सिंगरौली - जहाँ कोई वापसी नहीं / निर्मल वर्मा
वह धान रोपाई का महीना था - जुलाई का अंत - जब बारिश के बाद खेतों में पानी जमा हो जाता है। हम उस दोपहर सिंगरौली के एक क्षेत्र - नवागाँव गए थे। इस क्षेत्र की आबादी पचास हजार से ऊपर है, जहाँ लगभग अठारह छोटे-बड़े गाँव बसे हैं। इन्हीं गाँवों में एक का नाम है - अमझर - आम के पेड़ों से घिरा गाँव - जहाँ आम झरते हैं। किंतु पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है, न कोई फल पकता है, न कुछ नीचे झरता है। कारण पूछने पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे, तब से न जाने कैसे आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़ेगा, तो पेड़ जीवित रह कर क्या करेंगे?
टेहरी-गढ़वाल में पेड़ों को बचाने के लिए आदमी के संघर्ष की कहानियाँ सुनी थीं, किंतु मनुष्य के विस्थापन के विरोध में पेड़ भी एक साथ मिल कर मूक सत्याग्रह कर सकते हैं, इसका विचित्र अनुभव सिर्फ सिंगरौली में हुआ।
मेरे लिए एक दूसरी दृष्टि से भी यह अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित हो कर कैसे अनाथ, उन्मूलित जिंदगी बिताते हैं, यह मैंने हिंदुस्तानी शहरों के बीच बसी मजदूरों की गंदी, दम घुटती, भयावह बस्तियों और स्लम्स में कई बार देखा था, किंतु विस्थापन से पूर्व वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की जिंदगी बिताते होंगे, इसका दृश्य अपने स्वच्छ, पवित्र खुलेपन में पहली बार अमझर गाँव में देखने को मिला। पेड़ों के घने झुरमुट, साफ-सुथरे खप्पर लगे मिट्टी के झोंपड़े और पानी। चारों तरफ पानी। अगर मोटर रोड की भागती बस की खिड़की से देखो, तो लगेगा, जैसे समूची जमीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर, जिसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी, ढोर-डंगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानों किसी बाढ़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।
किंतु यह भ्रम है... यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत हैं। अगर हम थोड़ी-सी हिम्मत बटोर कर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी, जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। जरा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठा कर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं - बिलकुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्य स्थल में देखा था। किंतु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ विस्मय से मुस्कराती हैं और फिर सिर झुका कर अपने काम में डूब जाती हैं... यह समूचा दृश्य इतना साफ और सजीव है - अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना संपूर्ण और शाश्वत - कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आनेवाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा - झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़ - सब एक गंदी, 'आधुनिक' औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा - और ये हँसती-मुस्कराती औरतें, भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपनी गाँव की तस्वीर एक स्वप्न की तरह धुँधलाती रहेगी, किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को तो कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था - जहाँ आम झरा करते थे।
ये लोग आधुनिक भारत के नए 'शरणार्थी' हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपनी घर-जमीन से उखाड़ कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़ कर कुछ अरसे के लिए जरूर बाहर चले जाते हैं, किंतु आफत टलते ही वे दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं। किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते। आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवासस्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
एक भरे-पूरे ग्रामीण-अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर यह इलाका उजाड़ रेगिस्तान होता, तो शायद इतना क्षोभ नहीं होता; किंतु सिंगरौली की भूमि इतनी उर्वरा और जंगल इतने समृद्ध हैं कि उनके सहारे शताब्दियों से हजारों वनवासी और किसान अपना भरण-पोषण करते आए हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, किंतु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा, जिसमें उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के खंड शामिल थे, रीवाँ राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया। बीस वर्ष पहले तक समूचा क्षेत्र विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था, जहाँ अधिकांशत: कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। एक पुरानी दँतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही 'सृंगावली' पर्वतमाला से निकला है, जो पूर्व-पश्चिम में फैली है। चारों ओर फैले घने जंगलों के कारण यातायात के साधन इतने सीमित थे कि एक जमाने में सिंगरौली अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद - 'काला पानी' माना जाता था, आसपास के समूचे प्रदेश से कटा हुआ, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे।
किंतु कोई भी प्रदेश आज के लोलुप युग में अपने अलगाव में सुरक्षित नहीं रह सकता। कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी नहीं रही। विस्थापन की एक लहर रिहंद बाँध बनने से आई थी, जिसके कारण हजारों गाँव उजाड़ दिए गए थे। उस समय शायद अकेले डॉ. लोहिया थे, जिहोंने इसके विरुद्ध आवाज उठाई थी, किंतु वह नेहरू-युग का स्वर्णिम क्षण था, जब 'विकास योजनाओं' के नक्कारखाने में गांधी और लोहिया दोनों ही अप्रासंगिक जान पड़ते थे। इन्हीं नई योजनाओं के अंतर्गत सेंट्रल कोल फील्ड और नेशनल सुपर थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन का निर्माण हुआ। चारों तरफ पक्की सड़कें और पुल बनाए गए। सिंगरौली, जो अब तक अपने सौंदर्य के कारण 'बैकुंठ' और अपने अकेलेपन के कारण 'काला पानी' माना जाता था, अब प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। कोयले की खदानों और उन पर आधारित ताप विद्युतगृहों की एक पूरी श्रृंखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया। जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफसरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की कतार लग गई; जिस तरह जमीन पर पड़े शिकार को देख कर आकाश में गिद्धों और चीलों का झुंड लग जाता है, वैसे ही सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन-अधिकारियों और सरकारी कारिंदों का आक्रमण शुरू हुआ।
विकास का यह 'उजला' पहलू अपने पीछे कितने व्यापक पैमाने पर विनाश का अँधेरा ले कर आया था, हम उसका छोटा-सा जायजा लेने दिल्ली में स्थित 'लोकायन' संस्था की ओर से सिंगरौली गए थे। सिंगरौली जाने से पहले मेरे मन में इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता है। शायद पैंतीस वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे, जिसमें 'मानव सुख' की कसौटी भौतिक लिप्सा न हो कर जीवन की जरूरतों द्वारा निर्धारित होती। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं, क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बावजूद अंग्रेजी राज हिंदुस्तान को संपूर्ण रूप से अपनी 'सांस्कृतिक कॉलोनी' बनाने में असफल रहा था। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी - वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों - एक शब्द में कहें - उसके समूचे 'परिवेश' के साथ जोड़ती थीं। अतीत का समूचा 'मिथक संसार' पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है - भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने को हो जाता है। स्वातंत्रयोत्तार भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखादेखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है, इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया। हम बिना पश्चिम को माडल बनाए - अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर - औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं, कभी इसका खयाल भी हमारे शासकों को आया हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।
भारतीय संदर्भ में यह संतुलन कितना मूल्यवान है और इस पर जरा-सी ठेस पहुँचते ही एक भारतवासी की जीवन-प्रणाली किस तरह से उन्मूलित और विकृत हो जाती है, सिंगरौली में होनेवाले 'औद्योगिक परिवर्तन' इसका विकट उदाहरण है। एक समय में जहाँ कृषि और सिंचाई के अपने संपन्न साधन थे, वहाँ आज जंगल कटने से लोगों को खेती की बात तो दूर, पानी पीने के लिए रिहंद बाँध पर निर्भर करना पड़ता है। हम आधुनिक 'प्रगतिशील' बुद्धिजीवी अक्सर गाँवों में जाति-व्यवस्था की निंदा करते हैं, किंतु यह भूल जाते हैं कि इसी व्यवस्था के भीतर 'अधिकार और दायित्व' की एक परंपरागत मर्यादा थी, जिसमें लोग बहुत सुखी न भी हों, अपने को सहज और सुरक्षित महसूस करते थे। 'लोकायन' के कार्यकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में किसान और परजा (धोबी, चमार, नाई इत्यादि) के परस्पर-संबंधों के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है : 'गाँव का किसान अपनी परजा के लिए कितनी जमीन देगा, इसका निर्धारण...' किसान की जमीन की हैसियत के आधार पर निश्चित होता था। इस प्रकार गाँव की 1/5 हिस्से की जमीन पर परजा लोगों का अधिकार रहता था। पर यह सब व्यवस्था औद्योगीकरण के कारण समाप्त हो गई है। तेलंगावा के 75 वर्षीय आदिवासी कोल का कहना था : 'बाबू अबका रहिगइल, पहिले खेती पाती मिलत रहिल मालकिन से और न खान पियन की चिंता नाहिन रहिल, पर बाबू आज एकऊ दिन बीमार रहई तो खाना दूसरे दिन नाहिन मिली।'
गाँव की परंपरागत व्यवस्था में एक आदिवासी क्या महसूस करता था और आज की औद्योगिक व्यवस्था में उसकी हालत क्या हो गई है... क्या हमारे शहरी मार्क्सवादी कभी इस अंतर को देख पाएँगे?
सिंगरौली के घने जंगलों में बसे हजारों आदिवासी (कोल, पनिका, अगरिया) खानाबदोश नहीं थे। उनके अनेक 'घरेलू' कारोबार थे। पहाड़ से लोहा निकाल कर वे अनेक प्रकार के औजार बनाते थे, खादी के कपड़े बुना करते थे। रस्सी, सुतली, बान-जैसी घरेलू वस्तुओं को बना कर रॉबर्टगंज के बाजार में बेचते थे। आज नई औद्योगिक परियोजनाओं के चलते वे अपने ही अंचलों में अपराधियों की तरह घूमते हैं। जिन पेड़ों में उनके देवता-ईश्वर बसते थे, अब उनकी जगह वन अधिकारियों और ठेकेदारों ने ले ली है। चूँकि जंगल में रहने का अधिकार उन्हें शताब्दियों से प्रकृति ने दिया है, सरकार के कागज-पट्टों ने नहीं, इसलिए जंगलों से विस्थापित हो जाने के बाद उनके पास यह कानूनी हक भी नहीं कि वे किसी तरह के मुआवजे या जमीन की माँग कर सकें। सिवाय इसके कि वे खेतिहर मजदूर बन कर गुजारा करें या कोयला खदानों में केजुअल मजूरी करके दिन में आठ-दस रुपए कमा लें, उनके पास आज जीवन-निर्वाह का कोई साधन नहीं बचा रह गया है।
सिंगरौली की यात्रा के दौरान हमें अनेक ऐसे परिवार मिले, जो पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में तीन-चार बार विस्थापित हो चुके हैं। कुछ लोग जो रिहंद बाँध के कारण अपने घर-बार से उजाड़े गए, वही कुछ वर्षों बाद एन.टी.पी.सी. (नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन) की योजना द्वारा दोबारा विस्थापित हुए और जब तीसरी बार उन्होंने जैसे-तैसे धरती के किसी कोने में अपने को बसाने की कोशिश की, तो आज 1984 में विंध्याचल सुपर थर्मल पावर के दुर्निवार पंजे उन्हें पुन: दबोचने के लिए आगे बढ़ आए हैं। कभी-कभी सिंगरौली के विस्थापित आदिवासियों और किसानों की बदहवासी देख कर युद्ध में भागे उन शरणार्थियों की दशा याद हो आती थी, जो बढ़ती हुई सेनाओं से बचने के लिए आगे-आगे भागते जाते हैं, एक गाँव से दूसरे गाँव, एक जंगल से दूसरे जंगल। अब प्रश्न यह नहीं रहा कि वे अपने जीवन-काल में कभी अपने पुरखों के आवास-स्थल में लौट सकेंगे। वहाँ अब खेत और जंगल नहीं, धुआँ उगलती फैक्टरियाँ और औद्योगिक कॉलोनियाँ बस गई हैं। प्रश्न यह रह गया है कि उन्हें बाकी जिंदगी गुजारने के लिए डेढ़ गज जमीन मिल पाएगी, जिसे वे 'अपना' कह सकें?
शक्तिनगर के विराट विद्युत-उत्पादन स्टेशन के पास ही मटवई नाम का छोटा-सा गाँव है - या कभी था - क्योंकि जब हम वहाँ गए, तो वहाँ सिर्फ उड़ती हुई धूल और खाली मैदान दिखाई दिए। कुछ महीने पहले वहाँ कोई जीती-जागती बस्ती या बाजार रहा होगा, इसकी कल्पना भी असंभव थी। सिंगरौली के प्रसिद्ध समाजवादी नेता और डॉ. लोहिया के शिष्य पंडित कार्तिक रामजी भी हमारे साथ थे। उन्हीं के मुँह से हमें मटवई गाँव के उजड़ने का इतिहास मालूम पड़ा।
इस इलाके में यह गाँव अपेक्षाकृत बड़े गाँवों की श्रेणी में आता था। कुल मिला कर वहाँ ढाई सौ परिवार बसते थे। आबादी एक हजार लोगों से कुछ ज्यादा थी। गाँव की बगल में ही बाजार था, जिसमें अधिकांश उन्हीं लोगों की दुकानें थीं, जो गाँव में रहते थे। सरकार ने गाँव और बाजार दोनों को ही - अपनी परियोजनाओं के अंतर्गत - उखाड़ने का निर्णय ले लिया था और इस आशय का एक आदेश भी जारी कर दिया था। आदेश के विरुद्ध गाँव के चार पढ़े-लिखे युवक जबलपुर के हाईकोर्ट में 'स्टे ऑर्डर' लेने गए थे किंतु शक्तिनगर के अधिकारियों को शायद इसकी भनक पहले से ही मिल गई थी। जब 23 जून, 1984 को ये चार लोग गाँव के उजाड़ने के विरुद्ध हाईकोर्ट का आदेश ले कर पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि समूचे गाँव और बाजार पर एक दिन पहले ही बुलडोजर चल चुका है। सरकारी अधिकारियों की आँखों में हमारे न्यायालयों के कानूनी आदेशों के लिए कितनी इज्जत है, यह इससे पता चलता है कि हाईकोर्ट का ऑर्डर पाने के बावजूद गाँव के घरों और बाजार की दुकानों को ढहाने का काम उस समय तक पूर्ववत चलता रहा, जब तक सारी जमीन साफ और समतल नहीं हो गई। गाँव के निवासी मुजम्मिल हुसैन ने हमें बताया, 'जब मैं 23 जून को जबलपुर से 'स्टे ऑर्डर' ले कर लौटा, तो पता चला कि मेरी दुकान ढहाई जा चुकी है; मेरा सामान ट्रक में भर कर गाँव से दूर नवजीवन कॉलोनी में फेंक दिया गया था और चूँकि मैं उस समय मौजूद नहीं था, मेरी बहुत-सी चीजें चोरी चली गईं, जिनका आज तक पता नहीं चला।' जब कुछ दिनों बाद गाँव के कुछ प्रतिनिधियों ने समूचे मामले को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के सामने रखा, तो उन्हें आश्वासन दिया गया कि जिले के कलक्टर को इस संबंध में 'उचित कार्रवाई' करने का आदेश दिया गया है। किंतु महीने गुजरते गए और कलक्टर की ओर से इस संबंध में कहीं, कोई कार्रवाई नहीं की गई।
यहाँ यह एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यदि आज देश का नागरिक न्यायालय के संरक्षण और मुख्यमंत्री के आश्वासन के बावजूद अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाता, तो लोकतंत्र की उन कागजी मर्यादाओं का क्या मूल्य रह जाएगा, जिसे कोई भी किसी भी समय स्वेच्छा से उसी तरह 'बुलडोज' कर सकता है, जैसे घरों और दुकानों को? सिंगरौली में अनेक बार हमें यह सुनने को मिला कि जब-जब किसी गैर-कानूनी, अन्यायपूर्ण घटना के विरुद्ध शिकायत की जाती है, मुख्यमंत्री हमेशा कलक्टर को 'उचित कार्रवाई' करने का आदेश दे कर अपने दायित्व से छुट्टी पा लेते हैं। वह आदेश दिया भी जाता है या नहीं, इसे पता चलाने का कोई रास्ता नहीं। और जब 'उचित कार्रवाई' नहीं होती, जैसा अधिकांश मामलों में नहीं होती, तो इसकी जिम्मेदारी किस पर है - मुख्यमंत्री पर या कलक्टर पर? आज की रुक्ष और क्रूर राजनीति के खेल में अर्जुनसिंह अपेक्षाकृत अधिक समझदार सहानुभूतिपूर्ण मुख्यमंत्री' माने जाते हैं, इसलिए विश्वास नहीं होता कि अधिकांश मामलों को 'उचित कार्रवाई' के बहाने रफा-दफा कर दिया जाता होगा। क्या हम यह मान लें कि मुख्यमंत्री तो लोगों की जायज शिकायतों को दूर करने का 'आदेश' देते हैं, किंतु उन्हीं के आदेशों का पालन स्थानीय अधिकारी नहीं करते? यदि ऐसा है, तो इन अधिकारियों के विरुद्ध ही क्यों नहीं कोई 'उचित कार्रवाई' की जाती?
मटवई गाँव के विस्थापित निवासियों के लिए एक नई कॉलोनी बनाई गई है -नवजीवन विहार। किंतु जमीन के जो प्लॉट उन्हें दिए गए हैं, उनका कोई सरकारी पट्टा अभी तक उन्हें नहीं मिला है। एक दिन मिलेगा - ऐसा सरकार कहती है। कब मिलेगा, इसका कोई भरोसा या आश्वासन नहीं। यही शिकायत दूसरे क्षेत्रों में भी सुनने को मिली। सिंगरौली के विस्थापितों में यही एक डर बैठा है कि सब कुछ 'फिलहाल' के भरोसे टिका है, अभी बला टली, फिर कब आ दबोचेगी, इसका कुछ भी पता नहीं। सरकार जमीन देती है, लेकिन जमीन का स्वामित्व नहीं, इसका रहस्य मैं बहुत खोजने पर भी नहीं जान पाया। मुझे कुछ ऐसा लगता है कि स्वयं केंद्रीय और राज्य शासन अधिकारी इस बारे में स्पष्ट नहीं हैं कि विभिन्न विद्युत परियोजनाओं के लिए उन्हें कितनी जमीन की जरूरत पड़ेगी। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि गाँवों को उजाड़ दिया जाता है, जमीन खाली पड़ी रहती है और महीनों उस पर कोई काम शुरू नहीं होता। इसी अस्पष्टता और अनिश्चय के कारण सरकार एक तरह की अंधाधुंध नीति अपनाती है। जब जरूरत पड़े, तब कोई गाँव, जंगल या जमीन का हिस्सा खाली करवा दो, विस्थापित लोगों को कुछ और पीछे धकेल दो, किंतु उन्हें कोई ऐसा पट्टा या कागज न दो, जिससे यदि बरस, दो बरस बाद उन्हें दोबारा विस्थापित करना पड़े, तो वे सरकार के रास्ते में कोई कानूनी अड़चन पैदा न कर सकें। विस्थापन और पुनर्वास की यह अद्भुत, तर्कहीन, अराजक प्रणाली हजारों लोगों के लिए एक दु:स्वप्न बन गई है। किसी को कुछ पता नहीं कि वह किस अनजान घड़ी में उखाड़ दिया जाएगा, किस अज्ञात जगह क्या दिया जाएगा?
सिंगरौली के विस्थापित परिवारों को सरकार की ओर से मुआवजा जरूर दिया जाता है, किंतु जिस आधार पर दिया जाता है, वह काफी अद्भुत है। जिन किसानों को अपनी जमीन से उजाड़ा जाता है, उन्हें लगान का तीस गुना पैसा मुआवजे के रूप में देना स्वीकृत हुआ है, किंतु लगान की दर पहले ही इतनी कम थी कि छीनी हुई जमीन और दिए जानेवाले पैसे के बीच कोई संतुलन नहीं बैठ पाता। किंतु इससे कहीं अधिक शोचनीय बात - जिसकी ओर सरकार का ध्यान नहीं जाता - वह किसानों और आदिवासियों के 'सांस्कृतिक विस्थापन' की है। बरसों से जो लोग एक साथ गाँव में रहे हैं, वे देश के अलग-अलग कोनों में, नितांत अजनबी परिवेश में, किस तरह अपने को अनाथ, अकेले और निराश्रित पाते हैं, क्या इस उन्मूलन-भाव को मुआवजे के पैसों से दूर किया जा सकता है?
जब आदिवासियों को जंगलों से निकाला जाता है, तो उन्हें यह मुआवजा भी नहीं मिलता। चूँकि शताब्दियों से वे जंगलों पर आश्रित रहते आए हैं और लगान नहीं देते थे, इसलिए मुआवजा पाने का उन्हें कोई 'कानूनी अधिकार' नहीं है। यही नहीं, जबकि दूसरी जातियों को यह अधिकार प्राप्त है कि इनके विस्थापित परिवार के एक सदस्य को किसी सरकारी कारखाने में नौकरी दी जाएगी, अधिकांश आदिवासी इस सुविधा से वंचित रह जाते हैं। जब 'लोकायन' के एक कार्यकर्ता ने इसका कारण पूछा, तो शक्तिनगर विद्युत स्टेशन के एक अफसर ने कहा, 'इन लोगों को क्या नौकरी दें! रात-भर शराब पीते हैं, दिन-भर आवारागर्दी... ये लोग हमारे किसी काम के नहीं।' शायद वे ठीक कहते हों, किंतु क्या एक क्षण के लिए भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि उजड़ने से पहले इन आदिवासियों को सरकारी नौकरी की जरा भी जरूरत नहीं थी। जिस शासन-व्यवस्था ने हजारों आदिवासियों को उनके वन्यस्थल से उन्मूलित करके सड़कों पर फेंक दिया है, उसी शासन का अधिकारी - जो शहर की सब सुविधाओं को भोगता है - उनके आलस्य और शराबखोरी की भर्त्सना करे, इससे बड़ी हास्यास्पद और क्रूर विडंबना क्या हो सकती है?
ऐसे भी गाँव हैं, जिन्हें कानून की लकीर ने नहीं उजाड़ा, बल्कि जो विद्युतगृहों के अधिकारियों की घोर उदासीनता और स्वार्थपरकता के कारण खुद-ब-खुद उजड़ गए। तेलंगावा ऐसा ही एक गाँव है, जो शक्तिनगर विद्युत स्टेशन के नीचे ढलान पर बसा है। जब वहाँ गए, तो सारा गाँव भुतहा-सा वीरान पड़ा था। झोंपड़े खाली पड़े थे। झोंपड़ों के फर्श, दीवारें, खपरैल तक पानी में भीगे थे। लगता था, रातों-रात बाढ़ आई हो और जल्दी में लोग जितना सामान बटोर कर ले जा सकते थे, ले गए, बाकी पीछे छोड़ गए। किंतु यह कोई ऐसी 'बाढ़' नहीं थी, जिसे रोका न जा सकता हो। यदि शक्तिनगर पावर स्टेशन के अधिकारी चाहते, तो गाँव इस विपदा से बच सकता था। बरसों पहले जब पावर स्टेशन बना था, तो वहाँ से दूषित गरम पानी के डिस्चार्ज करने के लिए डेढ़ किलोमीटर लंबी पाइप बनाई गई थी, ताकि बीच रास्ते में गुजरते हुए पानी कुछ ठंडा हो जाए और जब रिहंद नदी के रिजर्वायर में जा कर गिरे, तो मछलियों को कोई नुकसान न पहुँचे। किंतु पाइप बनाते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि बारिश में जब खेतों में पानी जमा हो जाएगा, तो पाइप के व्यवधान के कारण वह पूरी तरह से बह नहीं पाएगा और एक नकली बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। पानी के निकास के लिए पाइप में जो सूराख बनाया गया था, वह इतना छोटा है कि समूचा पानी उसमें से नहीं निकल पाता। तेलंगावा के निवासियों के साथ यही हुआ। पिछली बरसात में एक रात तेज बारिश और जमा होता हुआ पानी निकास की कोई राह न पाकर गाँव पर ही चढ़ आया। सौभाग्य की बात थी कि समय रहते अधिकांश लोग अपना घर-बार छोड़ कर भाग निकले।
इसी उजाड़ गाँव के आगे हम खड़े थे। ऊपर शक्तिनगर का विराट पावर स्टेशन था, आधुनिक प्रगति का गर्वोन्नत प्रतीक। नीचे तेलंगावा के सूने, सुनसान खंडहर, जहाँ कुछ दिन पहले जीती-जागती बस्ती थी, वहाँ अब कुत्ते लोट रहे थे। हमें बताया गया कि जब गाँव के कुछ प्रतिनिधि अपनी विपदा की कहानी ले कर शक्तिनगर के अधिकारियों के पास पहुँचे, तो उनका सीधा-सा जवाब यह था : 'इस गाँव को तो उखड़ना ही था। यह अच्छा ही हुआ कि लोग अपने-आप चले गए।'
यदि औद्योगीकरण के नशे में शासन-सत्ता अपने देश के जीवंत, हाड़-मांस के लोगों के प्रति इतनी सनकी और 'सिनिकल' हो सकती है, तो इस देश के प्राकृतिक जीवन-पानी, हवा, जंगलों के प्रति - वह कोई समझ, सूझ-बूझ और सहानुभूति बरतेगी, इसकी आशा करना ही व्यर्थ है। थर्मल पावर स्टेशनों का निर्माण तो खूब जोर-शोर के प्रचार के साथ हुआ है, किंतु उनसे हमारे देश की नदियों और वायुमंडल में जो भयंकर प्रदूषण फैलता है, उसे रोकने के लिए हमारी शासन-सत्ता और अधिकारी कितने सचेत और क्रियाशील हैं, इसकी जानकारी किसी को नहीं मालूम। यदि हम कुछ देर के लिए 'औद्योगीकरण की अनिवार्यता' का तर्क मान भी लें, तो भी प्रश्न रह जाता है कि क्या हमें अपने देश की भूमि, जन-संस्कृति और पर्यावरण की नितांत उपेक्षा करके उसी ढंग और पैमाने पर पश्चिम के औद्योगिक ढाँचे की नकल करनी होगी, जिसका विकास एक खास ऐतिहासिक संदर्भ में हुआ था और जिसकी हमारे देश के जातीय चरित्र से दूर की समानता नहीं? दुनिया की अन्य सभ्यताओं की तुलना में भारतीय संस्कृति का यह एक विशेष संस्कार रहा है कि उसने कभी मनुष्य को प्रकृति से ऊपर नहीं माना, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के बीच एक ऐसे पवित्र और संतुलित संबंध की परिकल्पना की है, जहाँ दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, एक-दूसरे के पोषक हैं। यही कारण है कि जहाँ अन्य देशों में 'औद्योगिक क्रांति' के दौरान पुरानी जातियों और कबीलों का बड़े पैमाने पर संहार हुआ, वहाँ भारत में हजारों वर्षों से आर्य जातियाँ और आदिवासी एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रह सके हैं क्योंकि दोनों में चाहे कितनी सांस्कृतिक भिन्नता क्यों न रही हो -एक बात समान रही है - प्रकृति और परिवेश के प्रति गहरा आत्मीय लगाव।
पश्चिम में इसी लगाव के अभाव में पर्यावरण का भीषण संकट उत्पन्न हुआ है। कितना क्रूर व्यंग्य है कि भारत, जो अन्य देशों के लिए कम-से-कम पर्यावरण के मामले में एक उज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत कर सकता था, आज पश्चिम से कहीं ज्यादा निर्मम और नृशंस ढंग से अपनी प्राकृतिक संपदा की नोच-खसोट करने में लगा है। पश्चिम में कम-से-कम जंगलों के काटने अथवा जल या वायु को प्रदूषित करने के खिलाफ कुछ नियमों का तो पालन होता है। हमारे देश में तो राज्यमंत्री से ले कर जंगल के छोटे-से-छोटे अधिकारी को रिश्वत दे कर समूचे जंगलों को ट्रकों पर लाद कर कारखानों में झोंका जा सकता है। प्रदूषण के खिलाफ नियम अनेक हैं, किंतु कोई भी नियम ऐसा नहीं जिसे बड़े-से-बड़े उद्योगपति से ले कर छोटे-से-छोटा ठेकेदार आसानी से न तोड़ सके। आज स्थिति यह है कि पश्चिम से विशेषज्ञ भारत आते हैं, ताकि पर्यावरण के महत्व के बारे में हमें शिक्षित कर सकें!
सिंगरौली के पास बीना एक छोटा-सा औद्योगिक नगर है। वहाँ हमारी मुलाकात एक युवा कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता ओमप्रकाश मालवीय से हुई, जिन्होंने बीना के कोयला-खदानों के मजदूरों को संगठित किया है। उनसे मिल कर हमें सुखद आश्चर्य हुआ। न केवल मजदूरों की अवस्था की बारे में, बल्कि अपने प्रदेश की खनिज संपदा और पर्यावरण के संबंध में उनकी गहरी जानकारी थी। उन्होंने हमें बताया कि बीना में बिड़ला के रेणुसागर पावर स्टेशन से निकलनेवाले धुएँ से इतना अधिक प्रदूषण होता है कि पचास प्रतिशत फसल पर सफेद पर्त जमा हो जाती है, जिसके कारण फसल तो नष्ट होती ही है, लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। सार्वजनिक विरोध के बावजूद रेणुसागर की चिमनियों में अभी तक फिल्टर नहीं लगाया गया, जिससे हवा में फैलती विषैली गैस को रोका जा सके। रेणुसागर के उद्योगपति बिड़ला परिवार को हर साल बारह करोड़ रुपए का लाभ होता है, जबकि फिल्टर लगाने की लागत सिर्फ एक करोड़ है।
वायुमंडल की गंदगी को दूर करना उद्योगपति का कर्तव्य भले ही न हो; आत्मा को स्वच्छ रखने का उत्तरदायित्व वह अच्छी तरह निभाता है। रेणुकूट में हमें एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया; विंध्य पर्वतों से घिरे इस सुंदर शहर के एक छोर पर बिड़ला जी ने अल्यूमिनियम का एक विशाल कारखाना खड़ा किया है। शहर के दूसरे छोर पर एक छोटी-सी पहाड़ी पर एक भव्य मंदिर भी दिखाई देता है, जो किसी देवी-देवता के नाम से नहीं, हमेशा की तरह 'बिड़ला मंदिर' के नाम से ही जाना-पहचाना जाता है। किंतु इस बार इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कि 'मंदिर मैंने ही बनवाया है?' मंदिर के विशाल प्रांगण में एक तरफ घनश्यामदास बिड़ला और दूसरी तरफ उनकी धर्मपत्नी की विशाल मूर्तियाँ भी आमने-सामने खड़ी हैं, हाथ जोड़े एक-दूसरे का अभिवादन करती हुईं। मंदिर में खड़े हुए मेरी आँखें अनायास सामने की पहाड़ी पर जा टिकीं, जहाँ अल्यूमिनियम कारखाने की विशाल चिमनी समूचे शहर पर अपना काला, विषैला, धुआँ उगल रही थीं। अचानक खयाल आया कि चिमनी में फिल्टर न लगा कर बिड़ला जी ने पैसा बचाया होगा, उसी से शायद यह मंदिर भी बनवाया होगा, किंतु क्या उन्हें यह खयाल नहीं आया होगा कि बरसों बाद धुएँ की जहरीली परतें मंदिर के उस विशाल प्रांगण को भी ढक लेंगी, जहाँ उनकी और उनकी पत्नी की भव्य मूर्तियाँ खड़ी हैं? और तब मुझे उस क्षण वह मंदिर बहुत ही अधिक लज्जास्पद जान पड़ा। जब हम किसी धर्म के प्राकृतिक परिवेश की पवित्रता दूषित कर देते हैं, तो उसके बाहरी प्रतीक - चाहे वे मंदिर हों या मूर्तियाँ - मरी हुई देह पर सोने के आभूषणों-से अश्लील जान पड़ते हैं।
मरी हुई देह? मुझे अचानक सुबह की घटना याद हो आई। और तब लगा, मृत्यु के भी अनेक चेहरे होते हैं। कुछ पत्थर में मढ़े हुए साफ और चिकने, कुछ सड़क के किनारे धूल में लिथड़े हुए... बदहवास चीखों के बीच सुन्न और हैरान। हम सुबह बीना से मोटरसाइकिल पर रेणुसागर देखने जा रहे थे। अचानक देखा, रास्ते पर एक ट्रक उलटी पड़ी है और नीचे मैदान में बारह-तेरह घायल मजदूर औरतें अलग-अलग मुद्राओं में लेटी हैं, बैठी हैं, कराह रही हैं, रो रही हैं। आसपास कुछ दर्शक घेरा बना कर खड़े थे, जिसमें पुलिस का एक सिपाही भी था किंतु सब निश्चल और चुप थे। मोटरसाइकिल से उतर कर हम ट्रक के पास आए। पूछने पर पता चला कि ट्रक इन औरतों को कोयला-खदानों और कारखानों में काम के लिए ले जा रहा था। ड्राइवर अक्सर बहुत तेजी से ट्रक चलाते हैं, ताकि कम-से-कम फेरियों में ज्यादा-से-ज्यादा मजदूरों को ले जाया जा सके। आश्चर्य था कि इस दुर्घटना में ड्राइवर को कोई चोट नहीं पहुँची थी, वरना वह इतनी जल्दी लापता कैसे हो जाता?
औरतों की हालत दयनीय थी। पता नहीं, किसको कितनी चोट पहुँची थी! ट्रक उलटते ही पीछे बैठी औरतें एक साथ नीचे आ गिरी थीं। हाथ, पैरों पर खून के थब्बड़ धूप में चमक रहे थे, किंतु जैसा हमारे देश में होता है - न पुलिस के सिपाही, न किसी दर्शक के दिमाग में यह खयाल आया था कि इन्हें तुरंत अस्पताल भिजवाने की व्यवस्था की जाए। सौभाग्य से मालवीयजी हमारे साथ थे। उन्होंने एक ट्रक को जबरदस्ती रुकवाया, फिर हमने उन अधलेटी, अधबैठी कराहती औरतों को उठा कर किसी तरह ट्रक में डाला। मैंने देखा कि दर्शक, जो अब तक तटस्थ मुद्रा में खड़े थे, हमारा हाथ बँटा रहे थे और तब मैंने सोचा कि हिंदुस्तान में कोई भी व्यक्ति खुद अगुआई करने से कतराता है, किंतु जब कोई आदमी हिम्मत बटोर कर पहल करता है, तो बाकी लोग अपनी उदासीनता छोड़ कर उसकी मदद करने में आगा-पीछा नहीं देखते...
ट्रक को अस्पताल पहुँचाया गया, किंतु इस बीच पीछे रोने की आवाज और तेज हो गई थी। ट्रक के पिछवाड़े का दरवाजा गिराया गया, गुडमुड पोटलियों की तरह आपस में सिमटी, सिसकती औरतों को गोद में ले कर नीचे उतारा गया - सिवाय एक औरत के, जो एक कोने में शांत पड़ी थी। मैंने प्रश्न-भरी निगाह से युवक को देखा, जो ट्रक पर खड़ा था।
'इसे नहीं उतारोगे?'
उसने चुपचाप सिर हिलाया, 'कोई जरूरत नहीं - यह तो बीच में ही खत्म हो गई।'
बहुत देर बाद जब हम बस में रेणुकूट जा रहे थे, इसी युवक ने मुझसे पूछा, 'आपको कैसा महसूस हुआ होगा?' मैं कुछ समझा नहीं। उसने धीरे से कहा, 'आपने जिस बुढ़िया को ट्रक में चढ़ाया था, वही नहीं रही, शायद आप आखिरी आदमी थे, जिसने उसे छुआ था!'
सिंगरौली में वह हमारी अंतिम शाम थी। उस रात रेणुकूट के स्टेशन पर हमने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी थी। ट्रेन की खिड़की से मैं देर तक अँधेरे में विंध्याचल की धुँधली पहाड़ियों को सरकता हुआ देखता रहा। और तब उस रात अपनी बर्थ पर ऊँघते हुए अचानक मुझे कुप्रीन की कहानी 'मोलोक' याद हो आई, जिसका अनुवाद मैंने मुद्दत पहले किया था। मुझे याद आया, 'मोलोक' शब्द का हिंदी पर्याय मिलने में मुझे कितनी परेशानी हुई थी? दैत्य? दानव? बलि देवता? कोई ऐसी अति मानवीय शक्ति, जो धीरे-धीरे अपने शिकंजों में समूची चराचर सृष्टि को दबोच लेती है, हर व्यक्ति की नियति को ग्रसती हुई काली, लंबी छाया, जिससे कोई छुटकारा नहीं...
मुझे लगा जिस शब्द का अर्थ मुझे बरसों पहले शब्दकोश में नहीं मिला था, उसका 'चेहरा' मैंने सिंगरौली में देख लिया था।
किंतु इस चेहरे के पीछे एक फोटोग्राफ भी है, जो मैं अपने साथ लाया हूँ, अमझर की एक दोपहर पानी से भरे धान के खेत के बीचोंबीच अपने मित्र के कंधों पर बैठा हूँ, सिर पर चटाई का हैट पहन रखा है और मेरे साथ काली, साफ सुंदर आदिवासी लड़कियाँ भी खड़ी हैं - पानी में घुटनों तक डूबी हुईं। उन्होंने भी हैट पहन रखा है - और वे मुझे देख कर खिलखिलाते हुए हँस रही हैं!