सिंदूर का सामर्थ्य / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
आज सुबह-सुबह 'सुरा' ने कुछ ज़्यादा ही सुरापान कर लिया था। घर आकर जब उसने देखा कि अभी तक नाश्ता नहीं बना है, तो वह आपे से बाहर हो गया। मदहोशी में स्वाभाविक रूप से स्वामी का स्वामित्व अस्वभाविक हो जाता है। उसने लाठी उठाई और पत्नी को ताबड़तोड़ पीटना शुरू कर दिया। पत्नी चीखती-चिल्लाती बाड़ी की तरफ़ भागने लगी। सुरा उसे खदेड़ता हुआ बाड़ी चला गया। वहाँ उसका छोटा बेटा हीरा कुछ बच्चों के साथ खेल रहा था। अमरूद के पेड़ के नीचे एक बड़ा-सा पत्थर गाड़कर, उस पर सिंदूर का टीका लगाकर पूजा कर रहा था। सुरा ने उसे तड़ातड़ दो लाठी जमा दीं। डांटते हुए बोला, "मूर्ख ! गधे ! बारह बरस उमर हो गई, तुझे सिंदूर का सामर्थ्य नहीं पता? पत्थर पर सिंदूर लगाने से वह देवी या देवता बन जाता है रे गधे ! फिर उसे आजीवन पूजना पड़ता है।"
दस वर्ष बाद...
आज हीरा की शादी हो रही है। कुटुंब-बंधु सभी बैठे हुए हैं। पंडितजी मंत्रोच्चारण के साथ सिंदूरदान करवा रहे हैं। एक ज़िंदा इंसान के माथे पर हीरा सिंदूर लगा रहा है। परंतु उसका मन दस वर्ष पीछे का दृश्य देख रहा है...
चीखती-चिल्लाती उसकी माँ भाग रही है। उसके कान में एक आवाज़ गूंज रही है पत्थर पर सिंदूर लगाने से वह देवी या देवता बन जाता है रे गधे ! फिर उसे आजीवन पूजना पड़ता है !