सिंघवा उवाच / दीर्घ नारायण
प्रशान्त महासागरीय विशाल जलराशि के ऊपर से लम्बी यात्र करते हुए मैं सचमुच थक गयी हूँ| जलराशि से होकर दूरस्थ क्षेत्रों की यात्रा पर निकले पोतों में सवार मानव भले ही मेरे तीव्र बहाव को यदा-कदा झेलते हुए काँप उठते हों, कदाचित अपशब्द भी कह डालते हों, पर मेरा स्पर्श व शीतल प्रवाह ही तो इस जल संसार में उनका एकमात्र हमसफर और मार्गदर्शक है| तभी तो वे कभी-कभार आँख मूँद कर मेरे साथ होने का अनुभव जीते हैं और मुझे पाकर आनन्दित हो उठते हैं| उफ! मैं सचमुच वाचाल हूँ| काफी पीछे छूट चुके जल-पोतों में मैं कहाँ अटक गयी| जलपोतों-जलबेड़ों की कथा और कभी सुनाऊँगी, अभी तो मैं आर्य-भूमि की पूर्वी सीमा को छूने वाली हूँ| आर्यावर्त के किसी शान्त उपवन में पंच-दिवसीय लम्बी यात्र की थकान मिटाऊँगी| विश्रामस्थली कहाँ बनाऊँ!....कहाँ?......कहाँ?......आर्यावर्त भू-धारियों ने इसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान जैसे भू-भाग के नाम भले ही दे रखे हों, पर मुझे तो ये सम्पूर्ण भू-भाग ही प्यारा लगता है| वैसे तो आदिकाल से ही आर्यावर्त का पश्चिमोत्तर क्षेत्र विश्राम के लिए मेरा इच्छित क्षेत्र रहा है, क्योंकि उससे आगे की शुष्क क्षेत्रीय लम्बी यात्रा से पहले आर्यावर्त के पश्चिमोत्तर हरित-उतंग-बर्फीली क्षेत्र में विश्राम से बहुदिवसीय ऊर्जा जो मिल जाती है| परन्तु अब तो उन प्रदेशों- अन्तरप्रान्तों में बारम्बार हो रहे कर्कश ध्वनियों एवं कारूणिक रूदन से मन खिन्न हो उठता है| मध्य आर्यावत में विश्राम करना भी श्रेयस्कर रहा है, पर पिछली कई दशकों में वहाँ चयनित विश्राम स्थल का अनुभव भी तो क्लेशपूर्ण रहा है| मध्य आर्यावर्त का विशाल भूखण्ड तो अब
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अवांछित-अनैतिक गतिविधियों से आक्रान्त है| हाँ, उत्तरी आर्यावर्त के हिमालीय तलहटी में पिछले कई विश्राम का सुखद अनुभूति अभी भी मन को आकर्षित कर रही है| वहाँ के विशाल वन-उपवन में फैली चिरकालिक शान्ति और दोषमुक्त वातावरण अखण्डित श्रान्ति बेला प्रदान करता है| फिर वहाँ के मानवों का अभी भी अपने वन-उपवन-नदी- जीव-जन्तु से मित्रवत सम्पर्क, सम्बन्ध क्रियाशील है और ऐसा ही वातावरण तो जीव-जगत के आरम्भ काल से मेरे लिए रूचिकर रहा है| अरे, मैं स्व-वार्ता में लीन रही और मदहोस-सी उड़ती-उड़ती बंग प्रदेश के ऊपर उथल-पुथल मचाने लगी! ओह, सदियों-सदियों से मैं इन भद्रजनों को तेज झटके देते हुए निकलती रही हूँ, इन्होंने शायद मुझे आजतक माफ नहीं किया है| चलिए, मैं ही क्षमा मांग लेती हूँ| मैं कर भी क्या सकती हूँ, प्रशान्त क्षेत्रीय विशाल जलराशि में तीव्र गति से मुझे निकलना पड़ता है, सो मलय-कम्बोज-जावा-सुमात्र-निप्पान (जापान) के भू-खण्ड पर अधिकतम संभलकर उतरने पर भी उथल-पुथल-हलचल सी मच जाती है| आर्यावर्त पहुँचते-पहुँचते हलचल धीमी होने के बावजूद भी कुछ-कुछ असामान्य सी बनी रहती है| परन्तु इस बार किसी को कष्ट में डाले बिना मुझे हिमालीय तलहटी में अशापित विश्राम पाना है| सो उत्तर-पूर्वी हिमालय की तलहटी से होकर धीमी गति से निकलना श्रेयस्कर रहेगा......... ''आ-आ-ऊ-ऊ-ऊ.....हा-हा-ऊ-ऊ-ऊ-बा-बा-ऊ-ऊ-ऊ-ऊ.....'' ये तो किसी वृषभ की आवाज है| वृषभ को तो मैं हजारों वर्श से जानती हूँ; गौवों-वृषभों के झुण्ड जंगल-जंगल विचरण करते थे, मेरे लहरों-झोकों में झूम उठते थे| फिर कोई तीन-चार हजार साल पहले पृथ्वी के विभिन्न भागों में मानवों ने उसे जंगलों से पकड़कर अपने साथ चलना-
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फिरना उठ-बैठ आगे-पीछे सिखाकर अपने लिये उपयोगी बना लिया| जब से मानवों ने उसे अपने साथ रखा है, मेरे साथ उनका झूम उठना मचल उठना थोड़ा मन्द पड़ गया| पर मैं तो हर पल उनके साथ रही हूँ| वैसे भी मुझे पृथ्वी की हर चीज प्यारी है, सो मैं सभी जीव-निर्जीव को स्पर्श करते-संवाद करते आगे बढ़ती हूँ| गाय-बैल बेशक मानव के साथ रहे हैं, पर मैं तो उनके साथ रही हूँ, उनसे संवाद करती रही हूँ| मुझे याद है, मानव-जीवन का उपयोगी अंग बनते ही उन्हें पूजा जाता रहा है; गायों और बाद में भैंसों के भी, दूध से मनुष्य ने ऊर्जा पायी है| जंगली सभ्यता से निकलकर आवासीय सभ्यता बसाने में बैलों ने उनकी सर्वाधिक मदद की है| विकास-अवस्था से ही मानव देह का मांसाहारी होना सर्वथा स्वाभाविक रहा है, पर कृषि-विकास हेतु वन-सीमितता व शिकार-क्षीणता के कारण संसार के कुछ भागों में तो मानवगण बैल- पाड़ा(पड्डे/पड़वा)-गाय-भैंस की अस्थि-मज्जा-मांशपेशी से अपनी क्षुधा मिटाते-तृप्त होते आये हैं| चिरकाल से बैलों की आवाज में मैंने कोई परिवर्तन नहीं पाया-सुना है| लेकिन आज तो ये किसी बैल की कारूणिक उद्गार-चीत्कार सी जान पड़ रही है| जीव-जन्तु-वनस्पति की ध्वनि के शब्दार्थ व वाणी-निहितार्थ समझने का स्नायु-केन्द्र तो पिछले कुछ दशकों से बन्द पड़ा है मेरा| बन्द भला क्यों नहीं होगा; धरती में चारों ओर बढ़ी रही मानवीय कोलाहल-हाहाकार-चीत्कार और मानव जनित चिघाड़-शोर- धड़ाम-तड़ाम से मेरे कर्ण कपाट को फुर्सत मिले तभी तो मैं अपने प्राकृतिक संगियों की ध्वनि की भाषा समझने का समय निकाल सकूँ| पर आज तो मुझे वृषभ की इस कारूणिक ध्वनि के भाब्दार्थ को समझना-सुनना है| सो उत्तर हिमालीय तलहटी के बजाय आज सामने उस आम्र-उद्यान में उतरना उचित रहेगा.........
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''अरे बड़ा चालू चीज है, पुठ्रठे में मारो स्साले को, तब धड़धड़ाकर ऊपर भागेगा''- एक तगड़ा बैल को चूतड़ में चमड़े वाली चाबुक से दनादन देते हुए काला-कलूटा व्यक्ति लाल-पीला हो रहा है| बैल की उम्र कोई चार-पाँच साल की होगी| तगड़ा-छरहरा देह, पूरे भारीर में उज्जवल वर्ण में कहीं-कहीं गेहुँआ रंग की खिलती-हँसती सी बड़ी-बड़ी चित्ती| ऐसा तगड़ा-जवान बैल से पहले तो वर्शों तक काम लिया जाता था और स्वामी की धन-लक्ष्मी सी होती थी| पर ऐसे हतभागी वृषभ को अब तो युवावस्था की दहलीज पर ही घर-निकाला खेत-निकाला मिल रहा है! तीन-चार व्यक्ति ट्रक के पिछवाड़े से जमीन पर टिके तख्ते पर बैल को चढ़ाने का संयुक्त उपक्रम कर रहे हैं| वाहन के अन्दर प्रवेश करने से नहीं रोक पा रही हूँ अपने को......... उफ! इस ट्रक में तो दसियों बैल-पाड़ा-बूढ़ी गायें-बूढ़ी भैंसे ठूँसी पड़ी हैं| जब से इस धरती पर मोटर वाहन का जन्म हुआ है, ऐसे पशुओं को वाहनों से धरती के कोने-कोने में सदयतापूर्वक ढोये जाते देखती रही हूँ; पर इतनी कम जगह में इतने सारे जानवरों को निर्दयतापूर्वक ठूँसे हुए तो कतई नहीं! पिछले दो दशकों से धरती के इस पार से उस पार तक अपनी यात्र के दौरान अब तो ऐसी क्रूरता देखने को विवश हो जाती हूँ| पर आज पहली बार किसी वृषभ की आवाज में कोई पुकार सुनाई पड़ रही है| कभी अपनी माँ का प्यारा रहा हुआ और आज सुबह तक अपने स्वामी का नयनतारा सा यह युवा वृषभ यहाँ व्यथित-सा पड़ा है, बल्कि अचेत बैठ गया-सा है, शायद अपनी वेदना सुनाना चाह रहा है| अब इसी वृक्ष पर बैठ कर उसके मुँह से निकल रही ध्वनि के निहितार्थ को शब्दमय करती हूँ|
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''अरे भई, पाँच ट्रक तो तिरछिया पुल पार कर चुकी होंगी, यह ट्रक पिछड़ गयी तो समझो आज रात को बंगाल बॉर्डर पार नहीं कर पायेंगे| हमने पैंतीस बैल, चालीस पाड़ा, पन्द्रह भैंस और नौ गाय का एडभांस ले रखा है| कल सुबह तक सातों ट्रक नहीं पहुँची तो हमारी फजीहत समझो''- लम्बा कद, श्यामला-सा भरा बदन और आँखों में काला चश्मा चढ़ाये व्यक्ति इस कारोबार का स्वाभाविक स्वामी लग रहा है| फिर तो काले-कलूटे ने वृषभ को चाबुक से तीन-चार सटा-सट दे मारा है और बाकी खड़े दो व्यक्ति भारीर में बिजली सी दौड़ाते बैल को पिछवाड़े से धकेलने लगे हैं, ऊपर ट्रक की ओर| पर वृषभ तो दोनों जबड़ों को विस्तारित करते हुए आर्द्र ध्वनि निकाल रहा है, जिसका शब्दार्थ मैं कुछ यूँ सुन रही हूँ- ''आ-आ-अ-अ-ऊ-ऊ........ मेरी अभी तो सारी उम्र पड़ी है, देश- दुनिया निहारने की, घर से खेत-खलिहान तक दौड़ लगाने की| मुझे किसी के भी खेत में लगा दो, जिन्दगी भर जी भर कर खेत जोतुँगा| फिर चाहे बुढ़ापे में जैसी मर्जी हो सजा दे देना, पर अभी मुझे किसी अनजान जगह पर मत ले जाओ|'' रंभाते-रंभाते उसकी आँखों से आँसू के दो गोले लम्बे मुँह के घने रोयें से बहते हुए नथुने तक टपक आये हैं| फिर सहसा उसके दोनों जबड़े आपस में मिलकर मौन को आमंत्रित कर दिया है| ''अरे भई, आज सुबह तो रामनरेश के बथान पर यह भला-चंगा फुदक रहा था, अभी न जाने स्साले की क्यों फट रही है तख्ते पर पैर धरने में''- चाबुक वाला व्यक्ति हैरान-परेशान सा दिख रहा है|
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''मा-आ-आ-ऊ-ऊ-ऊ....... मुझे डर सा लग रहा है, तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो; कहीं वहीं तो नहीं जहाँ जाकर हमारे भाई-बहन-माँ-बाप कभी नहीं लौटे...... जब मैं छोटा था, अपने साथी-संगियों के साथ अपने घरों में-रास्तों में-खेत की पगडंडियों में और कभी-कभी तो खेत-खलिहानों में धूम-चौकड़ी मचाया करते थे| तब तो हमारे गाँव में सैकड़ों बछड़े, पाड़े, हुआ करते थे| आज सुबह तक तो मैं भी बेफिक्र-अनजान था, पर अब तो मुझे काफी डर लग रहा है- धीरे-धीरे हमारे लोग कहाँ गायब हो रहे हैं? अबतक तो मैं जवानी के जोश में उफन रहा था, दुनिया-जहाँ से नाताल्लुकात सा| पर अब मुझे कुछ समझ में आ रहा है, कि पिछले दो- तीन सालों के अन्दर कुर्रा बैल, चितकबरा बैल, दन्ना बैल, ठोकिया बैल जैसे हमारे सैकड़ों भाई और सटका पाड़ा, तड़का पाड़ा, लमका पाड़ा, घुड़का पाड़ा, दनदनिया पाड़ा, बिगरू पाड़ा जैसे सैकड़ों पाड़ा भाई धीरे-धीरे क्यों गायब होते गये हैं| मुझे तो पक्का यकीन होने लगा है, वे सभी अब इस दुनिया में नहीं हैं......'' उसने ट्रक की ओर वाली आँख महत्तम फैलाकर वहाँ लद चुके अपने भाई-बन्धु-माताओं-चाचिओं को कातर दृष्टि से देखा, फिर जबड़ों के बीच से हताश आवाज फूट पड़ी है- ''आ-ओ-ऊ-उ.......तुम लोग ट्रक में बैठे-बैठे जुगाली कर रहे हो, मन बहला रहे हो, पर भूल रहे हो कि जिस ट्रक पर सवार होकर आराम फरमा रहे हो, वो ट्रक नहीं यम-यान है, अन्तिम यात्रा वाहन!'' मुँह जम्हाते हुए उसकी आवाज निकल ही रही थी, कि कुर्ताधारी ने उसकी पूँछ ऐंठकर मरोड़ दिया है- ''उठ स्साला-उठ.....कल तक तो सभी बाछी पर चढ़ने के लिए हवा में पैर मार रहा था, आज चूतड़ में लकवा मार गया है क्या'' तीव्र पीड़ा से कराह उठा है वह, याचना करते हुए-
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''हू-ऊ-ऊ-ऊ-ऊ-उ-उ-उ-उ-म-म्-म्..........तुमलोगों को हम बछड़े-बैल लोग अपनी सम्पूर्ण सेवा देते आये हैं, कभी कुछ मांगा नहीं अपने लिए, फिर अब इतने निष्ठुर क्यों बन रहे हो| हमारे भाई-बन्धु सदियों से तुम्हारे खेत जोतते आये हैं| सामानों-लकड़ी-लट्रठों से भरी तुम्हारी गाड़ी खींचते आये हैं, जिसे तुम हमारे ही नाम पर बैलगाड़ी पुकारते रहे थे; तुम्हारे खलिहानों में अनाजों पर दिन में सैकड़ों-हजारों चक्कर लगाकर दाने निकालते रहे हैं| ठीक है, अब तुम्हारे खेतों में ट्रैक्टर उतर गये हैं, तुम्हारे खलिहानों में थ्रेसर-कम्पन जम गये हैं, तुम्हारे सड़कों पर मोटर गाडि़याँ-ट्रक-रेल दौड़ लगा रही और इसलिए अब तुम्हें हमारी जरूरत नहीं रही; पर मुझे इस तरह बेरूखी से पीटते हुए विदा मत करो.......|'' रम्भाते-रम्भाते उसकी छाती धौंकनी जैसी फूलने लगी है| कहीं दौरा पड़ गया हो! काला-कलूटा काफी देर से उतावला हो रहा है; अपने आकलन से समझदारी दिखाते हुए वह अग्रसोची हो गया है- ''लगता है, इस बैल को मिरगी जैसी कोई पुरानी बीमारी है| इसे अभी ट्रक में लादकर ले जाना खतरे से खाली नहीं है| कहीं रास्ते-वास्ते में ट्रक में ही मर गया तो आगे बड़ा भंयकर लफड़ा हो जाएगा| स्साले पुलिस वालों को पैसा देते-देते दम निकलता है, मरा बैल देखेगा तो पाँच- छ: प्रकार के रंग-बिरंगे-डरावने दफा का पताका लहरायेगा| देखो भाई रामनरेश, इस एक बैल के कारण मैं अपने सातों ट्रक रिस्क में नहीं डाल सकता| अब तो अंधेरा भी होने को है, तुम रात में इसकी रखवाली यहीं कराओ| कल नवगछिया वाली दस ट्रक दोपहर को इधर से गुजरेगा तो लदवा देना| तब अगर ये भला आदमी जैसा ट्रक पर नहीं चढ़ेगा तो चार मोटे-मोटे बल्ली और मजबूत रस्सा का इंतजाम करके रखना; सात-आठ लोग हाथों-हाथ उठाकर ट्रक में डाल देना| चलो गाड़ी स्टार्ट करो.......
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और हाँ, रामनरेश! बैल पहरेदारी में रात को मंजरवा को रखना| तुम्हारा वह नौकर तो असली कसाई है| बैल पगहा खींचकर भागने का लाख कोशिश करे, वह पगहा थामे रहेगा; भले ही बैल के जोर से उसका हाथ लहूलुहान हो जाय, पर मरते दम तक वह पगहा छोड़ेगा नहीं|'' आज का काम यहीं समाप्त कर कलूटा और ठेकेदार गाड़ी में जा बैठा है| असली ठेकेदार होने का आत्मविश्वास उसके चेहरे में दमक रहा है|
अच्छा, तो ये है मंजरवा यानि बैल-पड्रडे-गाय-भैंस को सख्ती से संभालने वाला नौकर मंजरवा! तभी तो ठेकेदार उसे कसाई कह रहा है| मंजरवा मायने आदेश का गुलाम| मंजरवा अर्थात गाँव का अल्पबुद्धि वाला किशोर, पर धुन का पक्का! मंजरवा यानि गाँव का अनपढ़-बेवकूफ- नासमझ-नालायक| उम्र से किशोर, पर बुद्धि विकास में बच्चा से भी नीचे|
तो आज रात इसके हाथों में है इस बैल की पहरेदारी| फिर सुबह ट्रक में लदकर बैल को चले जाना है दूर-देश, अज्ञात-ज्ञात गन्तव्य की ओर! अरे, आसमान की ओर घूरते हुए वृषभ ने तो अब अपनी आँखे धीरे-धीरे बड़ी कर लिया है| शायद अन्तरिक्ष में कैद हजारों वर्ष की गाथा-कथा का चलचित्र देख रहा हो| वर्षों पीछे-आगे देखने-सूंघने की भाक्ति कदाचित जन्तुओं में उतर आती है| इस बैल के आँखों-जबड़ों-नथुनों-कानों के हाव- भाव से लग रहा है, कि वह अपनी सम्पूर्ण व्यथा सुनाना चाह रहा है| तो मैं आज इसी उद्यान में रात्रि-विश्राम करूँगी| मुझे वृषभ-वार्ता सुननी है|
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''रे सिंघुआ! सब लोग चले गये ट्रक में लदकर और तुम पीछे छूट गये| तुम चढ़ नहीं पाये ट्रक में? अरे! तुम्हारे पैर कितने मजबूत तो हैं हाथी के बराबर| गाँव में सभी कहते हैं कि तुम्हें अचानक कोई बीमारी जाग गयी थी| अरे बुढ़बक, तुमने तो मरवा दिया मुझे आज रात-भर इस मच्छड़-झंखड़ में''- रामनरेश का नौकर चौदह-पन्द्रह वर्षीय मंजरवा बैल के पास आते ही क्रोधमय हो उठा है| पर सिंघुआ में तो अपनत्व जाग उठा है- ''हो-ओ-ओ-ऊ-ऊ-.......'' सिर हिलाते हुए बैल भाव-विभोर हो उठा है| ''अरे काहे को हो-हो कर रहा है, आज अपनी बोली-आवाज भी भूल गये क्या! तुम तो सब दिन हिम्म-हिम्म आवाज करके बोलता था| अपनी आवाज को ट्रक में लदवा दिया क्या!! अरे कितना अच्छा होता, ट्रक में लदकर दालकोला-सिलिगुड़ी-पोवाखाली देखते-सुनते देश-दुनिया की सैर करते| मेरे मालिक तो कहते हैं कि वे तुम्हें दूर वाले रहमान चाचा के खेत में भेज रहे हैं| सुना है, वहाँ बैल-पाड़ा के बड़े-बडे़ घर हैं| एक दिन में सैकड़ों बैल-पाड़ा का काम होता है| और कहते हैं कि वहाँ तुम लोगों को खाने को बड़ी अच्छी-अच्छी घास-पतवार है| धत् बेवकूफ, गये क्यों नहीं नयी-नयी घास चरने'' सिंघुआ का कान हौले से मसलते हुए मंजरवा खिन्नता प्रकट कर रहा है| ''हिम्म-हिम्म-म-म-म्-म्........ मेरे मित्र तुम्हें असलियत नहीं पता! सुनोगे तो तुम्हें शर्म आयेगी मनुष्य कहलाने पर| तुम्हारी मनुष्य जाति इस धरती का सबसे स्वार्थी जीव है......'' सिंघुआ की कातर आवाज से चिढ़कर मंजरवा उसके गर्दन-पीठ-कान को ऐंठते हुए ऊबे मन से सहला रहा है| सिंघुआ के स्मरण क्षेत्र में वृषभ-
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कथा अंकित होती जा रही है| सिंघुआ की आवाज कभी जोर से तो कभी धीरे से निकल रही है| ''ह-अ-अ-व-व........ हे मंजरवा, तुम हमारी कथा सुनो, हो सके तो दुनिया को सुनाना...... दसियों हजार साल पहले! हमलोग कम घने और उथले जंगलों में अबाध-निर्बाध विचरण करते-हरित घास चरते-सींग लड़ाते-उधम मचाते फिरते थे| हमारे पूर्वजों को नहीं पता कि धरती में कब आये कैसे आये| हाँ, इतना जरूर याद है कि हजारों साल तक हम जंगलों में ऐसे ही उन्मुक्त विचरण करते रहे, अपने-आपको भ्रमण-क्षेत्र का स्वामी मानकर| वह सचमुच हमारे लिए सर्वाधिक सुखद समय था| जंगलों में दहाड़ने-चिंघाड़ने वाले भोर-बाघ-हाथी जैसे बलशाली स्वामी भी हमारे साथ न्याय से पेश आते थे| ऐसा कभी नहीं हुआ कि वे महीनों तक सिर्फ हमारा शिकार किये हों| बल्कि वे तो हमारा शिकार कभी-कभार ही किया करते थे......... ''ह-ऊ-ऊ-म-म्-म्........ हाँ हाँ! हमें ठीक-ठीक याद है, तब तुम्हारे लोग भी जंगल-जंगल भटका करते थे- जानवरों को मारकर पेट भरा करते थे| उस समय तुमलोग आज की तरह कपड़े में नहीं होते थे बल्कि हमारे तरह ही मुक्त-अवस्था में रहते थे| पर हमलोगों जैसा वर्षा-पानी-गर्मी-ठंड को यथावत झेलते रहने के बजाय तुमलोगों ने गुफाओं-कन्दराओं में रहना शुरू कर दिया था| उन्हीं दिनों की बात है, हमारे एक पूर्वज ने अपनी टोली में भविष्यवाणी की थी, कि दो पैरों पर चलने वाले ये जीव अत्यन्त ही चालाक हैं, इनसे होशियार रहो.......'' ''रे सिंघुआ, पेट दर्द कर रहा है क्या, जो बीच-बीच में अजीब डकार निकालते रहते हो| मालिक को बोलूँगा, कल हरवंश घोड़ा डाक्टर से दवाई
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देकर ही तुम्हें रहमान चाचा के पास भेजेगा''- बीच-बीच में बैल के बोल उठने से मंजरवा किंचित परेशान हो उठता है| ''ह-ऊ-ऊ-य-र-र.......नहीं मंजरवा भाई, आगे हमारी कथा में दर्दनाक मोड़ आ रहा है| कोई पाँच हजार वर्ष पुरानी बात है| हमें अपनी माताओं का दूध पीता देख तुम्हारे लोगों ने भी हमारी माताओं के स्तनों में सीधा मुँह लगाकर दूध का स्वाद चख लिया| फिर हमारी सभी माताएं-बहनें तुम्हारी बन्धक हो गयी; परन्तु हम बछड़ों को एक साल उम्र पार करते ही अकेले जंगलों की ओर दौड़ा देते थे| उस वक्त हम बछड़े अपनी- अपनी माताओं को याद कर महीनों रोया जरूर करते थे, पर जल्द ही बिछुड़न को भूल खुश हो उठते थे, कि चलो आजाद तो हैं......म् - म् - म् -अ.......'' ''रे सिंघुआ, तुझे सुबह लम्बी यात्र पर निकलना है, इसलिए अपना मुँह बन्द कर आराम कर और मुझे भी आराम करने दे''- मंजरवा खिन्न है, उसे नींद जो आ रही है| उसे भला क्या पता बैल अपनी पीड़ा सुना रहा है| ''हिम्म-म-म्-म्-हम्म-हम्म-ह्र-ह्र..... आज मुझे अपनी पूर्वज-कथा झलक रही है, आज रात मुझे कथा बाचने दे मंजरवा...... तो सुनो, जल्द ही हमारी आजादी छिन गयी| कोई पाँच हजार साल पुरानी बात है; हुआ यूँ, कि जंगल-जंगल भटकते-भटकते तुम्हारे पुरखों ने एक दिन अचानक खुली जगह में उग आये ज्वार-बाजरे का स्वाद चख लिया| वे उछल पड़े| खुशी में सराबोर वे सभी नाचने-चिल्लाने लगे| उनकी खुशी की लहर पूरी धरती में दौड़ पड़ी| हमारे पूर्वजों ने मानवों की खुशी का कम्पन भूकम्प जैसा महसूस किया| फिर क्या था, तुम्हारे पुरखे खाली पड़ी जमीनों को स्वयं जोतने का पराक्रम आरम्भ किया| पर सफल न हुए| तब उन्होंने
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हमारे पूर्वज बैलों को जंगल से लाकर खेतों में लगाया| हमारे कंधों पर जुआ रखा गया| हमें आगे-पीछे दाएं-बाएं चलना-मुड़ना सिखाया| आर्यावर्त ही नहीं, अफ्रीका, कनाडा, स्कैंडेनेविया, न्यू इंग्लैंड, ससेक्स, नोवा स्कोटिया, कोस्टारिका, और और दुनिया के कोने-कोने में, धीरे-धीरे ही सही, हमारी बदौलत बड़े-बड़े खेत तैयार किये तुम्हारे पुरखों ने| फिर तो सालो-साल अनाज की पैदावार बढ़ती ही गई| तुम्हारे पूर्वजों ने घर बनाया, घर बसाया| हमारे लोगों का भी ख्याल रखा| हमें अपने सोने के कमरे के बगल में ही रखा| सुबह-शाम उसकी सफाई-देखभाल किया| फिर तो दुनिया के कोने-कोने में तुम्हारी मानव-सभ्यता विकसित हुई- हड़प्पा घाटी-मोहनजोदड़ों की सभ्यता, वैदिक सभ्यता, फारस की सभ्यता, माया सभ्यता, पीली घाटी सभ्यता, मिस्र की सभ्यता, रोम की सभ्यता; धीरे- धीरे और भी कई सभ्यताएं........स-अ-म्म-म्-म्.........'' ''रौ सिंघुआ, तुम आज चाहे जितनी आवाज कर ले, बकबका ले; तुम्हें तो कल जाना ही पड़ेगा'' लगता है, मंजरवा अब बैल की बोली का संकेत समझने लगा है| ''म-म्-म्-........ईम्म-म-म्-....... मंजरवा भाई, तुम्हारे घरवालों ने तुम्हें ठीक से पढ़ने नहीं दिया, इसलिए तुम्हें नहीं पता| पर जो लोग पढ़े-लिखे हैं, जिसे पूरी कहानी पता है, वो भी तो भूल बैठे हैं कि हमारे लोगों ने भारू से ही अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है मानव-सभ्यता के लिए, मानव के विश्राम के लिए, स्थिरता मिश्रित गतिशीलता के लिए| फिर विश्राम बेला के एक ऐसे ही खाली समय में एक महामानव पूर्वज के दिमाग में 'कुम्हार की चक्की' पैदा हुई जिसने तुम्हारी पूरी दुनिया ही बदल डाली और चिंतन आगे बढ़ता गया........
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''खेतों में जोतने के बाद तुम्हारे लोगों के तीव्र दिमाग में बैलगाड़ी का आविष्कार हुआ| हमारी आँखों के सामने बैलगाड़ी के एक-एक अंग- प्रत्यंग- जुआ, फड़, बल्ली, खुटहरी, चचरी, पिछुआ, तेतला, धुरी, नाहा बने और जुड़े! हमने कितनी उत्सुकता से एक-एक सामान बनते-जुड़ते बैलगाड़ी का निर्माण होते देखा था| फिर बिना देर किये हमलोगों ने बैलगाड़ी के जुआ को अपने कंधों पर रख लिया था, बिना किसी संकोच हिचकिचाहट के; क्यों! क्योंकि तुम्हें आगे बढ़ना था और हमें साथ देना था| फिर तो खेतों में हम ढेर सारे अनाज उपजाते रहे और बैलगाड़ी से उसे दूर-दराज के क्षेत्रों में ढोते रहे| फिर वापसी में उतना ही सामान, लकड़ी का गठ्ठर आदि लाकर तुम्हारे घर भरते रहे| तुम्हारे मानवों ने जितने जानवरों को पाला, अपने पास रखा, प्यार दिया उनमें से सिर्फ हमारे भाई-बन्धु ही ऐसे हैं जिनमें तुम्हारे खेतों को जोतने ओर गाड़ी उठाने-ढोने की क्षमता थी| यहाँ तक कि तुम्हारे सर्वप्रिय घोड़े में भी नहीं! समय आगे बढ़ता गया, हम तुम्हारे और करीब आते गये| फिर धीरे-धीरे तुम्हारे लोगों ने हमारा साज-श्रृंगार शुरू किया| पर्व-त्योहार और अन्य अवसरों पर हमारे सिंगों में रंग-बिरंगे झालर-झोप पहनाये गये, गले में घुंघरू-घंटी बांधा और पूरे भारीर में कपड़े के रंग-बिरंगे पहनावे-ओढ़ावे सजाया| फिर तो तुम्हारे भाई-बहन-माता-पिता सभी बैलगाड़ी में बैठकर समय के साथ हवा के साथ झूम उठे| और फिर तुम्हारे मानव-सभ्यता की गाड़ी चल पड़ी अनन्त सफर पर...... ''हमने तुम्हारे लिये पर्याप्त अनाज पैदा किया, सभी जरूरी साजो-सामान ढोया-पहुँचाया; तभी तो तुम्हारे लिए 'खाली वक्त' नाम की चीज का पदार्पण हुआ| और फिर उसी 'खाली वक्त' का ही परिणाम निकला कि तुम्हारे मस्तिष्क को आराम और फिर चिंतन मिला- चिंतन नये
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आविष्कारों का, नई खोजों का, नये और टिकाऊ रिश्तों का, शब्दों का, भाषाओं का....... आज देश-दुनिया में जो कुछ है, जो हो रहा है, वे सभी उसी आरम्भिक 'खाली वक्त' की कड़ी मात्र ही तो हैं.......ह-ह-म्म- म्म........'' ''अब तुम्हें जाना ही है कल भोर में, तो बड़बड़ाने से क्या फायदा| तुम चाहे जितना चिल्ला लो, जोर लगा लो, तुम्हारी कोई नहीं सुनेगा| आजकल तो सभी अपने-अपने बाछा-पाड़ा को जवान होते ही खिसका देते हैं ठेकेदार-पैकार के हाथों में; रखकर क्या करेंगे भला| अब न तो खेतों में हल रहा, न सड़कों पर बैलगाड़ी| तो भला बैल-पाड़ा का क्या करें| चुप रहने में ही तुम्हारी भलाई है''- मंजरवा करवट बदल-बदल कर बोल उठता है, लग रहा है अब उसे भी नींद नहीं आ रही है| ''हि-इ-इ-ई-ई-ह-अ-ह-अ-उ-उ......... अपने पढ़े-लिखे, समझदार और विद्वान लोगों से पूछना, कि क्या वे श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध, जीसस क्राइस्ट, पैगम्बर मुहम्मद, गुरू नानक देव से बड़े विद्वान और समझ वाले हैं| शिवजी ने तो अपनी सारी सार्थक यात्रएं हमारी सवारी में ही की थी| श्री कृष्ण तो हमारे भाई-बहनों के बीच ही पलकर बड़े हुए थे| वे तो हमारे कुल के सबसे बड़े संरक्षक थे, इसलिए तो उसे गोविन्दा भी पुकारते हैं| तुम्हारे पूर्वज तो हमें पूजते आये हैं, तभी तो उन्होंने सभी ऋक् ग्रंथों में उचित और सम्मानित जगह दिया है हमें; अन्न व गौ आदि को ही तो धन-सम्पदा मानते हुए तुम्हारे ऋषियों ने लिखा है- अग्नेवाजस्य गोतम ईशान: सहसो यहो| जंगली गुफाओं के सानिध्य में रहने वाले हमारे गोवंश को तुम्हारे पूर्वजों ने यत्नपूर्वक हस्तगत किया था, तभी तो ये मंत्र् उच्चारित हुए थे- वीलु चितारूजत्नुभिर्गुहा.......
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''यहाँ तक कि, बोधिसत्व हो जाने के बाद भी श्रीबुद्घ ग्रामे-ग्रामे नगरे- नगरे प्रवचन के क्रम में रात्रि विश्राम में गाय-भैंस के दुग्ध मात्र ग्रहण कर तुष्ट होते थे| ''हमारी बलिष्ठ, पर स्वार्थ रहित सेवा एवं सीधापन पर ही तो जीसस ने कहा था- कम अन्टू मी, ऑल ये दैट लेबर एण्ड आर हैवी लैडेन, एण्ड आई विल गिव यू रेस्ट. टेक माई योक अपऑन यू, एण्ड लर्न ऑफ मी; फॉर आई एम मीक एण्ड लोवली इन हर्ट: एण्ड ये भौल फाइण्ड रेस्ट अन्टू योर साउल्रस. फॉर माई योक ईज इजी, एण्ड माई बर्डन इज लाइट.
''फिर समयान्तर में पैगम्बर मुहम्मद ने भी तो अपनी लम्बी-लम्बी यात्राओं के दरम्यान दूर-दूर तक लहलहाते खेतों और हमारे द्वारा ढोये जाते भारों को देखकर ही तो हम लोगों पर मेहरबान से हो उठे थे; और हमारे पीठ-गर्दन पर हाथ फेरते हुए हमें दुआ दी थी- कि तुम खुदा की खास नेमत है, आदमी की सहूलियत-खिदमत में लगे रहो| ''देश-दुनिया के भ्रमण के दौरान हरीतिमापूर्ण खेतों, अनाजपूरित खलिहानों, भवेततरलधारी गोशालाओं व धन-धान्यपूर्ण गृहों पर मोहित होकर ही तो गुरूनानक देव जी ने रब की ओर हाथ उठा लिए थे- हे रब दा मालिक अपने भक्तों को गो सम्पदा से पूर्ण रखना...... ह-ह-म्म- म्म........|''
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''भाई सिंघुआ, तुम वि वास करो न करो, मैं अगर पढ़ा-लिखा विद्वान होता, मेरे पास अपने थोड़े बहुत पैसे होते तो मैं तुम्हें ठेकेदार के हाथ बिल्कल नहीं बेचता, हमेशा अपने पास रखता|'' यह क्या! बैल की भाषा न समझते हुए भी मंजरवा उसकी व्यथा की भाशा समझने लगा है| ''य-ऊ-ऊ-उ-उ-उ-उ........यह कहाँ का इन्साफ है, हमारे बल पर आज यहाँ पहुँचे हो, मंजिल मिल गयी समझ कर हमारे योगदान को भूल बैठे हो| सभ्यता के आदिकाल से तुम जगते ही सबसे पहले मुझसे राम-सलाम करते थे| दिन भर साथ जीते-मरते थे, फिर रात को सोने से पहले मेरे सिंग में तेल मलकर, पीठ में हाथ धरकर, कंधे सहलाकर सोने की इजाजत मांगते थे| तुम्हारे इसी प्यार का ही फल था कि जब तुमने धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक जोत डालने की ठान ली तो हमारे लोग भी पीछे नहीं हटे| लाखों वशों से जंगल-झाड़ से अटी-पटी रहने वाली धरती भास्य-यामला हो मचल उठी, लहलहाते फसलों से महक उठी| गेहूँ, धान, ज्वार, बाजरा, दाल, मकई, गन्ना और भी अनगिनत फसलों से लबालब तुम्हारे घर सुख-समृद्घि के मन्दिर बनते गये| यहाँ पूरब में राजे-रजवाड़े से रियासत-सियासत तक का सपना पूरा हुआ तो उधर पश्चिम में मेनोर से काउन्टी तक की श्रृंखला परिपक्व हुई.... ''तुम्हारी सभ्यता बढ़ती गयी-निखरती गयी| हमारे लिए तुम्हारा प्यार बरकरार रहा, बल्कि बढ़ता गया; तभी तो कुछ दशक पहले की ही तो बात है जब इल्म फार्म ओली नाम की हमारी माता को तुमने हवाई जहाज की यात्र करायी थी| और भूलना मत कि हवाई जहाज में ही दूध दुहकर हमारी बिरादरी का सम्मान बढ़ाया था| तुम्हारे लोगों को तो पता होगा ही, अभी हाल ही की बात है, कोस्टारिका की बैलवाही एवं बैलगाड़ी परम्परा को यूनेस्को ने ''मानवता की अदृ य सांस्कृतिक विरासत'' की
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प्रतिनिधि सूची में शामिल किया है| फिर हम जैसे वफादार और लम्बे समय तक निस्वार्थ साथ निभाने वाले को अपने से दूर कर मरने-कटने के लिए भेज रहे हो.......म्-म्-म-म.........'' ''मेरे भाई सिंघुआ, सचमुच तुम्हारी तबियत बिगड़ी लग रही है| पिछली बार तुम्हारे पेट में दर्द था तो तुम काफी आवाज निकाल रहे थे| हरवंश डाक्टर के दवाई से ठीक हो गया था तुम| पर आज अलग-अलग किस्म की आवाज तुम्हारे अन्दर से निकल रही है, शायद इस बार पेट में नहीं सीने में दर्द होगा; लाओ मैं तुम्हारा सीना सहला दूँ........ देखो भाई, समय को किसने देखा है, आदमी के मन को किसने रोका है| शहर बढ़ते जा रहे हैं, गाँव सिमट रहें हैं, खेती कम पड़ रही है, खेतों में ट्रैक्टरों ने कब्जा जमा लिया है, हल-बैल नाम की चीज रही नहीं, गाँव-गाँव में गाडि़याँ दौड़ रही हैं, बैलगाड़ी जैसी कोई चीज अब किसी को याद नहीं| इसलिए गाँव-गाँव से बछड़े-पाड़े जवान होते ही गायब हो रहे हैं, कुछ पैसे मिल जाते हैं, बस! और क्या! किसको कौन समझाये रे सिंघुआ......''- मंजरवा उसके सीने और कंधे को सहलाता जा रहा है........ ''ऊ-हु-हु-उ-उ........ मेरे पुरखे गवाह हैं, उस दिन धरती में एक क्रान्ति उत्पन्न हुई थी जिस दिन मानव के हाथ से पहला तीर छूट पड़ा था, भले ही अनायास| आज के मानव भले ही मन-मुग्ध हैं कि उसने बड़े-बड़े आविष्कार कर डाले हैं; परन्तु तब अंगूठे से पहला तीर छूटना इस धरती का अबतक का सबसे बड़ा आविश्कार था| तब वह आविष्कार मानव की क्षुधा पूर्ति के प्रयास का परिणाम था जो हजारों साल तक उनके काम आया| तब से अब तक इस आविष्कार की अगली कड़ी बढ़ती गयी-जुड़़ती गयी और तुम्हारी सभ्यता बुलन्दी तक पहुँचती गयी| पर अब तो तुम्हारे लोगों ने इस तकनीक को क्षुधा पूर्ति नहीं बल्कि स्व
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अहं तृप्ति व पर मान-मर्दन का साधन बना लिया है| ऐसे मानवों से हम क्या उम्मीद करें क्या प्रार्थना करें........का-अ-ए-ए.......'' ''मेरे प्यारे सिंघुआ, हमारे गाँव में लड़की शादी के बाद विदा होकर जाने लगती है तो रोती है, पर यहाँ पर तो तू मर्द का बच्चा होकर रो रहा है| मुझे तेरा दर्द पता है भय्या, अब मुझे लगने लगा है कि तुम किसी चाचा-वाचा के घर नहीं, कहीं कटने जा रहा है| अब तो मैं भी समझने लगा हूँ कि मेरे गाँव में और बगल के गाँवों में बड़े होते ही बछड़े-पाड़े गायब क्यों हो जाते हैं|'' पूर्व दिशा में उग आये भोर-कावा तारा देखकर अब मंजरवा भी भावुक हो उठा है| अरे, ये वृशभ तो अब मन्द आवाज में ऊँचा-मध्यम स्वर निकाल रहा है| आह! यह आवाज तो गेय शब्दों से घुली-सी है और काफी मर्मान्तक जान पड़ती है| यहाँ पेड़ पर बैठकर मैं इन गेय शब्दों का तात्पर्य नहीं पकड़ पाऊँगी| उसके नजदीक जाकर आगे-पीछे मन्द-मन्द टहलती रहूँगी; इससे वृषभ बेचैनी थोड़ी कम होगी, साथ ही उसकी व्यथा को मैं अपने अन्दर समाहित-सुरक्षित कर पाऊँगी; धरती के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए........ ''का-अं-अं-कं-यं-यं-र-र-.........क्या तुम्हारी मानव-जाति की सेवा देने में हमारी ओर से कोई कमी रह गयी थी? ''क्या हम पूरी लगन और मेहनत से तुम्हारे खेतों-खलिहानों में पाँच हजार साल तक नहीं जुते? ''क्या तुम्हारे पूर्वजों ने अ वों के साथ-साथ हमें पाने के लिए ई वर से ऐसी कामना नहीं की थी- सेमं न काममा पृण गोभिर वै:........? ''क्या तुम्हारी गाडियों को हम अपनी पूरी ताकत से पाँच हजार सालों से नहीं खींचे आ रहे हैं?
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''क्या हमारी ही भाक्ति का उदाहरण देकर तुम्हारे ऋषियों ने ऋग्वेद में नहीं लिखा- वृशायमाणो......? ''क्या यह सच नहीं है कि हल के आगे हम होते और पीछे होते थे तुम? ''क्या तुम भूल गये कि सावन में खेत जोतते हुए उमड़ आये बादलों को देखकर तुमसे अधिक हम झूम उठते थे? ''खलिहानों में अनाज की मड़नी-दवनी करते वक्त अनायास वर्षा की बूंदें टपकते ही अनाजों के सम्भावित नुकसान से चिंतित मेरे अन्दर उत्पन्न होती छटपटाहट को क्या तुम नहीं पढ़ पाये? ''क्या तुम्हें याद है, हजारों वर्षों तक किये जाते रहे हमारे श्रम का क्या मजदूरी मिली है हमें आजतक?? तुम्हारे साथ चलते-चलते धरती में यत्र-तत्र उग आये घासों को चरने का क्षणिक अवसर मात्र ही तो!!! ''तो फिर क्या हजारों साल पुराने हमसफर को अब सिर्फ गर्दन कटने के लिए पालते हो दो-चार साल? ''अपने प्राचीनतम वफादार के साथ इस कपटपूर्ण विशासघात का भार लेकर तुम मानवजाति क्या धरती पर निष्कलंक होकर जी पाओगे? ''तुम अपने परिवार के साथ मेला-बाजार जाते हो, रंग-बिरंगे कीमती सामानों से अपनी कार भर लेते हो तो क्या अपने बच्चे को मेले-बाजार में ही छोड़ देते हो.....अ-अ-म-म-म्...?'' ''बाप रे बाप! तुझे आज ये क्या हो रहा है सिंघुआ भाई! कभी दबी तो कभी ऊँची आवाज में आज कैसे रम्भाने लगे तुम? मैंने आजतक किसी बैल के मुँह से ऐसी आवाजें निकलते नहीं सुनी| लगता है जैसे तुम मुझसे कुछ पूछ रहे हो| ऐसा लग रहा है कि तुम हमारे गाँव वाले से काफी नाराज हो| देख सिंघुआ, गाँव वालों की बात मैं नहीं बता सकता, पर मैं यदि तालिम हासिल किया होता, अल्लाह ताला मुझे भारीफ
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इंसान बनाता, मेरे पास दो-चार बीघे खेती होती और मेरे पॉकेट में भी साल भर बिना मांग-भांग किये पेट भरने का इन्तजाम होता, फिर यदि तुम मेरे घर की दौलत होते तो मैं अपने अब्बा से गुजारिस करता कि तुम्हें कसाईयों के हाथ न दें| मैंने लोगों के मुँह से सुना ही है, कि मुखियाजी के पास इतनी तो नाजायज कमाई है, धनपुर वाले पप्पू एम.एल.ए. तो साल भर में ही धड़ाधड़ गाड़ी पर गाड़ी निकालता है और पटना-दिल्ली में कोठी पर कोठी बनवाते जाता है, दौलतपुर वाले करीमुद्दीन ठेकेदार पाँच साल में ही दो फैक्ट्री खोल लिया है, गरीबपुर वाले दयासागर इंजीनियर भाहर में चकाचक सुप्पर मार्केट बनवाता जा रहा है और सूरजपुर वाले डाक्टर साहब दस साल में ही आकाश तक छूने वाला अस्पताल खोल लिया है; पर मेरे भेजे में यह बात नहीं आ पा रही है, कि फिर भी इन्सान का पेट नहीं भर पा रहा है तो तुम्हें कसाई के हाथ बेचकर पेट भर जाएगा क्या?.... तुम बुद्धू क्या समझते हो, कि मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आती है!'' अरे! मैं यह क्या देख-सुन रही हूँ! इस पृथ्वी में मानव और पशु को आरम्भिक काल से विकसित होते मैंने देखा है| पिछले चार-पाँच हजार वर्शों से मानव और वृशभ का सहचरी देख रही हूँ| पर आज पहली बार एक अचरज देख रही हूँ| एक वृषभ और एक मानव एक दूसरे की आवाज को दिल की भाषा में समझ रहे हैं| मुझे तो स्पष्ट दिख रहा है, कि दोनों की भावनाएं एकाकार हो उठी हैं| इस पृथ्वी पर मेरे उत्पन्न होने के बाद ही जीवन का पहला अणु का जन्म हुआ था, जो पृथ्वी का सर्वप्रथम और एकमात्र जीव-बिन्दु था| अभी यहाँ पर मंजरवा और सिंघवा तो मुझे उसी जीव-बिन्दु का प्रतिरूप दिख रहा है| तभी तो दोनों एक दूसरे के अबूझ आवाज के वाणी-भाव को समझते-समझते इस प्रकार
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एकीकृत हो गये हैं, जैसे दोनों साक्षात एक ही भाषा में वार्तालाप कर रहे हैं...... ''मु-ऊ-उ-उ...... हमारी प्रजाति के एक पूर्वज ने कभी कहा था, कि मानव तो उल्टी खोपड़ी का जीव है| शायद इसलिए कहा था कि मानव- मस्तिष्क का सर्वाधिक गुणकारी भाग आगे केन्द्रित नहीं है| यदि ऐसा होता तो प्यार-मुहब्बत-भाईचारे का उपवन होती यह दुनिया अबतक| अब तो इसकी उल्टी खोपड़ी वाली हरकत उफान पर है; तभी तो हमारी प्रजाति की मादा के लालन-पालन प्यार-दुलार में कोई कमी नहीं किया है, पर स्वयं अपने घर में कन्या का जन्म एक अवांछित घटना होती है| दुनिया का ऐसा कोई भाग नहीं जहाँ मानवमादा उपेक्षित-प्रताडि़त-दमित- शोषित न हो| यहाँ तक कि धरती के कई हिस्सों में कन्या-भ्रूण हत्या में मानव अपार मुक्ति व तुष्टि हमसूस करता है| हे उल्टी खोपड़ी वाले! हम जैसे चिरकालिक सेवक के लिए सिर सीधा करके सोचो तो तुम्हारा भी अनन्त-कालीन कल्याण होगा...... ह-ह-म्-म-म....'' ''मेरे दिलदार सिंघुआ, अब तो सुबह होने पर है; तुम चले जाओगे तो मुझे तुम्हारी बहुत याद आयेगी| मैं तो छोटी उम्र से ही रामनरेश मालिक के घर खट रहा हूँ, तुमको तो पैदा होने के दिन से लेकर इतने सालों तक देखता आया हूँ| मुझे तो सचमुच तुम्हारे साथ बड़ा मजा आया| तुम्हारी जात बड़े भले लोग हैं| जब मैं तुम्हें चराने के लिए, फिर खेत- जोती सिखाने के लिए ले जाता था तो तुम सचमुच कितने भले आदमी जैसे चलते थे; बिल्मुल मेरे बगल-बगल में, न ज्यादा आगे न ज्यादा पीछे; जब मैं तेज चलता था तो तुम भी तेज चल देते थे, जब मैं पेशाब-पखाना को रूकता था तो तुम भी बिना हिले-डुले खड़े रहते थे| अब मैं भी समझने लगा हूँ, कि मनुष्य ने बाघ, भालू, हाथी, कुत्ता,
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घोड़ा, गधा, बिल्ली सभी को पाला पर तुम बैल-पाड़ा को ही क्यों खेती- बाड़ी में लगाया! अरे भई, इसलिए न, कि तुम दमदार होने के साथ-साथ बड़े सीधे-भोले-समझदार हो| और जैसा कहा जाता है वैसा ही उतना ही करते हो| मनुष्य का क्या मजाल, कि किसी और जंगली या पालतू जानवरों से खेती-बाड़ी-गाड़ी करवा लेता|'' ''उ-उ-ऊ-उ......हे मेरे भाई! अब तो मेरा अन्तिम समय आने ही वाला है, इसलिए कटु सत्य कहने से क्या डरना| ठीक है, मानव इस धरती में बड़े-बड़े काम करता आया है, आगे भी करेगा शायद; पर उसका विचार- केन्द्र पिछड़ता जा रहा है| हम बैल-पाड़ा मानवों के प्राचीनतम व दीर्घतम अवधि के सर्वाधिक वफादार सेवक हैं, पर हमारी प्रजाति का इस घृणित रूप में असामयिक अन्त से बड़ी धूर्तता और हृदयहीनता कोई हो सकती है? मेरी नजर में एक मायने में अब तो मानव पशु समान होता जा रहा है; अब उसके पास हर सुख-साधन मौजूद है, पर सोचने का समय खत्म हो रहा है| काश! तुम्हारे लोग एक क्षण भी सोचने का कष्ट उठा पाते, कि हम बैल-पाड़ा कोई निर्जीव वस्तु नहीं हैं, बल्कि सजीव हैं; मानव जैसे हमारे अन्दर भी दिल, जिगर, गुर्दा, पेट, आँत, फेफड़ा, आँख, कान, नाक, जैसे जीवित अंग हैं| सबसे बढ़कर हमारे पास भी स्वस्थ मस्तिष्क है; लेकिन इस मृत्यु-बेला में भी मुझे मानवों पर हँसी आ रही है, कि वे हम बैल-पाड़ा को बे-दिमाग वाले मानते-कहते आ रहे हैं| अरे मूढ़ मानव! यदि हम बे-दिमाग होते तो तुम आज यहाँ तक नहीं पहुँचते| इसलिए मेरे भाई, हम बैल-पाड़ा तुम्हारे मानव से क्या इतनी भी अपेक्षा नहीं रख सकते, कि वे कम से कम हम सेवक के साथ एक सजीव प्राणी जैसा व्यवहार करें; क्योंकि हम लोग धरती, पहाड़, जंगल, नदी, हवा, पानी जैसे निर्जीव नहीं है| मानवगण धरती को बंजर कर कंकड़-पत्थर से
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भरता जा रहा है, जंगल लूट-कूट कर मरूस्थल बना रहा है, पहाड़ को हमारी गाय माताओं जैसी दुहकर नंगा कर रहा है, अपनी विलासिता के नशे में डूबकर नदी-झरने के पानी की मौलिकता को नष्ट करता जा रहा है, पेट-सुख एवं देह-विलाश के भँवर में चिर वायु को अल्प आयु में बदरंग करता जा रहा है| पर ये धरती, पहाड़, जंगल, नदी, हवा, पानी बेचारे तो मूक-वधिर हैं, सो बेचारे बे-आवाज सा सुध-बुध खोते जा रहे हैं| पर ये भूलना मत कि बे-जुबान यदा-कदा इतनी तेज गर्जना करेंगे कि तुम्हारी मानव जाति थर्रा उठेगी| पर मैं तो वाणीधारी प्राणी हूँ, इसीलिए समय रहते ही बोल रहा हूँ कि तुमलोग मानसिक सन्निपात से उबरो; सभी का ख्याल करो क्योंकि प्रकृति ने तुम्हें नाना प्रकार के सजीव व निर्जीव साधन से सम्पन्न कर रखा है| और अनन्त काल तक सुविचार पूर्वक धरती को संवारने-बरकरार रखने की जिम्मेदारी भी तो तुम्हारे कंधों पर डाला है प्रकृति ने| इसलिए क्या हमारी सेवा का पारिश्रमिक दोगे...... व-अ-उ-ह-ह-उ-उ.......?'' मंजरवा प्रकट रूप में स्व-वार्ता पर अप्रकट रूप में वृषभ-वार्ता में लीन हो गया है........ ''हाँ! एक बात और, घोड़ा हो या कुत्ता या बिल्ली या फिर गधा, हगते तो सभी हैं हमारे गाँव-घर में; पर सिर्फ गाय-भैंस-बैल-पाड़ा का ही गोबर इस्तेमाल में आ पाता है| आज भी खेती के लिए गोबर के खाद जैसी कोई खाद किसी फैक्ट्री में नहीं बनती है| तुम्हारे गोबर के गोयठे-कण्डे का तो जवाब नहीं! आग जलाकर जड़ी-बुटी सुलगा दो तो धुएँ से धांय- धांय सारी बीमारी फुर्र....... ''अब छोड़ो सिंघुआ, मेरे मन का सपना मन में ही रह जाएगा| अब तो बैलगाड़ी धीरे-धीरे खत्म ही हो गयी है| किसी-किसी गाँव में एकाध ही
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बचा है| दो-तीन साल पहले प चिम टोला के इकराम भाई के बारात में बैलगाड़ी का मजा लिया था| सोचा था, तुम बड़े अच्छे बैल हो, शायद मालिक कोई बैलगाड़ी बना ले तुम्हारे लिए| अब सोचने से क्या फायदा| हाँ, दादाजी की कही कहानी जरूर याद रहेगी.......बैलगाड़ी से बड़े-बुजुर्ग मेला-हाट जाते थे, अनाज बेचकर घर का सामान लाने; घर के लोग- बच्चे-औरतें देर रात तक पलक बिछाये गाड़ी लौटने का इन्तजार करते थे, सामान आने की| रात को बैलगाड़ी जब गाँव की सीमा पर पहुँचती थी तो बैलों के घुंघरू की आवाज सुनकर घर के लोग बेकरार हो मचल उठते थे, बैलगाड़ी के दरवाजे लगने की| सचमुच तुम और तुम्हारी बैलगाड़ी कितनी प्यारी सी चीज थी|'' ''हम्म-म् -म् -म्....... हमारे साथ व सहयोग से ही तो तूने सभ्यता का आरम्भ किया था, इसे आगे बढ़ाने के लिए हमने दिन-रात अपना खून- पसीना बहाया है, तुम्हारी सभ्यता आज यहाँ तक पहुँची है तो क्या इसे यहाँ तक लाने में हमारा योगदान अब तुम्हें याद भी नहीं है? ''चलो मान लिया, तुम हमें बे-काम की चीज मानकर मरने-खपने के लिए बेच रहे हो, तो फिर शिवजी की सवारी हमारे प्रतिरूप नन्दी को पूजना छोड़ सकते हो क्या? ''तुम्हारी सभ्यता आने वाले शदाब्दियों में यहाँ से और आगे जानी है; पर मध्य पड़ाव में ही अपने दीर्घकालीन सहभागी का साथ छोड़ दिया है पिछले दशक से| तो तुम्हार यह व्यवहार कहीं इसी श्रृंखला की पहली कड़ी तो नहीं है, कि तुम अब धीर-धीरे अपने बुजुर्गों का भी साथ छोड़ रहे हो? ''इसकी अगली कड़ी कहीं ये तो नहीं होगी कि पति-पत्नी जैसे तुम्हारे अनुपम रि ते आजीवन न रहकर दैनिक हो जायेंगे?
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''फिर तो उससे आगे की कड़ी ये तो नहीं होगा कि तुम मानव अपने नवजात बच्चों को भी अपनी जिम्मेदारी न मानकर छोड़ते जाओगे? ''तो क्या मैं गलत भविष्यवाणी कर रहा हूँ कि आने वाले शताब्दियों में तुम मानव अकेला-अकेला सा हिलता-डुलता चलता-फिरता दौड़ता-भागता मशीन मात्र तो नहीं रह जाएगा? ''आप मेरे बालसखा हैं, मंजर भाई, मेरे जन्म से ही आप मेरे सुख-दु:ख में सहभागी रहे हैं| हमारे वृशभ परिवार, साथ ही पाड़ा परिवार का एक सन्देश मानव जाति तक पहुँचा देना- मानव बच्चे की भाँति बछड़े भी तो अपनी माँ के पास ही सोते हैं, तभी तो आपने जब दुनिया के पहले मंत्र्- संग्रह की रचना की तो आपके मुखारविन्द से सर्वकालिक सत्य-मंत्र उच्चारित हुए- '' गये सहवत्सा न धेनु:....... हाँ, यह सत्य स्वीकारा है आपने कि बछड़े तो गायों के पास ही सोते हैं; आपके बच्चे भी तो आपके पास सोते आ रहे हैं|अपने रचित मंत्र् का पालन करना आपके लिए सम्भव नहीं है तो मेरी माताओं को भी आजाद कर दो!! मैंने शायद आपकी कमजोरी पकड़ लिया है; यह सच है न, कि मेरी माताओं-चाचियों के बगैर आपकी मानव-जाति अपंग हो जाएगी| मशीनी सभ्यता में नाना प्रकार की मशीनें बना ली आपने, तो क्या दूध देने वाली मशीन बना पाये अबतक? ''मुझे पता है, अवसरवादिता के संगम में तैरते मानव के लिए यह सम्भव नहीं है, कि मेरी माताओं को भी अपने से अलग कर दें| तो फिर अन्त में, सिर्फ एक मांग करता हूँ; यूँ समझ लो, पिछले पाँच हजार साल की सेवा का एक मात्र पारितोषिक मांग रहा हूँ- कि जंगल से लाकर हमें अपने खेतों-खलिहानों का खेवनहार बनाया; इन खेतों-खलिहानों से निकाल दिये हो, तो कसाईघर न भेजकर फिर से उसी जंगल में छोड़
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दो| मैं सर्वव्यापी ईश्वर की ओर से वचन देता हूँ, कि यदि तुम हमें जंगल में छोड़ने का दरियादिली दिखाओगे तो इसी वफादारी के फल से मानव इस पृथ्वी को अनन्त काल तक भोगता रहेगा| तो हे मानव! बाघ- शेर के लिए इतने सारे जंगल सुरक्षित रखे हो तो छोटा सा जंगल हम बैल-पाड़ा के लिए नहीं छोड़ सकोगे? तुम लोगों ने हम पर इतनी बर्बरता शुरू कर दिया है, पर हम अभी भी तुम्हारे हित की बात कर रहे हैं; तभी तो बड़ा जंगल नहीं बल्कि छोटे-छोटे जंगल मांग रहे हैं| बेगारी से मुक्त होकर लाखों मंजर-मनोज को यदि छोटे-छोटे जंगलों में हमारे गोबर को इकट्ठा कराने में लगा दिये जाएं तो अब और खाद फैक्ट्री लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी तुम्हें; और सिर्फ गोबर खाद ही तो इस धरती को बंजर होने से बचा सकती है! तुम मानो या न मानो, हमारी प्रजाति मानव का शुभचिंतक बना रहेगा; यह अलग बात है कि शुभ शब्द जैसी कोई चीज अब तुम्हारे मन-मस्तिष्क में दिख नहीं रही है.....ब-अ-ब-अ-उ-उ......? सिंघुआ भय्या, तुम दिल दुखाने वाली आवाज में रम्भाने लगे हो अब; तुम यही कहना चाहते हो न, कि तुम बैल लोग हमारे दादा-परदादा के लिए ढेर सारा धान-गेहूँ-मसूर उगाया| तुम ठीक ही तो बोल रहे हो| इस हिसाब से तुम्हें कटघर भेजना सरासर गलत है| तुम जैस जवान-जहान बैल को हजार-दो हजार टके खातिर कटने के लिए बेचना भले मानुश के माथे पर बेशर्मी का कलंक है......लो, मैं हिम्मत करके तुम्हें रस्सी से आजाद करता हूँ....... नु-म-म्-म्-म-उ-उ......... अरे भई, तुम मेरी चिन्ता काहे कर रहे हो| तुम्हें बेचकर मालिक ने एकतीस सौ टके लिये हैं न, तो कोई बात नहीं, तुम पहले यहाँ से
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छूटकर दूर भाग जाओ| ठेकेदार को पैसे वापस करने पड़ेंगे, तो मेरे दो महीने के बकाये दाम से मालिक काट लेंगे; जाने देंगे दो महीने का दाम| यहाँ बेगारी करके ही मैं कौन सा बड़ा आदमी बन जाऊँगा| यहाँ तो सभी गाँवों में बी.ए. एम.ए. करके लोग गाँवों से भागकर भाहर-पंजाब कमर घिस रहे हैं| मालिक नाराज होकर मुझे निकाल देंगे तो मैं भी पंजाब- कमाऊ औलाद बन जाऊँगा| चलो, तैयार हो जाओ भागने के लिए| मेरे अब्बा डाँट-डपट करेंगे तो बता दूँगा कि चोर ले गया बैल को....... न-म्-म्-म-उ-उ....... सिंघुआ जोर-जोर से पिछला पैर पटकते हुए रम्भा रहा है और बंधे पेड़ का चक्कर तेजी से काटने लगा है| अच्छा, तो तुम्हें लगता है कि चोर वाली बात पर घरवाले विश्वास नहीं करेंगे....... बोलते-बोलते मंजरवा एकाएक चुप-सा हो गया है| चटाक......... अरे, मैं यह क्या देख रही हूँ! मंजरवा ने अपनी बायीं उंगलियों पर डंडा जोर से दे मारा है, बीच की तीन उंगलियों से रक्त-धारा फूट पड़ी है| फिर उसने वृशभ को रस्सी से आजाद कर दिया है| जा सिंघुआ, अब तुम इस संसार में आजाद बनकर घूमता फिर- मैं अपने अब्बा से बोल दूँगा कि मैंने तो रस्सी कसकर पकड़ रखी थी, पर चोर ने मेरे हाथ में जोर से डंडा चला दिया...... अपने दादा परदादा की तरफ से मैं तुम लोगों से माफी मांगता हूँ सिंघुआ हा-आ-अ-उ-उ-.......
सिंघुआ जमीन पर बैठकर मंजरवा के आगे गर्दन
हिलाता है, अन्तिम शुक्रिया अदा करने के लिए| फिर वह तेजी से दौड़ पड़ा है उत्तर दिशा की ओर, रम्भाते-हम्म-हम्माते; उसके अन्तिम स्वर के वृशभ-वचन यही तो हैं-
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मैं भी गायों के झुण्ड में ही रहुँगा, हम बछड़े तो आदि काल से गायों के झुण्ड में रहते आये हैं| मानव-पूर्वजों ने तभी तो लिखा है- वृशा यूथेव वंसग........
उषा-काल से पहले ही मैं यह विश्राम-स्थल त्याग रही हूँ| सवेरे-सवेरे मंजरवा की प्रताड़ना मुझसे नहीं देखी-सुनी जाएगी| सीधे पश्चिम दिशा की ओर तेजी से बढ़ती जा रही हूँ........ रास्ते में गाँव-गाँव, शहर-शहर, मुझे कई सिंघवा दिख रहे हैं, वृषभ-व्यथा विलापते हुए.........
ऊ-ऊ-ऊ-ऊ-उ....... ह-ह-अ-अ-....... म-म्... ऊ-ऊ-म्-म्....... वा-आ-अ-अ-.......
तेरे पुरखों ने जंगल से हमें लाया| सिखाया-समझाया बगल में बसाया|| पूँछ के ऊपर मारा तो सरपट भागा| दौलतभरी गाड़ी में रात-रात जागा||
युगों तक क्या तेरा साथ नहीं निभाया| क्या हर पल तेरी ही धुन नहीं गाया||
दिन-दिन भर खेत-खेत हल घुमाया| घुमन्तू शिकारी से गाँव-घर बसाया|| धूप-छाँव हो या फिर आंधी-पानी| खेत-खलिहान न छोड़ने की ठानी||
29 क्या था हमारे कठिन श्रम का पारिश्रमिक| राह चलते घास चरने के अवसर क्षणिक|| शताब्दियों तक क्या कुछ नहीं किया तेरा| फिर कटघर में क्यों दम लेते हो मेरा||
गर तू कहता है अपने को मानव बुद्धीजीवी| क्यों नहीं बना देते फिर से हमें जंगल जीवी||