सिंध में सत्रह महीने / नागार्जुन
गर्मी बेहद थी। ट्रेन में रेत उड़-उड़कर इतनी आ रही थी कि सभी आंख-मुंह ढके हुए थे। स्टेशनों पर पानी का मिलना असंभव थाμकई जगह देखा, देहाती लोग पानी के लिए मिट्टी का बर्तन लेकर इंजन की प्रतीक्षा में खड़े थे। पंजाब-सिंध सरहद के इस इलाक़े में पानी की इतनी कमी है कि लोगों को या तो शहर से पानी लाना होता है या रेलगाड़ी के ड्राइवरों की कृपा पर वे निर्भर रहते हैं। दो-तीन प्रकार के मरु-उम्दिदों के क्षितिजचुंबी जंगलों में सैकड़ों ऊंट चर रहे थे। बस ऊंट ही ऊंट और जानवरों का नाम तक नहीं। पथ और पगडंडियां जनशून्य थीं। सहयात्राी एक मुसलमान फ़कीर था। पूछने पर जवाब मिलाμहूरों के उत्पात से छोटे-छोटे स्टेशन बंद हो गये हैं। सुबह हम मुल्तान में गाड़ी पर चढ़े थे। समासहा जंक्शन तक तो पंजाबी वातावरण-सा रहा, उसके बाद हिंदुओं के परिधान में धोती के दर्शन होने लगे। तहमद और पाजामा पंजाब के साथ-साथ पीछे छूट गया। ट्रेन ज्यों-ज्यों सिंधु नद के कछार में आती गयी, त्यों-त्यों जंगल घना होता गया। यह जंगल विराट्काय वनस्पतियों के नहीं थे, तो भी काफ़ी घने थे। रोहड़ी के पास उस महान सिंधु नदी की झांकी मिली कि जिसकी धारा में डूब लगाकर सिकंदर ने अपने देश-देवता जुपीटर को अर्घ्य दिये थे। रोहड़ी सिंधु के किनारे अवस्थित एक प्राचीन नगर है। आजकल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे का जंक्शन होने के कारण उसकी प्रसिद्धि है। पर पहले बड़े-बड़े सूफ़ियों की लीला-भूमि के रूप में ही यह स्थान विख्यात था। अभी भी सूफ़ियों के दो-चार अखाड़े वहां मौजूद हैं। सिंधु के उस पार सक्खर जैसा प्रसिद्ध नगर है। बीच में साधुबेला जैसा प्रसिद्ध टापू पड़ता है। पास में इंजीनियरिंग का महान चमत्कार वह महासेतु है। पंजाब से आनेवाली गाड़ियां यहां काफ़ी देर ठहरती हैं, फिर क्वेटा या करांची की ओर जाती हैं। रोहड़ी स्टेशन पर उतरते ही ‘पल्ला’ मछली के तले हुए बड़े-बड़े टुकड़ों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। जन्मजात मत्स्य-लोलुपता पानी बनकर जीभ पर उतर आयी और मैंने अंदर-ही-अंदर अपने मैथिल पूर्वजों की स्वादवृत्ति को प्रणाम किया। तो क्या प्रणाम ही करके रह गया? नहीं, स्टेशन से बाहर निकलकर सराय में ठहरा और गुरु नानक होटल में बैठकर इत्मीनान से भगवान के मत्स्यावतार की पूजा की। दूसरे दिन पुल पार करके सक्खर देखने गया। बाज़ारों में हिंदुओं को धोती ही पहने पाया। नौजवानों और बच्चों की बात छोड़ दीजिये। अभी कल सुबह तक मैं पंजाब में था, जहां धोती का पहनावा हिकारत की निग़ाह से देखा जाता था। पाधा-पुरोहित, पूजा-पाठ, भोजन-भंडारा के समय धोती पहन लें, तो पहन लें; वरना वे भी पंजाब का भद्र परिधान ही पहनते हैंμचुस्त पाजामा, अचकन या कोट और सिर पर साफ़ा। चादर हुई तो हुई। इस प्रकार पंजाब के दैनिक जीवन से धोती को हिंदुओं ने हटा दिया है। पंजाब ही क्यों, लखनऊ से हम यही हाल देखते आ रहे थे। सिंधु के किनारे-किनारे मीलों तक चली गयी है सक्खर बस्ती। ज़रा दूर हटकर नया सक्खर भी बस रहा है। उस दिन शायद पूर्णिमा थी। हज़ारों नागरिक सिंधुनद 184 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 के दर्शन करने आये थे। दोने में कुंकुम और अक्षत डालकर दीप जलाकर उसे प्रवाह में छोड़ रहे थे। शत-सहस्र दीपिकाओं का वह समूह अरब सागर की ओर बहा जा रहा था। और मैं सिंधी जनता के श्रद्धा-निवेदन का वह मधुर प्रतीक देख-देखकर चित्रा-लिखित-सा खड़ा था। एक वृद्ध सज्जन ने भावावेश में पाकर मुझे छेड़ दियाμकहां से आये महाराज? मैंने संक्षेप में बता दिया और पूछाμनदी के किनारे इस प्रकार श्रद्धापूर्वक दीप बहाते तो मैंने कहीं नहीं देखा है, आपके देश में यह कौन-सी रीति है? वृद्ध सज्जन ने कहाμहम सिंधी वरुण के उपासक हैं। जहां जायेंगे, आप इस देश में यही रीति पायेंगे। उसी प्रसंग में उक्त सज्जन ने एक अनुष्टुप सुनाया- केचिदत्रा निराकाराः साकाराश्च तथाऽपरे। वयं संसार संतप्ता नीराकारमुपास्महे।। अर्थात्μकुछ आदमी तो इस दुनिया में निराकार की उपासना करते हैं, कुछ साकार की; परंतु भव-ताप से संतप्त हम प्राणी निराकार यानी जलमय भगवान् की उपासना करते हैं। मैं यह सुनकर दंग रह गया। आगे कई बार, कई जगह सिंध में इस प्रकार के दृश्य देखने को मिले। उन पर पृथक् ही एक लेख लिखा जा सकता है। प्रकारांतर वरुण की उपासना में यहां के मुसलमान भी भाग लेते हैं। सिंधुनद को ‘दरियाशाह’ जैसे महामान्य नाम से वे संबोधित करते हैं। उस दिन घूमघाम कर साधुबेला भी देख आया। उदासी साधुओं का बहुत बड़ा अखाड़ा है। पांच सौ बीघे का रकबा होगा। साधुओं का बगीचा ठहरा, हिंदुस्तान-भर से तरह-तरह के फलों की गुठलियां ला-लाकर यहां वे लगाते हैं। एक ही जगह आम, अमरूद, जामुन, कटहल, केला, लीची, संतरा, अंगूर, नासपाती, सेब, बेर आदि मैंने वहीं देखे। 2 सत्राह महीने तक सिंध से मेरा संपर्क रहाμहैदराबाद की सारस्वत ब्राह्मण पाठशाला में प्रधानाध्यापक पद पर कुछ दिन, और कुछ दिन सिंध की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मुख्य पत्रा ‘कौमी बोली’ के संपादक रूप में। 1941 की मर्दुमशुमारी के अनुसार सिंध प्रांत की जनसंख्या 45 लाख है, जिसमें 11 लाख हिंदू है। जनता की धार्मिक मनोवृत्ति सूफ़ी और नानकपंथी है। आठवीं सदी के शाहनमाह के अरबी लेख से पता चलता है कि उस समय वहां बौद्ध और ब्राह्मण दोनों ही संस्कृति के लोग रहते थे। सिंध पर अरबी आक्रमण मुहम्मद-बिन-कासिम द्वारा 692 ई. में हुआ। तब से इस भूमि में इस्लामी भावनाओं का प्राधान्य चला आ रहा है। मीरों, कलहारों और नवाबों की सामंतशाही से ऊबकर स्थानीय जनता राजपूताना, गुजरात और पंजाब में जा बसी और सिंधुनद के उपजाऊ इलाकों को आगंतुकों के लिए खाली कर गयी। उन्हें तलवार छोड़कर तराजू का सहारा लेना पड़ा। इसी से सिंध का नागरिक जीवन आज हिंदू-प्रधान हो गया। गुरु नानक की संतवाणी यहां के हिंदुओं और दूसरे लोगों में काफ़ी लोकप्रिय है। सूफी संतों की परंपरा यहां ऐसी प्रबल रही है कि सभी सिंधी सूफ़ी धारणाओं से ओत-प्रोत हैं। किसी सिंधी हिंदू से आप नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 185 मिलिये और पूछिये कि तुम क्या मानते हो, वह अवश्य गुरु नानक और शाह अब्दुल लतीफ़ के दो-चार पद सुना देगा। शाह अब्दुल लतीफ़ बहुत बड़े सूफ़ी कवि थे। सिंध में वह इतने लोकप्रिय हैं कि उन्हें वहां का तुलसीदास कहा जाता है। सिंधी मुसलमानों को बहुधा मैंने हिंदू मंदिर, वरुण चैत्य और गुरुद्वारों के सामने सिर झुकाते देखा है। हिंदुओं को पीरों की दरगाहों के समक्ष नतमस्तक पाया है। हिंदू हो या मुसलमान, सिंधी का हृदय प्रेम-मार्गी होता है। अठारहवीं सदी के मस्त फ़कीर सचल सरमस्त का यह दोहा कितना बढ़िया हैμ ‘आहि रूहु मुंही जो अरब जो ऐं खाकि हिंदूजी अहमद मिल्यों हुते त हिति श्याम मिल्यो अहि’ (मेरी आत्मा अरब की है, तो शरीर हिंदू का; वहां अगर मुहम्मद मिले तो यहां श्याम मिले हैं।) सांप्रदायिक दंगे सिंध में उतना उग्र रूप नहीं धारण करते, जैसा कि अन्य प्रांतों में। पीरों की दरगाहों पर होने वाले मेलों में मैं कई बार शामिल हुआ हूं। एकतारा पर पीरों के गुणगान करने वाले हिंदू भगतों को झूमते देखा है। मुल्तान कभी सिंध के अंतर्गत था। वर्तमान प्रांत-विभाजन के अनुसार मुल्तान कमिश्नरी पंजाब के अंदर है, परंतु औरतों की नाकों में पुखराजवाली नथ देखकर सहसा उनकी तुलना आप सिंधी महिलाओं से कर बैठेंगे। जल-पूजा मुल्तान में भी प्रचलित है। सिंध के महात्मा उडेरो (लाल) वरुण के अवतार माने गये हैं और वरुण असुर सभ्यता का उतना ही पूज्य देवता है, जितना कि इंद्र वैदिक सभ्यता का। असुर सभ्यता के अवशेष सिंध के मोहन-जोदड़ो और पंजाब के हड़प्पा में समान रूप से पाये गये हैं। तत्कालीन सभ्यता का यह चिद्द (जल-पूजन) भी मुल्तान के निकटवर्ती स्थानों तक प्रचलित हैμऔर सिंध में तो जलपूजकों का एक संप्रदाय ही बन गया है, जिसे दरियापंथी कहते हैं। 3 सिंध का जनजीवन दूसरे प्रांतों की अपेक्षा सुखी है। कारण यह है कि वहां आबादी कम है। सिंधु नद से नहरें निकाल-निकालकर ग़ैर-आबाद और ऊसर ज़मीन को उपजाऊ बनाने की योजना अमल में बहुत कम लायी गयी है। फिर भी प्रांतीय सरकार की ओर से खेती करने के लिए बराबर लोगों का आह्नान होता रहता है। बाहर के लोग भी वहां जाकर खेती करने लगे हैं। पक्के कृषिकार तो वहां के मुसलमान ही हैं। सिंध के हिंदू व्यापारोन्मुखी जाति हैं। सिंधी सौदागर दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं। जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, जापान, फारमूसा, चीन, मंचूरिया, कोरिया, मंगोलिया, अफ्रीका के निर्जनप्राय इलाकों में, अरब, ईरान, अफगानिस्तान, साम, सीरिया, मिस्र, यूरोप के छोटे-बड़े देशों में, अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी भागों में, और कहां नहीं ये सिंधी सौदागर फैले हुए हैं। इस महासमर के युग में हज़ारों सिंधी धुरी राष्ट्रों द्वारा विजित देशों में अटके रहे। सिंधी व्यापारियों की यह जाति भाई-बंद (भाई-बंधु) कहलाती है। एक दिन किसी मित्रा ने कहाμमेरा भाई मंगोलिया की सरहद पर चार महीने रह आया है। सैकड़ों फोटो साथ लाया है। देखना हो तो साथ चलिये। मैंने देखा तो सोवियत मंगोलिया के उद्बुद्ध जीवन के प्रतीक कई चित्रा थे। उस युवक से बातें हुईं, राजनीतिक मामले में काफ़ी जागरूक निकला वह। दूर-दूर तक फैले हुए ये सिंधी सौदागर अपने देश लौटकर दान-पुण्य के खाते में काफ़ी रकम ख़र्च करते हैं। ऐसे ही एक सौदागर ने मुझे हंसकर कहाμहम अपने देशवासियों को थोड़े लूटते हैं? बाहरवालों को मूड़ते हैं, अपनों को खिलाते-पिलाते हैं।... और, ठीक 186 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 ही कहा था उसने। व्यापार-क्षेत्रा में सिंधियों की जो प्रसिद्धि है, वह बाहरी दुनिया को लेकर ही है। भारत के दूसरे प्रांतों में सिंधी व्यापारी बहुत कम हैं, परंतु भारत के बाहर व्यापारी बनकर रहनेवाले भारतीयों में सबसे बड़ी संख्या सिंधियों की ही है। मारवाड़ी तो अभी बर्मा तक ही पहुंचे हैं। आगे बढ़ने में धर्म का बाह्य आडंबर उन्हें रोके हुए है। सिंधियों की स्थिति इस संबंध में प्रगतिशील है। छूत-छात का भूत उनसे हार मानता है। नानकपंथी और सूफ़ी भावना के कारण उनमें हद दर्जे की सर्व-धर्म सहिष्णुता होती है। बाहरी दुनिया से निरंतर संपर्क के कारण उनका स्वभाव युगधर्मा बन गया है। यही कारण है कि दुनिया के कोने-कोने में ये पहुंच गये हैं। मिलनसार ये इतने कि दुनिया की बर्बर से बर्बर जातियों के बीच अपनी दुकानदारी चला लेते हैं। आर्थिक उदारता के लिए तो सिंध के ये भाईबंद मशहूर हैं ही, पर धार्मिकता और सामाजिकता भी इनमें पर्याप्त होती है। वह जहां कहीं भी रहेंगे, गुरुग्रंथ और गीता साथ रहेगी; साधु-ब्राह्मण और अतिथि-अभ्यागत इनके यहां बहुत ही सम्मान पाता हैμचाहे स्वदेश में, चाहे विदेश में। व्यापार ये अधिकतर मोती, जवाहरात, सिल्क-रेशम, सोना-चांदी का ही करते हैं। क़ीमती कपड़ों की बड़ी-बड़ी फर्में देश-देशांतर में सिंधी व्यापारियों के नाम से जुड़ी हुई हैं। इन भाईबंदों का शायद ही कोई परिवार होगा, जिसका कोई न कोई सदस्य समुद्र-लंघन न कर आया हो। अपने साथ वे ब्राह्मणों को भी खींच ले जाते हैं। मेरे सिंधी विद्यार्थियों में से एक आजकल कोलंबो में है, दूसरा गाइना में, तीसरा है अरब में और चौथा चीन में। यह सब मैं अपनी प्रतिष्ठा-वृद्धि के लिए नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि आषाढ़ी पूर्णिमा में उन लोगों ने कभी गुरु-दक्षिणा नहीं भेजी। सोचा होगा, दो-चार महीने ही पढ़ा हैμगुरु-शिष्य का गठबंधन ज़िंदगी-भर का तो होता नहीं! पर मैं तो नहीं छोड़ूंगा, एक आस्थावान आचार्य के शब्दों में कहूंगाμ एकाक्षर प्रदातारं यों गुरुं नाभिमन्यते।... इस श्लोक का उत्तरार्द्ध नहीं लिखूंगा, क्योंकि उसमें शाप दिया गया है। बेचारे कहीं रहें, मस्त रहें! एक दिन अपने यजमान की ओर से एक मित्रा निमंत्राण दे गये। आपत्ति का कोई कारण नहीं था, आत्माराम वहां पहुंच गये। जीमते वक़्त पूछा तो पता लगा, मित्रा के यजमान का भतीजा शंघाई में मर गया था। तीसरे साल की बात हैμउन दिनों उक्त नगर जापान के अधिकार में आ गया था। मरने की ख़बर तीन मास पर करांची पहुंची थी। उसी तरुण का श्राद्ध था। गुरुग्रंथ और गीता के अखंड सप्ताह के बाद पांच ब्राह्मणों और पांच संन्यासियों को भोजन कराया गया। यह सब बात भाई चेलाराम ढोलनमल ने मुझे स्वयं बतायी। वही परिवार के मुखिया थे। जापान का आक्रमण होने से पहले तब ख़ुद भी शंघाई और तोकियो में रह आये थे। रेशमी कपड़ों का व्यापार था। अमेरिकन ढंग की अंग्रेज़ी बोल रहे थे। अभी भी परिवार के चार सदस्य प्रशांत महासागर के विभिन्न टापुओं में अवरुद्ध थे। कहां तक गिनाऊं, सिंधियों के साथ बात करने पर जब दुनिया के छोटे-बड़े शहरों के नाम निकल आते हैं, और ऐसा बहुधा होता है, तो मेरा घुमक्कड़ मन उछलने लगता और अंत में उसी लोमड़ी की भांति बैठ जाता है, जिसने निराश होकर कहा थाμअंगूर खट्टे हैं। सिंध के सबसे अधिक प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत और सुशिक्षित लोग आमिल हैं। हिंदुओं में प्रमुख ये ही दो जातियां हैं, आमिल और भाईबंद। एक बुद्धिजीवी है तो दूसरा वाणिज्यजीवी। ब्राह्मण थोड़े ही हैं, नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 187 दाल में नमक के बराबर, ‘तोयस्थं लवणं यथा।’ अमल से आमिल शब्द की व्युत्पत्ति है। ये लोग दीवान कहलाते हैं, मुस्लिम शासन-काल में बड़े-बड़े ओहदे पर रहने के कारण इस जाति का नाम ही आमिल पड़ गया। यह अपने नाम के साथ द्विवेदी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, उपाध्याय, मिश्र आदि की भांति कृपालाणी, गिदवाणी, वासवाणी, गुलराजणी, मीरचंदाणी आदि वंशगत उपाधियां जोड़ते हैं। भेद इतना ही है कि द्विवेदी, त्रिपाठी आदि उपनाम बहुत प्राचीन हैं और ज्वलंत ब्रह्मत्व की याद दिलाते हैं; परंतु कृपालाणी और गिदवाणी आदि उपाधियां दस-पांच पुस्त पहले के अपने-अपने प्रख्यात वंशधरों की अभिधा को सूचित करते हैंμकृपाल का कृपालाणी, गिदू का गिदवाणी, वासू का वासवाणी आदि। बहुत दिमाग़ लड़ाया कि यह आणी क्या है। एकाएक ख्याल आया गार्ग्यायाणि, दांडायनि आदि। अपत्य अर्थ को बतलानेवाला गोत्रा-सूचक यह ‘आयनि’ और आमिल लोगों के उपनाम की यह ‘आणि’ आदि दोनों मिलाये जायें तो भाषा-विज्ञान के प्रेमियों को इस संबंध में निराश नहीं होना पड़ेगा। हमारे आचार्य कृपलानी (कृपालाणी कहिए) इसी आमिल जाति के कुल-दीपक हैं। आचार्य गिडवाणी (सिंधी उच्चारण गिदवाणी) भी इसी जाति के रत्न थे और साधु टी. एल. वासवाणी का नाम कौन नहीं जानता है? इस प्रकार हम देख सकते हैं कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्रा में भी सिधिंयों का नाम जिन्होंने उज्जवल किया है, वह सबके सब आमिल हैं। बुद्धिजीवी होने के कारण आमिलों को भी उसी तरह बेकारी से लड़ना पड़ता है, जैसे बंगालियों को। शादी-ब्याह में कन्या-पक्षवालों को भी बंगाल की तरह ही यहां भी दिक़्क़तें उठानी पड़ती हैं। हर एक सपूत का बाप कन्यावालों को निचोड़कर सीड्ढी बना डालता है। नतीजा यह हो रहा है कि हज़ारों आमिल लड़कियां वयः प्राप्त होने पर भी बाध्यतामूलक अविवाहित जीवन बिता रही हैं, लड़कियों के विवाह की यह समस्या भाई-बंदों में नहीं है। उनके यहां न तो अति उच्च-शिक्षा प्राप्त लड़कियां हैं कि जिनके लिए अति उच्च शिक्षित लड़कों की अनिवार्य आवश्यकता हो, न वैसे लड़के हैं जिनकी कीमत पचीस-पचीस हज़ार कूती जाये। मिडिल या मैट्रिक तक की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाएं दिलवाकर वे अपने बच्चों को धंधे में लगा देते हैं; लड़कियां उनके यहां अविवाहित कदाचित् ही रहती हैं। जनता का तीसरा वर्ग है कृषकों का। उनमें पचानवे प्रतिशत मुसलमान हैं। बड़े-बड़े जागीरदारों और गद्दीनशीन पीरों की हुकूमत के अंदर सिंध के देहाती मुसलमान बहुत ही पिछड़ी हालत में पड़े हैं। उनमें पंजाबी मुसलमानों को मैंने अधिक जागरूक पाया। अपने पीरों के प्रति उनके हृदय में गंभीर श्रद्धा है। ऐसे बीसों पीर होंगे, जिनके मुरीदों की संख्या लाखों तक पहुंचती होगी। ये धर्माचार्य भला कब चाहने लगे कि अनुयायियों में शिक्षा प्रसार हो, उनकी निरक्षरता हटे? कल-कारखाने सिंध में उतने नहीं हैं कि लाखों खेतिहर सर्वहारा की लंबी कतार में खड़े होकर ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगायें। कांग्रेस का शंखनाद वहां देहातों में पहुंचते-पहुंचते इतना धीमा पड़ जाता है कि ग्रामीणों को सुनायी नहीं पड़ता। नव-जागरण का संदेश वहां नागरिकों तक सीमित है। साधारण जनता अभी तक पीरों और गुरुओं के मुंह से जो दो-चार पद सुनती है, उन्हीं तक उनकी अभिज्ञता की इतिश्री समझिये। 4 भौगोलिक व्यतिक्रम के कारण सिंध प्रांत शेष भारत से कट-सा गया है, तिस पर अरबी लिपि ने तो और भी हद कर दी है। वह एक दीवार जैसी खड़ी है सिंध और भारत के दरम्यान। 188 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 सिंध के पश्मिोत्तर भाग में बिलोचिस्तान की नग्न पहाड़ियां पड़ती हैं, उत्तर-पूर्व में बहावलपुर रियासत के विरल बस्तियोंवाले पंजाबी इलाक़े पड़ते हैं, पूर्व में राजपूताने का विशाल रेगिस्तान पड़ता है। पूर्व-दक्षिण कोने में कच्छ की छोटी-छोटी झाड़ीवाली भुरभुरी मरु-भूमि और कच्छ की खाड़ी पड़ती है, दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है अरब महासागर। खानपुर से लेकर करांची तक सवा चार सौ मील से ऊपर सिंधुनद के दोनों किनारे लंगोटी की तरह फैला पड़ा है सिंधियों का छोटा-सा यह प्रांत। आबादी घनी नहीं है। सारा प्रांत आठ जिलों में विभक्त हैμसक्खर, शिकारपुर, जैकोवाबाद, लारकाना, दादू नवाबशहा, मीरपुर ख़ास, हैदराबाद, करांची। इनमें मीरपुर पड़ता है जोधपुर लाइन में और जैकोवाबाद क्वेटा लाइन में। अवशिष्ट जिले (करांची को छोड़कर) दरिया सिंध के कछारों में बसे हैं। जलवायु शुष्क है, वर्षा कम होती है। गर्मी भी खूब पड़ती है और जाड़ा भी खूब। परंतु ग्रीष्म ऋतु में भी वहां की रात्रि असह्य नहीं प्रतीत होती है। अरब सागर की पश्चिमी हवा सारे सिंध को प्राणवंत बनाये रहती है। गेहूं और धान उपजते दोनों हैं, इतना उपजते हैं कि सिंधवासी उन्हें बाहर भी भेजते हैं। सिंध की शुमार हिंदुस्तान के उन चंद सूबों में की जाती है, जहां अन्न आवश्यकता से अधिक पैदा होता है। चारागाहों की बहुतायत है, इसलिए दूध-घी की भी कमी नहीं है। अभी तक सिंध की बहुत कम ज़मीन आबाद हो पायी है। सोवियत रूस की पंचवार्षिक योजनाओं की तरह जब कभी कोई विराट औद्योगिक योजना हमारे इस महादेश में लागू होगी, तो अकेला सिंध अनेक प्रांतों का भरण-पोषण कर लेगा। भारतीय शासन विधान (1935) के मुताबिक जो मंत्रिमंडल वहां क़ायम है, उसने इन बातों की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया है। पिछले दो-तीन वर्षों के अंदर मुनाफ़ाख़ोरी और अन्नचोरी का जो चक्र अन्य प्रांतों में चला है, सिंध की स्वदेशी सरकार उन्हीं धूर्तों को प्रोत्साहित करती रही है जिन्होंने जनहित का गला घोंटकर करोड़ों का लाभ-शुभ प्राप्त किया है। सिंध का शासन अंग्रेज़ों ने सिक्खों से छीना था। 1847 ई. में सर नेपियर ने इसे बंबई प्रांत में मिला दिया। अभी नौ साल पहले फिर इस प्रांत को बंबई से अलग कर दिया गया है। शिक्षा और व्यापार में सिंध अभी भी बंबई से जुड़ा हुआ है। धार्मिक और सामाजिक संबंध उसका पंजाब से है। सिंधी भाषा आजकल अरबी लिपि में लिखी जाती है। पुराने पंडित दो-तीन मुझे वहां मिले, जो अरबी से अपरिचित और नागरी मात्रा से परिचित हैं। अभी चालीस साल पहले तक सिंधी नागरी में लिखी जाती थी, बनियों ने तो अभी तक नागरी के अन्यतम रूप (मुंडा लिपि से मिलता-जुलता हुआ) पकड़ रखा है। वास्तव में सिंधी भाषा के सूक्ष्म उच्चारण-भेदों को प्रकट करने के लिए अरबी लिपि असमर्थ है। इस भाषा में पाली-प्राकृत-संस्कृत-अपभं्रश से आनेवाले शब्दों की तादाद इतनी अधिक है कि देखकर दंग रह जाना पड़ता है। क्या मुसलमान, क्या हिंदू सभी इसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। किसी बहुत बड़े मौलवी या पंडित की बात छोड़िये, साधारण सिंधी जनता जिस ठेठ सिंधी को व्यवहार में लाती है, उसमें 80 प्रतिशत तद्भव शब्द ही रहते हैं। अठारहवीं सदी के एक मुसलमान संत की वाणी देखिये, कैसी हैμ पूरब पंधि न व×िाणां, गिरिनारी गुमनाम विभिचारी थी बाटते, करनि कीन बिसराम सीने में संग्राम, सचा सुना सुनिजे। अपने में ही लीन-मग्न गिरिनारी योगी कर्म-कांडों में नहीं फंसते और न अपना मार्ग त्यागकर आराम ही करते हैंμइनके हृदय में हमेशा युद्ध छिड़ा रहता है। पाठक देखें कि इसमें कितने तद्भव शब्द हैं। अब आधुनिक सिंधी का एक नमूना देखेंμ नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 189 जदहिं मात भारत जे चरिनन में तो दिनो दानु भेटा में जेकी बि हो लघुई जानि ते भी न हिकिड़ो वगो लंगोटी टुकरु, व्यो उघाड़ो सजो तदहिं तोते आसीस माता कई बधाई वदी तुहिं जी पदिवी वई कवि वेकस ने गांधी को लक्ष्य करके कहा हैμतुम्हारे पास जो कुछ भी था, सभी जब भारत माता के चरणों तुम भेंट चढ़ा बैठे, एक छदाम भी नहीं बचा, सिवाय लंगोटी के और क्या रहा? सारा अंग उघाड़ था, तब तुम पर माता की आशीष हुई; उसने तुम्हारी पदवी बढ़ा दी! दुर्भाग्य की बात है कि साहित्य-सम्मेलन और नागरी-प्रचारिणी सभा जैसी प्रतिनिधि संस्थाएं सिंधी के प्रति उदासीन क्या, विमुख हैं। सिंधी के उन हज़ारों शब्दों की व्युत्पत्ति के आलोक में हम हिंदी के तद्भव शब्दों की जड़ तक जा सकते हैं। इधर चार-पांच वर्षों से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति (वर्धा) के सदुद्योग से सिंध में हिंदी प्रचार का काम होने लगा है। हिंदुस्तानी की आड़ लेकर निख़ालिस उर्दू का प्रचार प्रांतीय सरकार की ओर से हो रहा है। सिंधी हिंदू अपनी सरकार से इस बात की मांग कर रहे हैं कि उनके लड़के को नागरी लिपि में हिंदुस्तानी लिखने-पढ़ने की छूट दी जाये। लीगी शिक्षामंत्राी इस मांग से बिदकता है। हैदराबाद सिंध के दयाराम गिदूमल नेशनल कालेज के प्रोफेसर नारायणदास बथेजा को उस प्रांत की माध्यमिक शिक्षा में संस्कृत-प्रवेश का श्रेय प्राप्त है। वहां के सारस्वत ब्राह्मण प्रतिभाशाली होते हुए भी अपने संपन्न यजमानों से भूयसी-दक्षिणा पाकर इतने अलस, इतने तंद्रालु बन बैठे हैं कि अध्ययन-अनुशीलन की अधिक आवश्यकता भला उन्हें क्यों होने लगी? संस्कृत शिक्षा की दशा सिंध में वही है, जो पिंजरापोल की लूली-लंगड़ी गायों की होती है! 5 करांची के एक मित्रा ने अपने प्रांत की विशेषता बताते हुए बड़े अभिमान से कहाμसिंधी भिखमंगे नहीं होते, मजूर, मोची, तेली-तमोली, सुनार-दर्जी सिंधी नहीं होते; वेश्याएं भी सिंधी नहीं होतीं। ‘तो आखि़र ये आये कहां से?’ मैंने उलटकर पूछा तो जवाब मिलाμकच्छ, राजपूताना, पंजाब से; और घरेलू नौकर हमें आपके युक्त प्रांत से बहुत सस्ते मिलते हैं। सिंधी मित्रा की उस मुस्कान ने मुझे चिढ़ाया नहीं, गंभीर बना दिया। गोरखपुर, बस्ती, फैजाबाद, गोंडा आदि के हज़ारों ग्रामीण सिंध में भरे पड़े हैं। इन्हें यहां वाले भैया कहकर पुकारते हैं। भर, बोन, अहीर, राजपूत, कुर्मी, ब्राह्मण सभी जाति के हैं और सब काम करते हैं। निरक्षरता और सफ़ाई का अभाव इन्हें स्थानीय लोगों से छांटकर अलग कर देता है। फिर शिक्षित से शिक्षित बिहारी और युक्त प्रांतीय बर्मा में जैसे ‘दरबान’ कहकर पुकारा जाता है, उसी तरह वह सिंध में ‘भैया’ कहकर बुलाया जाता है। इससे मैं स्वयं कई बार तिलमिला उठा हूं, और बाद में ठंडे दिमाग़ से कई बार सोचा है। दोष उनका नहीं, हमारा ही है। हज़ारों और लाखों की तादाद में होते हुए भी गुजरात, महाराष्ट्र और सिंध में ‘भैया’ अपमान और बुद्धू का प्रतीक बना हुआ है। जाहिल, चपाट और उजड्ड! कम से कम पैसा लेकर अधिक से अधिक 190 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 काम कर देना, निरक्षर भट्टाचार्य होने के नाते जीवन-भर अंगूठा निशान करते रहना, परिवार को साथ नहीं रखना, फिर भी आजन्म प्रवास, ये हमें औरों की निगाह में हल्के बनाये रखता है। धोती पहनकर, कंधे पर चादर डालकर आचार्य कृपलानी करांची में एक बार भाषण कर रहे थे। श्रोताओं में सिंधियों की ही तादाद ज़्यादा थी। सभा जब विसर्जित हुई तो कइयों के मुंह से सुना गया, ‘असां जो कृपालाणी भैया भी व्यो आहे (हमारा कृपलानी भैया बन गया)! बच्चों की देख-भाल, रसोई-पानी, घर-बाग की रखवाली, पूजा-पाठ आदि कई दृष्टियों से सिंधी हिंदू भैया को ही पसंद करते हैं। परिवारों में बिखरे होने के कारण यों भी इनका संगठन मेढ़कों को तराजू में तोलने की तरह मुश्किल है। तिस पर शिक्षा की कमी, झूठ-मूठ का आत्मसंतोष इनको पिछड़ी हुई स्थिति में रखे हुए है। अब छोटी-मोटी दूकान भी ये लोग करने लगे हैं। फेरी लगाकर दही-बड़ा और पकोड़ा भी बेचना शुरू किया है। इक्के-दुक्के अपने लड़कों को पढ़ाने भी लग गये हैं। भ् भ् भ् सिंध के अधिवासी शांतिप्रिय, आतिथ्य परायण, सहिष्णु होते हैं। भिन्न-भिन्न प्रांतों से गये हुए लोगों की संख्या सिंध को सर्वादेशिक बना रही है। पंजाबी, बलोची, मारवाड़ी, गुजराती, कच्छी, काठियावाड़ी और भैया सब मिलाकर इतना हो गये हैं कि सिंधी इनकी तुलना में थोड़े लगते हैं। भोजन में भात और रोटी दोनों ही लोकप्रिय हैं। मांस-मछली न खाते हों, ऐसे सिंधी बहुत कम मिलेंगे। पापड़ खाने का काफ़ी रिवाज है। खटाई और मिर्चे का इस्तेमाल खूब करते हैं। कलामूलक वस्तुओं में कपड़ों की छपायी मुझे बहुत पसंद आयी। इस्लामी तूलिका से विचित्रा बेल-बूटों, मेहराब की तरह छपी हुई किनारीवाले कपड़े आपको बहुत ही आकर्षक लगेंगे। मिट्टी और सीमेंट के योग से तैयार किये हुए खपड़े और ईंटें भी सिंध के स्थापत्य कला-प्रेमियों की निगाह में विशेष स्थान दिलाती हैं। लकड़ी की वस्तुओं पर सिंधी कारीगर इतना बढ़िया वार्निश करते हैं कि देखते ही बनता है। जवाहरात के लिए तो सिंधी जौहरी मशहूर हैं ही। सिंधुनद सिंध पहुंचते-पहुंचते ‘सप्तसिंधु’ कहलाने लगता है, क्योंकि वह अपने साथ कपिशा नदी और पंजाब की पांचों नदियों को साथ लिये इस भूमि में प्रवेश करता है। यहां और कई बातों की चर्चा आवश्यक थी, परंतु लेख बहुत लंबा हो गया है, अब मैं इसे यहीं समाप्त करता हूं। सिंध के इतिहास और पुरातत्व का, प्राकृतिक दृश्यों का अधिक वर्णन करने के लिए हिंदी में एक पुस्तक की आवश्यकता है। (हुंकार, 23 एवं 30 दिसंबर 1945)