सितारे, भाषा और भाषा की बाजार नीति / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 मई 2014
सायरा बानू ने दिलीप कुमार के मित्रों से सामग्री एकत्रित की और उनके अपने वैवाहिक जीवन के अनुभवों के आधार पर दिलीप कुमार पर एक किताब एक अनुभवी पत्रकार से लिखवाई है जिसे जून में बाजार में एक धमाकेदार सितारा सज्जित समारोह में जारी किया जाएगा। पढ़कर ही ज्ञात होगा कि इसे किस सीमा तक महान दिलीप कुमार की जीवनी माना जाए और ऐसे भी स्वयं किसी व्यक्ति की लिखी जीवनी भी कोई प्रामाणिक दस्तावेज नहीं होता। इस तरह की अधिकांश किताबों को गल्प मानकर पढऩे का आनंद है। कुछ जीवनियां अपवाद हैं जैसे महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा भी तटस्थता से लिखी गई है तथा यह संभव है कि उनके काव्य पर समय की धूल जम जाए परंतु उनका गद्य लंबे समय तक रहेगा क्योंकि वह साहस से लिखा गया है।
विगत कुछ वर्षों से दिलीप कुमार की याद आती-जाती रहती है और वे संपूर्ण विस्मृति के निकट जा रहे हैं। यह सचमुच दु:खद बात है कि कुछ वर्षों पूर्व जब पूरी स्मृति कायम थी तब उन्होंने आत्मकथा नहीं लिखी। एक विरल पुस्तक से हम वंचित रह गए। कुछ दिनों पूर्व ही प्रेम चोपड़ा के जीवन पर उनसे सुनकर उनकी पुत्री ने किताब जारी की है जो अत्यंत पठनीय है। उसमें एक जगह प्रेम चोपड़ा ने लिखा कि दिलीप अपनी रिहर्सल तीन भाषाओं में करते थे। पहली रिहर्सल वे उस पंजाबी भाषा में करते थे जो उनके जन्म स्थान पेशावर में आम लोग बोलते थे। इसमें उर्दू, पश्तो और पंजाबी का मिश्रण होता था। दूसरी रिहर्सल वे अंग्रेजी भाषा में तथा तीसरी उस हिंदुस्तानी जबान में जिसमें फिल्में बनती है और यह तीसरा प्रयास ही फिल्माया जाता था। दिलीप कुमार का विचार था कि मातृभाषा में ही संवेदना की सच्ची अभिव्यक्ति होती है। अंग्रेजी भाषा में रिहर्सल संभवत: वह विदेशी अभिनेता पॉल मुनि और मार्लन ब्रेन्डो के कारण करते थे जो उनके आदर्श थे। संभवत: दिलीप अपने मन के आइने में देखते हो कि पॉल मुनि और मार्लन ब्रेन्डो के मानदंड पर वे कहां ठहरते हैं।
सलीम साहब ने पॉल मुनि की आत्मकथा पढ़ी है। उन्होंने बताया कि पॉल मुनि के पिता अपने नाट्य दल के साथ कस्बों में नाटक प्रस्तुत करते थे और उनका नन्हा पुत्र हमेशा साथ में रहता था। एक कस्बे में शो के कुछ मिनिट पूर्व एक वृद्धा का पात्र अभिनीत करने वाला कलाकार बीमार पड़ा और प्रस्तुति निरस्त करने पर विचार हो रहा था कि दस वर्षीय पॉल मुनि उस पात्र की पोशाक और विग पहन कर आया और गुजारिश की कि शो किया जाए। उस रात पॉल मुनि के विलक्षण अभिनय से दर्शक अभिभूत हो गए। पिता को भी गर्व हुआ। कोई आधी रात को पिता जागे तो उन्होंने देखा कि दस वर्ष का पॉल मुनि उसी भूमिका की रिहर्सल कर रहा है और पूछने पर उसने बताया कि आज की प्रस्तुति में कसर रह गई और वह त्रुटियों को दूर करने का प्रयास कर रहा है। बाद में पॉल मुनि अपने जीवन काल में ही किवदंती की तरह स्थापित हुए। दिलीप कुमार इस स्कूल से आए थे।
आज इतना समर्पण किसी कलाकार में नहीं है क्योंकि आज उनके जीवन का हर क्षण बाजार में बहुत महंगे में बिकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज कोई कलाकार अपनी मातृभाषा ही ठीक से नहीं जानता। आज ही विज्ञापन फिल्म देखकर आनंद हुआ कि एक उम्रदराज व्यक्ति अपने कम्म्पाउंड में 'ए' अंग्रेजी शब्द के परचम को उतारकर 'अ' का झंडा फहरा रहा है। यह यथार्थ से कोसों दूर है। आज से दो दशक पूर्व जो विदेशी संस्था भारत में अंग्रेजी के प्रचार पर खूब खर्च करती थी, उसने तय किया कि इससे कम पैसों में विज्ञापन के माध्यम से भारतीय जीवन शैली में पाश्चात्य तौर-तरीके स्थापित कर दो तो अंग्रेजी स्वयं ही जम जाएगी। दरअसल भाषाओं की लोकप्रियता का आधार उनकी नौकरी दिलाने की क्षमता पर निर्भर करती है। टेक्नोलॉजी की सारी किताबें भी अंग्रेजी भाषा में हैं, अत: हम अंग्रेजीदां युवा की आलोचना किस आधार पर करें। हिंदी के पक्षधरों ने ही कभी अपनी भाषा को समृद्ध करने का प्रयास नहीं किया। ब्राह्मणों ने संस्कृत को देव भाषा कहकर आम आदमी को उसे सीखने से वंचित किया और संसार की श्रेष्ठ भाषा का लगभग लोप हो गया। हिंदी के विशेषज्ञों ने भी हिंदी को आवाम से अलग करने का प्रयास किया और श्रेष्ठि वर्ग ने मौका देखकर अपनी अंग्रेजी को जीवन में शिखर स्थान दिलाया। कुछ विदेशी ताकतों ने व्यापार की सुविधा के लिए भारत में अध्यक्षनुमा गणतंत्र का सपना देखा और उसका एक संस्करण हाल ही में प्रस्तुत किया।