सिंहवाहिनी / राजेन्द्र यादव
एक थी राजकुमारी। बहुत चंचल, बहुत फुर्तीली, बहुत सुंदर और बहुत विदुषी। उसकी एक ही इच्छा थी, ऐसा कुछ किया जाए तो अद्भुत हो, नया हो और अभी तक किसी ने न किया हो। सभी ने स्वयंवर किए हैं, सभी राजकुमारों के साथ घोड़ों पर बैठकर चली गई हैं और सभी ने बाद में रानी बनकर महलों की शोभा बढ़ाई है। यही सब होना है तो इतने साधन होने का लाभ क्या है? किसी ने भी तो ऐसा अद्भुत कुछ नहीं किया कि लगे हां, अपने किए में वह अकेली थी। राजकुमारी ने दुनिया के अच्छे-से-अच्छे फूल लगाए, बागवानी की, अजूबे इकट्ठे किए, शहरों और जंगलों में भटकी, पहाड़ों और समुद्रों में चक्कर लगाए। लेकिन जो वह करना चाहती थी, वही नहीं हुआ। राजा और राजमाता ने तरह-तरह के वर सुझाए, हर तरह उसका मन बहलाने की कोशिश की, लेकिन राजकुमारी थी कि उदास और दुखी ही होती चली गई। मां-बाप चिंतित, सहेलियां परेशान, मंत्री दुखी। इतना सब कुछ है, लेकिन वही नहीं है, जो राजकुमारी चाहती है...
‘‘राजकुमारी जी, आप मुंह से तो कुछ बोलिए। आपके मुंह से निकली बात जरूर पूरी होगी।’’ उसकी घनिष्ठतम सहेली ने एक दिन हमराज बनने के लिए पूछा।
‘‘मुझे खुद कुछ नहीं पता...मैं ऐसा कुछ चाहती हूं, जिसमें खतरा हो, रोमांच हो...’’
‘‘तो भी...’’
‘‘शेर पालूंगी...जिंदा शेर पालूंगी।’’ झुंझलाकर राजकुमारी के मुंह से निकला। अचानक कही गई बात उसे खुद ही बहुत सम्मोहक लगी। वह शेर पालेगी और उसे अपने पास रखेगी, साथ रखेगी। जो सुनेगा दंग रह जाएगा। इतिहास में उसका नाम होगा ‘शेरोंवाली राजकुमारी’...सिंहवाहिनी... सहेली भय से चौंक उठी। मुंह से निकला, ‘‘यह कौन मुश्किल है? कल ही शेर आ जाएगा। लेकिन राजकुमारी, शेरों-जैसे कुत्ते मिल जाएंगे...एक-से-एक बड़े और भयानक...’’
‘‘नहीं, शेर ही पालूंगी...छोटा-मोटा नहीं, जंगल का सबसे बड़ा और खूंखार शेर...ऐसा कि लोग देखें तो भय से सांस रुक जाए...’’
‘‘शेर पकड़वाना तो मुश्किल नहीं है, लेकिन राजकुमारी,’’ सहेली ने सोचकर बताया, ‘‘उसे रखना मुश्किल काम है, पिंजरे में रखना होगा...’’
‘‘नहीं, खुला रखूंगी और अपने साथ ही रखूंगी।’’ आत्मविश्वास से उसकी आंखें अजीब हिंस्र-भाव से चमक उठीं, ‘‘देखूं तो सही प्यार से शेर को बस में करने की बात सच है या झूठ...’’
राजकुमारी के चेहरे की ओर देखती सहेली चुप रह गई। वह होश में बोल रही है या बेहोशी में, लेकिन वह केवल बोल नहीं रही, कहीं अपने-आपको वचन दे रही है। सहेली गहरी सांस लेकर चुप हो गई। उसने अगले दिन राजा को बताया और शिकारियों के दल-के-दल शेर पकड़ने दौड़ पड़े। जंगल का सबसे बड़ा और खूंखार शेर पकड़वाकर मंगवाया गया। चुस्त, तगड़ा और बिजली की कौंध जैसा फुर्तीला...सचमुच ऐसे शेर बहुत कम देखने को मिलते हैं। पकड़ने वालों को राजा ने मुंहमांगा इनाम दिया।
राजकुमारी पिंजरे के पास गई तो बदबू के मारे उसका सिर फटने लगा, पास से देखा, पल-भर को सांस रुक गई। उसे लगा आधा उत्साह ठंडा पड़ गया है, इसे पालना तो बहुत मुश्किल होगा। नाक और मुंह पर कपड़ा रखे वह कुछ देर उसकी खूंखार आंखों, छुरे-से दांतों और गुस्से में फनफनाती मूंछों को देखती रही-लेकिन आंखें थीं कि उसके चिकने, गठीले और तगड़े शरीर से हटती ही नहीं थीं। बंधे सांपों-सी सलवटें कैसी तड़पती थीं, फैलती-सिकुड़ती पुतलियों के भीतर जैसे अंगारे चमकते हों। लौटकर वह रातभर परेशान रही, शेर पाला जाए या नहीं। कहां जंजाल में फंसेगी। लेकिन सारे समय जैसे अंधेरे में सलवटों-सा कुछ तड़पता था और दो दहकते अंगारे उसके होश की तहों में उतरते जाते थे। उसके भीतर कुछ था, जो किसी ऐसे ही ‘खतरे’ की तलाश में उसे पागल बनाए था। पता नहीं क्या था, उस भयानक और खूंखार में कि वह आकर्षण में बंधी बार-बार वहीं चली जाती और बिना पलकें झपकाए उसे देखती रहती-मुग्ध और सम्मोहित। तनी हुई नसें झनझनाती रहतीं और शरीर पसीने से तर-बतर हो जाता। अपनी इस हालत पर खुद ही झेंपती वह इस तरह लौट आती, जैसे मीलों का सफर करके थक गई हो। सारे दिन शेर दहाड़ता, गुस्से से हुंकार मारता। पिंजरे की सलाखें झनझनाती रहतीं और पूरे राजमहल गूंजते रहते। कच्चा मांस खाता था, सारे पिंजरे को गंदा रखता था और मुंह से लार टपकाता रहता। बदबू इतनी थी कि पास खड़े रहना मुश्किल। उसके गुस्से और झुंझलाहट को देखकर दिल धक्-धक् करता कि अभी इसने पिंजरा तोड़ा और आस-पास दो-चार का सफाया किया। लेकिन जब तृप्ति और आलस में होता, बड़ा निरीह और भोला लगता, गद्दी जैसे पंजों से मुंह पोंछता, पूंछ घुमाकर मच्छर-मक्खियां उड़ाता, गुस्से में गदा जैसी इधर-उधर पड़ती पूंछ चंवर की तरह मुलायम हो जाती-सागर की गरज की तरह उसकी गुर्राहट गूंजती। उसकी हर स्थिति को देखकर राजकुमारी को भय और कुतूहल साथ-साथ होते।
काफी समय तो राजकुमारी असमंजस में पड़ी रही। इसे पालना तो अच्छी खासी मुसीबत हो जाएगी। कभी वह अपनी राजसी साज-सजावट को देखती, खूबसूरत गलीचे, रंग-बिरंगे परदे और फूलों, खुशबुओं में महकता माहौल। शेर के आने से सब उलट-पलट हो जाएगा, दुर्गंध-ही-दुर्गंध भर जाएगी। यह भी मन में आया कि शेर को बगीचे के पिंजरे में ही रहने दे और फूलों-क्यारियों की तरह या दूसरे पालतू जानवरों की तरह रोज उसे भी देख आया करे। न तो शेर को तकलीफ होगी और न अपनी व्यवस्था के अस्त-व्यस्त होने का डर रहेगा। लेकिन कौन था कि न उसे सोने देता था, न जागने। रात-दिन उसे बेचैन रखता और मन होता कि पिंजरे के पास ही खड़ी रहे। यह भी कोई बात हुई। इस तरह तो जंगल में जाने कितने शेर हैं और महलों में जाने कितनी राजकुमारियां हैं? उनसे क्या? उसे तो अपना शेर चाहिए, पिंजरे और रस्सियों में बंधा नहीं, कुत्ते-बिल्ली की तरह आसपास खुला-खेलता शेर...तभी तो वह सारी दुनिया में, इतिहास में शेरवाली राजकुमारी कहकर जानी जाएगी...सहेली की गवाही में उसने अपने-आप को यही तो वचन दिया है।
सच पूछो तो राजकुमारी को न अब उस वचन की याद थी और न इस बात का खयाल था कि उसे कुछ अद्भुत अनोखा करना है। वह तो बेहोश थी और सामने वह ‘खतरा’ था, जिसकी उसके भीतर किसी को तलाश थी। रोज वह पिंजरे के पास जाती और एकटक बंधी उसे देखा करती, उसके गुस्से-नाराजगी, संतोष और विश्राम सभी समझने की कोशिश करती। जितना ही शेर को पालना परेशानी, मुसीबत और दिक्कतों-भरा लगता, उतनी ही उसकी जिद बढ़ती जाती। जो भी हो, अब इसे पालना तो है ही। स्थिति पर अब उसका कोई बस नहीं है। सारी व्यवस्था उलट-पलट हो जाएगी, सारा समय घिर जाएगा, न जाने कितने खतरे और झंझट बढ़ जाएंगे, लेकिन कोई बात नहीं। शेर को पालतू बनाने के संतोष और शेर के साथ रहने के यश ने नशे की तरह उसे बेबस कर डाला था। शेर से नहीं, अपने भीतर की आदिम और हिंस्र पशुता से उसे जूझना है और इसके लिए योगियों की तरह तपस्या करनी होगी, ताकि वह सर्व-शक्तिमान सिंहवाहिनी जो जाए...
और अपनी बात उसे इस रूप में इतनी अच्छी लगी कि उसने सहेली से कहा। वह छूटते ही बोली, ‘‘भीतर की आदिम पशुता को जीतने और सिंहवाहिनी होने का सपना तो बेशक बड़ा मादक है, लेकिन राजकुमारी जी, एक बात का ध्यान रखिए, शेर का सवार न मरता है न जीता...ऐसा शेर जब विद्रोह कर बैठता है तो उसके अयाल पकड़े बैठे रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता, उतरते ही खा जाएगा...जब तक ऊपर बैठे रहो, तब तक वह कुछ नहीं कर पाता, लेकिन आदमी और पशु की ताकत में अंतर तो है ही, एक दिन हारना तो आदमी को ही होता है...’’
राजकुमारी सपने की दूरियों से बोली, ‘‘आदमी को क्यों हारना होगा? नहीं, आदमी को बिल्कुल नहीं हारना होगा। यह लड़ाई विवेक और पशुता की लड़ाई है और इसमें हारेगा पशु ही...उसे पालतू होना ही होगा...’’
सहेली मुस्कराई, ‘‘देख लीजिए...मन में पशुता और विवेक का आपने जैसा बंटवारा कर लिया है, असलियत में होगा वैसा नहीं...’’
राजकुमारी हंस पड़ी, ‘‘मुझसे बहस मत कर। मेरा अपने पर बस नहीं है। जो होता है होने दो। हार-जीत का फैसला करने का मुझे होश नहीं है। मुझे कुछ नहीं सूझता।’’ फिर कुछ सोचने लगी, ‘मुझे लगता है, इसे मैं पाल लूंगी। पहले पास जाते ही बदबू से दिमाग की नसें फटती हुई लगती थीं, आसपास खड़े रहना मुश्किल था। कच्चे मांस का इस तरह भचड़-भचड़ खाना देखा नहीं जाता था, उबकाई आती थी, दांत, आंखें, पंजे और पूरे शरीर को देखकर भय और घिन से फुरहरी आती थी-वह सब कम होता जा रहा है। अब वैसा कुछ अजीब भी नहीं लगता। भयानक और हिंस्र का भी अपना एक सौंदर्य है, इसे अब मैं ज्यादा शिद्दत और ज्यादा गहराई से देख पाती हूं। लगता है उसी ने मुझे अंधा कर दिया है। रोज घंटों बैठकर उसे ताकते रहने में मुझे एक अजीब गोपन-सुख मिलता है, वह मेरी आदत होती जा रही है। उसके बिना मुझे अपना दिन और अपना होना अधूरा लगता है। लगता है जैसे अब हम दोनों एक-दूसरे को पहचानने लगे हैं। उसकी आंखों में अब परिचय की एक मुलायम-सी चमक आ जाती है। उसका सारा हुलिया बदल जाता है। वह मेरी राह देखता है और जब तक मैं पहुंच नहीं जाती, खाने-पीने की चीजें सामने पड़ी रहती हैं...’
सहेली अजनबी की तरह उसके चेहरे और सारे शरीर को गौर से देखती रही, ‘‘खैर, आप समझती हैं कि आसार अच्छे हैं तो देख लीजिए, लेकिन मेरा कहना मानिए। अपनी ही तरह का एक मनुष्य चुनिए और उसके गले में वरमाला डालिए...शेरों को दूर से या चित्रों में देखना अच्छा लगता है, उन्हें पालतू बनाना सिर्फ पागलपन है...।’’
‘‘यही सही...’’ राजकुमारी ने गहरी सांस ली, ‘‘इस सबको आधे में छोड़ना अब मेरे हाथ में नहीं रहा। एक बार हम स्थिति को मानकर उसे जन्म दे देते हैं तो वह खुद-ब-खुद पौधे की तरह बढ़ती है। उसक बढ़ना हमारे चाहने पर नहीं रहता। हम उसे दूर से देखते नहीं रह सकते, उसके बढ़ने में औजार बन जाने की मजबूरी ही हमारे सामने रह जाती है। रोज सोते हुए सोचती हूं कि कल से यह सब बंद, न अपना समय रहा, न मनोरंजन। सारे वक्त बस, वही तो दिमाग में रहता है। लेकिन अगले दिन पता नहीं कौन है जो मुझे ठेलकर वहीं जा पहुंचाता है।’’
सहेली ने मुंह पर आई बात रोक ली। बाहर का पशु नहीं, आपके भीतर का पशु है जो आपको मजबूर कर देता है, इसी पशु से दो-दो हाथ करने को बेचैन वही हो रहा है और उसे आप नाम देती हैं विवेक। राजकुमारी की मजबूरी को कहीं वह समझती भी तो थी। ऊंचे पहाड़ को देखकर जैसे चोटी पर जा पहुंचने की, बड़े विशाल समुद्र को देखकर तैर जाने की जैसी दुर्निवार ललकार आदमी अपने भीतर महसूस करता है, वैसे ही किसी चुनौती के सामने बेचारी राजकुमारी मजबूर हो गई है। खतरे के पास खिंचे चले जाना, उससे खेलना भी तो उतना ही स्वाभाविक है, जितना उससे कतरा जाना, बच निकलना। बिना सीधा अनुभव किए आदमी अपना मन नहीं समझा पाता। दूसरे का अनुभव कहां कब कुछ सिखा पाता है? एक आत्मविश्वास है जो फिर-फिर उन्हीं अनुभवों से गुजरने को ठेलता जाता है।
और राजकुमारी का वह पागल-परिचय चलता रहा। अब राजकुमारी को देखकर शेर के सारे चेहरे-मोहरे पर जो भाव आ जाता, उसे वह पुलककर स्वागत में मुस्कराने का नाम देती। एक दिन उसने डरते-डरते पिंजरे के सींखचों में हाथ बढ़ाया, तो प्यार से शेर उसे चाटने की कोशिश करने लगा। अपने-आप एक बार बढ़ा हुआ हाथ पीछे आया, फिर आगे गया। ओह, खुरदरी जीभ के स्पर्श ने उसके रोंगटे खड़े कर दिए, सारा शरीर झनझना उठा। शेर उसका हाथ चाटता रहा और उसे विश्वास नहीं हो रहा था। आसपास सब चकित। हाथ में खरोंचें आ गई थीं, लेकिन राजकुमारी सारे दिन अपनी विजय पर उमंगती रही। रह-रहकर राजकुमारी अपने हाथ को देखती और उस रोमांच को याद करने की कोशिश करती। पागल बना देने वाले किसी स्पर्श का उसे ध्यान नहीं, लेकिन वह स्पर्श कुछ उसी तरह का नशीला था। रह-रहकर सारा शरीर फुरहरी से सिहर उठता। शेर का उठना बैठना, खाना-पीना अब उसे बहुत ही स्वाभाविक लग रहा था। शेर का अपना ढंग-ढर्रा है, उसमें वह कर भी क्या सकती है?
और महीनों की जान-पहचान, परिचय-घनिष्ठता के बाद वह दिन आया, जब राजकुमारी निस्संकोच उसके पिंजरे में चली गई, उसने शेर की पीठ पर हाथ फेरा, कान पर थपथपाया और अपने हाथों से कच्चा मांस खिलाया। न उसे घिन हुई, न कै करने की तबीयत हुई, और न जल्दी से भागकर बाहर जाने की घबराहट...उसने अपने मन को समझा लिया था, शेर को अगर पालतू बनाना है तो उसे ही अपने को शेर की जरूरतों, आदतों के हिसाब से ढालना होगा। शेर के लिए तो इतना ही काफी है कि पिंजरे में बंद है और उसे फाड़ नहीं खाता।
तब उसने शेर की जरूरतों को ध्यान में रखकर एक कमरा बनवाया, बिल्कुल अपने कमरे के पास, ताकि हमेशा उसके ही पास रह सके। उसकी जिंदगी का एकमात्र उद्देश्य ही जैसे उसे पालतू बनाना रह गया था। जिस दिन वह खुले शेर को केवल एक जंजीर के सहारे कमरे में लाई, उस दिन सारे राज्य में भयानक सनसनी थी। लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी, विदेशी अफसर, राजदूत, सैलानी और दर्शक जमा थे और राजकुमारी विश्व-विजय के गर्व से शेर को अपने महलों में ले जा रही थी। अब वह शेरवाली राजकुमारी थी। इतनी भीड़ और शोर-शराबे से शेर भड़क न जाए, यही उसे डर था और इसका उसने इंतजाम कर लिया था। लेकिन उसे विश्वास यह भी था कि ऐसा कुछ नहीं होगा। उसे लगा, शेर भी उसके मन के विश्वास को समझता है। उसने एकाध बार गुस्से से भीड़ को देखा भी, लेकिन फिर जब सिहरन-भरी राजकुमारी की तरफ मुंह घुमाया तो उसे लगा, जैसे हंसकर विश्वास दिला रहा हो...
राजकुमारी ने कायाकल्प की बातें बहुत पढ़ी थीं, लेकिन इस बार कायाकल्प को उसने रोज अपने साथ घटित होते देखा था, वह सचमुच जैसे बादलों पर चलने लगी थी। रोज हजारों लोग उससे मिलने आते, उससे एक के बाद दूसरा सवाल करते, ‘‘ऐसे भयंकर शेर को आपने कैसे पालतू बनाया?’’ राजकुमारी गर्व से मुस्करा-मुस्कराकर जवाब देती, ‘‘धैर्य और लगन से सब कुछ हो सकता है। महीनों मैंने उसकी हर आदत, चाल-ढाल को गौर से देखा है, अपना और उसका अध्ययन किया है, अपने को उसके लिए तैयार किया है और चाहे जितना खूंखार जानवर हो, आपकी आदतों या मन को न समझता हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं जानती थी कि इसके लिए अपनी रुचि, संस्कार और अहं, सभी को मुझे मारना होगा, अपने को उसके ही हिसाब से ढालना होगा...लेकिन मैंने तय कर लिया था, मैं ऐसा ही करूंगी...’’
‘‘हां, हां, अपने को ढालते सभी हैं। लेकिन उस ढालने से इतना बड़ा काम कितने कर पाते हैं? आपका ही यह कलेजा है, वरना कोई और तो शेर को देखकर ही बेहोश हो जाए...आप धन्य हैं...’’ लोग गद्गद् प्रशंसा से कहते। उन्हें जैसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता, वे यही देखने के लिए विशेष रूप से खिड़की से घंटों झांका करते, कैसा खाता है, कैसे करता है, कैसे कब सोता-जागता है? लगता है शेर सोचता भी है। राजकुमारी उसके इशारों और मन को कैसे पढ़ लेती है?
राजकुमारी उत्साह से विभोर होकर सारे सवालों के जवाब देती। उसने ऐसा काम किया है, जो दुनिया में हरेक के बस का नहीं है। यह भावना उसे औरों से ऊपर उठा देती। उसे लगता कि वह धन-वैभव में ही सबसे ऊंची नहीं है, उनका उपयोग किसी बड़ी सफलता और यश के लिए कर सकने में भी सबसे अनोखी है। उसकी ऊंचाई को कोई छू नहीं सकता...
धीरे-धीरे शेर उसके महलों में खुला घूमने लगा। राजकुमारी बैठी-बैठी मुग्ध और बेभान उसे देखती रहती...वह एक से दूसरे में मोटे-तगड़े बिलाव की तरह आता-जाता और टहलता या सोता। हां, दूसरे नौकर-चाकरों को देखते ही उसकी भवें तन जातीं, पूंछ के बाल और कान खड़े होने लगते। वे खुद डर के मारे उधर नहीं आते थे। एकाध बार उसने किसी को झपटकर घायल भी कर दिया। सबने मिलकर एक दिन अरदास की, ‘‘राजकुमारी जी, आप जो कहेंगी, हम जी-जान से करेंगे, लेकिन अपनी जान तो सभी को प्यारी है। हमारे भी बाल-बच्चे हैं।’’ राजकुमारी समझदारी से मुस्कराई, सभी का कलेजा तो उस जैसा नहीं है, वह तो कोई एक ही होता है राजकुमार भरत की तरह...उसने खुद ही शेर का सारा काम शुरू कर दिया। लेकिन एक सलाह लोगों के कहने से मान ली। हाथ-पांव और शरीर पर वह मोटे-चमड़े के पट्टे बांधे रहती-प्यार में भी जब शेर मुंह या पंजा मारता या हाथ या पिंडली चाटता तो घाव हो जाते। पता नहीं कब खून का स्वाद जाग उठे और वह हिंस्र हो उठे, यह डर उसे भी था ही। हालांकि, अब उसका विश्वास और भी बढ़ गया कि वह शेर की खुशी-नाराजी, रूठने-लाड़ करने सबको समझने लगी है-यही नहीं, उसे ढंग से संभाल भी सकती है। कब शेर सुस्त होता है, कब दार्शनिक बन जाता है। कब उसकी आंखों में पुरानी याद जागने लगती है, कब बच्चों की तरह खिलाड़ी बन जाता है। उसका रूठना, प्रसन्न होना सभी उसे आश्चर्य और प्रसन्नता से भर-भर जाने लगे। सारे दिन उसके सोचने-बोलने का विषय वही रहता। वह अक्सर ही कहती, ‘अपने से अलग किसी दूसरे की आदतों और प्रकृति को जानना ठीक वैसा ही रोमांचक अनुभव है, जैसा किसी अजनबी और अनजान प्रदेश में यात्रा करना। उसे खुद ही खोज निकालना और उसके एक-एक हिस्से से खुद और सीधा परिचय पाते जाना...किसी ने पहले इस प्रदेश की यात्रा नहीं की और आप ही वह पहले व्यक्ति हैं, जो दुनियाभर की जोखिम उठाकर इस प्रदेश को कदम-कदम खोज रहे हैं, यह आपके लिए परम संतोष और गर्व की बात तो है ही; लेकिन किसी अनजान देश को खोज निकालना, वहां घूम आना एक बात है और अपने को उसके हिसाब से ढाल लेना दूसरी या कहूं, बेहद ही मुश्किल काम है। मगर उस स्थान को कुछ पहाड़ी मैदानों और समुद्रों के बहाने खोजते ही नहीं जाते, पल-पल अपने को उसके हिसाब से ढालते भी जाते हैं। जानने के बाद भी तो चीजें वही नहीं रहतीं; मौसम बदलते हैं और वही चीजें नई हो उठती हैं, नई तरह का व्यवहार मांगने लगती हैं...’ और यहां आकर वह भूल जाती कि वह शेर की बात कह रही है, या किसी अनजान-अनखोजे प्रदेश की...प्रदेश की बनावट को जानना और अपने आपको बदलते मौसम के अनुसार तैयार करना...
अब राजकुमारी बाकायदा शेर के ऊपर बैठकर, खुली सड़कों और बगीचों में निकलने लगी थी, जो भी देखता दंग होकर दांतो तले उंगली दबा लेता। सब वाह-वाह कर उठते, राजकुमारी ने सचमुच कमाल कर दिखलाया है! ऐसा भयानक और खूंखार शेर कैसे पालतू बिल्ली की तरह व्यवहार करने लगा है। यह केवल राजकुमारी की ही हिम्मत और लगन का काम है, हरेक के बस का नहीं है। एक तो वह राजकुमारी है, दूसरे उसे जरूर ही कोई देवी-देवता सिद्ध हैं। कैसी दुर्गा की तरह निर्भय घूमती है। कुछ लोगों ने उसके बारह हाथों की अफवाह भी उड़ा दी कि उन्होंने अपनी आंखों से देखे हैं। लोग रास्तों से भाग-भाग कर घरों में घुस जाते और खिड़कियों-छज्जों से घंटों उधर देखते रहते, जिधर वह गई थी। सारी दुनिया से लोग केवल उस दृश्य को देखने चले आते। शंका से कोई-कोई कहता, ‘‘और तो सब ठीक है, लेकिन भाई, शेर तो शेर ही है। किसी दिन बिगड़कर जंगल की तरफ भाग निकला तो राजकुमारी की हड्डी-पसली का पता नहीं लगेगा। बहुत हुआ, शौक पूरा हो गया, राजकुमारी को अब यह सब बंद कर देना चाहिए...सारे शहर में आंतक छाया रहता है...’’
सुनकर वह लापरवाही से हंस देती-लोगों के लिए वह शेर होगा, लेकिन उसके लिए तो पालतू कुत्ते से अधिक नहीं है। एक दिन अगर मैं उसे दिखाई न दूं, तो भूखा मर जाए, किसी दूसरे की शक्ल नहीं देखे...हालांकि, भीतर-ही-भीतर आशंका भी होती कि सचमुच ही शेर किसी दिन निरंकुश हो उठा तो उसे संभाला कैसे जाएगा? महलों में तो कोई-न-कोई इंतजाम हो भी सकता है, लेकिन खुले में बाहर? साथ ही यह भरोसा भी था कि उसे स्थिति का सामना करना आता है, अगर शेर ने गिरा नहीं दिया तो वह संभाल ले जाएगी। सहेली की बात याद करके हंसी भी आई। निरंकुश शेर पर बैठा आदमी न जीता है, न मरता है...
लोग जब अविश्वास और भय से आंखें फाड़े शेर को देखते तो वह उनकी तारीफों को अनसुना करके मन-ही-मन कहती, तुम्हें क्या पता मैंने इसके लिए अपने को कितना मारा है? कितनी साधना की है, मैंने इसके लिए? तपस्या कोई होती हो तो शायद यही है। तपस्या से मैंने शेर को नहीं पाला, अपने भीतर और बाहर के पशुत्व पर विजय पाई है...अब अगर तुम मुझे या मैं ही अपने को देवी समझ लूं, तो बहुत गलत तो नहीं है...
सचमुच ही राजकुमारी ने साधना की थी। उसका खाना-सोना, उठना-बैठना ही शेर की जरूरतों के आस-पास नहीं हो गया था, बल्कि पूरा महल उसी के हिसाब से ढल गया था। अब न वहां रंगीन पर्दे थे, न कीमती गलीचे, झाड़-फानूस, फूल-पौधों सब पर धूल जम गई थी-सब अनदेखा और मुरझाया हो उठा था। न तो कोई उस सबकी देखभाल कर पाता था और न ही उसे उधर ध्यान देने की फुरसत थी-सारे दिन पट्टों में जकड़ी जब वह थककर लेटती तो जोड़-जोड़ दुखने लगता था। लेकिन यही संतोष उसके भीतर नया जोश और उत्साह भर देता कि उसने शेर को अपना गुलाम बना लिया था...
काफी दिन बीत गए। राजकुमारी की कीर्ति चारों ओर छा गई...लोग सिंहवाहिनी के प्रति आदर करते, उसमें श्रद्धा रखते, लेकिन भय और विस्मय धीरे-धीरे कम होते गए थे...
एक दिन सहेली बोली, ‘‘राजकुमारी, आपको भले ही संतोष हो कि आपने उसे अपना गुलाम बना लिया है, लेकिन सोचकर देखिए, आप उसकी गुलाम हैं या वह आपका?’’
राजकुमारी उपेक्षा से हंस दी, ‘‘शब्दों का फेर है, क्या फर्क पड़ता है? कोई किसी का गुलाम सही...एक शेर है जो मेरे इशारों पर चलता है, यही क्या कम है? इसके लिए जो भी थोड़ी-बहुत असुविधाएं हैं, वे मैंने अपनी ही मर्जी से स्वीकार कर ली हैं...’’
‘‘मर्जी नहीं, मजबूरी कहिए, राजकुमारी...’’ लेकिन बात बदलकर सहेली अपनी ही कहती रही, ‘‘यह बहुत चलेगा नहीं, क्योंकि स्वाभाविक नहीं है। आप सारे दिन चमड़े के पट्टों में जकड़ी रहती हैं, उसके लिए गोश्त और खाने का इंतजाम करती हैं, उसकी गर्मी-सर्दी ही आपका कारण है। आपको हमेशा उसके मन के मुताबिक व्यवहार करना पड़ता है...’’
‘‘क्योंकि वह मुझ पर आश्रित है, फिर शेर है तो उसकी जरूरतें उसी के हिसाब से पूरी करनी पड़ती हैं। ध्यान और समय देने ही पड़ते हैं। जितना हो सकता था, उसे मैंने बदल दिया है, लेकिन तुम सोचो, उसे कुत्ता तो नहीं बनाया जा सकता।’’ लाचार स्वर में राजकुमारी ने जवाब दिया। ‘‘उसे कुत्ता नहीं बनाया जा सकता, लेकिन अपने को तो आदमी बनाए रखा जा सकता है। मुझे तो ऐसा लगता है, जैसे आपने उसे छोटे पिंजरे से निकालकर अपने को उसके साथ बड़े पिंजरे में कैद कर लिया है। महल जरूरी वही है, लेकिन किसी पिंजरे से बेहतर कैसे हैं? न आप कहीं आ-जा पाती हैं, न आपके पास कोई आता-जाता है। चारों तरफ धूल और जाले लगे हैं। जो भी आता है, वह आपको नहीं, एक अजूबा दृश्य देखने आता है...आप इस सबमें कहां हैं?’’
लगा कहीं सहेली ठीक ही कह रही है। उसकी अपनी जिंदगी और अपना होना है ही कहां अब? अपने ही बनाए दृश्य ने बढ़कर उसे ढांप लिया है। कहां कोई अब उससे मिलने आता है? उसकी सारी दिनचर्या क्या इस जानवर के ही आस-पास नहीं सिमट गई है? मानो सारी उम्र का सफर तय करके यहीं पहुंचना हो। उसकी सारी शिक्षा-दीक्षा, सुंदरता और कोमलता सूख-सूखकर मुरझा गई हैं और जिंदगी के सबसे अच्छे दिन एक झूठे पागल शौक के पीछे घुले चले जा रहे हैं...जानती तो वह भी इस बात को अच्छी तरह ही है कि यह सब स्वाभाविक नहीं है और अब तो इसमें भी किसी के लिए न कोई आकर्षण रह गया है, न नयापन। सब इसे स्वाभाविक ही मानने लगे हैं। खुद उसके लिए भी तो अब इस अनदेखे-अनखोजे, प्रदेश में ऐसा कोई हिस्सा नहीं बचा, जो विशेष रोमांचक और उत्तेजक हो। अगर सारी बात को इसी बिंदु पर आना था, तो वह एक कुत्ता ही पाल लेती, कम-से-कम ऐसे अस्वाभाविक तनाव से भरे दिन तो न गुजरते...शेर तो उसकी जिंदगी का पल-पल मांगता है, और बदले में औरों को देखकर, दुनिया की सुनकर वही खुद अपने मन में अद्भुत और विलक्षण होने का गर्व, संतोष खोज लेती है, शेर तो उसे कुछ भी नहीं देता...
और जिस तेजी से नशा चढ़ा था उसी तेजी से उतरने लगा। अरे, उसने कहां की बला अपने सिर डाल ली? सखी-सहेलियों के बीच उसे हंसे-खेले बरसों हो गए, कहीं घूमने जाना, खिलखिलाकर हंसना और मन बहलाना अब किसी और जन्म की बातें लगती हैं। सजने-संवरने की बात छोड़ भी दो तो शायद अपना चेहरा शीशे में देखे उसे महीनों हो गए...अच्छे कपड़े नहीं पहने, फूलों के बीच खुलकर सांस नहीं ली। वही शरीर पर खरोंच, घाव, घोड़ों की जीन की तरह चढ़े हुए पट्टे। शीशा देखा तो धक् से रह गई...जानवर को पालने के नशे में मैंने खुद अपने को जानवर बना लिया है...शेर के चेहरे पर भले ही मासूमियत और भोलापन लगता हो, खुद उसके चेहरे पर अजीब वहशी सख्ती आ गई है...साथ के असर ने क्या उसे यहां ला पटका है? शरीर और महलों से अब इत्र-चंदन की खुशबुओं के भभके नहीं, गोश्त और लीद की सड़ांध ही आती है। न वह किसी के पास जाती है और न उससे कोई मिलने आता है। शायद सब बचने लगे हैं। लोगों ने उसे आदमी मानना ही छोड़ दिया है-सब एक दूरी और डर बीच में रखकर उस पार से मिलते हैं...सहेली को अगर इस बड़े पिंजरे में दो जानवर बंद दीखते हैं तो बुराई कहां है?
वह बहुत उदास और सुस्त रहने लगी। उसने शेर की पहरेदारी-टहल कम कर दी और मन से चाहने लगी कि किसी दिन वह भाग ही जाए। लेकिन शेर नहीं भागा। लगता, जैसे शेर भी उसकी उदासी समझने लगा था और दूर करने के लिए परेशान होता था...उसे शेर की खुशामद-भरी मजबूरी पर दया भी आती...
फिर एक दिन झुंझलाकर उसने अपने सारे पट्टे उतार फेंके, अपने को कमरे में बंद कर लिया। वह पहले की तरह खूब उबटन-मलाई लगा-लगाकर नहाई और बाहर घूमने निकल गई। उसे खुद ऐसा लगा रहा था, जैसे पता नहीं कब से किसी शिकंजे में कसी थी, तहखाने में कैद थी और पहली बार खुले आसमान और फैली धरती को देख रही थी। बनवास से लौटे व्यक्ति की तरह वह अब अपनी दुनिया में वापस आ गई है। और उसने तय किया कि अपने को एक ही जगह कैद कर लेना गलत है। शेर अपनी जगह है, रहे। लेकिन वह अब अपनी दुनिया में भी आया करेगी।
लेकिन लौटकर पाया कि शेर बिगड़ गया है। उसने खाना-पीना कुछ भी नहीं लिया है, यही नहीं, उसने एक रखवाले को भी जान से मार डाला है। उसने खुद जाकर शेर को खिलाया-पिलाया, तब कहीं काफी नाराजी के बाद वह शांत हुआ और राजकुमारी अपने को अपराधी-सा महसूस करती रही। साथ ही उसे चिंता भी लग गई। वह शेर के बिना जिंदा नहीं रह सकती और शेर उसे वापस आसानी से अपनी जिंदगी में लौटने नहीं देगा। उसकी अपनी जिंदगी में शेर आएगा नहीं, आएगा भी तो उसे स्वाभाविक और सहज नहीं रहने देगा। उसके साथ लोग उसे नहीं, शेर को और शेर के उसके साथ होने को ही देखते हैं। फिर उसे भी तो यह गवारा नहीं था कि वह अब बिना शेर के पहले जैसी ‘साधारण और सब जैसी’ राजकुमारी ही रह जाए। लेकिन उसके साथ केवल उसका गुलाम बनकर ही रहा जा सकता था। उसकी आदतें और अदाएं अब उसे नखरे लगने लगती थीं, जिन्हें बर्दाश्त करना अब पहले की तरह खुशी नहीं देता था। मगर इन सबसे भी बड़ी बात यह है कि उसे शेर के साथ रहने की, उसके नखरे सहने की, आदत पड़ गई थी और दूसरों की आदतों, नाजों पर नाचती, अपनी जिंदगी झुठलाती इस गुलाम-राजकुमारी से उसे घृणा थी।
फिर एक दिन जब शेर ने उसके बाहर जाने पर एक और पहरेदार को घायल कर दिया तो वह गुस्से से आग हो गई, उसने कोड़ा लेकर उसे खूब मारा, खूब मारा...शिकारियों को बुलाकर उसके दांत निकलवा दिए, पंजे के नाखून कतरवा दिए और अकेली कोठरी में भूखा-प्यासा बंद कर दिया। शेर घायल-सा दहाड़ता और चिंघाड़ता रहा और राजकुमारी बिना कुछ खाए-पीए रोती रही... पहरेदार को घायल कर डालने वाला शेर कैसे निरीह बच्चे की तरह उसके कोड़े खा रहा था, बच रहा था और बार-बार मुंह बचाकर रिरिया रहा था...चाहता तो वह क्या न कर सकता था? इसलिए इस सबके बीच भी उसने तय कर लिया कि अब यह सब नहीं चलेगा और वह इस तरह शेर की गुलाम नहीं रहेगी...अब तो उसे नहीं, शेर को ही उसकी जिंदगी या सुविधाओं के हिसाब से बदलना होगा। कहां तक सिर्फ वही वह बदलती चली जाए। शेर के लिए बकरे और भैंसे मारे जाएं और बुरी तरह मुंह और पंजों को खून से लथेड़ता हुआ, वह भचर-भचर खाता जाए, यह सब देखना भी अब राजकुमारी के लिए मुश्किल हो गया था। उसने देखा, दांत न रहने से अब वह और भी गंदगी करने लगा है, फिर भी भूखा असंतुष्ट और भिखारी-सा ही दिखाई देता है...राजकुमारी ने धीरे-धीरे उसका खाना ही बदल दिया...वह गुर्राता या गुस्सा दिखाता तो बेदर्दी से उस पर कोड़े बरसते। उसका दहाड़ना या गुर्राना सुनकर राजकुमारी कानों में उंगली दे लेती, और नींद न आने से सारे दिन बेतरह झल्लाई रहती...
लोगों ने भी अब उससे डरना बंद कर दिया था, कोई भी उसे छूता-कोंचता और उसके कानों या पूंछ से खेलता...वह सारे दिन इस तरह बीमार और सुस्त पड़ा रहता, जैसे कोई खजेला कुत्ता कंबल जैसी शेर की खाल ओढ़े पड़ा हो...न उसमें वह चुस्ती रह गई थी, न फुर्ती...बरगद की गली जड़ों जैसी सलवटें अब गिजगिजाहट ही पैदा करतीं...महल के कुत्ते उसे डराकर कोने में भेज देते...बिल्ली तक गुर्राकर सहमा देती। सारे दिन मुंह और आंखों से पानी बहता रहता, मक्खियां भिनभिनातीं...मरी छछूंदर जैसी पूंछ एक तरफ पड़ी रहती, गाल लटक आए थे और कानों में कलीले होने लगे थे।
पता नहीं कैसी-कैसी निगाहों से असहाय बच्चे की तरह याचना से जब वह राजकुमारी के मुंह की तरफ देखता तो उसका दिल भर आता, आंखों में आंसू आ जाते। जंगल के राजा की यह हालत देखी नहीं जाती थी। लेकिन वह पाती थी कि उसे शेर से प्यार कभी भी नहीं रहा, पहले चकित विस्मय था, जो उसके अपने भीतर था और आस-पास चारों तरफ था, खतरे से जूझने का हिंस्र निश्चय था और आज केवल दया है। अपराधबोध भी होता कि अपनी जरा-सी सनक में आकर उसने अच्छे-भले शेर की क्या हालत कर डाली है। मगर अब तो ऐसे शेर का अपने साथ जोड़े जाना भी उसे शर्मिंदा ही करता है, तब अफीमची की तरह पड़े ढीले-ढाले जानवर पर झूंझल ही आतीं : आखिर ऐसी भी क्या लाचारी है, है तो शेर ही। यह भी कोई बात है कि शेर या तो शेर रहेगा या चूहे से भी बदतर हो जाएगा...इसे साधारण प्राणी बनना ही होगा। अब उसके ऊपर दूसरा पागलपन सवार हो गया कि वह शेर को सुधार कर ही मानेगी...
आखिर एक दिन राजकुमारी ने शेर को गोली मार दी...
शेर उसकी जिंदगी के हिसाब से ढलने और सुधरने के बजाय यों भी तो धीरे-धीरे मर ही रहा था। उसे जंगल में छुड़वाती तो भूखा-प्यासा वह गिद्ध-सियारों का भोजन बन जाता या फिर तिल-तिलकर महलों में ही मरता-बात एक ही थी। बहरहाल, उसे मरना ही था। उसे जल्दी-जल्दी यह कष्ट भरा रास्ता तय कराके ठिकाने पहुंचा देना, अपने भीतर उठती दया की एकमात्र मांग थी। फिर सड़क के कुत्ते से भी बदतर शेर की स्वामिनी होने की बदनामी अब उसके बर्दाश्त के बाहर थी। उसने तो ऐसा ही शेर चाहा था जिससे सब लोग डरें, वह खुद भी डरती रह सके...जिसकी वह खुद गुलाम हो सके...इस मरे चूहे का उसे क्या करना था...
उस दिन उसने सहेली को बुलाकर इतने दिनों से मन में उठती बात कह डाली, ‘‘तूने सच कहा था। शेर पर सवार आदमी से अधिक मजबूर कोई दूसरा नहीं होता। न वह जीता है, न मरता! इस शेर को देखने से पहले ही जब किसी ऐसे शेर को पालने की बात मेरे दिमाग में आई थी, सच पूछो तो मैं तभी उस पर सवार हो गई थी और वही मुझे भटका रहा था।’’
‘‘लेकिन राजकुमारी अच्छे-भले शेर को यों अपनी एक पागल इच्छा का शिकार बनाकर आखिर आपको मिला क्या?’’ सहेली करुण हो आई।
राजकुमारी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। वह उदास हो गई। गहरी सांस लेकर बोली, ‘‘कुछ भी नहीं। यही समझ ले कि दो जानवरों की लड़ाई थी और दोनों इस तरह गुंथ गए थे कि एक-न-एक तो तो मरना ही था। इस फैसले के बिना कोई छुटकारा नहीं था। कैसे कहूं कि इसमें मेरी या उसकी ही गलती थी। शायद दोनों अपनी-अपनी जगह सही थे, और यह सही होना हम लोगों की लाचारी थी। यही समझ ले कि मैंने उस जानवर को मार जरूर दिया है, लेकिन अब खुद भी किसी लायक नहीं रह गई हूं...’’ और अपने जीवन के बेशकीमती सालों के यों बरबाद होने और एक स्वतंत्र जिंदगी को कुचल देने का बोझ उसकी आत्मा को सालने लगा। वह पागलों की तरह महीनों रोती-बिलखती रही-जैसा भी था अपनी तरह का अकेला था...अब समझ में ही नहीं आता था कि अपना और अपने समय का क्या करे? खाली होना बहुत ही बेमानी और अकेला हो गया था...।
आज भी वह शेर राजकुमारी के सबसे खूबसूरत कमरे के बीचोबीच खड़ा है। देश के सबसे कुशल कारीगरों से उसमें भुस भरवाकर उसे बनवाया है, आंखों के लिए खास तरह का कांच ढाला गया है। अपने खुले दिनों की तरह तगड़ा, फुर्तीला और खूंखार दिखाई देता है। उसे कुछ इस तरह ऊंचे पर बैठाया गया है, जैसे अभी छलांग लगाकर-झपट पड़ेगा...उसके आसपास कीमती पर्दे, गलीचे, गुलदान, झाड़-फानूस लगे हैं और सारा महल खुशबुओं और चहल-पहल से गूंजता रहता है।
देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते रहते हैं। पहली बार तो उसके दांत-आंखें, भारी शरीर को देखकर भय का रोमांच तन-मन को सिहरा देता है और विश्वास दिलाना मुश्किल हो जाता है कि यह शेर अब जीवित नहीं है। छूते और पास आते हुए उसी तरह डर लगता है। राजकुमारी आंसू-भरी आंखों से उसे देखती है, प्यार से उसके सिर-पुट्ठों पर हाथ फेरती है और भरे-गले से उसकी एक-एक आदत, अभ्यास और हरकत या अपने ऊपर उसके निर्भर होने की बात विस्तार से बताती है...पता नहीं, उसमें शेर की याद होती है या अपनी विजय की याद...या केवल पश्चात्ताप। बहरहाल, यही राजकुमारी का रोज का काम हो गया है...
और अब वह दर्शकों, अतिथियों से छुट्टी पाकर इतमीनान से अपनी जिंदगी में लौट आती है...