साहित्य सम्मेलन में बेबस बाबू / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
उन दोनों ने प्लेटफार्म का पदार्पण किया। कस्बे का छोटा-सा स्टेशन। भीड़-भाड़ न के बराबर। सर्दी के दिनों में रात के नौ बजे वह स्टेशन भाँय-भाँय करने लगता है। दोनों, ओवरकोट पहने थे; सिर पर काली टोपियाँ। कुल मिलाकर जासूसों-जैसा हुलिया था। ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले दोनों ने इधर-उधर चोरों की तरह ताका। कोई परिचित नज़र नहीं आया।
"स्याम बाबू हमको रिसीव करने नहीं आए?" लम्बे ओवरकोट ने कबूतर की तरह गर्दन अकड़ाकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक प्लेटफ़ार्म पर दृष्टि डाली।
"ऐसा न हो कि कहीं मेन गेट पर खड़े हों।" पहलवान के लँगोट की तरह साथ-साथ रहने वाले ठिगने ओवरकोट ने मुँह बिचकाकर कहा-"समझदार लोग होते, तो डिब्बे के पास आ गए होते। आख़िर आपका स्वागत भी तो करना था न!"
"स्वागत को मारो गोली" , -लम्बे ओवरकोट ने अपना सूटकेस झटके से उठाया। गधेनुमा ठिगने ओवरकोट ने दूसरे कंधे पर साथी का बैग भी लटका लिया-"चलिए, हो गया हमारा स्वागत। ससुर कुली भी यहाँ नज़र नहीं आता। सब लंडूरे हैं ससुर आयोजक। किसी बड़े साहित्यकार की कीमतई नहीं जानते।"
लम्बा ओवरकोट हाँफता हुआ ओवरब्रिज की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। ठिगना अपने को घसीटता-सा पीछे-पीछे चल दिया। गेट पर खड़े श्याम बिहारी ने ओवरब्रिज से नीचे उतरते हुए दोनों को देख लिया। अपने दो साथियों को आवाज़ दी-"अरे इधर आओ चन्दू भाई! बेबस बाबू (लगा जैसे भैंस बाबू कह रहे हों) और चिपकू बाबू आ गए हैं,"-लपककर श्याम बिहारी ने बेबस बाबू उर्फ़ लम्बा ओवरकोट से सूटकेस ले लिया-"कुछ कष्ट तो नहीं हुआ साहब?"
"कष्ट!" नथुने फुलाते हुए बेबस बाबू बोले-" हम आपकी प्रतीक्षा उधर करते रहे। बेकार में काफ़ी देर खड़े रहे। हमने सोचा कि कोई हमको लिवाने नहीं आया है।
"अरे साहब! ऐसा कैसे हो सकता है?"-ठिगने ओवरकोट से बैग लगभग हथियाते हुए चन्दू भाई ने खुशामद भरे स्वर में कहा।
ठेले वाले के पास आकर चारों रुक गए। चिपकू बाबू ने गुर्राहट भरे स्वर में श्याम बिहारी को आदेश दिया-"बेबस बाबू को इस्पेशल चा पिलाइए। सफ़र में काफ़ी थक गए हैं न! आपके कस्बे का अहोभाग्य, जो बेबस बाबू चिट्ठी पाते ही चल पड़े।"
चाय वाले ने चाय के कुलहड़ आगे बढ़ा दिए। बेबस बाबू ने चाय सुड़कते हुए पूछा-"सम्मेलन की अध्यक्षता कौन कर रहा है?"
"इस नगर के पुराने साहित्यकार श्री धनराज पथिक!"-चंदू भाई ने झटपट बताया।
"अरे बबुआ, ई नहीं चलेगा। अब धनराज, गजराज और जमराज का जमाना लद गया। अध्यक्षता बेबस बाबू करेंगे और मुख्य अतिथि भी बेबस बाबू ही होंगे। समझे न! चिरकुटों को अध्यक्ष बनाएँगे, तो बेकस बाबू मंच पर नहीं बैठेंगे। बेबस बाबू का कुछ मीनिंग है न? समझ गए" चिपकू बाबू ने रूखे स्वर में आगाह किया। बेबस बाबू की गर्दन और अकड़ गई।
श्याम बिहारी का स्वर हलक में ही अटक गया। वे पथिक जी को क्या कहकर और कैसे मना करेंगे? उसका सिर घूमने लगा। चंदू भाई ने बात सँभाली-"कोई बात नहीं। हमारी हर सभा कि अध्यक्षता बेबस बाबू ही करेंगे। पथिक जी को मना करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर छोड़िए। बस इन चरणों की कृपा बनी रहे!"-गर्दन को झटका देकर चंदू भाई ने बेबस जी के चमचमाते जूतों की ओर हाथ बढ़ाया और चरण छूने का अभिनय किया। बेबस बाबू की गर्दन का तनाव कुछ कम हुआ।
वे मुस्कुराए-"हमारे शहर में तुम्हारी बहुत चर्चा है। तुम्हारा लेखन बहुत धारदार है। जीवन की असंगति-विसंगति का तुमने अपनी कहानियों में बड़ा सटीक विश्लेषण किया है।"
श्याम बिहारी सिर खुजलाने लगा। चंदू भाई की कहानियों में उसे बकवास ही अधिक लगी है। लाख माथ ठोंकने पर भी उसे बेबस द्वारा ईजाद की गई विशेषताएँ दूर-दूर तक नज़र नहीं आईं। चिपकू बाबू ने अहसान दिखाया-"बेबस बाबू न जाने कितने नाम निहाद लोगों को श्रेष्ठ साहित्यकार बना चुके हैं। जिसको रगड़ा मारा, उसका पत्ता साफ़ हो गया।"
"अरे—रे—रे—" स्टेशन से बाहर की कच्ची नाली लाँघते हुए चिपकू बाबू फिसले, तो पीछे-पीछे चलते हुए चन्दू भाई ने उनको सँभालने का असफल प्रयास किया। सिर्फ़ काली टोपी हाथ में आकर रह गई। ओवरकोट झाड़कर चिपकू बाबू गरियाए-"कहाँ भूचड़ जंगली इलाके में ले आए रास्टरीय अस्तर के साहित्यकार को? जिस मुलुक की नाली कच्ची हो, उसका साहित्य कैसे पक्का होगा?"
चन्दू भाई खिसियाए। टोपी चिपकू जी के सिर पर टिका दी। सामने लटूरीसिह का ढाबा था। श्याम बिहारी ने चन्दू को लक्ष्य करके कहा-"आप लोगों को यहाँ भोजन करा दिया जाए।"
चिपकू बाबू लपककर ढाबे में घुसे और धचके के साथ एक चरमराती कुर्सी पर बैठ गए। बेबस बाबू के लिए श्याम बिहारी लोहे की कुर्सी घसीट लाए। चार आँखें उस समय ढाबे का जायजा ले रही थीं। "ढाबा तो सड़ियल है।"-चिपकू बाबू ने धीरे से कहा।
बेबस जी कहीं खोए हुए थे। एकदम चौंके-"सड़ियल लोगों की ही भरमार है संसार में।" श्याम बाबू और चन्दू भाई हाथ बाँधे खड़े थे।
भोजन आ गया। बेबस जी नज़ाकत से खाने लगे, बिलकुल धीरे-धीरे। चिपकू बाबू गतिशील थे। पतली दाल सुड़कते हुए बोले-"ई ससुर क्या दाल बनाई है। नाक पकड़कर डुबकी लगाने पर भी दाल का बीज हाथ नहीं लगेगा। इसमें डूबकर भला आत्महत्या करना कौन चाहेगा?" बेबस बाबू निस्पृह दिखाई दे रहे थे। श्याम बिहारी मन-ही-मन खौल उठा। चिपकू बाबू भुचर-भुचर की आवाज़ में भात खा रहे थे। इसी आवाज़ में दो सूअर गली में कूड़ा चबा रहे थे।
'गंजे की धर्मशाला' में आयोजन था। जिस समय चारों वहाँ पहुँचे, मंच की एक कुर्सी पर पथिक जी बैठे हुए थे। एक कुर्सी खाली पड़ी थी। बेबस जी ने चिपकू बाबू को खाली कुर्सी पर बैठने का संकेत किया। वे साँड की तरह हुँकारते हुए बैठ गए। बेबस बाबू खड़े रहे। श्याम बिहारी मूक एवं किंकर्त्तव्यविमूढ! चिपकू बाबू को यहाँ नहीं बैठना था। कुर्सी और थी ही नहीं। चन्दू भाई पथिक जी की तरफ़ मुड़े-"जरा आप—।"
पथिक जी अपने जर्जर शरीर को सँभालते हुए तुरन्त खड़े हो गए-"अरे, आओ भाई बेबस बाबू! बैठो!"
बेबस बाबू ने उपेक्षा से पथिक जी को घूरा और कुर्सी खींचकर बैठ गए। पथिक जी लड़खड़ाते कदमों से श्रोताओं की ओर बढ़े तथा दरी के एक कोने पर ढह-से गए।
पहले बेबस जी का स्वागत हुआ। गले में मालाएँ डाली गईं। चन्दू भाई ने स्वागत गान गाया-"देवदूत धरा पर आए।" ख़ूब तालियाँ बजीं। देवदूत ख़ुशी के मारे कौए की तरह फूल उठे।
बेबस जी उठे। चश्मा उतारकर हाथ में लिया। हिव़फ़ारत भरी नज़र श्रोताओं पर डाली और अपना उद्घाटन भाषण यों शुरू किया-"इस कस्बे के साहित्य प्रेमियो! मैं अपना बहुत ज़रूरी काम छोड़कर यहाँ आया हूँ। बात साहित्य की है, इसलिए। हमारा समाज, रोज़ टूट रहा है। हमें यह देखना है कि हम इसे टूटने से बचाएँ। हमारे बचाने से शायद यह समाज बच जाए!"
चन्दू भाई ने इशारा किया। अग्रिम पंक्ति में बैठे लोग तालियाँ बजाने लगे। बेबस जी की गर्दन कबूतर की तरह तन गई।
चिपकू बाबू खर्राटे लेने लगे थे। सभा आनन्दित हो उठी।