सितारे के जन्मदिन पर तरबूज काटा जाना / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सितारे के जन्मदिन पर तरबूज काटा जाना
प्रकाशन तिथि :03 फरवरी 2016


तेजी से उभरते सितारे सिद्धार्थ मल्होत्रा के िनकट संबंध आलिया भट्‌ट से हैं और विगत माह सिद्धार्थ के जन्मदिन पर आलिया एक बड़ा तरबूज लेकर मेहबूब स्टूडियो पहुंचीं। वहां पूरे विधि विधान से केक के बदले तरबूज काटा गया और सबको बांटा गया। तरबूज की एक फांक को आलिया और सिद्धार्थ ने मिलकर खाया। संभवत: पहली बार किसी सितारे के जन्मदिन पर तरबूज काटा गया। ये नई पीढ़ी के सितारे हमेशा नया कुछ करने के जोश में रहते हैं और यह एक शुभ संकेत है। मध्यम वर्ग के जाने कितने परिवार अपने यहां केक काटते हैं परंतु सितारे समाज में नई परम्पराएं डाल सकते हैं, जिससे मध्यम वर्ग के परिवारों में बचत भी होगी और वे पाश्चात्य तौर-तरीकों के ढकोसलों से बच भी जाएंगे। दरअसल, पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में कोई युद्ध है ही नहीं वरन यह गढ़ा गया है। संस्कृतियां घुलनशील होती हैं और इसकी संक्षिप्त तथा सरल परिभाषा यह है कि यह मनुष्य के भीतर का विकास है और जो भव्य इमारतें गढ़ी जाती हैं वह सभ्यता के तहत आती है, इसीलिए जब खुदाई में कोई पुरानी गढ़ी हुई इमारत मिलती है तो उससे हमें विगत सभ्यता की जानकारी मिलती है और उन ढही हुई इमारतों में कुछ चीजों से उस दौर की जीवनशैली सामने आती हैं तथा कुछ दस्तावेज या पत्थरों पर लिखी जो इबारतें मिलती हैं, उस कालखंड की संस्कृति पर प्रकाश डालती हैं। इस तरह सभ्यता बाहरी वस्तु है और दस्तावेज तथा पत्थर पर खुदी इबारतें भीतरी विकास की प्रतीक बन जाती हैं। अब एक कठिन कल्पना करें कि आज के दौर की दुनिया जलमग्न हो जाती है या भूकंप से नष्ट हो जाती है और यह असंभव नहीं है, क्योंकि विचारहीन सरकारें बांधों की ऊंचाई बढ़ाती जा रही हैं और उनके टूटने पर जलप्लावन संभव है। हम समुद्र तल में टिकी द्वारका की तरह हो जाएंगे और जब कुछ सौ वर्षों बाद हमारे चिह्न मिलेंगे तो भावी पीढ़ी उन भव्य भवनों के अवशेष देखकर कहेगी कि कितनी भव्य सभ्यता थी परंतु किताबों और शिलालेखों के अभाव में वे हमारी सांस्कृतिक विरासत पर दु:खी हो जाएंगे कि कितना शून्य था इस क्षेत्र में। अगर विज्ञापन फिल्में उनके हाथ लग गई तो साबुन के विज्ञापनों के आधार पर वे वर्तमान में गंदगी से भरे भारत को सबसे साफ-सुथरा देश कहेंगे। शायद इतिहास में भी किवदंतियों का प्रवेश उसे भ्रामक बनाता है।

अब साहसी आशुतोष गोवारिकर, ऋतिक रोशन और नई तारिका के साथ एक पीरियड फिल्म बना रहे हैं और विषय ही उन्हें पात्रों को न्यूनतम वस्त्र पहनाने की स्वतंत्रता दिलाता है परंतु उस कालखंड की संस्कृति के विषय में वे क्या कहेंगे? लेखक रांगेय राघव के उपन्यास 'मुरदों का टीला' ऐसी ही पुरातन की खोज पर प्रकाश डालता है। यह आकलन इस तरह भी किया जा सकता है कि नारी और पुरुष के न्यूनतम वस्त्र का अर्थ है कि उस कालखंड में शरीर अत्यंत महत्वपूर्ण था और उसके सौष्ठव को दिखाना या देखने को बुरा नहीं माना जाता था और शरीर ही अगर आत्मा के रहने का ठिकाना है तो उसे साफ-सुथरा रखने और दिखाने में कोई आपत्ति नहीं ली जा सकती। इस अर्थ में शरीर पूजा स्थल की तरह पवित्र हो जाता है और आत्मा का अर्थ मनुष्य की विचार प्रक्रिया है और शरीर विचार प्रक्रिया से प्रभावित होता है। फारसी भाषा में एक शब्द है 'माज़।' इसका अर्थ एक ही वाक्य में संप्रेषित किया जा सकता है कि वह उम्रदराज महिला जो जानलेवा बीमारी से जूझकर पुन: सेहतमंद हुई और अत्यंत सुंदर भी लग रही है। अत: शरीर को क्षुद्र कहना या नगण्य मानना एक किस्म की कूपमंडूकता है, जो हमारे जनमानस में गहरी पैठ गई है। किसी पुरानी सभ्यता के अवशेष में आपको सेंसरशिप का कोई प्रमाण नहीं मिलता। यह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है और गणतांत्रिक मूल्यों के पतन का प्रतीक है। बहरहाल, आलिया भट्‌ट का अपने अंतरंग मित्र के जन्मदिन पर तरबूज काटना सुखद लगा और कभी जलमग्न धरती पर कोई गोताखोर मेहबूब स्टूडियो की उस मेज तक पहुंचे और उसे चाकू और तरबूज के चिह्न मिले तो वह कहेगा कि बड़ा प्रकृति प्रेमी रहा होगा वह देश और उसे ज्ञात भी नहीं होगा कि इस दौर में दर्जनभर विचारकों का कत्ल हुआ है और देश के भीतर सरहदें बन गई हैं।