सितारे का मेहनताना और फिल्मकार की प्रतिभा / जयप्रकाश चौकसे

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सितारे का मेहनताना और फिल्मकार की प्रतिभा
प्रकाशन तिथि :27 मई 2015


ताजा खबर यह है कि दीपिका पादुकोण और कंगना राणावत ने अपना मेहनताना बढ़ाने का निश्चय किया है, क्योंकि उनकी ताजा फिल्में बहुत सफल रहीं हैं। 'पीकू' और 'तनु' सौ करोड़ पार कर रही हैं। सुखद आश्चर्य यह है कि 'तनु' को विदेश क्षेत्र में भारी सफलता मिली है। पहले तीन दिन की विदेश क्षेत्र की आय सत्रह करोड़ है और घरेलू आय मिलाकर मात्र तीन दिन में 57 करोड़ की आय हो चुकी है। ये आंकड़े किसी बड़े सितारे की 120 करोड़ में बनी फिल्म से बहुत अधिक मायने रखते हैं। 'तनु' मात्र तीस करोड़ में बनी है। पीकू की सफलता में दीपिका को अमिताभ बच्चन व इरफान का साथ था परंतु 'तनु' तो अकेले ही सफल है यद्यपि आर. माधवन ने भी अच्छा काम काम किया है। दरअसल 'पीकू' और 'तनु' दोनों की सफलता का सबसे अधिक श्रेय इन फिल्मों के निर्देशक और लेखक को जाता है। इन फिल्मों की सफलता पुन: फिल्म के आधार स्तंभ अर्थात फिल्मकार के महत्व को रेखांकित करती है। सुपर सितारों की फिल्म में डायरेक्टर बौंना हो जाता है, उससे अधिक तो एक्शन मास्टर को श्रेय मिलता है और इन फिल्मों की पैकेजिंग और मार्केटिंग भी श्रेय की हकदार है। वे लोग एक ब्रैंड को बेच रहे हैं।

भारतीय सिनेमा के स्वर्ण काल में फिल्मकार ही सबसे महत्वपूर्ण होता था परंतु विगत पंद्रह वर्षों में सितारा उस जहाज का मालिक बन बैठा है, जिसका कप्तान निर्देशक हुआ करता था। भारतीय सिनेमा से सेन्स व सेन्सिबिलिटी का अपहरण इस तरह हुआ है। आज किसी भी फिल्म कॉर्पोरेट के दफ्तर में लेखक पहुंच पाता है तो उससे कहा जाता है कि वह अपनी कहानी सितारे को सुनाए और उसकी रजामंदी का खत ले आए तो वे पैसा लगा देंगे।

'तनु' और 'पीकू' को हिंदुस्तानी फिल्म शैली में रचा गया है और मार्टिन स्कोरसिस तथा टोरिन्टिनो की गोद में बैठने को बेकरार भारतीय फिल्मकारों को इससे सबक लेना चाहिए। ताजमहल का इतालवी नक्शा शाहजहां को पसंद आया था परन्तु आर्किटेक्ट ईसा आफन्डी की यह बात उन्हें भा गई कि भारत में इमारत भारतीय जमीन के मिज़ाज व उस क्षेत्र के मौसम को देखकर ऐसी बनानी चाहिए कि इमारत जमीन से उगे पौधे की तरह लगे, न कि ऊपर से भोंके गए चाकू की तरह लगे। साढ़े चार सौ साल से देशज विचार पर बना ताजमहल आज भी समय को चुनौती दे रहा है।

सिनेमा शास्त्र के अनुसार बिना कहानी के भी फिल्म रची जा सकती है परंतु भारत कथा कहने व सुनने वालों का अंनत देश है। सुनने वाले हमेशा मुस्तैद होते हैं, सुनाने वाले ही लोप हो जाते हैं। आर्थिक उदारवाद के बाद के भारत में लेखक का महत्व घट गया। सच तो यह है कि सभी क्षेत्रों में भारतीयता का लोप हो रहा है और भारतीयता का तात्पर्य उस संकुचित विचारधारा से नहीं है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ हैं। यहां भारत का तात्पर्य उसके लोप होते उदात्त स्वरूप से हैं। धरती पर उतरते हवाई जहाज की खिड़की से तो इमारतें ऐसी नजर आती हैं, मानो आप मुंबई में नहीं वरन् मैनहटन एअरपोर्ट पर आ पहुंचे हैं। समाज में नित्य उभरते संकेत बहुत भयावह भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं।

भारतीय सिनेमा में राजकुमार हीरानी की सिनेमाई शैली उनकी अपनी खोज नहीं है परंतु उन्होंने उस पुरातन सोद्‌देश्य मनोरंजन को पुन: खोजा है। कुछ समालोचक हीरानी को ऋषिकेश मुखर्जी से जोड़ रहे हैं, क्योंकि वे मुखर्जी के परे जाना ही नहीं चाहते। दरअसल, यह शैली इस विधा के जन्म से ही लोक्रप्रिय रही है। शांताराम, मेहबूब खान, कारदार, केदार शर्मा, राज कपूर, बिमल रॉय, गुरु दत्त सभी ने इसी शैली को विकसित किया है। हिरानी आनंद राय, शुजीत सरकार, तिगमांशु धूलिया, 'बुरे फंसे ओबामा' का निर्देशक व इनके साथी पुरातन परंपरा से प्रेरित होकर अपनी प्रतिभा से ही उस परंपरा को और समृद्ध कर रहे हैं।

कंगना राणावत व दीपिका का मेहनताना बढ़ाने के पीछे भी इन्हीं फिल्मकारों का योगदान है। ये समझदार कलाकार यकीनन फिल्मकार देखकर ही मेहनताना तय करेंगी।