सा विद्या या विमुक्तये / सुरेश कुमार मिश्रा

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हर वर्ष 26 जून यानी आज के दिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्याचार के पीड़ितों के समर्थन में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। नए संकल्प लिये जाते हैं। घुट-घुट कर जीना, तड़प-तड़प कर मरना, अपनी ही हँसी को दर-दर ढूँढ़ना, सांसों का जकड़ा रहना, आजादी के लिए मचलना यह सब अत्याचार के दौरान उत्पन्न होने वाले कटु सत्य हैं। शब्दकोश में इसके अर्थ आचार का अतिक्रमण, रीति, नीति प्रथा का उल्लंघन, अधिकार का दुरुपयोग, किसी के साथ किया जाने वाला अमानुषिक अथवा पाशविक व्यवहार या फिर किसी को सताने के लिए किया जाने वाला दुर्व्यवहार के रूप में दिखायी देते हैं। हमारे यहाँ अत्याचार ने अमीबा का रूप धारण कर लिया है। इसका कोई निश्चित आकार नहीं है। जब चाहे तब, जैसे चाहे वैसे और जिसे चाहे उसे अपना शिकार बना लेता है। यहाँ पर कभी नारी के बहाने तो कभी शिक्षा के व्यापारीकरण के बहाने, कभी बालशोषण तो कभी महंगाई, रिश्वत, भ्रष्टाचार के बहाने अत्याचार होते रहते हैं। इन अत्याचारों की सबसे बड़ी बात यह है कि शोषण करने वाला जिसका शोषण करता है वह न तो गूंगा और न ही बहरा। ऐसी ही अत्याचारों का एक उदाहरण है-अर्द्ध विधवा।

हमने स्त्री को विवाहिता या फिर विधवा के रूप में सुना और देखा है। कभी अर्द्ध-विधवाओं के बारे में सुना है? नहीं न! अर्द्ध-विधवाओं से तात्पर्य उन महिलाओं से है जिनके पतियों के जीवित होने या उनकी उपस्थिति के कोई चिह्न नहीं मिलते। हमारे देश में ऐसी महिलाओं की संख्या कभी मायने ही नहीं रखते। अब सोचिए जहाँ जिनकी संख्या का कोई अर्थ नहीं वहाँ भला उन पर होने वाले अत्याचार पर कौन ध्यान देगा। वास्तव में अर्द्ध-विधवाएँ महिलाएँ विधवा महिलाओं से कहीं अधिक परेशानियाँ झेलती हैं। जिन महिलाओं के पतियों की जानकारी नहीं है उन्हें न तो संयुक्त परिवार और न ही समाज कोई अधिकार देता है। आश्चर्य की बात यह है कि सरकार के पास ऐसी महिलाओं के कोई आंकड़े ही नहीं हैं। स्वाभाविक है कि उन्हें कोई सरकारी मदद नहीं मिल सकती। ऐसी महिलाएँ छोटे रोजगार जैसे चाय की दूकान, पापड़, अगरबत्ती, बीड़ी, बनाने का काम कर अपने परिवार का पेट पालती हैं।

आत्मनिर्भर बनने तथा समाज से संघर्ष करने की जिजीविषा उन्हें मात्र जीवित रख सकती है। जबकि सच्चाई यह है कि वे हरपल घुट-घुट कर मरती हैं। आत्मसम्मान में कमी, मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ, जैसे कि चिंता, घबराहट, अवसाद, भोजन व नींद सम्बंधी समस्याएँ इन्हें नित्य घेरे रहते हैं। चूँकि इनके बारे में पूछने वाला कोई नहीं होता सो इनके साथ होने वाली हिंसा को मायने नहीं देता। वे स्वयं को बचाने के लिए अपनी पहचान छिपाने का प्रयास करती हैं। इन सबके बावजूद अपने उपर लगाए गए झूठे आरोपों को जबरन सहने के लिए मजबूर हो जाती हैं। वह अपनी छोटी-छोटी खुशियों से भी स्वयं को वंचित रखने लगती है, घर–परिवार वालों व मित्रो से सम्बंध तोड़ने लगती है तथा एकाकीपन व अपराध बोध में शरण लेने लगती है। ऐसी स्थिति में वह ग़लत रास्ते पर चल पड़ने की संभावना अधिक रहती है। यह सभ्य समाज के लिए हर्ष का विषय नहीं है।

अत्चाचार किसी भी प्रकार का हो, कहलाता तो अत्याचार ही है। अत्याचार का एकमात्र तोड़ या रामबाण इलाज़ कुछ है तो वह है-शिक्षा। श्रीविष्णुपुराण में कहा गया है कि–"सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात वह जो (अज्ञान से) मुक्ति प्रदान करे वह विद्या है। नारी शिक्षा के सन्दर्भ में भी यही संकल्पना रहनी चाहिए। परन्तु आज शिक्षार्जन के मायने बदल गए हैं। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन के बदले अर्थार्जन हो गया है। अधिकाधिक धन संग्रहित करनेवाला मनुष्य ही अधिक सुखी हो सकता है। इस सोच ने जीवन के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण बदल दिया। भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने की होड़-सी मच गई है। इसके लिए भ्रष्टाचार, दुराचार, व्याभिचार चाहे जो करना पड़े, मनुष्य तैयार है। यही कारण है कि समाज में नैतिकता का पतन हो रहा है। हमें परा-नैतिक शिक्षा नहीं, नैतिकतायुक्त शिक्षा कि आवश्यकता है, जो सच्चे अर्थों में समाज की रूपरेखा बदल सकती है।