से हटकरके युवा साहित्य पर चर्चा की जाएगी। जो मोटिवेशनल साहित्य नए बच्चे पढ़ रहे हैं; जैसे चेतन भगत या अन्य लेखकों की कृतियाँ। इस प्रकार की पुस्तकें खरीदकर अकादमी इन युवा साहित्यकार केन्द्रों को भेजेगी और फिर उन पुस्तकों को पढ़कर उनकी समीक्षाएँ युवा साहित्यकारों द्वारा अकादमी को भेजी जाएँगी। इसी वर्ष स्वतन्त्रता की हीरक जयंती पर 75 युवा रचनाकारों को रु0 50,000 प्रत्येक को अकादमी देगी। उन युवा रचनाकारों से अपेक्षा यह रहेगी कि वे 1857 से 1947 तक के स्वतन्त्रता- संग्राम सेनानियों से जुड़े ऐसे अनूठे प्रसंग खोजें, जिन्हें अपेक्षानुरूप जाना न गया हो। इन पर वे फिर पुस्तक लिखें और अकादमी को भेजें। उन पुस्तकों को अकादमी के द्वारा प्रकाशित किया जाएगा। इसके अतिरिक्त भी नवाचारों की एक लम्बी शृंखला है; साक्षात्कार लम्बा हो जाएगा; इसलिए उस पर फिर कभी बात करेंगे।
प्रश्न- वस्तुतः हम भी आपको एक ऐसे निदेशक के रूप में देखते हैं कि जिन्होंने साहित्य को घर-घर पहुँचाया। आप आबाल वृद्ध सभी के हृदय- सम्राट हैं। कोई ऐसा प्रसंग साझा कीजिए, जो यह बताता हो कि लोगों के मन में आपके प्रति निष्ठा, विश्वास व सम्मान का भाव प्रगाढ़ रहा।
उत्तर- वास्तव में मेरे लिए भी वह भावुक क्षण था; एक दिन अनायास अत्यंत वयोवृद्ध साहित्यकार बाला प्रसाद दुबे अपने पूरे परिवार को लेकर मेरे आवास पर आए और उन्होंने मुझे कहा कि आप साहित्य के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं और मेरा विश्वास है कि आप मेरे कार्य को न्याय दिला पाएँगे। मैंने उनसे पूछा कि आप करते क्या है? तो उन्होंने मुझे बताया कि मैंने अपने जीवन के 44 वर्ष हस्तलिखित ग्रन्थ तैयार करने में व्यतीत कर दिए। उनका अधिकतर लेखन धार्मिक ग्रन्थों पर था; किन्तु अन्य प्रकार का साहित्य भी सम्मिलित था। उन्होंने मुख्यतः गीता, मानस, उपनिषद्, 18 पुराणों इत्यादि की हस्तलिखित टीकाएँ की थीं। वे अपने साथ एक बड़ा सा बॉक्स लाए थे; उन्होंने उसे खोला तो, वह पूरा बॉक्स पेन और खाली रीफिलों से भरा हुआ था जो वे लिखने के लिए उपयोग में लाते रहे। सैकड़ों खाली रीफिलें उस बॉक्स में भरी हुई थीं। उन्होंने और उनके परिजनों ने यह बॉक्स और अपने हस्तलिखित ग्रन्थ मुझे सौंपे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी हस्तलिखित पुस्तकों से आधा कमरा भर गया। वह प्रकाशन हेतु उन्होंने मुझे सौंपा; जिसे प्रकाशित करने का कार्य हम कर रहे हैं।
एक प्रसंग और है; जो भावुक करने वाला है। मध्यरात्रि में फोन की घंटी बजी और हमारी श्रीमती जी ने फोन उठाया, तो उधर से एक बच्चे ने कहा कि मुझे तुरन्त विकास दबे जी से बात करनी है। श्रीमती जी ने जब कहा कि कल सुबह कर लीजिएगा, अभी वे सोए हुए हैं, तो बच्चा बोला कि अभी बात करना जरूरी है। मेरे पिताजी को अटैक आया है और वे अर्धचेतना की स्थिति में कह रहे हैं विकास जी दवे हमारी मदद अवश्य करेंगे। तब श्रीमतीजी ने मुझे जगाया और फोन दिया, तो मैंने फोन पर बात करने वाले बच्चे को कहा कि किसी प्रकार से प्रयास करो कि पिताजी को हॉस्पिटल में पहुँचाओ फिर वहाँ के डॉक्टर से मेरी बात करवाओ। वे लोग जब एक बड़े हॉस्पिटल में पहुँचे, तो वहाँ उनको भर्ती करने में आनाकानी हो रही थी; फिर मैंने मंत्री जी से बात करके उनकी मदद की और भर्ती करने से लेकर पूर्ण स्वस्थ होने तक पूरा सहयोग किया। अब वे पूर्णतः स्वस्थ हैं। इस प्रकार मुझे यह जानकर संतोष हुआ कि किसी अपरिचित व्यक्ति के मन में भी यदि मुझे लेकर इतना विश्वास है कि अर्धचेतन स्थिति में भी वह मेरा नाम लेकर कह रहा है कि वे मदद अवश्य करेंगे, तो इससे बड़ी उपलब्धि जीवन में क्या हो सकती है। जिस व्यक्ति से मैं कभी मिला नहीं, न जानता था, उसने मेरे प्रति इतना विश्वास जताया। इस प्रकार से साहित्यकारों के मन में एक निष्ठा और सम्मान का जो भाव है; वह दुनिया के किसी भी पुरस्कार से बड़ी उपलब्धि है।
प्रश्न- आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है; लेकिन अभी भी हमारी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। एक ओर हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने की बात उठाई जा रही है, तो दूसरी ओर पूरे देश में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय कुकुरमुत्तों के जैसे उग रहे हैं; इसका हिंदी की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
उत्तर- यह आप ने सच कहा कि आज अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती चली जा रही है; किंतु यह मनोवैज्ञानिक गुलामी की निशानी आज से नही, बल्कि स्वतंत्रता के पश्चात् से सतत बनी हुई है। दुर्भाग्य से भारत के अभिभावकगण आज भी अंग्रेजी की शिक्षा और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा इन दोनों के बीच का अंतर समझ नही पा रहे हैं। वास्तव में हमारे बच्चों को ब्रिटैनिक अंग्रेजी सिखा-सिखाकर हम सबने केवल एक ही देश में नौकरी करने या व्यापार करने के योग्य बनाया है। यदि यही बच्चा विश्व के अन्य किसी भी देश में जाता है, तो उसे सबसे पहले अपनी ब्रिटैनिक अंग्रेजी को भूलना पड़ता है।अन्य भाषा को सीखना पड़ता है। तब जाकर वह उस देश में शिक्षा प्राप्त करने, व्यापार करने अथवा सेवा देने के योग्य बन पाता है। यह अन्याय एक लंबे समय से भारत की नई पीढ़ी के साथ चल रहा था। नई शिक्षा नीति संभवतः अभिभावकों को यह समझाने में सक्षम सिद्ध होगी कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय बच्चों को न केवल मानसिक गुलामी की ओर धकेलते हैं, बल्कि उनकी मानसिक क्षमता को चार गुना अधिक उपयोग करते हैं।यह माध्यम बच्चों की मानसिक क्षमता पर ग्रहण की तरह लगा हुआ है। इसे हटाने की आज अत्यधिक आवश्यकता है और हिंदी को संपर्क भाषा होने के कारण राष्ट्रभाषा घोषित किया जाना चाहिए।
प्रश्न- दक्षिण भारतीय मुख्यतः तमिल भाषी प्रायः हिंदी थोपे जाने को लेकर आशंकित रहते हैं। इस पर आपके क्या विचार हैं?
उत्तर- दक्षिण भारत में अब हिंदी को लेकर शत्रुता का भाव बिल्कुल भी नहीं है; बल्कि हिंदी को वे अंग्रेजी से भी अधिक आत्मीयता प्रदान कर रहे हैं। दुर्भाग्य से हम सब हिंदी भाषी लोगों ने दक्षिण भारत के किसी भी भाषा को बोलने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा तो बहुत जल्दी कर ली कि वे हिंदी सीखें, पढ़ें और बोलें; लेकिन इसी के विपरीत कभी भी हिंदी भाषी क्षेत्र के किसी व्यक्ति ने अपने ही भारत की इन दक्षिण क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं में से किसी एक भाषा को सीखने का प्रयास नहीं किया। न तो हम हिंदी में दक्षिण भारतीय भाषाओं के नवीन शब्दों का प्रयोग करते हैं और न ही उनकी लोकप्रचलित लोकोक्तियों आदि का उपयोग हिंदी में करते हैं। आज हमने हिंदी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिंग्लिश तो बना ली; किंतु क्या हम हिंदी में अपनी ही इन भाषा-भगिनियों के शब्दों का समावेश करने में कंजूसी नही कर रहे? यदि हम इन प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम हो सके तो मुझे लगता है कि दक्षिण भारत से हमारी सारी शिकायतें दूर हो जाएँगी।
प्रश्न- गणित, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा एवं प्रबंधन से संबंधित शिक्षा क्या अंग्रेजी के बिना दिए जाना संभव नहीं है?
उत्तर- गणित, विज्ञान,अभियांत्रिकी और चिकित्सा की शिक्षाएँ तथा साथ ही प्रबंधन से जुड़ी हुई शिक्षाएँ भी अंग्रेजी माध्यम के बिना भी सरलता से दी जा सकती हैं। इस प्रकार के प्रयास भाषायी अस्मिता की रक्षा के लिए देशभर में भले ही छुटपुट रूप से हुए हैं; किंतु ये प्रयास दिखाई तो देते हैं। आज आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम सब मिलकर कुछ विश्वविद्यालयीन गतिविधियों के माध्यम से अथवा अकादमिक गतिविधियों के माध्यम से इस प्रकार की पुस्तकें तैयार करने का उपक्रम थोड़ा तीव्र कर लें; ताकि इन सभी विषयों की शिक्षा हिंदी में भी दिया जाना संभव हो। उदाहरण के लिए इंदौर के महात्मा गांधी चिकित्सा महाविद्यालय के वर्तमान में प्राध्यापक डॉ. मनोहर भंडारी जी ने अपना चिकित्सा स्नातकोत्तर का शोध प्रबंध हिंदी में लिखा था और न्यायिक प्रक्रिया में जाकर एक लंबी लड़ाई सरकार से लड़ते हुए उन्होंने अपने उसे शोध प्रबंध का निरीक्षण भी करवाया और उसकी उपाधि भी प्राप्त की। आज इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यदि वह है तो भाषा का स्वाभिमान सुरक्षित होने में देर नहीं लगेगी ।