सिगरेट के छल्ले / संतोष भाऊवाला

Gadya Kosh से
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रूचि को गये आज पांच दिन बीत गये। घर में अजीब सा मायूसी का वातावरण छाया रहा। सूनेपन की घुटन से बचने को विजय देर तक दफ्तर में मन उलझाये रहता। कर्मचारी घड़ी की सुइयां पांच के बाद भी थोड़ी देर ताकते फिर मुँह बनाते एक एक कर खिसक लेते। उनकी समझ में न आता कि पांच बजे के बाद कभी न रुकने वाला विजय अपने केबिन में फ़ाइल का वही खुला पन्ना आरपार नज़रों से क्यों ताकता रहता रहता है? चौकीदार प्रतीक्षा करता कब साहब उठें और वह ताले लगाये।

आज शनिवार कार्यालय दो बजे तक ही था। जल्दी उठना लाजमी था। बुझे मन से वह घर लौटा। बच्चे शायद पड़ोस में किसी के यहाँ खेल रहे हों। उसने चाय बनाई और प्याला ले कर बालकोनी की उतरती धूप में जा बैठा। सनसनाती हवा के झोके से मंदिर पर लगा तिकोना झंडा फडफडा रहा था। चारों ओर कांक्रीट के लिपेपुते बहुमंजिले भवन। कहीं कहीं अस्थिपंजर सी खडी निर्माणाधीन इमारतें। इन सब के पार दूर किसी कारखाने की पतली चिमनी से गोलाकार धुंआँ भागती लकीर सा हवा में घुल जाता।

धुआँ ? हाँ धुआँ ही से तो रूचि को सदा अरुचि रही भले वह चिमनी का नहीं सिगरेट का रहा। प्याला खाली हो चुका था। उसे कुर्सी के नीचे सरका कर विजय ख्यालों में खो गया। कभी सिगरेट के कश ले ले कर धुंए के छल्ले उड़ाते रहना उनकी आदत थी। कमरे में इस धुंए से रूचि का दम घुटता कहती बाहर जाओ या बालकनी में जा कर पिओ। अतः बालकनी उसकी पनाहगाह बन चुकी थी। विजय को याद आये कालेज के वे दिन जब दोस्तों की सोहबत में उसने सिगरेट पीना सीखा। पहले बाहर छुप छुप कर और मा बाप की छाया से दूर होते ही चेंन-स्मोकर बन गया।

उस होली के त्यौहार को लम्बा अरसा गुज़र गया। पकवान बनाने के तैयारियां हो रही थीं। सहसा रूचि ने कहा इस बार तो गुजियाँ डालडा में ही बनानी पड़ेंगी, घी के लिये बजट नहीं बचा। विजय विस्मित हुआ बोला हमेशा घी में बनती रहीं तो इस बार क्यों दुबली हुई जा रही हो। रूचि बोली कि दुबली मैं नहीं बटुआ दुबला हो चुका है। तुम्हारी सिगरेट के खर्चों ने यह स्थिति पैदा की है कि त्यौहार पर भी मन मारने को विवश हैं। विजय को बात तीर सी लगी। मोटा मोटा हिसाब लगाने बैठा तो पाया कि सिगरेट पैकेट खरीदनें में इस माह जितना खर्च किया उससे यह नौबत तो आनी ही थी। वास्तविकता दिल में चुभ गई और उसने सिगरेट छोड़ देने का संकल्प कर लिया। आरंभिक हुड़क के बाद धीरे धीरे उसने आदत पर काबू पा लिया।

दिन मजे से गुजर रहे थे। दो बच्चों में बड़ी लडकी छठे दर्जे में और छोटा टिंकू प्री-प्राईमरी में पास के ही पब्लिक स्कूलों में पढ़ रहे थे। पिछला साल बीतते बीतते उसकी पदोन्नति भी हो गई थी और अब वह कंपनी का उप-प्रबंधक बन चुका था। साथियों सहयोगिओं का पार्टी के लिये दबाव बढ़ रहा था और नये साल का खुमार भी।

पिछले रविवार को उसने सभी मित्रो व सहयोगिओं को घर पर लंच के लिये बुला लिया। रूचि ने हर्ष और लगन के साथ जुट कर स्वदिष्ट भोजन पकाया कुछ आइटम बाहर से भी मंगाए। मेहमानों ने छक कर खाया और तारीफ की। भोजन के बाद सभी ड्राइंग रूम में चले गये। एक दो साथी वहाँ सिगरेट निकाल कर पीने लगे। किसी ने धुएं के छल्ले भी बनने की कोशिश की पर न बने तो एक दो दूसरे साथिओं ने भी कश मारे पर छल्ले बनाने में विफल रहे। विजय ने देखा तो बोला ऐसे नहीं मुँह और जीभ को ख़ास कोण देना होता है। साथी बोले बना कर दिखाइये तो जानें। विजय को ताव आ गया और वहीं सोफे के सामने की मेज़ से डिब्बी उठाई, एक सिगरेट सुलगाई और छल्ले उड़ाने लगा। उसी समय अचानक रूचि सबके लिये काफी ले कर अन्दर आई तो यह नज़ारा देख सन्न रह गई। नजर पड़ी तो देखा कि पतिदेव भी उंगली में जली सिगरेट दबाए बैठे हैं। रूचि आपा खो बैठी और तमक कर बोली आप सब इसी समय बाहर हो जाइए। इस घर में सिगरेट नहीं चलेगी। उसका गुस्से से तमतमाया चेहरा देख कर सभी सकते में आ गये और एक एक कर खिसक लिये। हतबुद्धि सा विजय थोड़ी देर बैठा रहा। होश लौटा तो रूचि से उलझ गया, बोला - तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरे ही घर में मेरे दोस्तों को इस कदर अपमानित किया ! रूचि रोष में भरी खडी थी कहाँ चुपने वाली थी, बोली - घर तुम्हारा ही नहीं मेरा भी है और इसके अन्दर फिर सिगरेट की छाया मैं नहीं देख सकती। विजय काबू से बाहर हो रहा था " घर क्या तेरे बाप का है कहते हुए उसने रूचि पर हाथ उठा दिया। रूचि ने हवा में ही उसकी कलाई पकड़ ली और बोली - खबरदार हाथ मत उठाना ! और चीखो नहीं ,यह घर अगर मेरा नहीं तो मैं यहाँ रहूँगी ही नहीं " कहते हुए विजय की कलाई झटक अपने कमरे में चली गई। कैरी बैग में जरूरत भर सामान भरा और निकल कर बोली - परीक्षाएं चल रही हैं ,बच्चों को बाद में ले जाऊंगी। सम्हालो तुम मैं जा रही हूँ। विजय अवाक मूक-दर्शक बना खड़ा रह गया और रूचि चली गयी।

बालकोनी से शाम का उजाला सरक चुका था। वैसे भी गगन-चुम्बी अपार्टमेन्ट वाले शहरों में शाम होते ही ऊंची इमारतें सूरज निगल जाती हैं। विजय की तन्द्रा टूटी जब छोटे टिंकू ने उसका हाथ हिलाते हुए पूछा - पापा इसे कैसे जलाते हैं ? विजय ने देखा तो उसके हाथ में गोल्ड-फ्लेक सिगरेट की अधभरी डिब्बी और माचिस थी। विजय का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और उसने बच्चे के गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया, बोला कि यह ले, ऐसे जलाई जाती है ! बच्चा चीखता चिल्लाता भागा और दीदी के कमरे में जा कर उससे लिपट जोर जोर रोने लगा। दीदी पढ़ रही थी, देखा तो चिपटा कर खुद भी रोने लगी। रोने की आवाज सुन विजय की ममता जागी। कमरे में गया तो सिसकते हुए बेटी बोली - पापा आपने ऐसा मारा कि उसके गाल पर आपकी उँगलियाँ तक उभर आईं मम्मी होती तो क्या भाई ऐसा पिटता ? मन आत्मग्लानि से कराह उठा और विजय दोनों को छाती से चिपटा कर देर तक रोया। बच्चा चुप कराते बोला रोइए नहीं पापा मैं तो ड्राइंग रूम में खेल रहा था। वहाँ टेबल पर ये दोनों चीज़ पड़ी थी , मैंने सोचा धूपबत्ती या कैडिल है सो आप के पास उठा लाया कि कैसे जलाते हैं ! विजय को याद आया कि रूचि के जाने के बाद से तो वह ड्राइंग रूम में गया ही नहीं और दोस्तों की छोडी डिब्बी ने आज मेरे बच्चों पर भी कहर ढाया। आंसू थमे तो बोला कि अब नहीं सहा जाता , चलो बच्चो अभी। तुम्हारी मम्मी को लेने चलते हैं। टिंकू को गोदी में उठाया कार की चाबी खूंटी से उतारी और बेटी को आगे कर नीचे पोर्टिको में खड़ी कार में सब समा गये। पलक झपकते उसकी मारुती की हेड लाइटें स्याह सड़क पर पत्नी के मायके की ओर कुलांचें मारने लगी।

अगले दिन रविवार की सुबह गुलाबी धूप का स्वागत करते बालकोनी में बच्चों के साथ बैठे विजय दम्पति चाय की चुस्कियों के साथ आपस में बातें कर रहे थे। सिगरेट के छल्लों का खौफ पछुआ हवा दूर कहीं बहुत दूर उड़ा ले गई थी। (अरे आप कहाँ खो गये हैं ?)