सितंबर में आप याद आते हैं /कौशलेन्द्र प्रपन्न

Gadya Kosh से
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सितंबर आते ही हम में से एक-एक कर शिक्षक फिर हिन्दी को याद करेंगे। मास्टर जी मांफ कीजिए आप तो पूरे साल याद आते हैं लेकिन कुछ और कारणों से। कहीं आप कक्षा में सोते हुए पाए जाते हैं तब याद आते हैं। तब भी याद आते हैं जब कक्षा में बैठे-बैठे ब्ल्यू फिल्में वाली विडियो अपने स्मॉर्ट में देखते पाए जाते हैं। और तो और जब आपकी छवि नकारा साबित करती रिपोर्ट आती है तब आप याद आते हैं। सबसे ज़्यादा आपकी याद आती है 5 सितंबर को। क्योंकि इस दिन समाज को बड़ी ही श्रद्धा से आपको याद करता है। बच्चे आपको पावं छू कर आशीश लेते हैं। आपका स्नेह तब ज़्यादा याद आता है जब कोई किसी चीज को प्यार से बिना झुझलाए दो तीन बार समझाने की बजाए गो टू हेल कह देता है। जब कभी कहीं किसी शब्द, वाक्यों के मायने में उलझ जाता हूँ तब भी आपकी बहुत याद आती है। आपका चेहरा याद आता है आप किस तरह धैर्य से बातें सुनते और फिर विस्तार से समझाया करते थे। लेकिन समय के साथ आप भी तो बदल गए. बदलते क्यों न आप भी तो इसी समाज में रहते हैं। इन्हीं लोगों से आपका वास्ता जो पड़ता है। मेरे पापा बता रहे थे एक मास्टर जी आए थे कह रहे थे तुम्हें उन्होंने पढ़ाया है। उनकी पेंशन रूकी हुई थी। क्योंकि कुछ लेने देने के खिलाफ थे। मगर टूट गए. मुझे मालूम है आप टूटने वालों मंे से नहीं थे। लेकिन आपको भी इसी समाज में रहना है तो इसकी रवायतों को न चाहते हुए भी कई बार कबूलना पड़ता है। आप जहां भी स्वस्थ रहें। आपकी बहुत याद आती है। आज भी नए नए शिक्षकों / शिक्षिकओं में आपको देखता हूँ।

समाज के समुचित विकास और संवर्द्धन में शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य आदि को शामिल किया जाता है। इनमें से कोई भी कड़ी यदि कमजोर पड़ती है तो यह समझना चाहिए कि समाज व देश का विकास सही और समुचित दिशा में नहीं हो रहा है। यदि उपर्युक्त किसी भी एक के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है तो इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि उस समाज का सर्वांगीण विकास नहीं हो रहा है। सरकारें आती जाती हैं लेकिन प्रतिबद्धताएं, समस्याएं, चिंताएं यथावत् समाधान के इंतज़ार में अपनी जगह बरकरार रहती हैं। हमने आजादी के बाद भी यह दुहराना नहीं भूले कि समाज का विकास करना है तो शिक्षा को दुरुस्त करना होगा। वह 1952 की समिति हो, 1964-66 की कोठारी आयोग की संस्तुतियां हों, 1968 की राश्टीय शिक्षा नीति हो, 1986 की राश्टीय शिक्षा नीति हो, 1990-92 की आचार्य राममूर्ति पुनरीक्षा समिति हो, 2002 की संविधान के 86 वें संशोधन के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकारों में 21 ए को शामिल करना हो आदि। इन उपर्युक्त समितियों, आयोगों और घोशणाओं की रोशनी में हमें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या हमने इन संस्तुतियों को प्राथमिक शिक्षा को बेहतर करने क लिए किस प्रतिबद्धता के साथ काम किया। सरकारें आती और जाती रहीं। हर सरकार ने घोशणाएं खूब कीं किन्तु प्राथमिक शिक्षा की दशा दिशा अभी भी हमारे तय लक्ष्य से दूर है। यहाँ यह भी बताते चलें कि 1968 में यह बात कही और स्वीकारी गई थी कि 1986 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। समय और लक्ष्य को बढ़ाया ही गया यह शिक्षा के विकास क्रम पर नजर डालें तो साफतौर पर दिखाई देता है। सन् 1986 भी हमारे हाथ से निकल गया। सन् 1990 में सेनेगल में संपन्न अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में विश्व के तमाम देशों से स्वीकारा और हस्ताक्षर कर कबूल किया कि 2000 तक हम देश के सभी बच्चों को; 6 से 14 आयुवर्ग केद्ध बुनियादी शिक्षा प्रदान कर देंगे। इस दस्तावेज पर भारत ने भी दस्तख़त किए थे। भारत में इस घोशणा को लागू करने में दो वर्श का अतिरिक्त समय लगा यानी 1992 में भारत इस दस्तावेज को अमलीजामा पहनाता है। यहाँ दिखाई देती है कि हमारे राजनीतिक धड़ों को शिक्षा की चिंता कितनी थी। हमें राजनीतिक इच्छा शक्ति का भी परिचय मिलता है कि हमने अब तक शिक्षा का मौलिक अधिकार तक नहीं माना था। हालांकि प्रो। कृश्ण कुमार अपनी किताब गुलामी की शिक्षा और राश्टवाद में इस मसले को उठाते हैं और कहते हैं कि 'शिक्षा का अधिकार कानून को बनने मंे सौ वर्श का समय लगा।

गौरतलब है कि 2002 में संविधान में 86 वां संशोधन के बाद मौलिक अधिकारों में धारा 21 में ए जोड़ा गया और कहा गया 'निःशुल्क एवं अनिवार्य बुनियादी शिक्षा का अधिकार' सभी बच्चों; 6 से 14 आयुवर्ग केद्ध को प्रदान किया जाएगा। जैसा की सभी को मालूम है कि यह संशोधन कानून 2009 में बना। यानी भारत के तमाम बच्चों को मौलिक शिक्षा का अधिकार 2009 में मिला। इसी तारीख को तय किया गया कि सभी राज्यों में यह 31 मार्च 2013 तक लागू हो जाएगा। यह तय समय सीमा गुजरे भी आज लगभग तीस वर्श हो चुके हैं। हकीकत यह है कि हमारे देश के लगभग जैसा कि भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि आज भी अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। दूसरे शब्दों मंे कहें तो भारत के कुल बच्चों की जनसंख्या में से अस्सी लाख बच्चों प्राथमिक शिक्षा हासिल करने से महरूम हैं। जब इस आंकड़े को गैर सरकारी संस्थानों, प्रथम, आरटीई फोरम, ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट आदि ने जांचा तो पाया गया कि यह संख्या 5 करोड़ के आस पास बैठती है। आंकड़ों में बात करने वाली सरकार यह तो ज़रूर पेश करती है कि आरटीई के लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन दर में खासा उछाल आया है। लेकिन बीच में स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ी है। आरटीई फोरम की वार्शिक सम्मेलन में जारी रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाकों की बच्चियों में स्कूल बीच में छोड़ने की संख्या बढ़ी है। इसके पीछे वजह स्वच्छ और शौचालय का न होना प्रमुख है।; 27, 28 मार्च 2015, राश्टीय शिक्षा अधिकार सम्मेलन, रिपोर्ट द्ध वहीं सरकारी शैक्षिक संस्था नीपा की ओर जारी डाइस की रिपोर्ट कभी इस ओर हमारा ध्यान खीचती है कि गांवों और शहरों में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या अधिक है। वजह स्कूल का गांव से दूर होना, स्कूल में पीने का पानी और शौचालय का न होना, टीचर की कमी है।; 2013-14, 2014-15 की डाइस की रिपोर्ट गौरतलब है कि यह रिपोर्ट स्कूली शिक्षकों द्वारा ही भरवाई जाती हैं। देश भर में सरकारी स्कूलों में यह कवायद हर साल होती है और यह दस्तावेज किसी की नजर में नहीं चढ़ती। न ही इसपर कोई ख़ास गंभीर कदम ही उठाए जाते हैं। डाइस की रिपोर्ट सरकारी स्कूलों के शिक्षक और प्रधानाचार्य के द्वारा ही तैयार की जाती है इसलिए इस दस्तावेज को खास तवज्जो दी जानी चाहिए.

शिक्षा को सुचारूरूप से चलाने के लिए आर्थिक मदद की ज़रूरत पड़ती है। गौरतलब है कि 1964-66 में कोठारी आयोग ने तब सकल घरेलू उत्पाद के 6 फीसदी दिए जाने की सिफारिश की गई थी। यदि आज भी 2012-13, 213-14 और 2015-16 के बजट को देखें तो हम बामुश्किलन 3 फीसदी ही शिक्षा की बेहतरी के लिए खर्च कर रहे हैं। वर्तमान सरकार ने शिक्षा के मद में दी जाने वाली आर्थिक सहायता राशि मंे ऐतिहासिक कटौती की गई. इसमें सर्व शिक्षा अभियान, राश्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन आदि में भारी कटौती की गई. इस पहल की आलोचना शैक्षिक क्षेत्र की हुई. तमाम शिक्षाविदों, अर्थशास्त्र के जानकार मानते हैं कि शिक्षा में गुणवता और बच्चों की भविश्य को बेहतर बनाना है तो सरकार को शिक्षा के मद में कैंची नहीं चलानी चाहिए थी। यहाँ याद दिला दें तो 2000 में जब डकार में सम्मेलन हुआ जहां 1990 में घोषित सभी के लिए शिक्षा की पुनरीक्षा हो रही थी तब भारत सरकार ने कहा था कि हमें आर्थिक मदद चाहिए ताकि हम तय समय सीमा के भीतर शिक्षा के आधिकार को पूरा कर पाएं। यही वह वर्श है जब वैश्विक स्तर पर भारत को तमाम स्रोतों से आर्थिक मदद मिलने शुरू हो गए. सर्व शिक्षा अभियान के तकत करोड़ों रुपए सरकार को हर वर्श मिले। यदि इस लिहाज से देखें तो शिक्षा को उस अनुपात में सुधार नहीं हुए। आर्थिक मार झेल रही प्राथमिक शिक्षा को कैसे बेहतर बनाया जाए इसके लिए कई स्तरों पर योजनाएं बनाई गईं। कोठारी आयोग ने कहा था कि यदि प्राथमिक शिक्षा में गुणवता सुनिश्चित करना है तो कक्षा में 25 / 1 यानी बच्चे और शिक्षक के अनुपात होने चाहिए। लेकिन यह अनुपात सरकारी स्कूलों में अभी भी दूर की कौड़ी है। इसके पीछे के कारणों को सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों इस रूप में पहचान की कि हमारे स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। शिक्षकों कमी कमी को पूरा करने का एक वैकल्पिक रास्ता यह 1990 के आस पास यह निकाला गया कि हम कम प्रशिक्षित पैरा टीचर, शिक्षा मित्र, अनुबंधित शिक्षकों से कक्षा में शिक्षण का काम लेंगे। यह एक ऐतिहासिक कदम था। प्राथमिक कक्षाओं मंे शिक्षा मित्रो के हवाले शिक्षा को छोड़ दिया गया। प्रो अनिल सद्गोपाल की नजर में यह उदारीकरण और प्राथमिक शिक्षा में विश्व बैंक का प्रवेश काल था। प्रो सदगोपाल आगे कहते हैं कि यह एक सरकारी तंत्र को भारत की हाथों से झीन का बाज़ार को सौंपने से कम नहीं था। हमने अपनी शैक्षिक नीति और दिशा तय करने के लिए विश्व बैंकों को आमंत्रित किया। आज भी प्राथमिक स्कूलों में देश भर में लाखों पद खाली हैं जिन पर शिक्षा मित्र और अनुबंधित शिक्षक खट रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा में इस तदर्थवादी पहल ने प्राथमिक शिक्षा की गुणवता को खासा प्रभावित किया। शिक्षाविद् प्रेमपाल शर्मा शिक्षा-कुशिक्षा किताब में लिखते हैं कि आज प्राथमिक शिक्षा में सबसे भयावह स्थिति और बोझ समझ का तो है ही साथ ही भाषा के तौर पर अंग्रेजी की ज़्यादा है। हमारे अधिकांश बच्चे अंग्रेजी के डर में जीवन जीते हैं। प्रेमपाल शर्मा इस किताब में चर्चा करते हैं कि आज प्राथमिक शिक्षा यदि किसी बड़े संक्रमण काल से गुजर नहीं है तो वह भाषाई विस्थापन है। भाषाई समझ और विषयी शिक्षण में शिक्षक की अपनी तालीम काफ़ी मायने रखता है। क्योंकि जिस तरह आज हमारे शिक्षक प्रशिक्षण पा रहे हैं वे खुद शंका के घेरे में हैं।

प्राथमिक शिक्षा में गुणवता के सवाल को अपने समय के प्रसिद्ध हस्ताक्षरों ने दर्ज किया है। प्रो कृश्ण कुमार ने विभिन्न पत्रों में इस मसले को उठाया है। प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों की प्रशिक्षणीय कौशलों और पाठ्यक्रमों पर भी विमर्श करते हैं। अपनी किताब स्कूली हिन्दी में चर्चा करते हैं कि शिक्षकों की हैसियत और सामाजिक पहचान भी प्रकारांतर से उसके व्यवसाय को प्रभावित करता है। वहीं शिक्षा के नए क्षितिज किताब में रमेश दवे लिखते हैं कि प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकों की कमी का असर कहीं न कहीं गुणवता पर दिखा जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि शिक्षकों को मिलने वाली पूर्व सेवाकालीन प्रशिक्षण उस स्तर के नहीं हैं जिसकी अपेक्षा शिक्षा शास्त्र में की जाती है। जब प्राथमिक शिक्षा में गुणवता की बात होती है कि तब सबसे पहले हमारा हाथ शिक्षक की गर्दन की ओर जाता है। अंधेर नगरी चौपट राजा से बिंब उधार ले कर कहूँ तो क्योंकि शिक्षक की गर्दन कमजोर होती है। क्यूँकि यह गर्दन सरलता से पकड़ी जा सकती है। यही वजह है कि शिक्षा में जो भी गिरावट बताई जा रही है उसका जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही है। जबकि इस गिरावट में शिक्षक एक मोहरे के तौर पर इस्तमाल होता है। यदि हमारी योजना, पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और रणनीतियों में शिक्षक की कोई अहम भूमिका नहीं होती तो वह कैसे अपनी हैसियत और हस्तक्षेप को सुनिश्चित कर सकता है। प्रो कृश्ण कुमार गुलामी की शिक्षा और राष्ट्रवाद में विमर्श करते हैं कि शिक्षक शिक्षा विभाग में सबसे छोटी इकाई होता है जिसकी कोई नहीं सुनता। वह सिर्फ अपनी कक्षा में निर्माता और सर्वेसर्वा होता है। लेकिन समाज में उसकी हैसियत कमतर ही आंकी जाती है।

शिक्षक की गुणवता और कौशल काफी हद तक कक्षायी शिक्षण को प्रभावित करता है। यदि हम इस दृश्टि से देखें तो प्रो कृष्ण कुमार ने अपनी किताब 'गुलामी शिक्षा और राष्ट्रवाद' में चर्चा करते हैं कि जिन कारकों ने शिक्षकों को एक कमज़ोर पेशागत पहचान और हैसियत बख्शी है, उनमें एक पाठ्यचर्या के मामले में उसका कोई हाथ न होना भी था। औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा लाए गए नौकरशाही में यह बात निहित थी कि पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों से संबंधित सारे फैसले वरिष्ठ प्रशासकों द्वारा ही लिया जाता था। पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में शिक्षक की भूमिका पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षकीय भूमिका न के बराबर है। कहने को हर दस्तावेज यह तो दावा करता है कि शिक्षकों से राय ली गई. लेकिन सूक्ष्मता से देखें तो पाएंगे कि वह नक्कारखाने में तूती की तरह होती है। शिक्षक की आवाज शैक्षिक विमर्शों में नजरअंदाज ही किया गया है। वरना शिक्षकीय समूह से उठने वाली शिकायतों पर ध्यान दिया जाता।