सिटीजन केन से सिटीजन एक्स तक / जयप्रकाश चौकसे

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सिटीजन केन से सिटीजन एक्स तक
प्रकाशन तिथि : 13 मार्च 2021


दक्षिण भारत के एक शहर के नागरिकों ने चुनाव प्रचार की सीमा तय की है। उनके शहर की दीवारों पर पोस्टर नहीं लगाए जा सकते। ध्वनि प्रदूषण रोकने के लिए लाउडस्पीकर की भी सीमा तय की है। भाषण में अपशब्द नहीं बोले जाएंगे। परनिंदा की मुनादी है। केवल अपने वादे और भविष्य में सुधार की रूपरेखा और उसके क्रियान्वयन पर ही बात की जा सकती है। मास्क नहीं पहनने वाले कार्यकर्ताओं और नेता का सामूहिक बहिष्कार किया जाएगा। यह नए किस्म का नागरिक अभियान है। प्रचार में धर्म-निरपेक्षता के आदर्श का पालन किया जाएगा। नेता अपने पहनावे के प्रयोग द्वारा अपनी पहचान का प्रचार नहीं कर पाएंगे। नेता और नागरिक को सामान्य वस्त्र ही धारण करना चाहिए। अब देखना यह है कि इस नागरिक आचार संहिता का पालन या उल्लंघन किस तरह से किया जाएगा। यह नागरिक का दायित्व है कि गणतंत्र व्यवस्था सुचारू रूप से संचालित की जाए।

1941 में ‘सिटीजन केन’ का प्रदर्शन हुआ था। यह फिल्म पूंजीवादी मीडिया मालिक विलियम रैंडोल्फ हर्स्ट के जीवन से प्रेरित अघोषित बायोपिक थी, जिसे अदालत द्वारा रोकने का प्रयास हर्स्ट ने किया था। अदालत ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत इस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। फिल्म आस्वाद और समालोचना के क्षेत्र में सबसे अधिक इस फिल्म पर लिखा गया है। हर दर्शक का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता है। दरअसल दर्शक और पाठक की प्रतिक्रिया को हाशिए में नहीं फेंका जा सकता। बहरहाल, मध्यम आय वर्ग के लोग जीवन की आपाधापी में इतने व्यस्त होते हैं कि बच्चे अनदेखे रह जाते हैं।

मात्र भोजन, कपड़े और शिक्षा पर खर्च करते हुए, माता-पिता अपने दायित्व का संपूर्ण निर्वाह समझ लेते हैं। मनोविकास पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। उम्र के हर पड़ाव पर सामान्य नागरिक को मनोचिकित्सक से परामर्श करना चाहिए परंतु भारत में बमुश्किल 5 हजार मनोचिकित्सक हैं। दरअसल इस लोकप्रिय मिथ्या धारणा ने बहुत नुकसान किया है कि पागलपन के इलाज के लिए मनोचिकित्सक से परामर्श लिया जाता है। प्रवीण मनोचिकित्सक व्यक्ति को स्वयं को समझने में सहायता करता है। मनोचिकित्सक से संबंधित एक किताब खाकसार को भेंट में दी गई थी, ‘द मैन हू मिस्टुक हिज वाइफ फॉर ए हैट’। कितने ही अजनबी, लंबे समय तक एक-दूसरे के साथ रहते हैं परंतु उनके बीच अपरिचय का विंध्याचल हमेशा बना रहता है। अपने-अपने अजनबियों की यह अजीब दास्तां कहां शुरू कहां खतम, ये मंजिलें हैं कौन सी, क्या तलाश रहे हैं हम’। दरअसल चुनाव प्रचार और चुनाव प्रक्रिया के दोष हटाना नागरिक का कर्तव्य है। हमें अपना घरबार ही नहीं, विचार प्रक्रिया और आचरण को भी साफ-सुथरा रखना है। फिल्मों में बचपन के दृश्यों द्वारा पात्र की प्रवृत्तियों का संकेत प्रस्तुत किया जाता रहा है। एक गीत का उपयोग भी किया जाता रहा है। एक बच्चा नदी के किनारे रेत से घरौंदे बनाता है, दूसरा घरौंदा तोड़ देता है। जवान होने पर भी वे यही करते हैं।

इसके साथ यह भी सच है कि जीवन की यात्रा में कई घटनाएं और मुलाकातें भी विचार प्रक्रिया बदलने में महत्वपूर्ण सिद्ध होती हैं। परिवर्तन और परिमार्जन प्रक्रिया साथ चलती हैं। कोई बच्चा हत्या करना नहीं सीखता। संकीर्ण विचारधारा मनुष्य को शस्त्र के रूप में ढालती है। जब आकाश में घटाएं घिर आती हैं, तब बचपन या यौवन में टूटकर जुड़ी हड्‌डी में दर्द सा होता है। जुड़ी हुई हड्‌डी का आकाश में छाए बादल से क्या रिश्ता है? कुछ हडि्डयां वयस्क होते समय ही जुड़ती हैं। अत: ऑक्सीफिकेशन द्वारा भी वयस्क होने का प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाता है। जन्म प्रमाण-पत्र उपलब्ध नहीं होने पर इस प्रक्रिया पर न्यायालय की वैधता मिली हुई है। नागरिक की कौन सी हड्‌डी कब कैसे टूटी और जुड़ी निर्णायक सिद्ध हो जाती है। मानव शरीर अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है, जिस पर बंदिश लगाई नहीं जा सकती। नागरिक को अदृश्य बनाने की चेष्टा की जा रही है।