सिंहासन का चरित्र नहीं बदलता / जयप्रकाश चौकसे

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सिंहासन का चरित्र नहीं बदलता
प्रकाशन तिथि :29 फरवरी 2016


कुछ बीमारियों के कारण स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं। मनुष्य सतत ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास सदियों से कर रहा है, परंतु आज भी अंधेरे का क्षेत्रफल ज्ञान के वृत्त से बड़ा है। आंतड़ियों में छाले पड़ने को अल्सर कहते हैं और यह माना जाता है कि शरीर में अम्ल की मात्रा अधिक होने से अल्सर होता है, परंतु अम्ल की मात्रा अधिक होने के कारण नहीं मालूम। सदियों तक यह माना गया कि मिर्च-मसालों के अधिक सेवन से अम्ल बढ़ता है, परंतु फलाहार और सात्विक भोजन करने वाले कई लोगों में भी अम्ल की मात्रा अधिक होती है। अत: अल्सर को हम एक अलिखित कविता कह सकते हैं कि कोई विचार मन को मथता रहता है, परंतु अभिव्यक्त नहीं हो पाता और आंतड़ियों में छाले हो जाते हैं। इसी तरह गणतंत्र व्यवस्था में सोचने और बोलने की स्वतंत्रता होती है और इसके बावजूद भी समाज में कुछ ऐसे हालात होते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नाम मात्र की रह जाती है। इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल में यह अाजादी छीन ली गई थी, परंतु फिर भी उसके खिलाफ मौलिक ढंग से विरोध किया गया था। एक अखबार ने अपना संपादकीय पृष्ठ रिक्त छोड़ दिया था और उसके चारों ओर काले रंग की रेखा बना दी थी। यह अभिनव प्रतिवाद राजेंद्र माथुर का मौलिक विचार था।

व्यवस्था के पास असीमित अधिकार हैं, परंतु उनके पास एक अघोषित शस्त्र भी है और वह हैं उनसे प्रेरित हुल्लड़बाजों के दल, जिन्हें यह विश्वास है कि उनकी हरकतों को कानून नजरअंदाज कर देगा और उन्हें खुलकर खेलने की छूट है। हुल्लड़बाजी कभी किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन का एकाधिकार नहीं रहा है। सभी दलों ने इसका प्रयोग किया है और इस अघोषित स्वयंभू सेंसर का दायरा बहुत बड़ा है। आज यह दायरा कुछ अधिक फैला हुआ लगता है, परंतु हर कालखंड में कुछ समय अघोषित सेंसरशिप रही है। अंग्रेजों के जमाने में अनेक फिल्मकारों ने ऐतिहासिक विषय के नाम पर स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाई है। कवि प्रदीप का गीत 'दूर हटो ए दुनियावालो' भी इसका एक उदाहरण है और कवि प्रदीप ने अंग्रेजों की सेंसरशिप से बचने के लिए अंतरों में जापान का नाम लिया है। व्यवस्था जितनी अधिक निर्मम होती है, उतनी ही अधिक मनुष्य की कल्पना शक्ति प्रखर हो जाती है और वह विरोध करता है। किसी भी समाज में विरोध करने की इच्छा का मिट जाना बहुत भयावह बात है। आज हमने अपनी परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया है और हम विरोध करना लगभग छोड़ चुके हैं। आज महंगाई कोई समस्या नहीं रह गई है और हमने उसे स्वीकार कर लिया है। इस उदासीनता के कारणों पर समाजशास्त्र के विशेषज्ञों को विचार करना चाहिए। यह संभव है कि हमने विरोध का विचार इसलिए छोड़ दिया है कि हमें कोई विकल्प नजर नहीं आता। किसे सत्ता सौंपे- यह बात अब समझ में नहीं आ रही है। हमने सारे विकल्प आजमाकर देखे हैं, परंतु भारतीय सत्ता का स्वभाव कुछ ऐसा है कि सिंहासन पर बैठते ही आदमी बदल जाता है। जिस महंगाई को परचम बनाकर हम खड़े हुए थे, वह महंगाई दूर नहीं हो सकती, यह हमने स्वीकार कर लिया है। अन्याय आधारित व्यवस्था बदलती ही नहीं है। हमने अपनी जरूरतों को ही कम कर लिया है। नेतृत्व के इस अकाल और वैचारिक शून्यता ने हमें जड़ कर दिया है। अब हम अहिल्या की तरह पत्थर बन गए हैं और जानते हैं कि राम के चरण हमारी ओर नहीं आएंगे।

तुलसीदास का महत्व उनके महान कवि होने में नहीं है, वरन्‌ इस बात में है कि भयावह नैराश्य के दौर में उन्होंने मानस की रचना करके अवाम को विश्वास दिला दिया था कि राम उस कालखंड में भी संभव हैं। तुलसीदास का यह सामाजिक महत्व हमें इसकी इजाजत ही नहीं देता कि हम उनके काव्य को साहित्य के मानदंड पर परखें। वे कालिदास की तरह विलक्षण कवि नहीं हैं, परंतु संज्ञाशून्य होते समाज में उन्होंने आशा की किरण का आविष्कार किया था। घटाटोप अंधेरे में जुगनू भी हमें सूरज के समान लगता है।

आज हमें साहित्य क्षेत्र का बांझ होना बहुत अधिक घातक लग रहा है। आज मुक्तिबोध जैसा कोई नहीं है। ज्ञानरंजन एक विलक्षण प्रतिभा हैं, परन्तु विगत लंबे समय से उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी है। वे संपादन के दायित्व से संतुष्ट नहीं हैं। यह भी संभव है कि उन्हें यह लगता हो कि सार्थक लिखने से भी समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह सबकी चंता हो सकती है कि इस बाजार युग में सारा पढ़ना-लिखना व्यर्थ है। इन पंक्तियों पर गौर करें, 'जो वनवासी राम का साथ निभाती है, पर जब वही मर्यादा पुरुषोत्तम बैठ जाता है राज सिंहासन पर, तब वह चुपके से समा जाती है, धरती के गर्भ में।'